विविध >> सफाई देवता सफाई देवताओमप्रकाश वाल्मीकि
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ख्याति प्राप्त दलित लेखक ओमप्रकाश की इस पुस्तक में देशसमाज के सबसे उपेक्षित तबके भंगी या वाल्मीकि की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ, मौजूदा वास्तविक स्थिति का सप्रमाण वर्णन करने का प्रयास किया गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
...यह समाज जितना दिमाग भंगियो से नफरत करने में लगाता है, उतना दिमाग
स्वच्छता कैसे स्थापित की जाए में नहीं लगाता। अस्पृश्यता और जातिवाद को
बनाए रखने की साजिश को उसने अपने संस्कारों का हिस्सा बना लिया है।
भारतीय समाज में अस्पृश्यता की इन धारणाओं के चलते भगियों को तकलीफदेह अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता है। नासिक (महाराष्ट्र) नगरपालिका की वार्षिक रिपोर्ट 1984-85 में बताया गया है—‘‘शौचालय रात को ही साफ किए जाते हैं और रातों-रात मैला डिपो में पहुँचा दिया जाता है। भंगियों के मनहूस हुलिए को देखना भी लोगों को गवारा नहीं है। अतएव मैंला-सफाई का काम रात के अँधेरे में ही कराना पड़ता था। रात के समय लालटेन की रोशनी में यह काम करना उनकी मजबूरी थी। हम तो यह सोचकर ही दंग रह जाते हैं, तंग, ऊबड़-खाबड़ गलियों से गुजरते हुए रात के अंधेरे में मैला ढोनेवाले उन लोगों पर क्या गुजरती होगी ?
भारतीय समाज में अस्पृश्यता की इन धारणाओं के चलते भगियों को तकलीफदेह अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता है। नासिक (महाराष्ट्र) नगरपालिका की वार्षिक रिपोर्ट 1984-85 में बताया गया है—‘‘शौचालय रात को ही साफ किए जाते हैं और रातों-रात मैला डिपो में पहुँचा दिया जाता है। भंगियों के मनहूस हुलिए को देखना भी लोगों को गवारा नहीं है। अतएव मैंला-सफाई का काम रात के अँधेरे में ही कराना पड़ता था। रात के समय लालटेन की रोशनी में यह काम करना उनकी मजबूरी थी। हम तो यह सोचकर ही दंग रह जाते हैं, तंग, ऊबड़-खाबड़ गलियों से गुजरते हुए रात के अंधेरे में मैला ढोनेवाले उन लोगों पर क्या गुजरती होगी ?
इसी पुस्तक से
ख्यात प्राप्त दलित लेखक ओमप्रकाश की इस पुस्तक में देशसमाज के सबसे उपेक्षित तबके
भंगी या वाल्मीकि की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ, मौजूदा वास्तविक
स्थिति का सप्रमाण वर्णन करने का प्रयास किया गया है।
