उसके बाद एक स्टेटमेंट
(विज्ञप्ति) निकाल दिया कि अब तो बम्बई के मजदूरों के मालिक हम है। हम
लीडर हैं, वह सिद्ध हो गया है। बस हो गया फैसला। अब तो वह कहेंगे कि हमें
क्या करना चाहिए। साथ ही कहते हैं कि हम तो बाहर हैं, हम थोड़े गवर्नमेंट
में हैं। तो हम चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, कि जो प्राविन्स (सूबा) तुम्हें
चाहिए, हम दे देते हैं। तब कहते हैं कि आप कौन हैं देनेवाले। वह तो लोग
वोट देंगे, तब देंगे। जब चुनाव खत्म होगा, तब पता लगेगा।
तो मैं कहता हूं कि अगर हमारा
काम इसी तरह चलता रहा, तो जो आजादी हमने पाई है उससे कुछ भी लाभ हमको नहीं
मिलेगा। वह जब एक जगह पर सरकार का बोझा उठाएँगे, तब उनको मालूम पड़ेगा यह
क्या चीज़ है। गवर्नमेंट चलाने से ही मालूम होता है कि उसमें कहाँ-कहाँ
काँटा लगता है, कहाँ कहाँ दुख है और कहाँ-कहाँ क्या कुछ करना चाहिए। हमें
अब समझ लेना चाहिए कि हम आजाद हो गए हैं, परदेसी हुकूमत से छूट गए हैं। अब
हमें देखना है कि हमारा मुल्क कहां जा रहा है। हम अपने देश का भविष्य क्या
बनाएँ, उसका नक्शा हम से लो। हम कब तक इस तरह चलाते रहेंगे और हमारा जो
कुछ है, उस सब का बोझ दूसरों पर डालते रहेंगे? वह आलोचक कुछ भी कहें,
लेकिन हमें रात-दिन सोचना पड़ता है कि अब हमें क्या करना है।
अब मैं दो रोज से बम्बई में
आया तो इसलिए आया था कि कुछ बातें मैं आप लोगों को भी समझाऊँ। अनाज का
जैसा कण्ट्रोल हमने हटाया है ऐसा दूसरा एक कण्ट्रोल पड़ा है। वह है कपड़े
का। अब कपड़े के कण्ट्रोल के लिए क्या करना चाहिए और उसमें गवर्नमेंट को
क्या करना चाहिए? जो मिल-मालिक हैं, जो मजदूर वर्ग हैं, जो व्यापारी वर्ग
हैं, उन सब को क्या करना चाहिए? यह सब को समझाना है, क्योंकि हमारे मुल्क
में अनाज नहीं है।
बम्बई शहर में तो अनाज बाहर से
लाना पड़ेगा। लेकिन जो देहात हैं, अपने खाने का अनाज अपने पास रख लेते हैं,
बाहर देने के लिए उनके पास कम रहता है। जो रहता है, उसका पूरा दाम हम न
दें, तो फिर वे देते नहीं हैं और तब अधिक पैदा करने की कोई ख्वाहिश भी
उनमें नहीं रहती है। क्योंकि पूरा दाम न मिले, तो वे पैदा क्यों करें?
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