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जीवन कथाएँ >> पारसमणि

पारसमणि

शुभांगी भडभडे

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :343
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1718
आईएसबीएन :81-7315-366-3

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मराठी में प्रकाशित उपन्यास ‘कृतार्थ’ का हिंदी अनुवाद

Parasmani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘रामचरितमानस’ की एक अर्द्धाली है- ‘पारस परस कुधात सुहाई’, अर्थात् पारस के स्पर्श से लौह जैसी धातुएँ भी सोना हो जाती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार भी ऐसा ही पारस थे। उनके संपर्क में, सान्निध्य में आनेवाले लोग राष्ट्रनिष्ठ, सच्चरित्र व्यक्ति रूपी सोना बन जाते थे। उनके साहचर्य का सौभाग्य प्राप्त करनेवाले लोगों का कहना है कि जब वे उनसे मिलते थे, उनसे बात करते थे तो अंतर में एक अद्भुत अनुभूति होती थी। उनकी चिंता का प्रमुख विषय राष्ट्र-संघटना होता था। उन्होंने संघ कार्य प्रारम्भ किया; अनेक कठिनाइयाँ आईं। किन्तु उनका दृढ़ से सामना किया, संघटना कार्य में सतत लगे रहे। और आज प्रतिफल सामने है। यह उसी पारस के स्पर्श का परिणाम हैं कि संघ रूपी पौधा जो उन्होंने रोपा था वह विशाल से विशालतम होता चला गया और आज अक्षय वट सदृश हमारे सम्मुख है और समाजोत्थान में लगा हुआ है। डॉ. साहब संघ कार्य हेतु जहाँ भी जाते, लोगों में अपूर्व उल्लास छा जाता। उनके बौद्धिक, उनके विचारों को सुनकर लोगों को लगने लगा कि अब सही मार्ग, सही दिशा का निदर्शन होगा। राष्ट्र सेवार्थ लोग उनके साथ आते गए, संघटना कार्य बढ़ता गया।     
प्रस्तुत पुस्तक मराठी में प्रकाशित उपन्यास ‘कृतार्थ’ का हिंदी अनुवाद है। इसकी पांडुलिपि में यथोचित सुधार किया वरिष्ठ पत्रकार श्री बापूराव लेले ने। अस्वस्थता के बावजूद उन्होंने पांडुलिपि को माँजा और सँवारा, उनका हार्दिक आभार।
डॉक्टर साहब के जीवन पर आधारित उपन्यास रूपी यह ‘पारसमणि’ हिंदी पाठकों को उपलब्ध कराते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है।

प्रकाशक

आद्य प्रणेता डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार की जन्म-शताब्दी के वर्ष में संपूर्ण देश में सर्वत्र उनकी स्मृति उज्ज्वल करने के लिए विविध माध्यमों से अनेक उपक्रम सहज स्फूर्त भावना से मनाए जा रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी कुछ उपक्रम होना स्वाभाविक है। ललित साहित्य में उपन्यास एक बड़ा प्रभावी माध्यम है। परम पूजनीय डॉक्टर साहब के जीवन पर ‘कृतार्थ’ नामक उपन्यास लिखने का एक साहसी उपक्रम नागपुर की एक प्रसिद्ध लेखिका सुश्री शुभांगी भडभडे ने संघ विषयक आंतरिक आस्था से किया है। डॉ. साहब के जो प्रसिद्ध पराङ्मुखता के लिए प्रसिद्ध है, जीवन पर इस प्रकार की ललित कृति की रचना करते समय लेखिका को अपनी कल्पनाशक्ति तथा प्रतिभा को बहुत खींचना पड़ा, यह स्वाभाविक ही है।
सुश्री शुभांगी भडभडे के इस साहसपूर्ण उपक्रम के लिए उन्हें हार्दिक बधाई देते हुए उनके ‘कृतार्थ’ उपन्यास को मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूँ।

