कहानी संग्रह >> महकती बगिया महकती बगियाशुभांगी भडभडे
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‘महकती बगिया’ की कहानियाँ वास्तविकता पर आधारित हैं। ये कहानियाँ जूही की तरह सुगंधमय बरसात करती हैं, बेला की महक लेकर तपती ग्रीष्म को महकाती हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हर भाषा में कथा- साहित्य सबसे समृद्ध साहित्य-विधा है और कहानी पाठकों का
सबसे बड़ा आकर्षण रही है। कहानी के लिए कोई विषय वर्ण्य नहीं होता, भावना
की उत्कटता ही कहानी का प्राण होता है।
मराठी की प्रसिद्ध लेखिका शुभांगी भडभडे मराठी साहित्य को दस कहानी-संग्रह भेंट कर चुकी हैं, परंतु हिंदीभाषियों के लिए यह उनका प्रथम कहानी-संग्रह है। इस संग्रह में हर ऋतु की कहानी; हर पल, हर घड़ी की कहानी है; हर उत्कट भावना तथा संवेदना की कहानी है। मनुष्य के आस-पास घटित होनेवाले प्रत्येक क्षण एवं प्रत्येक संवाद की कहानी है।
प्रस्तुत संग्रह ‘महकती बगिया’ की कहानियाँ वास्तविकता पर आधारित हैं। ये कहानियाँ जूही की तरह सुगंधमय बरसात करती हैं, बेला की महक लेकर तपती ग्रीष्म को महकाती हैं। पाठक इन कहानियों में समाज में दिन-प्रतिदिन घटती घटनाएँ एवं समाज में दिन-प्रतिदिन घटती घटनाएँ एवं अपने आस-पास का वातावरण महसूस करेंगे। उन्हें ये अपनी कहानी लगेंगी।
मराठी की प्रसिद्ध लेखिका शुभांगी भडभडे मराठी साहित्य को दस कहानी-संग्रह भेंट कर चुकी हैं, परंतु हिंदीभाषियों के लिए यह उनका प्रथम कहानी-संग्रह है। इस संग्रह में हर ऋतु की कहानी; हर पल, हर घड़ी की कहानी है; हर उत्कट भावना तथा संवेदना की कहानी है। मनुष्य के आस-पास घटित होनेवाले प्रत्येक क्षण एवं प्रत्येक संवाद की कहानी है।
प्रस्तुत संग्रह ‘महकती बगिया’ की कहानियाँ वास्तविकता पर आधारित हैं। ये कहानियाँ जूही की तरह सुगंधमय बरसात करती हैं, बेला की महक लेकर तपती ग्रीष्म को महकाती हैं। पाठक इन कहानियों में समाज में दिन-प्रतिदिन घटती घटनाएँ एवं समाज में दिन-प्रतिदिन घटती घटनाएँ एवं अपने आस-पास का वातावरण महसूस करेंगे। उन्हें ये अपनी कहानी लगेंगी।
दो शब्द
‘महकती बगिया’ हिंदी भाषा में प्रकाशित होने वाला
मेरा पहला
कहानी संग्रह है। वैसे मराठी भाषा में दस कहानी संग्रह प्रकाशित हैं और
पाठकों को बहुत ही प्रिय लगे हैं।
संपूर्ण जीवन के कैनवास पर उपन्यास लिखना मुझे सबसे प्रिय है, विशेषतः चरित्र उपन्यास लिखना मुझे बहुत ही प्रिय है। आज तक तीस उपन्यास लिखने के उपरांत भी मेरा मन अपूर्ण-अधूरा तथा अस्वस्थ-सा है।
फिर भी, वास्तविक घटनाओं पर कहानी लिखना भी मुझे अच्छा लगता है। कहानी एक ऐसी साहित्यिक विधा है, जो जीवन की बगिया में हरदम महकती रहती है। कहानी जुही की तरह बरसात गंधित करती है तो बेला की महक लेकर ग्रीष्मकाल को गंधित करती है। मधुमालती की तरह हिमकालीन गंधित लहर लेकर आती है तो कभी मन में दीर्घ काल तक ब्रह्मकमल की तरह शूद्ररूप लेने की प्रतीक्षा में रहती है।
हर ऋतु की कहानी है; हर पल हर घड़ी की कहानी है। हर उत्कट भावना तथा संवेदना की कहानी है। मनुष्य के आस-पास घटित होनेवाला प्रत्येक क्षण, प्रत्येक संवाद एक कहानी है। उसका जीवन ही घटित घटनाओं की कहानी है।