‘भंगी’—शब्द सुनकर ही लोगों की भौंहें तन जाती हैं। सामज की उपेक्षा और प्रताड़ना ने उनमें इस हद तक हीनताबोध भर दिया है कि वाल्मीकि समाज के उच्च शिक्षित लोग भी अपनी पहचान छुपाते फिरते हैं। दलितों में दिल यह तबका आर्थिक विपन्नता के दलदल में फँसा है। पुनर्वसन की राजनीति करनेवाले इस तंत्र में इन सफाई कर्मचारियों के पुनर्वसन की ज़रूरत कभी किसी ने महसूस नहीं की। उच्चवर्गीय, ब्राह्मणवादी मानसिकता और सामन्ती सोच-विचार के लोग इन्हें कोई भी सामाजिक अधिकार देने के पक्ष में नहीं हैं।
इस पुस्तक का उद्देश्य ऐतिहासिक उत्पीड़न, शोषण और दमन का विश्लेषण करना है। उसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का आकलन करना है, और उसके सामने खड़ी समस्याओं का विवेचन करना है। इसके लिए ऐतिहासिक विवरण ही काफी नहीं, वर्तमान का मूल्यांकन भी उतना ही आवश्यक है। लेखक का उद्देश्य लम्बे भीषण, नारकीय दौरे में वाल्मीकि समाज की उपलब्धियों संघर्षों की खोज कर, ऐसी मिसाल पेश करना है जो भविष्य के अन्धकार उसे बाहर निकलने की प्रेरणा दे सके।
‘भंगी’—शब्द सुनकर ही लोगों की भौंहें तन जाती हैं। सामज की उपेक्षा और प्रताड़ना ने उनमें इस हद तक हीनताबोध भर दिया है कि वाल्मीकि समाज के उच्च शिक्षित लोग भी अपनी पहचान छुपाते फिरते हैं। दलितों में दिल यह तबका आर्थिक विपन्नता के दलदल में फँसा है। पुनर्वसन की राजनीति करनेवाले इस तंत्र में इन सफाई कर्मचारियों के पुनर्वसन की ज़रूरत कभी किसी ने महसूस नहीं की। उच्चवर्गीय, ब्राह्मणवादी मानसिकता और सामन्ती सोच-विचार के लोग इन्हें कोई भी सामाजिक अधिकार देने के पक्ष में नहीं हैं।
इस पुस्तक का उद्देश्य ऐतिहासिक उत्पीड़न, शोषण और दमन का विश्लेषण करना है। उसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का आकलन करना है, और उसके सामने खड़ी समस्याओं का विवेचन करना है। इसके लिए ऐतिहासिक विवरण ही काफी नहीं, वर्तमान का मूल्यांकन भी उतना ही आवश्यक है। लेखक का उद्देश्य लम्बे भीषण, नारकीय दौरे में वाल्मीकि समाज की उपलब्धियों संघर्षों की खोज कर, ऐसी मिसाल पेश करना है जो भविष्य के अन्धकार उसे बाहर निकलने की प्रेरणा दे सके।
क्षमा याचना...!
भारतीय समाज में ‘भंगी’ शब्द एक गाली की तरह इस्तेमाल
किया
जाता है। यह एक जाति सूचक संज्ञा भी है, लेकिन यहाँ यह गाली की तरह नहीं,
बल्कि समाज संरचना समझने के लिए प्रयोग हुआ है। अतः उन सभी सामाजिक
कार्यकर्ताओं, प्रबुद्ध लोगों की, जो इस शब्द के सार्वजनिक इस्तेमाल का
विरोध करते हैं, भावनाओं का ध्यान रखते हुए मैं इस सामाजिक ढाँचे की
विसंगतियों को विश्लेषित करने के लिए इस्तेमाल कर रहा हूँ। मुझे यह जरूर
लगा। यदि किसी को इससे भावनात्मक चोट पहुँच रही है, उसके लिए खेद है...!
