इसी प्रकार हमारे मुल्क में
कपड़ा भी पूरा नहीं है। तो उससे और समस्याएँ भी पैदा होती हैं, क्योंकि
कपड़ा तो नहीं है। अब पाकिस्तान अलग हुआ, और कपास तो वहां ही ज्यादा पकता
है। हमारे कपड़े के कारखानों को उसके आधार पर रखना पड़ता है। वह लोग वहाँ से
देंगे, या नहीं देंगे? या वे हमें काफी रुई नहीं देते हैं, बाहर भेजते
हैं, या बाहर भेजने का मनसूबा करते हैं, यह सब हमें सोचना है। अब वह अलग
मुल्क बन गया, तो उसके ऊपर हम कहाँ तक भरोसा रखें? मान लीजिए, हमको वहाँ
से रुई नहीं मिली, तो कपड़े के लिए हमें बाहर से रुई ढूंढ़नी पड़ेगी। वह हम
कहां से लाएँगे? यह सब बातें हमें सोचनी हैं। लेकिन इन सब मुश्किलात के
होते हुए भी हमारे पास अगर एक पूरा पिक्चर (चित्र) न हो, एक पूरे
हिन्दुस्तान का चित्र हमारे सामने न हो और हम जल्दी-से-जल्दी अपनी जरूरी
चीज़ें यहाँ ही बनाने के लिए आबोहवा पैदा न करें, तो हमारा काम चलनेवाला
नहीं है और हमने जो कुछ कमाया है, वह सब गंवा देंगे। यदि हमने ऐसा किया तो
हम बेवकूफ सिद्ध होंगे। इसलिए मैं जो कुछ कहता हूँ, वह किसी की टीका करने
के लिए नहीं कहता, लेकिन मुझ को दर्द होता है इसलिए कहता हूँ।
हम कहाँ तक यह बोझ उठाएँ,
क्योंकि मुझ को बहुत बरस हो गए। लोग ५० वर्ष के बाद पेंशन ले लेते हैं। अब
मैं कहाँ तक ठहर सकूंगा? हमारी जिन्दगी की एक प्रतिज्ञा थी कि परदेसी
हुकूमत उठानी है। वह काम तो पूरा हुआ। लेकिन अब दिल में एक फिकर रहती है
कि यह तो किया, लेकिन अगर हमारे नौजवानों को बिगाड़ दिया गया, तो यह बोझ वे
नहीं उठा सकेंगें। इसलिए हम सब बातें कुछ-न-कुछ हद तक ठीक कर दें, यह
ख्वाहिश रहती है। दूसरी ओर यह ख्वाहिश भी बहुत होती है कि किसी जगह आराम
से बैठ जाऊँ। क्योंकि हमारी हिन्दू संस्कृति में यह भी एक चीज है कि
वानप्रस्थ अवस्था आ गई, तो हमारा माला लेकर बैठ जाना उचित है। लेकिन दिल
में भाला गड़ा हो, तो माला चलती ही नहीं। दिल में यह अहंकार भरा है कि
ज़िन्दगी भर का हमारा जो काम है, उसे अगर हम इसी तरह फेंक देंगे, तो क्या
होगा? तो मैं अपने नौजवानों को समझाना चाहता हूँ कि हमारे दिल में जो आग
जलती है, उसे उन्हें समझना चाहिए।
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