कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
दोनों उल्लुओं की तरह आँखें घुमा-घुमाकर चक्की का जायजा लेने लगे। सिवाय मक्खियों के भिनभिनाने के वहाँ और कुछ नहीं था। उन्होंने ललाइन की ओर देखा।
ललाइन भेदी नज़रों से दोनों को घूर रही थीं। ललाइन को समझ नहीं आ रही थी कि यह पगला रोते हुए एकदम चुप क्यों हो गया? कहीं कुछ उठाने की फिराक में तो नहीं है? वे डपटकर पूछने लगीं, ''क्या देख रहे हो जी?''
''जी,''...लतखोरी अचकचाया ''हम सोच रहे हैं 'और लोग' नहीं आए?''
''और लोग! और लोग कौन?''
''वे ही, उठाने वाले, ''आँखों को गोल-गोल घुमा लतखोरी ने अपना ज्ञान बघारा, ''...कंडा, बांस, लाल कपड़ा भी लाना पड़ता है ना?''
''फू!'' सुपारी थूक वे खा जाने वाली नजरों से उसे घूरने लगी, ''तो तू इसलिए आया है?''
''हाँ, और अपने दोस्त को भी लाया हूँ।''
''तेरा सत्यानास!'' पोपले होंठों को भींच वे उफ़नीं ''अरे नासपीटे, मैं समझी, दवा में देरी के कारण रो रहा है?''
''अरे रे, अम्माँजी, आपने ऐसा कैसे सोच लिया? मैं क्या इतना स्वार्थी हूँ जो आ...आ...'' आगे के शब्द उसके गले में अटक कर रह गए।
सामने जीने से लालाजी नीचे उतर रहे थे। उसे काटो तो खून नहीं। अरे बाप रे! लालाजी तो ज़िंदा हैं! उसने सकपकाई नज़रों से ललाईन की ओर देखा। ललाइन चंडिका बनी उसे मारने के लिए डंडा तान रही थीं।
अब तो लतखोरी ने एक पल की भी देरी नहीं की। ''टिल्लू भाग''...चिल्ला वह जूते उठा स्टिंग की तरह उछला। उसी क्षण भटाक से ललाईन का डंडा गेहूँ की बोरी पर पड़ा जिस पर वह बैठा था। यदि एक क्षण की भी देरी हुई होती तो वह डंडा सीधे लतखोरी की पीठ पर पड़ता। लतखोरी जान छोड़कर भागा। टिल्लू तो लालाजी को देखते ही नौ दो ग्यारह हो चुका था। दोनों बदहवास भागे जा रहे थे। एक किलोमीटर तक दोनों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। दोनों की साँसें फूलने लगी थीं, मगर रुकने की हिम्मत किसी की भी नहीं हो रही थी। हर पल यही डर लग रहा था-बुढ़िया डंडा लिए उड़ी आ रही है।
आखिर लतखोरी बुरी तरह हाँफने लगा। उसने लड़खड़ाते हुए टिल्लू को आवाज़ दी, ''टिल्लू प्लीज, रुक...रुक जा यार...''
''बिलकुल नहीं...''
''अच्छा, मुझे जूते तो पहन लेने दे...''
''जूते!'' रुककर हाँफ रहे टिल्लू ने जो उसके पैरों की ओर देखा तो बुरी तरह चौंक पड़ा, ''अबे घोंचू! जूते तो तू पहने हुए है।''
''पहने हुए हूँ?'' घबराकर लतखोरी ने अपने पैरों की ओर देखा। जूते उसके पैरों में थे। उसने खोले ही नहीं थे।
''फिर ये किसके आ गए?''
''अबे गधे, कहीं लालाजी के तो नहीं उठा लाया?'' टिल्लू भन्नाकर चिल्लाया।
''ई-ई...'' लतखोरी घिघियाया, ''यार टिल्लू! भागने के चक्कर में मैं समझा ये जूते मेरे हैं।''
''...और तू उठा लाया?'' टिल्लू ने दाँत पीसे।
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
- कर्मयोगी
- कालिख
- मैं पात-पात...
- मेरी परमानेंट नायिका
- प्रतिहिंसा
- अनोखा अंदाज़
- अंत का आरंभ
- लतखोरीलाल की उधारी