ओमप्रकाश वाल्मीकि
भूमिका
कितने आश्चर्य की बात ही कि समाज की स्वच्छ और साफ रखनेवाले मनुष्य को,
उसी समाज में जिसे वह रहने लायक बनाता है, कुत्ते-बिल्लियों से भी नीचे
गिना जाता है। इससे बड़ी विडम्बना भला और क्या हो सकती है, कि समाज के लिए
जो सबसे ज्यादा उपयोगी है, वही निकृष्ट और त्याज्य है, वही अंत्यज्य,
अछूत, अस्पृश्य है, और यह एक-दो वर्ष या पचास- सौ वर्ष की बात नहीं है,
हजारों साल से यह मानसिकता बरकरार है। आज भी स्थिति यही है कि
‘भंगी’ का नाम सुनते ही लोगों की भौंहें तन जाती हैं
उनके काम
के प्रति अक्सर लोग उदासीन होते हैं या फिर कार्य तो निकृष्ट मानकर उनकी
उपेक्षा करते है। इसीलिए यह जाति हमेशा घोर उपेक्षा और पीड़ा के साथ जी
रही है।
‘भंगी-समाज’ जिसे आज ‘वाल्मीकि-समाज’ के नाम से जाना जाता है, के मन में यह बात बैठ चुकी है, जिसके कारण हीन-ग्रन्थियों के शिकार हैं। समाज की उपेक्षा और प्रताड़ना ने उनमें इस कद्र हीनता-बोध भर दिया है कि वाल्मीकि-परिवार में जन्मे उच्च शिक्षित, उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति भी अपनी पहचान (Identity) छिपा कर रखता है। न पंक्तियों का लेखक ऐसे अनेक प्रतिष्ठित कलाकारों, अधिकारियों, खिलाड़ियों, वैज्ञानिकों को व्यक्तिगत तौर पर जानता है, जो अपनी पहचान छिपाकर रखने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि वे जानते हैं, जिस रोज उनकी पहचान एक वाल्मीकि एक भंगी या लालबेगी या हेला, हलालखोर, मेहतर परिवार में जन्मे व्यक्ति की तरह खुलेगी, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा रेतीली दीवार की तरह ढह जाएगी। यह हीन-ग्रन्थी बनी कैसे ? एक-एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। सामाजिक दुर्भावना के कारण यह बनी है। इसी के फलस्वरूप पंजाब जैसे प्रान्त में जहाँ वाल्मीकियों की संख्या ही ज्यादा नहीं है, बल्कि आर्थिक, शैक्षणिक, राजनैतिक प्रगति में भी आगे हैं, देश के अन्य वाल्मीकियों से, लेकिन फिर भी वहाँ पढ़ा-लिखा तबका अपने परिवार उपनामों को परिवर्तित कर लेता है या छिपा लेता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में भी यही स्थित है। परिवार उपनामों को संशोधित, परिवर्तित कर लेने का प्रचलन बढ़ गया है। जैसे सौदा से सौदा, सूद कर लेना या चिनालिये से चंचल, चन्द्रिल, चन्द्रा या फिर चुटेल या चोहटेल से चौटाला बिडलान से बिडला आदि-आदि। अपनी ग्रन्थी से उबरने का उन्हें यह रास्ता सुविधाजनक या सरल लगता है। लेकिन इसके भविष्य में क्या दुष्परिणाम होंगे, इससे वे अनभिज्ञ हैं। किसी समस्या से मुक्त होने के लिए पलायनवादी रास्ता कुछ समय के लिए आकर्षक और उपयोगी हो सकता है, लेकिन वही अन्तिम नहीं होता है। मुक्ति के लिए संघर्ष जरूरी होता है। वही विकास की दिशा तय करता है, और भविष्य के परिणाम भी।
दलितों में भी दलित यह समाज आर्थिक विपन्नता की दलदल में फँसा है। सरकारी योजनाओं में बाँध पीड़ितों के लिए पुनर्वसन की व्यवस्था होती है लेकिन सफाई कर्मचारियों के पुनर्वसन की आवश्यकता कभी किसी ने महसूस नहीं की।
