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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

''और जीते-जी?'' बात काटते हुए पिताजी का कंठ हठात् रुंध गया। अनंत को मुँह छिपाना दुश्वार हो गया। पिताजी से ऐसे आक्रामक रुख की उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। पिताजी ने एक बार में उसका संपूर्ण जीवन चरित्र उधेड़कर रख दिया था। वहाँ बैठे पाँचों रिश्तेदार होठों पर मुस्कान रोक, मन ही मन अनंत की सकपकाई स्थिति का आनंद लेने लगे। अनंत को वहाँ बैठना असह्य हो गया। मगर उठकर जाता भी कहाँ?...क्या घर छोड़कर वापस चल देता?

उसी समय सुमंत-श्लेषा का रिक्शा रुका। श्लेषा रोती हुई अंदर चली गई, सुमंत पिता के गले लिपट स्वर्गीया माँ को याद कर हाय-हाय करने लगा। उसका चेहरा आंसुओं से तर था, कंठ गम से अवरुद्ध..., बस...भरे हृदय 'हाय माँ...ओ माँ...' कहता विलाप करता रहा।

कुछ मिनट रोने के बाद उसने हिचकियाँ लेते हुए पिता को उलाहना दिया, ''खबर तो करनी थी हमें?''

''कैसे करता?'' बात काट पिताजी ने अपनी असहायता प्रगट की, ''मैं अकेला बूढ़ा....दाह-संस्कार का इंतजाम करता या तुम्हें फ़ोन करने जाता?''

''किसी को भी बोल देते। ऐसे वक्त तो हर कोई सहयोग करने आ जाता है...''

''सब कहने की किताबी बातें हैं, बेटा...'' ठंडी साँस ले पिताजी ने अपनी छेदती निगाहें उसके चेहरे पर गड़ा दीं, ''...आज के जमाने में लोगों को सगों के लिए समय नहीं, परायों के लिए कौन खटता है?''

सुमंत सकपका गया। वह समझ नहीं पाया, पिताजी वास्तव में जमाने की शिकायत कर रहे हैं या बेटों पर कटाक्ष? अचकचाकर उनका मुख देखता रहा।

पिताजी मुँह फेर बाहर सड़क की तरफ देखने लगे। सुमंत को वहाँ बैठना असह्य हो गया। रिश्तेदारों की मुखमुद्रा उसने भाँप ली थी। वे सब दबी-छिपी व्यंग्यात्मक मुस्कानों से उसकी स्थिति का आनंद ले रहे थे।

अनंत के तन-बदन में आग लग गई। मन तो हुआ पूछे पिताजी से, माँ के मरने पर आठ-दस घंटों के अंदर सारे रिश्तेदार आ गए थे...किसने किए थे इतनों को फ़ोन? क्या हमें नहीं कर सकता था?

मगर पूछने पर उल्टे उसी की भद्द पिटती, चुप्पी साध गया। वहाँ उसका अब दम घुटने लगा था। बेला दीदी से मिलने का बहाना कर उठा। पीछे-पीछे अनंत भी।

अंदर बेला तीनों बूआओं संग किसी कार्य में व्यस्त थी। बेला दीदी के हाथ में कोई लिस्ट थी, तीनों बूआएँ सामने रखा सामान उसके अनुसार मिला रही थीं। मेघा-श्लेषा एक ओर उपेक्षिता सी बैठी थीं।

कमरे में प्रवेश करते वक्त सुमंत ने सोचा था-बेला दीदी दोनों भाइयों को देखते ही दौड़ती हुई आकर उनके गले लिपट फूट-फूट कर रो पड़ेगी, फिर दोनों भाई उसे सांत्वना देंगे..., ऐसा कुछ नहीं हुआ। बेला ने एक क्षण उचटती नज़र उन पर डाली और पूर्ववत अपने कार्य में व्यस्त हो गई। तीनों बूआओं ने भी अनुसरण किया।

अनंत-सुमंत कट कर रह गए। चुपचाप मेघा-श्लेषा के पास आकर बैठ गए। चारों को एक-एक पल काटना दूभर हो रहा था। कुछ समय तक माँ की बाबत इक्का-दुक्का प्रश्न पूछते रहे, फिर स्नानादि करने का बहाना कर चारों उठे।

उनके जाने के बाद एक लंबी साँस ले बेला ने लिस्ट नीचे रख दी। उसका मन माँ की याद में बुरी तरह तड़प रहा था। जिस रात माँ शांत हुई।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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