कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
रजिस्टर उठा वह शिक्षक-कक्ष में आई। आधे घंटे बाद घंटी लगने पर वापस कक्षा में लौटी। कक्षा में प्रवेश करते ही उसकी आंखें हैरत से खुली की खुली रह गईं। अन्य बच्चे जहाँ घंटी लगने के बावजूद खेलकूद में रत थे, स्नेहिल पट्टी में सिर गड़ाए पूर्ण तल्लीनता से 'प' लिखने में निमग्न था!
देखते ही मालती का हृदय भर आया। उफ! कितनी तड़प है इसे अपने पिता से मिलने की!...लिखने के चक्कर में इसने अपना टिफिन भी खाया होगा या नहीं।
भारी मन बिना आहट किए वह उसके समीप आकर खड़ी हो गई।
स्नेहिल अपने तप-कर्म में लीन था। बाकी बच्चे कौतुक से कभी दीदी को देखते, कभी स्नेहिल को। उन मासूमों को मालूम नहीं था कि उनका यह नन्हा साथी किन भावनात्मक झंझावातों से गुजर रहा है?
मालती होंठ भींचे निःशब्द खड़ी थी। न चाहते हुए भी उसकी आँखें नम हो आईं। कमर में खुसे रूमाल को निकाल उसने आँखें पोंछीं। चूड़ियों की झंकार से ध्यान भंग होने पर स्नेहिल ने गरदन उठाई। मालती को अपने करीब एकटक अपनी ओर निहारते पा, उस मासूम ने बेचैन बाल-उत्सुकता से पट्टी उसकी ओर कर दी, ''दीदी...देखो सही लिखा है न?''
मालती उसकी नन्ही आँखों में हरहरा रहे भावनाओं के ज्वार को देख सन्न रह गई। उफ! कितनी व्याकुलता है इसे अपने पिता से मिलने की!. क्या इसके पिता को भी अपने पुत्र से मिलने की छटपटाहट होती होगी?...होती तो।...अवरोध बन यह यक्ष प्रश्न उसके कंठ में पत्थर-सा अटक गया।
उधर स्नेहिल धड़कते हृदय से अनिमेष उसे निहार रहा था, ''बोलो न, दीदी?''
''अं?'' स्नेहिल के टोकने पर उसे चेत हुआ। वह पट्टी हाथ में ले स्नेहिल के सिर पर ममता से हाथ फेरने लगी, ''एकदम सही लिखा है, बेटे।''
''सच्ची!'' सफलता की खुशी से स्नेहिल की आँखें दमक उठीं।
मालती उसके पास बैठ गई। स्नेहिल का चेहरा अपनी इस महती उपलब्धि से असीम संतोष से भरा हुआ था। मालती ने उसे अपनी गोद में बिठा हौले से उसके चिबुक पर अपनी उँगुली रखी, ''स्नेहिल?''
''हाँ दीदी?''
''तुमने अपना टिफिन खाया या नहीं?''
सुनते ही स्नेहिल ने जवाब देने के बदले नजरें झुका लीं।
मालती ने उसके मस्तक की चुम्मी ले भरे स्वर में दुहराया, ''बोलो बेटे?''
स्नेहिल ने अपनी डबडबाई आँखें हौले से ऊपर उठाईं, ''मन नहीं करता, दीदी।''
मालती की आवाज़ थरथराने लगी, ''क्यों?''
'पापा' बोलते-बोलते स्नेहिल के होंठ सिर्फ काँप कर रह गए। मालती की रुलाई फूटने को हुई। यह लड़का तो सच...बार-बार कैसे भावनात्मक रूप से रुला देता है? क्या इसकी माँ को भी...?
मालती का हृदय भर आया। होंठ काट उसने स्नेहिल का टिफिन खोला और एक कौर तोड़ उसके मुख के पास ले गई, ''अरे पगले...इस तरह भूखे रहने से पापा आ जाएँगे भला?...लो, खाओ।''
टप्प से दो आँसू स्नेहिल के कपोलों पर हुलक पड़े। मालती ने रूमाल से पोंछ जबरन अगला कौर दिया। स्नेहिल धीरे धीरे खाने लगा।
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
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- प्रतिहिंसा
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- लतखोरीलाल की उधारी