नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
राजा : सारथि! घोड़ों को आश्रम की ओर बढ़ाओ। आज इस आश्रम के दर्शन करके अपनी आत्मा को ही पवित्र कर लें।
सारथी : जैसी आयुष्मान की आज्ञा।
[सारथी रथ को वेग से दौड़ाता है।]
राजा : (चारों ओर देखकर) सारथी! देखो। चारों ओर के वातावरण को देखकर, बिना बताये ही यह सहज समझ में आ जाता है कि हम किसी आश्रम के तपोवन में पहुंच गये हैं।
सारथी : वह किस प्रकार?
राजा : क्या आप यह सब देख नहीं रहे हैं? यहां-
कहीं तो वृक्षों के तले सुग्गों के घोंसलों से गिरे हुए तिन्नी के दाने बिखरे पड़े हैं। कहीं इधर-उधर पड़े हुए चिकने पत्थर बता रहे हैं कि इन पर हिंगोट के फल कूटे गये हैं। कहीं निडर खड़े हुए मृग निश्चिंत होकर बिना किसी भय के हमारे जाते हुए रथ का शब्द सानन्द सुन रहे हैं। उन्हें विश्वास है कि आश्रम में उनको कोई बाहरी व्यक्ति भी किसी प्रकार से डरायेगा नहीं। और उधर देखो, नदी, तालाबों पर आने-जाने वाले मार्गों में मुनियों के वल्कलों से टपके हुए जल की रेखायें बनी हुई हैं।
और भी देखो-
वायु के कारण लहरें लेने वाली पानी की गूलों से यहां के वृक्षों की जड़ें धुल गई हैं। यज्ञ में प्रयुक्त घी के धुएं से नई चमकीली कोपलों का रंग धूमिल-सा हो गया है। और जहां-जहां उपवन से कुश को उखाड़ लिया गया है वहां मृगछौने निडर होकर मंद-मंद घास चर रहे हैं।
सारथी : जी हां, आप ठीक कहते हैं। यहां यह सब तो दिखाई दे रहा है। राजमहल की रानियों का शरीर इतना सुन्दर नहीं होता, उनमें यह सुन्दरता बहुत ही कठिनाई से कहीं-कहीं देखने को मिलती है। वह सुन्दरता यदि इन आश्रमवासिनी कन्याओं को मिली है तो इसका अभिप्राय यही है कि यहां की वन लताओं ने अपने गुणों से उद्यान की लताओं को भी जगा दिया है।
[इतना विवार कर राजा कहने लगा, इनके आने तक मैं यहीं ओट में खड़ा रहता हूं। उनको देखता हुआ ओट में खड़ा हो जाता
है। अपनी सखियों के साथ पौधों को सींचता हुआ शकुन्तला का प्रवेश।]
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