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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

मेहरचंद ने अपने जन्मदाता पिता की तरसती आँखों पर तो ध्यान नहीं दिया, मगर अपने कुत्ते के मचलने पर उनके स्वर में अप्रतिम आह्लाद छा गया, ''ओ हो...हमारे सिल्की को भी चाहिए मिल्क-केक?...मिल्क-केक देखते ही मचल उठते हैं ये नवाब साहब...अरे अमिताऽ...सिल्की के वास्ते भी लाना दो पीस...''

मेरे हाथ का कौर हाथ के हाथ में रह गया। मैंने झुकी-झुकी तिरछी नज़रों से बाबा की ओर देखा। उनके अपमान से विक्षुब्ध चेहरे पर उभर आए भाव दिल को चीर देने वाले थे, '...पिता की स्पष्ट इच्छा का तो कोई ध्यान नहीं?...उस कुत्ते की औलाद के लिए झट आवाज़ दे दी?'

मैं स्तब्ध रह गया। बड़ा विचित्र और जुगुप्साभरा पल था वह। बरसों बीत गए उस पल को। मगर वह पल...? उस पल उस असहाय वृद्ध की आंखों में छाई अपमान...उपेक्षा...लाचारगी...हताशा की पीड़ा की चुभन को आज तक नहीं भूल पाया हूँ।

और उस पल क्या सिर्फ वे वृद्ध बाबा ही स्वयं को अपमानित महसूस कर रहे थे? उस पल हम दोनों (निखिल व मैं) भी अपने आपको अपमानजनक स्थिति में पा रहे थे। हमारे हाथों में जो प्लेटें थीं, उनको ललचाई नज़रों से मेजबान के वृद्ध पिता ने भी देखा था और उनके कुत्ते के पिल्ले ने भी।

...वृद्ध पिता की इच्छा तो पूरी नहीं हो पाई..., वह पिल्ला अवश्य सौभाग्यशाली रहा!

अब मिठाई हमारे हाथों में भी थी...उधर पिल्ले के सामने भी? ऐसे क्षण कोई एकाएक आ जाता और हमें देखता तो क्या सोचता?...इधर हम मिठाई खा रहे हैं, उधर वह कु...? उफू! ऐसी डूब मरने वाली शर्मनाक स्थिति तो आज तक नहीं आई थी? अनजाने में मेजबान को भान ही नहीं रहा कि हमारे मन में कैसे विचार उठ रहे होंगे!

मगर हमारी मनःस्थिति से बेखबर मेहरचंद पूर्ण तन्मयता से अपने प्यारे कुत्ते को मिठाई खिलाते हुए हमसे नान-स्टॉप बतियाते जा रहे थे। उनकी पत्नी भी बेटी की पाक-कला की तारीफ़ें करती हमसे 'और मिल्क-केक लेने' के आग्रह पर आग्रह किए जा रही थी। उधर उनके वृद्ध तात्श्री का मचलना जारी था...! मुझे सामने आईने में स्पष्ट नजर आ रहा था। वे कुर्सी पर पहलू बदल-बदलकर 'मेरे लिए भी' की मौन गुहार किए जा रहे थे। आखिर (गोया उनकी 'उद्दंडता से तंग-परेशान हो अरे इनको भी एक टुकड़ा

डालना' के खीझभरे अंदाज़ में) मेहरचंद ने बिटियारानी को आवाज़ लगाई, ''अमिताऽ...तुम्हारे दादाजी को भी दे देना बेटी...''

सुनते ही वृद्ध बाबा के चेहरे पर संतोष व खुशी के भाव दौड़ गए। वे बेसब्री से अंदर की ओर देखने लगे। जैसे ही पोती प्लेट लेकर उनके सामने आई, अधीरता से प्लेट झपट 'बकर-बकर' खाने लगे।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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