दादी की गोदी में सुनी हुई कहानियाँ उम्र और परिस्थिति के साथ-साथ रूप बदलती जाती हैं। लेकिन सांध्य पर्व में, ढलती धूप में भी कहानी प्रिय सखी की तरह कभी नहीं छोड़ती।
हर भाषा में कथा साहित्य सबसे समृद्ध साहित्यिक विधा है और कहानी पाठकों का आकर्षण रही है। कहानी के लिए कोई विशेष वर्ण्य नहीं है। भावना की उत्कटता ही कहानी का प्राण है। मेरी कहानियाँ भी वास्तविकता पर आधारित हैं और मराठी पाठकों ने उसे हृदय से अपनाया है। अनेक भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ है।
प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘महकती बगिया’ का हिंदी अनुवाद शिमला (हिमाचल प्रदेश) में रहनेवाली मेरी पत्र सहेली (पेन फ्रेंड) प्राचार्य डॉ. उषा बंदे ने किया है। उनकी मैं ऋणी हूँ।
हिंदी भाषा में प्रथम बार प्रकाशित होनेवाले अपने इस कहानी-संग्रह ‘महकती बगिया’ के पाठकों से मैं अनुरोध करती हूँ कि आप मुझे अपनी प्रतिक्रिया जरूर भेजें, जिससे मैं आपकी रुचि जान सकूँ। मैं प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करूँगी।
संपूर्ण जीवन के कैनवास पर उपन्यास लिखना मुझे सबसे प्रिय है, विशेषतः चरित्र उपन्यास लिखना मुझे बहुत ही प्रिय है। आज तक तीस उपन्यास लिखने के उपरांत भी मेरा मन अपूर्ण-अधूरा तथा अस्वस्थ-सा है।
फिर भी, वास्तविक घटनाओं पर कहानी लिखना भी मुझे अच्छा लगता है। कहानी एक ऐसी साहित्यिक विधा है, जो जीवन की बगिया में हरदम महकती रहती है। कहानी जुही की तरह बरसात गंधित करती है तो बेला की महक लेकर ग्रीष्मकाल को गंधित करती है। मधुमालती की तरह हिमकालीन गंधित लहर लेकर आती है तो कभी मन में दीर्घ काल तक ब्रह्मकमल की तरह शूद्ररूप लेने की प्रतीक्षा में रहती है।
हर ऋतु की कहानी है; हर पल हर घड़ी की कहानी है। हर उत्कट भावना तथा संवेदना की कहानी है। मनुष्य के आस-पास घटित होनेवाला प्रत्येक क्षण, प्रत्येक संवाद एक कहानी है। उसका जीवन ही घटित घटनाओं की कहानी है।
दादी की गोदी में सुनी हुई कहानियाँ उम्र और परिस्थिति के साथ-साथ रूप बदलती जाती हैं। लेकिन सांध्य पर्व में, ढलती धूप में भी कहानी प्रिय सखी की तरह कभी नहीं छोड़ती।
हर भाषा में कथा साहित्य सबसे समृद्ध साहित्यिक विधा है और कहानी पाठकों का आकर्षण रही है। कहानी के लिए कोई विशेष वर्ण्य नहीं है। भावना की उत्कटता ही कहानी का प्राण है। मेरी कहानियाँ भी वास्तविकता पर आधारित हैं और मराठी पाठकों ने उसे हृदय से अपनाया है। अनेक भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ है।
प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘महकती बगिया’ का हिंदी अनुवाद शिमला (हिमाचल प्रदेश) में रहनेवाली मेरी पत्र सहेली (पेन फ्रेंड) प्राचार्य डॉ. उषा बंदे ने किया है। उनकी मैं ऋणी हूँ।
हिंदी भाषा में प्रथम बार प्रकाशित होनेवाले अपने इस कहानी-संग्रह ‘महकती बगिया’ के पाठकों से मैं अनुरोध करती हूँ कि आप मुझे अपनी प्रतिक्रिया जरूर भेजें, जिससे मैं आपकी रुचि जान सकूँ। मैं प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करूँगी।
-शुभांगी भडभडे
महकती बगिया
‘‘गाओ, सायली। शाबाश ! करो शुरू
!’’
