नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
[उसके बाद दो शिष्यों के साथ वैखानस प्रविष्ट होता है]
वैखानस : (हाथ उठाकर) राजन्! यह आश्रम का मृग है। इसको नहीं मारना चाहिए, आश्रम के जीव-जन्तु अवध्य होते हैं-इस पर कभी भी, जी हां, कभी भी, बाण चलाकर इसको मारना नहीं चाहिए। मृग का शरीर इतना कोमल होता है कि उसके लिए आपका बाण ठीक वैसा ही भयंकर है जैसे कि रुई के गद्दे के लिए अग्नि। बताइए, कहां तो हरिणों के कोमल प्राण और कहां आपके ये वज्र के समान कठोर और तीखे बाण।
इसलिए आपने यह जो बाण तानकर चढ़ाया हुआ है इसे उतार लीजिए। आपके शस्त्र तो पीड़ितों की रक्षा के लिए होने चाहिए, निरपराध और निरीहों को मारने के लिए नहीं।
राजा : लीजिए, मैंने उतार लिया अपना बाण। (इस प्रकार कहकर अपने कथन को पूरा करता है।)
वैखानस : पुरुवंश के दीपक, आप जैसे पुरुष को यही शोभा देता है।
क्योंकि-
जिसने पुरुवंश में जन्म ग्रहण किया है, उसका यही उचित रूप है। हमारी भगवान से प्रार्थना है कि आपको ऐसे ही गुणों वाला चक्रवर्ती पुत्र प्राप्त हो।
दोनों शिष्य : (अपने हाथ उठाकर) आप सब प्रकार से चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करें।
राजा : (प्रणाम करके) आपका आशीर्वाद शिरोधार्य है।
वैखानस : राजन्! यह सामने मालिनी नदी पर हमारे कुलपति महर्षि कण्व का आश्रम है। हम उस आश्रम के अन्त:वासी हैं और इस समय वन से समिधा लाने के लिए निकले हैं। यदि आपके किसी अन्य कार्य में किसी प्रकार की अड़चन न आती हो तो कृपया आश्रम में चलकर अतिथि-सत्कार स्वीकार कीजिए।
और फिर- वहां जाकर जब आप देखेंगे कि ऋषि लोग निर्विघ्न होकर सब क्रियायें कर रहे हैं तब आप जान भी जायेंगे कि धनुष की डोरी की टंकार से सुपुष्ट बनी आपकी भुजा कहां-कहां तक पहुंचकर प्राणियों की रक्षा कर रही है।
राजा : क्या कुलपति जी महाराज वहां विराजमान हैं?
वैखानस : अभी थोड़ी देर पहले तक तो वे यहीं थे। अब वह अपनी सुकन्या शकुन्तला को अतिथि-सत्कार का कार्य सौंपकर स्वयं उसके खोटे ग्रहों की शांति करने के लिए सोमतीर्थ को प्रस्थान कर गये हैं।
राजा : ठीक है, मैं उन्हीं से भेंट कर लूंगा। वह बाद में महर्षिजी को बता देंगी कि महर्षिजी में कितनी मेरी अगाध भक्ति है।
वैखानस : हां, यही ठीक है। आप आश्रम में जाइए, हम लोग समिधाओं के चयन के लिए प्रस्थान करते हैं।
[वैखानस आदि का प्रस्थान]
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