उपन्यास >> राग दरबारी (सजिल्द) राग दरबारी (सजिल्द)श्रीलाल शुक्ल
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राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है।....
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थाना शिवपालगंज में एक आदमी ने हाथ जोड़कर दारोगाजी से कहा, “आजकल होते-होते कई महीने बीत गए। अब हुजूर हमारा चालान करने में देर न करें।"मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था। दारोगाजी उस पर बैठे भी थे, लेटे भी थे। यह निवेदन सुना तो सिर उठाकर बोले, “चालान भी हो जाएगा। जल्दी क्या है ? कौन-सी आफ़त आ रही है ?"
वह आदमी आरामकुर्सी के पास पड़े हुए एक प्रागैतिहासिक मोड़े पर बैठ गया और कहने लगा, "मेरे लिए तो आफ़त ही है। आप चालान कर दें तो झंझट मिटे।"
दारोगाजी भुनभुनाते हुए किसी को गाली देने लगे। थोड़ी देर में उसका यह मतलब निकला कि काम के मारे नाक में दम है। इतना काम है कि अपराधों की जाँच नहीं हो पाती, मुक़दमों का चालान नहीं हो पाता, अदालतों में गवाही नहीं हो पाती। इतना काम है कि सारा काम ठप्प पड़ा है।
मोढ़ा आरामकुर्सी के पास खिसक आया। उसने कहा, “हुजूर, दुश्मनों ने कहना शुरू कर दिया है कि शिवपालगंज में दिन-दहाड़े जुआ होता है। कप्तान के पास एक गुमनाम शिकायत गई है। वैसे भी, समझौता साल में एक बार चालान करने का है इस साल का चालान होने में देर हो रही है। इसी वक्त हो जाए तो लोगों की शिकायत भी खत्म हो जाएगी।"
आरामकुर्सी ही नहीं, सभी कुछ मध्यकालीन था। तख्त, उसके ऊपर पड़ा हुआ दरी का चीथड़ा, क़लमदान, सूखी हुई स्याही की दबातें, मुड़े हुए कोनोंवाले मटमैले रजिस्टर- सभी कुछ कई शताब्दी पुराने दिख रहे थे।
यहाँ बैठकर अगर कोई चारों ओर निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता, वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है। अभी इस थाने के लिए फाउंटेनपेन नहीं बना था, उस दिशा में कुल इतनी तरक्क़ी हुई थी कि क़लम सरकण्डे का नहीं था। यहाँ के लिए अभी टेलीफ़ोन की ईजाद नहीं हुई थी। हथियारों में कुछ प्राचीन राइफलें थीं जो, लगता था, गदर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी। वैसे, सिपाहियों के साधारण प्रयोग के लिए बाँस की लाठी थी, जिसके बारे में एक कवि ने बताया है कि वह नदी-नाले पार करने में और झपटकर कुत्ते को मारने में उपयोगी साबित होती है। यहाँ के लिए अभी जीप का अस्तित्व नहीं था। उसका काम करने के लिए दो-तीन चौकीदारों के प्यार की छाँव में पलनेवाली घोड़ा नाम की एक सवारी थी, जो शेरशाह के जमाने में भी हुआ करती थी। थाने के अन्दर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फेंक दिया है। अगर उसने अमरीकी जासूसी उपन्यास पढ़े हों, तो वह बिलबिलाकर देखना चाहता कि उँगलियों का निशान देखनेवाले शीशे, कैमरे, वायरलेस लगी हुई गाड़ियाँ-ये सब कहाँ हैं ? बदले में उसे सिर्फ़ वह दिखता जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। साथ ही, एक नंग-धडंग लंगोटवन्द आदमी दिखता जो सामने इमली के पेड़ के नीचे भंग घोट रहा होता। बाद में पता चलता कि वह अकेला आदमी बीस गाँवों की सुरक्षा के लिए तैनात है और जिस हालत में जहाँ है, वहाँ से उसी हालत में वह बीसों गाँवों में अपराध रोक सकता है, अपराध हो गया हो तो उसका पता लगा सकता है और अपराध न हुआ हो, तो उसे करा सकता है। कैमरा, शीशा, कुत्ते, वायरलेस उसके लिए वर्जित हैं। इस तरह थाने का बातावरण बड़ा ही रमणीक और बीते दिनों के गौरव के अनुकूल था। जिन रोमाण्टिक कवियों को बीते दिनों की याद सताती है, उन्हें कुछ दिन रोके रखने के लिए यह थाना आदर्श स्थान था।
जनता को दारोगाजी और थाने के दस-बारह सिपाहियों से बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। ढाई-तीन सौ गाँवों के उस थाने में अगर आठ मील दूर किसी गाँव में नक़ब लगे तो विश्वास किया जाता था कि इनमें से कोई-न-कोई उसे देख जरूर लेगा। बारह मील की दूरी पर अगर रात के वक़्त डाका पड़े, तो इनसे उम्मीद थी कि ये वहाँ डाकुओं से पहले ही पहुँच जाएँगे। इसी विश्वास पर किसी भी गाँव में इक्का-दुक्का बन्दूकों को छोड़कर हथियार नहीं दिए गए थे। हथियार देने से डर था कि गाँव में रहनेवाले असभ्य और बर्बर आदमी बन्दूकों का इस्तेमाल सीख जाएंगे, जिससे वे एक-दूसरे की हत्या करने लगेंगे, खून की नदियाँ बहने लगेंगी। जहाँ तक डाकुओं से उनकी सुरक्षा का सवाल था, वह दारोगाजी और उनके दस-बारह आदमियों की जादूगरी पर छोड़ दिया गया था।
उनकी जादूगरी का सबसे बड़ा प्रदर्शन खून के मामलों में होने की आशा की जाती थी, क्योंकि समझा जाता था कि इन तीन सौ गाँवों में रहनेवालों के मन में किसके लिए घृणा है, किससे दुश्मनी है, किसको कच्चा चबा जाने का उत्साह है, इसका वे पूरा-पूरा ब्यौरा रखेंगे, और पहले से ही कुछ ऐसी तरकीब करेंगे कि कोई किसी को मार न सके; और अगर कोई किसी को मार दे तो वे हवा की तरह मौके पर जाकर मारनेवाले को पकड़ लेंगे, मरे हुए को क़ब्जे में कर लेंगे, उसके खून से तर मिट्टी को हाँडी में भर लेंगे और उसके मरने का दृश्य देखनेवालों को दिव्य दृष्टि देंगे ताकि वे किसी भी अदालत में, जो कुछ हुआ है, उसका महाभारत के संजय की तरह आँखों-देखा हाल बता सकें। संक्षेप में, दारोगाजी और उनके सिपाहियों को वहाँ पर मनुष्य नहीं, बल्कि अलादीन के चिराग से निकलनेवाला दैत्य समझकर रखा गया था। उन्हें इस तरह रखकर 1947 में अंग्रेज अपने देश चले गए थे और उसके बाद ही धीरे-धीरे लोगों पर यह राज खुलने लगा था कि ये लोग दैत्य नहीं हैं, बल्कि मनुष्य हैं; और ऐसे मनुष्य हैं जो खुद दैत्य निकालने की उम्मीद में दिन-रात अपना-अपना चिराग घिसते रहते हैं।
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