उच्चवर्णीय, ब्राह्मणवादी मानसिकता, सामन्ती सोच-विचार के लोग मानवीय आधार पर भी इन्हें कोई भी अधिकार देने के पक्ष में नहीं हैं। आजादी के पचास वर्ष बाद भी मैला सिर पर ढोने की पद्धति आज भी अनेक महानगरों, कस्बों में विद्यमान है। राज्यसभा, लोकसभा अपने तमाम लोकतांत्रिक वादों के बाद भी मैला ढोने की प्रथा को बन्द कराने और समाज के लोगों का पुनर्वास करने की अपनी प्रतिबद्धता दिखाने में नाकाम रही है।
श्री एन. आर. मलकानी अपनी पुस्तक ‘स्वच्छ लोक और अस्वच्छ देश’ में लिखते हैं —‘दूसरे देशों में न भंगी होते थे, न अब हैं। लेकिन हम खुद भंगियों को नियुक्त करना चाहते हैं। हमारा दावा है कि हमारी दुनिया के सर्वाधिक साफ-सुथरे इनसान हैं। हमारा अहंकार जितना महान है, उतना ही हमारा पतन भी।’ सरकारी समितियों की वस्तुस्थिति का जिक्र करते हुए वे आगे लिखते हैं, ‘सरकारी समितियों की सिफारिशें अब महज पुराण-पोथी बनकर रह गई हैं। सिफारिशे कार्यान्वित करनेवाले अधिकारी ही बहाने बनाने में लगे होते हैं। पालिका प्रशासन ही क्यों, कामगार संगठन भी सिफारिशों को समेटकर रखने की प्रवृत्ति का तनिक भी विरोध नहीं करते हैं।’
प्रत्येक नगरपालिका में कूड़ा-करकट उठानेवाली गाड़ियों में काम करनेवाले कर्मचारियों के प्रति प्रशासन जितना लापरवाह है, उसकी चर्चा करना भी प्रशासन को गवारा नहीं है। मैला ढोनेवाली गाड़ियों को भरना, खाली करना, किसी नरक से कम नहीं है, और यह काम सभी शहरों में होता है।
पुणे महापालिका में हुई दुर्घटना का जिक्र करते हुए, डॉ. बाबा आढाव लिखते हैं, ‘वहाँ ड्रेनेज मेंटनेंस’ नाम का विभाग है इस विभाग में निट्ठले लोगों की भर्ती की जाती है। अक्सर पालिका सभासद अपने पिट्ठुओं-चमचों को इसी विभाग में नौकरी दिलवाते हैं। ये सिफारिशी टट्टू सफाईकर्मी के रूप में नौकरी में आ तो जाते हैं, पर मैले को हाथ नहीं लगाते हैं। उनकी राय से यह काम भंगियों को करना चाहिए। भंगी-कामगार संगठन के लोग भी भंगियों के ‘एकाधिकार’ के पेशाई महत्त्व को कम न होने देने के डर से अपना मुँह खोलना ही बेहतर मानते हैं।’
ज्यादातर नगरों में सफाई करनेवाले, इसी समाज से सम्बन्धित हैं उनके संगठन हैं। अखिल भारतीय सफाई मजदूर जैसी संस्थाएं हैं, आयोग है, वाल्मीकि समाज के संगठन हैं, जो सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। लेकिन मूलभूत समस्याएँ ज्यों की त्यों हैं। इस समाज में अनपढ़, अशिक्षित, अर्धशिक्षित नेताओं की भी कमी नहीं है, जो बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के स्थानीय नेताओं के पिछलग्गू बनकर छोटे-मोटे हाथ साधने में लगे रहते हैं। समाज की मुक्ति और उसके विकास से उनका कोई लेना-देना नहीं होता है, न ही उनके पास इस तरह की जानकारियाँ होती हैं। सामाजिक चेतना की भी इनमें कमी होती है।
इस समाज के कुछ लोगों ने अपनी जीविका के लिए अन्य पेशे भी अपनाए हैं, लेकिन जातीयता की भावना वहाँ भी इनका पीछा नहीं छोड़ती है, न ये लोग ही हीनताबोध से उबर पाते हैं।