जयदेव ने कहा और सायली सधकर बैठ गई। अभी पहला अलाप ही लिया था कि हॉल तालियों से गूँज उठा। सायली ने अपना चेहरा हथेलियों में छिपा लिया। उसकी हँसती आँखे, हँसते होंठ....सारा गाना ही हँसता हुआ और प्रफुल्लित हो उठा। कसकर बँधी दो चोटियाँ, दो बड़ी-बड़ी आँखें, श्रोताओं की ओर आमुख होकर हँसते होंठ ! दिल खोलकर तालियाँ बजाकर रसिकों ने ‘वाह-वाह’ की। जादू-सा विखेर गया सायली का गाना।
परदा गिरा और रसिकों की भीड़ मंच की ओर बढ़ी। सायली घबरा गई, अस्वस्थ हुई। जयदेव ने देखा और लपककर उसे दोनों हाथों पर उठा लिया। फिर भी उसकी कमजोर और निर्जीव टाँगे रसिकों को दिखाई दीं। जयदेव मंच की सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आए तो भीड़ ने उन्हें सहज ही रास्ता दिया, मानों उनका दर्द सब एकबारगी समझ गए हों। रूपा भी पीछे भागी।
टैक्सी तक आते-आते रूपा मन-की-मन बोली, ‘आने की भी जल्दी और जाने की भी जल्दी।’ फिर जयदेव की ओर देखकर उसने कहा, ‘‘सुनों ! प्रोग्राम आयोजक देसाई आपको बुला रहे हैं।’’
जयदेव ने सुनी-अनसुनी कर दी। सायली को टैक्सी में ठूँसा और स्वयं भी बैठ गए। बेबस-सी रूपा भी बैठ गई। टैक्सी चल पड़ी।
‘‘देसाई से मिल तो लेते। आखिर आयोजक हैं !’’
जयदेव चुप।
‘‘माँ, मेरा गाना कैसा रहा ?’’
‘‘पूछो अपने पिता से ! आप भी कमाल करते हैं। न जाने कब, किस बात से मूड बिगड़ जाए आपका। बताओ तो उसे, कैसा रहा उसका गाना ?’’
‘‘अच्छा रहा !’’ जयदेव बाहर देखकर बोले।
‘‘माँ, लोगों ने गाने पर तो तालियाँ बजाईं, पर मेरी टाँगे देखकर क्या लगा होगा उन्हें ?’’
‘‘लगना क्या है, बेटी ! जो देखा, वही लगा होगा। जो सच है वह झुठलाया जाएगा क्या ?’’ रूपा ने निःश्वास लेते हुए कहा।
‘‘हाँ माँ, उन्हें लगा होगा कि यह कैसी लड़की है, जो खड़ी तक नहीं हो सकती है न ?’’
‘‘चुप भी रहो, सायली, बोलती ही रहोगी !’’ जयदेव का स्वर कुछ कड़ा था।
सायली चुप हो गई।
घर आते ही बिना बोले हमेशा की भाँति खिड़की के पास जाकर बैठ गई।
‘‘सायली, रात बहुत हो चुकी है, चलो खाना खाओ और सो जाओ।’’
सायली अपनी निर्जीव टाँगों को हाथों से आगे-पीछे करती, घसीटती-घसीटती चौकी पर आकर बैठ गई।
‘‘आओ, खाना खाने।’’ रूपा ने पुकारा।
जयदेव अपने कमरे की खिड़की से आसमान का टुकड़ा एकटक देख रहे थे।
‘‘चलो,’’ रूपा ने फिर पुकारा, ‘‘सायली को चौकी पर बिठा दिया है।’’
जयदेव आकर बैठ गए।
‘‘पिताजी, मेरी निर्जीव टाँगों पर गुस्सा आया न आपको ? पर पिताजी, आप अच्छे हैं, माँ अच्छी है, फिर मैं क्यों...’’
