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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

अगले दो दिन मालती के लिए अलौकिक अनुभूति के थे। इन दो दिनों में स्नेहिल ने न सिर्फ 'प' लिखना सीख लिया था, उसमें 'आ' की मात्रा लगाकर 'पा पा' व फिर 'आ' व 'ओ' लिखना भी सीख गया था। यद्यपि उसके लिखे अक्षरों में सुघड़ता नाममात्र को भी नहीं थी...आड़े-तिरछे पुराकालीन चिह्नों की तरह थे.. मगर उन अनघड़ अक्षरों में भी गजब का आकर्षण था। वे मात्र चार अक्षर या दो शब्द नहीं,...स्नेहिल का दिल थे, उसकी धड़कन थी, रोम-रोम की ख्वाहिशें-आकांक्षाएँ थीं...उसके बालमन की एकमेव लालसा, उमंग, आशा थी...उसके भोले संसार की खुशियों का खजाना...आनंद का मानसरोवर...दुनिया का ऐसा कौन-सा सुख-संतोष था जो उसमें नहीं था?

रात में अपनी नियमित डायरी लिखते हुए मालती की लेखनी किसी ठौर चैन नहीं पा रही थी। बचपन में भक्त ध्रुव की कहानी पढ़ी थी। परम पिता परमेश्वर को पाने के लिए उसने एक पैर पर खड़े हो घोर तप किया था। नन्हा स्नेहिल भी तो अपनी तपश्चर्या में डूबा हुआ था, अपने सांसारिक पिता को पाने के लिए! क्या उसका तप सफल होगा?

लिखते-लिखते मालती का हृदय बुरी तरह उद्विग्न हो गया। उठकर वह बेचैन-सी इधर-उधर चहलकदमी करने लगी। पलंग पर सोने की कोशिश कर रहे निखिल ने भन्नाकर लैंप बुझा दिया-''न सोती हो, न सोने देती हो।''

आँसू पीती मालती ने होंठ भींच लिए...भला कैसे बतलाए अपने मन की छटपटाहट?

शाला अभी लगी नहीं थी। पंद्रह-बीस मिनट की देरी थी। मालती शिक्षक-कक्ष में बैठी अखबार के पन्ने पलट रही थी। तभी धीमे..सकुचाते कदमों से चलता हुआ स्नेहिल उसके समीप आकर खड़ा हो गया।

अखबार हटा मालती ने उसकी ओर देखा। स्नेहिल के भोले मुखारविंद पर आज पहली बार खुशी के भाव निखरे थे। उसकी मुस्कुराती बाल-सुलभ चितवन मानो बहुत कुछ कहना चाह रही थी।

मालती को उस पर एकदम लाड़ उमड़ आया। उसके सिर पर हाथ फेर वह स्नेह से मुस्कुराई, ''क्या बात है, बेटे? आज बहुत खुश नज़र आ रहे हो?''

शरमाकर हौले से मुस्कुरा स्नेहिल ने एक बार गरदन झुका ली। फिर पलकें उठा इठलाते हुए उसने मालती को निहारा, ''दीदी।...आप अपनी कलम देंगी?''

उत्सुकता से मालती ने पर्स में से कलम (पेन) निकाली और खोलकर उसे थमाई।

स्नेहिल...गोया कोई बाजीगरी दिखलाना चाह रहा हो...होंठों को गोल कर कलम थामी और वहीं टी-टेबल पर रख दी। फिर पेंट की जेब से एक मुड़ा-तुड़ा कागज निकाला। कागज किसी कापी में से फाड़ा हुआ पन्ना लगता था। घुटनों के बल बैठ स्नेहिल ने अपने नन्हे-नन्हे हाथों से थपथपाकर कागज की सलवटें दूर कीं और मालती की कलम उठा पूर्ण मनोयोग से आड़े-तिरछे अनघड़ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखने लगा-'पा पा आ ओ!'

मालती कौतुक से उसका यह कलाप देख रही थी। उस क्षण तक मालती को कल्पना में भी गुमान नहीं था कि स्नेहिल उसे अब एक भारी घनघोर परीक्षा में धकेलने वाला है। वह तो ममता भरी उत्सुक निगाहों से उसे निहारती रही।

स्नेहिल का लिखना हो गया था। कलम रख उसने कागज को दो बार मोड़ा और हौले से सिर उठाया। मालती की आँखों में देखते हुए उसकी आवाज़ एकदम थरथराने लगी, ''दीदी, आप बोली थीं न...मेरी चिट्ठी पढ़कर मेरे पापा मुझे लेने आ जाएँगे!''

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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