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नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल

अभिज्ञान शाकुन्तल

कालिदास

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6162
आईएसबीएन :9788170287735

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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...


राजा : दुष्यन्त के पिता-पितामह आदि भी बड़े सन्देह में पड़ गये होंगे।
क्योंकि-
वे बड़े व्याकुल होकर सोच रहे होंगे कि दुष्यन्त के न रहने पर कौन हमारा वैदिक विधि से तर्पण आदि करेगा। इसी सोच-विचार में वे मेरे द्वारा तर्पण में दिये गये जल के एक भाग से तो अपने आंसू धोते होंगे और शेष भाग को पीकर अपनी पिपासा शान्त करते होंगे।

[इस प्रकार राजा मूर्च्छित-सा हो जाता है।]

चतुरिका : (घबराकर) महाराज! धीरज रखिये, धीरज रखिये, महाराज!

सानुमती : हाय, हाय! दीपक के प्रज्वलित रहते हुए भी बीच में किसी वस्तु की ओट में आ जाने से जिस प्रकार अन्धकार-सा छा जाता है ठीक उसी प्रकार इस राजा को भी मोह हो गया  है। क्या करूं? मैं तो इसकी चिन्ता अभी दूर कर देती किन्तु विवश हूं।
अदिति ने शकुन्तला को आश्वस्त करते हुए कहा था कि यज्ञ में भाग पाने के लिए उत्सुक देवता लोग ही तुम्हारा और दुष्यन्त का मिलन करायेंगे।
मैं समझती हूं कि अब अधिक विलम्ब करना उचित नहीं है। मुझे तुरन्त जाकर शकुन्तला को यह सारी बात बतानी चाहिए, जिससे कि वह बेचारी आश्वस्त हो जाये।

[यों सानुमती झटके से ऊपर उड़ जाती है।]

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