रूपा की आँखें भर आईं। सायली के माथे पर हाथ फेरते हुए उसने कहा, ‘‘बेटी, तू नक्षत्र जैसी सुंदर है, तू कलाकार है। क्या बढ़िया गाना गाया आज ! लोगों ने भी कितना सम्मान दिया, तालियाँ बजाईं ! हमें गर्व है तुमपर, सायली, नाज है तुम पर !’’
हमेशा की तरह जयदेव ने खुलकर बात नहीं की।
सोते समय सायली बोली, ‘‘पिताजी, नाराज हैं न मेरी टाँगों पर, मुझ पर ? माँ, भगवान् अच्छी टाँगोंवाली लड़कियाँ क्यों नहीं बनाता ?’’
‘‘सभी को सबकुछ नहीं मिलता, बेटी !’
‘‘फिर भगवान् अच्छा नहीं है। अच्छे लोगों को सबकुछ अच्छा नहीं देता। रघु को अंधा बनाया, मिनी बीमार रहती है, ऐसा क्यों, माँ ?
‘‘चल, सो जा अब सायली, कल बताऊँगी।’’
सायली अस्वस्थ-सी बेचैन-सी सो गई।
आधी रात हो चुकी थी। सिर के नीचे हाथ रखे हुए खिड़की से आकाश की ओर देखते हुए जयदेव शांत पड़े थे।
‘‘सायली सो गई ?’’ उन्होंने पूछा।
‘‘हाँ, पर अचानक आपको क्या हो गया था ?’’
‘‘पता नहीं क्या हुआ। लोगों की आँखों में दया, सहानुभूति देख मेरा खून खौल गया। क्या गुनाह था मेरा रूपा, जो सायली ऐसी पैदा हुई ? हमारे साथ ही यह सब होना था ! क्यों, आखिर क्यों ?’’ जयदेव एक साँस में ही बोल गए।
कुछ देर चुप बैठे, फिर बोल पड़े, ‘‘हम कहते हैं—कर्मों का फल है, हम कहते हैं जन्म का हिसाब यहीं चुकता करना पड़ता है। तुम याद करो, जब से विवाह हुआ है, तुमने मुझे परखा है। क्या मैंने किसी का अहित किया है ? किसी के पैसे खाए हैं ? सीधे मार्ग पर चलनेवाला मैं....सारे स्वप्न चू-चूर हो गए।’’
जयदेव उद्विग्न थे, पर रूपा के पास उन्हें सांत्वना देने के लिए शब्द कहाँ थे !
रूपा ने जयदेव को हमेशा हँसता हुआ देखा था—
आठ घंटे की नौकरी के बाद सीधे घर आना, खूब हँसने-बोलनेवाले, बच्चा न होने की कमी को दोस्तों, गीत-संगीत की महफिलों में भूलनेवाले जयदेव-आनंदी जयदेव, दिल खोलकर खाने-खिलाने वाले जयदेव !
सायली आई रूपा-जयदेव के जीवन में, पर देर से आई। घर में आनंद छा गया। कोई भी सामने आ जाए, शिशु सायली खिलखिलाती। उसका चेहरा आकर्षक, शरीर हष्ट-पुष्ट था... पर,पर टाँगें ? मानों दो लकड़ियाँ थीं, बेजान। कमर से नीचे सायली निर्जीव थी। सारे उपचार हुए, डॉक्टरों को दिखाया गया, वैद्य भी देख गए; मनौतियाँ, व्रत, टोटके सब कुछ किया, पर सायली पर कुछ भी असर नहीं हुआ।
रूपा की आँखे रो-रोकर सूख गईं। उसने वास्तविकता से सामना करने की ठान ली। जयदेव कभी चिढ़ जाते, कभी भावना में बह जाते और बेटी को देखकर मन मसोसकर रह जाते।
‘‘इस नक्षत्र को किसने शाप दिया होगा ? रूपा, यह शापित बाला हमारे भाग्य में ही क्यों आई ?’’
