नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
अब कुछ शकुन्तला के विषय में-
शकुन्तला का जन्म स्वर्गीय अप्सरा मेनका के गर्भ से उन ऋषि विश्वामित्र से हुआ जिनके तप से इन्द्र तक डर गये थे और उन्होंने को ऋषि लुभाने के लिए और उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को मृत्युलोक में भेजा। कन्या के उत्पन्न होते ही मेनका उसको वन में छोड़कर स्वर्ग को लौट गई थी। वन के पशु-पक्षियों ने कन्या का पोषण किया और कण्व की दृष्टि पड़ने पर वे उसको अपने आश्रम में ले आए। पक्षियों द्वारा पालित-पोषित होने से कण्व ने उसका नाम 'शकुन्तला' रख दिया था।
शकुन्तला के प्रति महर्षि कण्व का अपनी औरस पुत्री जैसा स्नेह था। वे उसकी प्रसन्नता का सब सामान अपने आश्रम में जुटाते रहे।
'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में इसी शकुन्तला के जीवन को संक्षेप में चित्रित किया गया है। इसमें अनेक मार्मिक प्रसंगों को उल्लेख किया गया है। एक उस समय, जब दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रथम मिलन होता है। दूसरा उस समय, जब कण्व शकुन्तला को अपने आश्रम से पतिगृह के लिए विदा करते हैं। उस समय तो स्वयं ऋषि कहते हैं कि मेरे जैसे ऋषि को अपनी पालिता कन्या में यह मोह है तो जिनकी औरस पुत्रियां पतिगृह के लिए विदा होती हैं उस समय उनकी क्या स्थिति होती होगी।
तीसरा प्रसंग है, शकुन्तला का दुष्यन्त की सभा में उपस्थित होना और दुष्यन्त को उसको पहचानने से इनकार करना। चौथा प्रसंग है उस समय का, जब मछुआरे को प्राप्त दुष्यन्त के नाम वाली अंगूठी उसको दिखाई जाती है और पांचवां प्रसंग मारीचि महर्षि के आश्रम में दुष्यन्त-शकुन्तला के मिलन का।
अभिज्ञान शाकुन्तलम् की प्रसिद्धि का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व सन् 1789 में सर विलियम जोन्स ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तो उस अंग्रेजी अनुवाद का जॉर्ज फोरेस्टर ने सन् 1891 में जर्मनी भाषा में अनुवाद प्रकाशित कर दिया। इसी अनुवाद को पढ़कर जर्मनी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि गेठे ने अपने हृदय का जो उद्गार प्रकट किया वह अवर्णनीय है। उन्होंने कहा था :-
'यदि तुम युवावस्था के फूल और प्रौढ़ावस्था के फल और अन्य ऐसी सामग्रियां एक ही स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा प्रभावित होता हो, तृप्त होता हो और शांति पाता हो अर्थात् यदि तुम स्वर्ग और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकलता है-'शकुन्तला।'
आज के साहित्य जगत में कालिदास और शेक्सपियर की तुलना की जाती है। किन्तु हम समझते हैं कि यह तुलना निरर्थक है। दोनों के काल में बड़ा अन्तर है। कालिदास प्राचीन काल के कवि हैं और शेक्सपियर बहुत ही बाद का कवि है। किन्तु प्राचीन और नवीन के विषय में स्वयं कालिदास ने कहा है-
'पुराना होने से कोई काव्य ग्राह्य नहीं हो सकता और नवीन होने के कारण त्याज्य भी नहीं हो सकता।'
हम शेक्सपियर को नवीन होने के कारण त्याज्य नहीं मान रहे हैं अपितु हम तो यही कहना चाहते हैं कि भले ही अंग्रेजी काव्य जगत में शेक्सपियर का अन्यतम स्थान हो किन्तु कालिदास की रचनाओं से उसकी तुलना करना समीचीन नहीं होगा। वह कालिदास के एक अंशको भी स्पर्श नहीं कर पाता।
हां, तुलसीदास से शेक्सपियर की तुलना करना चाहे तो की जा सकती है। शेक्सपियर ने एक स्थान पर कहा है-आंखों के जुबान नहीं और जुबान के आंख नहीं। किन्तु इससे पूर्व तुलसीदास इसी भाव को जनकपुरी में राम-जानकी के प्रथम दर्शन के अवसर पर इन शब्दों में रूपायित कर चुके थे-
गिरा अनयन नयन बिनु बानी।
कालिदास अपनी उपमाओं के लिए जग विख्यात हैं। संस्कृत में कहा गया है-कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थगौरव, दण्डी का पदलालित्य, किन्तु माघ में इन तीनों का समावेश पाया जाता है।
कालिदास के विषय में जितना लिखा जाय वह कम होगा। यहां पर उनके प्रसिद्ध नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का हिन्दी अनुवाद 'शकुन्तला' नाम से प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमें संस्कृत भाषा का सौष्ठव और हिन्दी का लालित्य स्थायी रखने का हमने प्रयत्न किया है।
हमें आशा है कि इसको पढ़ने से पाठक को संस्कृत काव्य के लावण्य और अनुपमेयता का आभास अवश्य होगा।
मकर संक्रान्ति : 2043 -अशोक कौशिक
दिल्ली
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