म.द. देवरस

भूमिका


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघ संचालक परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार पर लिखित ‘कृतार्थ’ मेरा बीसवाँ उपन्यास है जो हिन्दी में ‘पारसमणि’ नाम से प्रकाशित हो रहा है। श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरित्र पर आधारित उपन्यास ‘स्वयंभू’ जब मैंने लिखा तब अनेक अनुरोध भरे पत्र मेरे पास आए कि मैं स्वामी विवेकानंद पर भी लिखूँ। स्वामी विवेकानंद – जिन्होंने अखिल विश्व में हिन्दू धर्म की ध्वजा का सम्मान बढ़ाया-मुझे अत्यंत प्रभावित कर रहे थे। उनके तपः पूत जीवन, अनन्य हिंदुत्वनिष्ठ जीवन का अध्ययन करते समय ही मेरे मन में विचार आया कि जिस विदर्भ भूमि में मैं रहती हूँ, जहाँ मेरा आँवल नाल गड़ा है वहाँ एक ऐसी ही अनन्य साधक, विचार-आचार का कामयोगी है- प्रथम उसपर लिखूँ। अपनी आदरांजलि प्रथम ऋषि तुल्य जीवन के स्वामी, संघमंत्र के उद्गाता, इस महाप्राण, महान् साधक को समर्पित करूँ।

ऋषि-मुनि संपूर्ण सामर्थ्य के साथ मंत्रोच्चारण करते हैं। उसके पश्चात् ही उस मंत्र का अर्थ जनमानस में प्रचलित होता है। हिंदू धर्म के संघटन के लिए समय की माँग को देखकर उसपर चिंतन करते हुए डॉ. हेडगेवार को इस मंत्र का स्फुरण हुआ होगा। सन् 1925 में संघ की स्थापना भले ही हुई होगी, तथापि इस संघ परिकल्पना का श्रीगणेश उसके मन में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों पर प्रामाणिक विचार करते हुए बचपन से ही धीरे-धीरे हुआ होगा- यह उनके चरित्र से स्पष्टतः ध्वनित होता है। इसलिए काल-प्रवाह में तत्कालीन अनेक संघटनाएँ आज अस्तित्व में न होते हुए भी भारत में ही नहीं, विदेशों में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएँ हैं। इसीसे डॉक्टर साहब की सर्वव्यापी दृष्टि की, उनके द्रष्टा होने का प्रमाण मिल जाता है। सन् 1925 से 1940 तक के पंद्रह वर्षों के अल्प समय में उन्होंने जो प्रचंड मौलिक कार्य किया वह कालातीत सिद्ध हो गया है। अतः उनके पीछे कुछ अन्य सार्थक विश्लेषण जोड़ने का मोह अनेक लोगों को हुआ, तथापि मुझे इस महामानव में ऋषि-मुनियों जैसी दूरदृष्टि तथा मूलमंत्र की प्रचण्ड शक्ति का अहसास हुआ।

इस शक्ति की खोज मेरी जैसी लेखिका के लिए शिवधनुष उठाना था। वास्तव में ऐसा उपन्यास लिखना, जिसमें किसी भी महापुरुष के परिपक्व व्यक्तित्व का हू-ब-हू दर्शन होता है, एक कठिन कार्य है। वह भी ऐसे व्यक्ति का, जो निकटवर्ती कालखंड में हुआ था, दर्शन उपन्यास द्वारा कराना अति दुष्कर होता है। क्योंकि आज भी ऐसे अनेक व्यक्ति अस्तित्व में हैं जिन्होंने उस महापुरुष को निकट से देखा था, उनके संपर्क में रहे हैं, उन्हें पत्र-व्यवहार और कार्य द्वारा जाना है। ऐसे व्यक्तित्व को अपने लेखन का विषय बनाना लेखक की कुशलता की कसौटी होती है; क्योंकि लेखन पूर्णतया उस व्यक्ति के निकट कहीं भी नहीं होता। सुनी हुई जानकारी, उपलब्ध साहित्य तथा प्रकट भाषणों द्वारा ही लेखक उस महापुरुष के निकट पहुँचने का, उसके जीवन का अध्ययन करने का प्रयास करता है। लेखक इस प्रयास में पूर्णतः सफल हुआ कि नहीं, यह पाठक तय करते हैं; परंतु लेखक का प्रयास प्रामाणिक होता है, इसमें संदेह नहीं।