‘‘जो है उसे स्वीकारना पड़ेगा, जयदेव ! इस बात का अब शोक मत कीजिए। मन से स्वीकार करने से भार हलका हो जाता है !’’ रूपा ने शांत स्वर में कहा।
जयदेव ने कहा और सायली सधकर बैठ गई। अभी पहला अलाप ही लिया था कि हॉल तालियों से गूँज उठा। सायली ने अपना चेहरा हथेलियों में छिपा लिया। उसकी हँसती आँखे, हँसते होंठ....सारा गाना ही हँसता हुआ और प्रफुल्लित हो उठा। कसकर बँधी दो चोटियाँ, दो बड़ी-बड़ी आँखें, श्रोताओं की ओर आमुख होकर हँसते होंठ ! दिल खोलकर तालियाँ बजाकर रसिकों ने ‘वाह-वाह’ की। जादू-सा विखेर गया सायली का गाना।
परदा गिरा और रसिकों की भीड़ मंच की ओर बढ़ी। सायली घबरा गई, अस्वस्थ हुई। जयदेव ने देखा और लपककर उसे दोनों हाथों पर उठा लिया। फिर भी उसकी कमजोर और निर्जीव टाँगे रसिकों को दिखाई दीं। जयदेव मंच की सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आए तो भीड़ ने उन्हें सहज ही रास्ता दिया, मानों उनका दर्द सब एकबारगी समझ गए हों। रूपा भी पीछे भागी।
टैक्सी तक आते-आते रूपा मन-की-मन बोली, ‘आने की भी जल्दी और जाने की भी जल्दी।’ फिर जयदेव की ओर देखकर उसने कहा, ‘‘सुनों ! प्रोग्राम आयोजक देसाई आपको बुला रहे हैं।’’
जयदेव ने सुनी-अनसुनी कर दी। सायली को टैक्सी में ठूँसा और स्वयं भी बैठ गए। बेबस-सी रूपा भी बैठ गई। टैक्सी चल पड़ी।
‘‘देसाई से मिल तो लेते। आखिर आयोजक हैं !’’
जयदेव चुप।
‘‘माँ, मेरा गाना कैसा रहा ?’’
‘‘पूछो अपने पिता से ! आप भी कमाल करते हैं। न जाने कब, किस बात से मूड बिगड़ जाए आपका। बताओ तो उसे, कैसा रहा उसका गाना ?’’
‘‘अच्छा रहा !’’ जयदेव बाहर देखकर बोले।
‘‘माँ, लोगों ने गाने पर तो तालियाँ बजाईं, पर मेरी टाँगे देखकर क्या लगा होगा उन्हें ?’’
‘‘लगना क्या है, बेटी ! जो देखा, वही लगा होगा। जो सच है वह झुठलाया जाएगा क्या ?’’ रूपा ने निःश्वास लेते हुए कहा।
‘‘हाँ माँ, उन्हें लगा होगा कि यह कैसी लड़की है, जो खड़ी तक नहीं हो सकती है न ?’’
‘‘चुप भी रहो, सायली, बोलती ही रहोगी !’’ जयदेव का स्वर कुछ कड़ा था।
सायली चुप हो गई।
घर आते ही बिना बोले हमेशा की भाँति खिड़की के पास जाकर बैठ गई।
‘‘सायली, रात बहुत हो चुकी है, चलो खाना खाओ और सो जाओ।’’
सायली अपनी निर्जीव टाँगों को हाथों से आगे-पीछे करती, घसीटती-घसीटती चौकी पर आकर बैठ गई।
‘‘आओ, खाना खाने।’’ रूपा ने पुकारा।
जयदेव अपने कमरे की खिड़की से आसमान का टुकड़ा एकटक देख रहे थे।
‘‘चलो,’’ रूपा ने फिर पुकारा, ‘‘सायली को चौकी पर बिठा दिया है।’’
जयदेव आकर बैठ गए।
‘‘पिताजी, मेरी निर्जीव टाँगों पर गुस्सा आया न आपको ? पर पिताजी, आप अच्छे हैं, माँ अच्छी है, फिर मैं क्यों...’’