‘द हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ 1818, में जेम्स मिल वर्ण-व्यवस्था का विवरण देते हुए लिखते हैं—‘हिन्दुओं में जाति जन्य पराधीनता की विभीषिका किसी भी अन्य समाज की अपेक्षा अधिक विनाशात्मक है (पृ.166)।’ इस जातिजन्य पराधीनता की भावना ने हजारों साल से इस समाज का उत्पीड़न किया है, जिसने मानसिक दासता को सुदृढ़ किया है।
डॉ. अम्बेडकर शुद्रों को उच्चवंश का सिद्ध करते हैं। अपनी पुस्तक ‘हू वेयर शुद्राज’ (शूद्र कौन थे ?), 1946 में यह मनोवृत्ति वाल्मीकि समाज में भी परिलक्षित होती है। इसी मनोवृत्ति के कारण इस समाज ने स्वयं अपने गोत्रों, उपनामों में परिवर्तन, संशोधन करना शुरू किया। ‘शान्ति पर्व’ (महाभारत) में पैंजवन को शूद्र राजा कहा गया है। उसने यज्ञ किया था, जिसके कारण शूद्र को क्षत्रिय होने के प्रमाण के तौर पर मान लिया गया। इसी से यह स्थित बनी। लेकिन वाल्मीकि-समाज की मूल समस्या-अस्पृश्यता एवं विपन्नता, सामाजिक स्तर पर निकृष्ट तम स्थान—में कोई बदलाव या कोई समाधान होने की कोई प्रक्रिया दिखाई पड़ती है ? इससे समाज की मानसिकता में कोई बदलाव आने की सम्भावना दिखाई नहीं पड़ती है। बदलाव के संघर्ष और दास्ता से मुक्त होने का भाव पैदा होना जरूरी है।
इस पुस्तक का उद्देश्य ऐतिहासिक उत्पीड़न, शोषण, दमन का विश्लेषण करना है। उसकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पृष्भूमि का आकलन करना है, तथा उसके समक्ष खड़ी समस्याओं का विवेचन करना है। जैसे लम्बे भीषण, नारकीय दौर में उसकी उपलब्धियो, संघर्षों की खोज कर, एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना है, जो भविष्य के अन्धकार से उसे बाहर निकलने की प्रेरणा दे सके। इसके लिए ऐतिहासिक विवरण ही काफी नहीं हैं, वर्तमान का मूल्यांकन भी उतना ही आवश्यक है। आँकड़े, तथ्य अपर्याप्त हैं, स्रोत सामग्री तथ्यपरक उपलब्ध नहीं है।
‘भंगी-समाज’ जिसे आज ‘वाल्मीकि-समाज’ के नाम से जाना जाता है, के मन में यह बात बैठ चुकी है, जिसके कारण हीन-ग्रन्थियों के शिकार हैं। समाज की उपेक्षा और प्रताड़ना ने उनमें इस कद्र हीनता-बोध भर दिया है कि वाल्मीकि-परिवार में जन्मे उच्च शिक्षित, उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति भी अपनी पहचान (Identity) छिपा कर रखता है। न पंक्तियों का लेखक ऐसे अनेक प्रतिष्ठित कलाकारों, अधिकारियों, खिलाड़ियों, वैज्ञानिकों को व्यक्तिगत तौर पर जानता है, जो अपनी पहचान छिपाकर रखने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि वे जानते हैं, जिस रोज उनकी पहचान एक वाल्मीकि एक भंगी या लालबेगी या हेला, हलालखोर, मेहतर परिवार में जन्मे व्यक्ति की तरह खुलेगी, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा रेतीली दीवार की तरह ढह जाएगी। यह हीन-ग्रन्थी बनी कैसे ? एक-एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। सामाजिक दुर्भावना के कारण यह बनी है। इसी के फलस्वरूप पंजाब जैसे प्रान्त में जहाँ वाल्मीकियों की संख्या ही ज्यादा नहीं है, बल्कि आर्थिक, शैक्षणिक, राजनैतिक प्रगति