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इतिहास और राजनीति >> भारत की एकता का निर्माण

भारत की एकता का निर्माण

सरदार पटेल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 62
आईएसबीएन :

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स्वतंत्रता के ठीक बाद भारत की एकता के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा देश की जनता को एकता के पक्ष में दिये गये भाषण


एक चीज देख कर हम को खुशी भी हुई। वह यह कि जब पंजाब में इतना बड़ा तूफान उठ खड़ा हुआ था, तब भी कलकत्ता शान्त हो गया और खामोशी पकड़कर बैठ गया। यदि यह बिगड़ता तो बहुत बिगड़ जाता। लेकिन उस समय गान्धी जी यहाँ ही थे और यह ईश्वर की कृपा थी कि हम बिगाड़ से बच गए। नहीं तो हमारे पास कोई सामान नहीं था। अगर कलकत्ता बिगड़ा होता, तो सारा हिन्दुस्तान बिगड़ जाता।
सवाल यह है कि अब हमें क्या करना चाहिए। अभी तक हमारे सामने कितनी ही मुसीबतें हैं। अभी तक हमारे सामने ऐसी हालत है कि सिन्ध में १० लाख आदमी हिन्दू और सिक्ख पड़े हैं, जिनको हमें वहाँ से निकालना है। क्योंकि वहाँ से जो चिट्ठियां आती हैं, उनमें सब लोग कहते हैं कि भई, हम वहाँ नहीं रह सकते। कितना भी हमको विश्वास दिलाया जाए, कितनी भी बातें कही जाएँ कि हम मैनोरिटी (अल्पमत) को ठीक प्रोटेक्शन (संरक्षण) देनेवाले हैं, ठीक हक देनेवाले हैं, पर किसी बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
इधर हमारे यहाँ तो तीन-चार करोड़ मुसलमान पड़े हैं, उधर कोई हिन्दू या सिक्ख रहनेवाले न हों, तो किस तरह काम चल सकता है? कुछ लोग कहते हैं कि जो लोग चले आए हैं, वे पीछे लौट जाएँ, तो अच्छा है। कौन कहता है पीछे जाने के लिए? कौन उन्हें विश्वास दिला सकता है पीछे जाने से उनका जान-माल सुरक्षित रहेगा? वैसा करना हो तो सारा सामान बदलना पड़ेगा। और उसके लिए सब से पहले दिल साफ करना पड़ेगा। क्योंकि वहाँ एक गवर्नर से लेकर चपरासी तक, जितने भी सरकारी नौकर हैं, उनमें एक भी हिन्दू या सिख नहीं रहा है। इन हालतों में हिन्दू और सिख वहाँ किस तरह से रहेंगे? वे न वहाँ फौज में हैं और न पुलिस में ही। वहाँ के हाई कोर्ट में भी वे नहीं हैं। ऐसी जगह पर अगर आप कहो कि हिन्दू और सिख वापस चले जाएँ तो कौन वहाँ जाएगा? ऐसी जगह पर कोई हिन्दू या सिक्ख कैसे रह सकेगा? उधर जो ऐसी बातें कहते हैं कि, वहाँ पीछे लौट आए तो ठीक है, वह खाली बातें ही बातें हैं। वह भी सिर्फ दुनिया को बताने की बात है। यदि सफाई से बात करनी हो तो हमारे साथ बैठ कर फैसला करना चाहिए। हम तो आज यह बात करने के लिए तैयार हैं कि झगड़ा करने की क्या जरूरत है? हिन्दू और सिक्ख वहाँ नहीं रहना चाहते, उनको जबरदस्ती रखने की कोशिश न करो। वे इधर आना चाहते हैं तो उन्हें आने दो। हम को उन्हें इधर ले आने दो। क्यों नहीं ले आने देते? जबरदस्ती करके उन्हें वहाँ रखने से फायदा क्या है? और इस तरह वे रह भी कैसे सकते हैं?
तो अभी तक हर एक चीज़ में झगड़े का बीज बाकी है। काश्मीर में जो कुछ चल रहा है, उसे तो आप जानते ही हैं। कल मैं इधर आया, और आज अखबार में मैंने जफरुल्ला साहब का एक लम्बा-चौड़ा बयान देखा, जिसमें उन्होंने जूनागढ़ को भी डाल दिया है। जूनागढ़ को जफरुल्ला साहब ने सलाह दी थी कि तुम पाकिस्तान में शरीक हो जाओ। अगर वह ठीक था, तो उसका नतीजा जूनागढ़ के नवाब साहब को भोगना ही था। वह कोई जफरुल्ला साहब को तो भोगना नहीं था, उन्हें तो खाली बातें ही करनी थीं। जूनागढ़ का फैसला तो अब हो गया। उसमें अब कोई और चीज बननेवाली नहीं है। यू. एन. ओ. में जाओ, चाहे जहाँ जाओ, उससे कोई नई चीज नहीं बन सकती। वहाँ तो जो कुछ होना था, वह हो गया। अब जो जफरुल्ला साहब कह्ते हैं कि जूनागढ तो यू. एन. ओ. में जाएगा। आज काश्मीर का मामला हमारी तरफ से यू. एन. ओ. में गया। हमने तो यह इसलिए किया कि भई, इस से तो पाकिस्तान खुली लड़ाई करे तो अच्छा है। लेकिन वे खुली लड़ाई नहीं करते हैं, दूसरों की मार्फत अपने आदमियों को लड़ाई में भेजते हैं। अपने वहाँ से लड़ाई का सारा सामान और सब हथियार उन्हें देते हैं। इसके साथ ही अपने यहाँ से रास्ता भी उन्हें देते हैं। इससे तो खुल्लमखुल्ला लड़ाई करें, तो अच्छा है। इसलिए हमने सोचा कि यू. एन. ओ. के पास जाओ। जाके वहाँ से कुछ हो न हो तो और बात है। लेकिन अगर यू. एन. ओ. ने भी कुछ नहीं किया, तो इस तरह हम बैठे नहीं रह सकते। (येन केन प्रकारेण आधिप्त्य स्थापित करने के लिए तथा अधिकाधिक भूमि पर अधिकार करने की नीति से किये गये प्रयास)
इस तरह कारुमीर का मामला अलग है और जूनागढ का मामला अलग। जूनागढ़ यू. एन. ओ. के पास नहीं जा सकता। जफरुल्ला साहब कहते हैं कि आपने भी तो रास्ता दिया था। मगर मै पूछता हूँ कि हमने किस को रास्ता दिया था? हमने किसी को रास्ता नहीं दिया। जूनागढ़ के लोग अपने रास्ते से गए, जिधर वे जाना चाहते थे। हमने किसी को कोई रास्ता नहीं दिया। हमने किसी को कोई चीज नहीं दी। जूनागढ़ में किसी को एक मक्खी भी नहीं मारनी पड़ी। किसी के ऊपर कोई हथियार नहीं चलाना पड़ा। फिर रह क्या गया? यहाँ तो खुद दीवान ने आकर कहा कि मेहरबानी करके हमारी हुकूमत ले लो, हम उसे नहीं चला सकते। जूनागढ़ का नवाब तो भाग कर कराची जा बैठा। तब फिर जूनागढ़ की बात ही क्या रह गई? सो यह चीज तो हो ही गई।
उसके बाद हमने ण्क फैसला किया कि भई! रियासतों में हमें एक काम करना चाहिए। हमने यह कबूल किया कि रियासत के लोग जैसा चाहे, वैसा करें। रियासतों में जो लोकमत हो, इसी प्रकार हमें करना चाहिए। हैदराबाद में, काश्मीर में, सब जगह जो लोकमत हो, उसी प्रकार का फैसला करने में हमें कोई एतराज नहीं है। लेकिन यदि काश्मीर में आज जिस तरह से चल रहा है, उसी तरह चलता रहा, तो लोकमत करने की क्या जरूरत है? हम लड़ार्ड करके काश्मीर को ले लें, तो फिर लोकमत की जगह कहाँ रही? तो हम कहते हैं आप भी प्लैबिसिट (लोकमत गणना) करो, वहां लोकमत ले लो। लेकिन आखिर कब तक हमारे सिपाही वहाँ मरते रहें, हम पर उनका खर्च पड़ता रहे और हमारे गाँव-के-गाव जलाए जाएँ, वहाँ हिन्दू और सिक्खों को तबाह किया जाए? यह सब जारी रहा, तो आखिर लोकमत कहाँ रहा? फिर तो हम भी बन्दूक से ले सकते हैं। तब तो दूसरी तरह से कुछ हो ही नहीं सकेगा। हमने यह बात भी साफ कर दी कि हम काश्मीर की एक इंच जमीन भी छोड़नेवाले नहीं हैं। वह हम कभी नहीं छोड़ेंगे।