रूपा की आँखें भर आईं। सायली के माथे पर हाथ फेरते हुए उसने कहा, ‘‘बेटी, तू नक्षत्र जैसी सुंदर है, तू कलाकार है। क्या बढ़िया गाना गाया आज ! लोगों ने भी कितना सम्मान दिया, तालियाँ बजाईं ! हमें गर्व है तुमपर, सायली, नाज है तुम पर !’’
हमेशा की तरह जयदेव ने खुलकर बात नहीं की।
सोते समय सायली बोली, ‘‘पिताजी, नाराज हैं न मेरी टाँगों पर, मुझ पर ? माँ, भगवान् अच्छी टाँगोंवाली लड़कियाँ क्यों नहीं बनाता ?’’
‘‘सभी को सबकुछ नहीं मिलता, बेटी !’
‘‘फिर भगवान् अच्छा नहीं है। अच्छे लोगों को सबकुछ अच्छा नहीं देता। रघु को अंधा बनाया, मिनी बीमार रहती है, ऐसा क्यों, माँ ?
‘‘चल, सो जा अब सायली, कल बताऊँगी।’’
सायली अस्वस्थ-सी बेचैन-सी सो गई।
आधी रात हो चुकी थी। सिर के नीचे हाथ रखे हुए खिड़की से आकाश की ओर देखते हुए जयदेव शांत पड़े थे।
‘‘सायली सो गई ?’’ उन्होंने पूछा।
‘‘हाँ, पर अचानक आपको क्या हो गया था ?’’
‘‘पता नहीं क्या हुआ। लोगों की आँखों में दया, सहानुभूति देख मेरा खून खौल गया। क्या गुनाह था मेरा रूपा, जो सायली ऐसी पैदा हुई ? हमारे साथ ही यह सब होना था ! क्यों, आखिर क्यों ?’’ जयदेव एक साँस में ही बोल गए।
कुछ देर चुप बैठे, फिर बोल पड़े, ‘‘हम कहते हैं—कर्मों का फल है, हम कहते हैं जन्म का हिसाब यहीं चुकता करना पड़ता है। तुम याद करो, जब से विवाह हुआ है, तुमने मुझे परखा है। क्या मैंने किसी का अहित किया है ? किसी के पैसे खाए हैं ? सीधे मार्ग पर चलनेवाला मैं....सारे स्वप्न चू-चूर हो गए।’’
जयदेव उद्विग्न थे, पर रूपा के पास उन्हें सांत्वना देने के लिए शब्द कहाँ थे !
रूपा ने जयदेव को हमेशा हँसता हुआ देखा था—
आठ घंटे की नौकरी के बाद सीधे घर आना, खूब हँसने-बोलनेवाले, बच्चा न होने की कमी को दोस्तों, गीत-संगीत की महफिलों में भूलनेवाले जयदेव-आनंदी जयदेव, दिल खोलकर खाने-खिलाने वाले जयदेव !
सायली आई रूपा-जयदेव के जीवन में, पर देर से आई। घर में आनंद छा गया। कोई भी सामने आ जाए, शिशु सायली खिलखिलाती। उसका चेहरा आकर्षक, शरीर हष्ट-पुष्ट था... पर,पर टाँगें ? मानों दो लकड़ियाँ थीं, बेजान। कमर से नीचे सायली निर्जीव थी। सारे उपचार हुए, डॉक्टरों को दिखाया गया, वैद्य भी देख गए; मनौतियाँ, व्रत, टोटके सब कुछ किया, पर सायली पर कुछ भी असर नहीं हुआ।
रूपा की आँखे रो-रोकर सूख गईं। उसने वास्तविकता से सामना करने की ठान ली। जयदेव कभी चिढ़ जाते, कभी भावना में बह जाते और बेटी को देखकर मन मसोसकर रह जाते।
‘‘इस नक्षत्र को किसने शाप दिया होगा ? रूपा, यह शापित बाला हमारे भाग्य में ही क्यों आई ?’’
‘‘जो है उसे स्वीकारना पड़ेगा, जयदेव ! इस बात का अब शोक मत कीजिए। मन से स्वीकार करने से भार हलका हो जाता है !’’ रूपा ने शांत स्वर में कहा।
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