में भी आगे हैं, देश के अन्य वाल्मीकियों से, लेकिन फिर भी वहाँ पढ़ा-लिखा तबका अपने परिवार उपनामों को परिवर्तित कर लेता है या छिपा लेता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में भी यही स्थित है। परिवार उपनामों को संशोधित, परिवर्तित कर लेने का प्रचलन बढ़ गया है। जैसे सौदा से सौदा, सूद कर लेना या चिनालिये से चंचल, चन्द्रिल, चन्द्रा या फिर चुटेल या चोहटेल से चौटाला बिडलान से बिडला आदि-आदि। अपनी ग्रन्थी से उबरने का उन्हें यह रास्ता सुविधाजनक या सरल लगता है। लेकिन इसके भविष्य में क्या दुष्परिणाम होंगे, इससे वे अनभिज्ञ हैं। किसी समस्या से मुक्त होने के लिए पलायनवादी रास्ता कुछ समय के लिए आकर्षक और उपयोगी हो सकता है, लेकिन वही अन्तिम नहीं होता है। मुक्ति के लिए संघर्ष जरूरी होता है। वही विकास की दिशा तय करता है, और भविष्य के परिणाम भी।
दलितों में भी दलित यह समाज आर्थिक विपन्नता की दलदल में फँसा है। सरकारी योजनाओं में बाँध पीड़ितों के लिए पुनर्वसन की व्यवस्था होती है लेकिन सफाई कर्मचारियों के पुनर्वसन की आवश्यकता कभी किसी ने महसूस नहीं की।
उच्चवर्णीय, ब्राह्मणवादी मानसिकता, सामन्ती सोच-विचार के लोग मानवीय आधार पर भी इन्हें कोई भी अधिकार देने के पक्ष में नहीं हैं। आजादी के पचास वर्ष बाद भी मैला सिर पर ढोने की पद्धति आज भी अनेक महानगरों, कस्बों में विद्यमान है। राज्यसभा, लोकसभा अपने तमाम लोकतांत्रिक वादों के बाद भी मैला ढोने की प्रथा को बन्द कराने और समाज के लोगों का पुनर्वास करने की अपनी प्रतिबद्धता दिखाने में नाकाम रही है।
श्री एन. आर. मलकानी अपनी पुस्तक ‘स्वच्छ लोक और अस्वच्छ देश’ में लिखते हैं —‘दूसरे देशों में न भंगी होते थे, न अब हैं। लेकिन हम खुद भंगियों को नियुक्त करना चाहते हैं। हमारा दावा है कि हमारी दुनिया के सर्वाधिक साफ-सुथरे इनसान हैं। हमारा अहंकार जितना महान है, उतना ही हमारा पतन भी।’ सरकारी समितियों की वस्तुस्थिति का जिक्र करते हुए वे आगे लिखते हैं, ‘सरकारी समितियों की सिफारिशें अब महज पुराण-पोथी बनकर रह गई हैं। सिफारिशे कार्यान्वित करनेवाले अधिकारी ही बहाने बनाने में लगे होते हैं। पालिका प्रशासन ही क्यों, कामगार संगठन भी सिफारिशों को समेटकर रखने की प्रवृत्ति का तनिक भी विरोध नहीं करते हैं।’
प्रत्येक नगरपालिका में कूड़ा-करकट उठानेवाली गाड़ियों में काम करनेवाले कर्मचारियों के प्रति प्रशासन जितना लापरवाह है, उसकी चर्चा करना भी प्रशासन को गवारा नहीं है। मैला ढोनेवाली गाड़ियों को भरना, खाली करना, किसी नरक से कम नहीं है, और यह काम सभी शहरों में होता है।
पुणे महापालिका में हुई दुर्घटना का जिक्र करते हुए, डॉ. बाबा आढाव लिखते हैं, ‘वहाँ ड्रेनेज मेंटनेंस’ नाम का विभाग है इस विभाग में निट्ठले लोगों की भर्ती की जाती है। अक्सर पालिका सभासद अपने पिट्ठुओं-चमचों को इसी विभाग में नौकरी दिलवाते हैं। ये सिफारिशी टट्टू सफाईकर्मी के रूप में नौकरी में आ तो जाते हैं, पर मैले को हाथ नहीं लगाते हैं। उनकी राय से यह काम भंगियों को करना चाहिए। भंगी-कामगार संगठन के लोग भी भंगियों के ‘एकाधिकार’ के पेशाई महत्त्व को कम न होने देने के डर से अपना मुँह खोलना ही बेहतर मानते हैं।’