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    अनुक्रम

  1. वक्तव्य
  2. कलकत्ता - 3 जनवरी 1948
  3. लखनऊ - 18 जनवरी 1948
  4. बम्बई, चौपाटी - 17 जनवरी 1948
  5. बम्बई, शिवाजी पार्क - 18 जनवरी 1948
  6. दिल्ली (गाँधी जी की हत्या के एकदम बाद) - 30 जनवरी 1948
  7. दिल्ली (गाँधी जी की शोक-सभा में) - 2 फरवरी 1948
  8. दिल्ली - 18 फरवरी 1948
  9. पटियाला - 15 जुलाई 1948
  10. नई दिल्ली, इम्पीरियल होटल - 3 अक्तूबर 1948
  11. गुजरात - 12 अक्तूबर 1948
  12. बम्बई, चौपाटी - 30 अक्तूबर 1948
  13. नागपुर - 3 नवम्बर 1948
  14. नागपुर - 4 नवम्बर 1948
  15. दिल्ली - 20 जनवरी 1949
  16. इलाहाबाद - 25 नवम्बर 1948
  17. जयपुर - 17 दिसम्बर 1948
  18. हैदराबाद - 20 फरवरी 1949
  19. हैदराबाद (उस्मानिया युनिवर्सिटी) - 21 फरवरी 1949
  20. मैसूर - 25 फरवरी 1949
  21. अम्बाला - 5 मार्च 1949
  22. जयपुर - 30 मार्च 1949
  23. इन्दौर - 7 मई 1949
  24. दिल्ली - 31 अक्तूबर 1949
  25. बम्बई, चौपाटी - 4 जनवरी 1950
  26. कलकत्ता - 27 जनवरी 1950
  27. दिल्ली - 29 जनवरी 1950
  28. हैदराबाद - 7 अक्तूबर 1950

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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