ज्यादातर नगरों में सफाई करनेवाले, इसी समाज से सम्बन्धित हैं उनके संगठन हैं। अखिल भारतीय सफाई मजदूर जैसी संस्थाएं हैं, आयोग है, वाल्मीकि समाज के संगठन हैं, जो सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। लेकिन मूलभूत समस्याएँ ज्यों की त्यों हैं। इस समाज में अनपढ़, अशिक्षित, अर्धशिक्षित नेताओं की भी कमी नहीं है, जो बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के स्थानीय नेताओं के पिछलग्गू बनकर छोटे-मोटे हाथ साधने में लगे रहते हैं। समाज की मुक्ति और उसके विकास से उनका कोई लेना-देना नहीं होता है, न ही उनके पास इस तरह की जानकारियाँ होती हैं। सामाजिक चेतना की भी इनमें कमी होती है।
इस समाज के कुछ लोगों ने अपनी जीविका के लिए अन्य पेशे भी अपनाए हैं, लेकिन जातीयता की भावना वहाँ भी इनका पीछा नहीं छोड़ती है, न ये लोग ही हीनताबोध से उबर पाते हैं।
‘द हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ 1818, में जेम्स मिल वर्ण-व्यवस्था का विवरण देते हुए लिखते हैं—‘हिन्दुओं में जाति जन्य पराधीनता की विभीषिका किसी भी अन्य समाज की अपेक्षा अधिक विनाशात्मक है (पृ.166)।’ इस जातिजन्य पराधीनता की भावना ने हजारों साल से इस समाज का उत्पीड़न किया है, जिसने मानसिक दासता को सुदृढ़ किया है।
डॉ. अम्बेडकर शुद्रों को उच्चवंश का सिद्ध करते हैं। अपनी पुस्तक ‘हू वेयर शुद्राज’ (शूद्र कौन थे ?), 1946 में यह मनोवृत्ति वाल्मीकि समाज में भी परिलक्षित होती है। इसी मनोवृत्ति के कारण इस समाज ने स्वयं अपने गोत्रों, उपनामों में परिवर्तन, संशोधन करना शुरू किया। ‘शान्ति पर्व’ (महाभारत) में पैंजवन को शूद्र राजा कहा गया है। उसने यज्ञ किया था, जिसके कारण शूद्र को क्षत्रिय होने के प्रमाण के तौर पर मान लिया गया। इसी से यह स्थित बनी। लेकिन वाल्मीकि-समाज की मूल समस्या-अस्पृश्यता एवं विपन्नता, सामाजिक स्तर पर निकृष्ट तम स्थान—में कोई बदलाव या कोई समाधान होने की कोई प्रक्रिया दिखाई पड़ती है ? इससे समाज की मानसिकता में कोई बदलाव आने की सम्भावना दिखाई नहीं पड़ती है। बदलाव के संघर्ष और दास्ता से मुक्त होने का भाव पैदा होना जरूरी है।
इस पुस्तक का उद्देश्य ऐतिहासिक उत्पीड़न, शोषण, दमन का विश्लेषण करना है। उसकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पृष्भूमि का आकलन करना है, तथा उसके समक्ष खड़ी समस्याओं का विवेचन करना है। जैसे लम्बे भीषण, नारकीय दौर में उसकी उपलब्धियो, संघर्षों की खोज कर, एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना है, जो भविष्य के अन्धकार से उसे बाहर निकलने की प्रेरणा दे सके। इसके लिए ऐतिहासिक विवरण ही काफी नहीं हैं, वर्तमान का मूल्यांकन भी उतना ही आवश्यक है। आँकड़े, तथ्य अपर्याप्त हैं, स्रोत सामग्री तथ्यपरक उपलब्ध नहीं है।
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