कहानी उपन्यास तथा चरित्र- इनमें उपन्यास का मूल स्वरूप ही ललित है। लालित्य, वैचारिकता एवं भावप्रवणता निकाल देने से उपन्यास के रूखा अथवा प्रचारकी होने की अधिक आशंका होती है। डॉ. हेडगेवार के जीवन चरित्र का अध्ययन करने के बाद इस समस्या का अधिक भय महसूस हुआ। ‘भई, डॉ. हेडगेवार के जीवन में भला उपन्यास लिखने लायक है ही क्या ?’ अथवा ‘भई, उस महापुरुष और ललित भाषा का तालमेल कैसे हो सकता है ?’ अथवा ‘लालित्य से जिसका दूर-दराज से भी कोई लेना-देना नहीं, ऐसा कर्मयोगी आपके उपन्यास का नायक कैसे हो सकता है ?’ इस प्रकार के संदेहात्मक प्रश्न उपन्यास लेखन से पहले और बाद में भी अनेक सज्जनों ने मुझसे पूछे।

सभी के अनुसार, नितांत ध्येयनिष्ठ, अखंड कर्मयोगी तथा प्रखर देशाभिमान इस राष्ट्रपुरुष का आलौकिक दर्शन केवल चरित्र में ही प्रभावी हो सकेगा। इस पर कई मान्यवरों से चर्चा भी हुई थी। इसके बावजूद भी मैंने इस राष्ट्रपुरुष को ललित भाषा की चौखट में बिठाया। इस प्रश्न को इतनी अहमियत नहीं, मेरा इस तरह आग्रह क्यों है ? ऐसे अनेक परिचितों के नागपुर में होते हुए भी- जिन्होंने डॉ. हेडगेवार का जीवन निकट से देखा है, उनका सान्निध्य प्राप्त किया है- मैंने यह शिवधनुष उठाने का साहस किया। मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहूँगी कि इस उपन्यास में ऐसे अनेक संवाद एवं घटनाएँ हैं, जो मेरी कल्पना द्वारा प्रसूत हैं। उनके संबंधित दोष मेरे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि इन काल्पनिक प्रसंगों में से ही डॉक्टर साहब के महान्, प्रभावशाली एवं दूरदर्शी व्यक्तित्व का दर्शन होगा। डॉक्टर साहब का जन्म सन् 1889 में हुआ और संघ की स्थापना सन् 1925 में हुई थी- तब तक का छत्तीस वर्षों का कालखंड उन्होंने परिवार में रहकर ही व्यतीत किया। किं बहुना अंतिम क्षण तक वे अपने परिवार के साथ ही रहे। संघ कार्य का व्यापक विस्तार होने पर उनका घर में रहना कम हो गया; लेकिन उन्होंने घर नहीं छोड़ा था और इसी कारणवश मैंने उनका पारिवारिक जीवन अपने अंतश्चक्षुओं से देखा तथा कल्पना से उसमें रंग भरे। क्योंकि ऐसा भी व्यक्ति, जो उनके बाल्यकाल से उनसे परिचित हो, बहुत खोज के बाद भी मुझे नहीं मिला।
 
परंतु उस सीताराम भैया का स्थान उपन्यास में है जिसने स्वयं निर्धन होते हुए भी उन पर कभी आर्थिक बोझ नहीं डाला; जिसने डॉक्टर साहब से एक पैसे की भी अपेक्षा न करते हुए उनका आर्थिक बोझ आजीवन उठाया। डॉक्टर साहब अपने चाचा आबाजी, जो रामपायली में रहते थे, से अपने मन की बात करते और आबाजी उनके कार्य में हाथ बँटाते-इस तरह का उल्लेख चरित्र में है; परंतु मेरे उपन्यास में मातृ-पितृविहीन डॉक्टर साहब के जीवन में आबाजी उनके पिता का स्थान लेते हैं।

उसी तरह रमा भाभी। जीवनवृत्त में जिसका नाम मात्र का उल्लेख है, मेरे उपन्यास में वही रमाबाई एक महत्त्वपूर्ण पात्र है। निर्धन, सीधा-सादा पति, चचेरे सास-ससुर, डॉक्टर साहब जैसा फक्कड़ देवर, जो कुछ भी अर्थार्जन नहीं करता था, और उनका मित्र परिवार- सभी के लिए यह रमा भाभी आजीवन खटती रही। ऐसा एक भी प्रसंग चरित्र में नहीं जिसमें कभी किसी का भी अनादर किया हो। किं बहुना जो रमा भाभी स्वयंसेवकों को भी अपने हाथों से खिलाती-पिलाती, जिसने अनेकों का सम्मान किया, उसका उल्लेख चरित्र में नाम मात्र को है। डॉक्टर साहब की माताजी का स्वर्गवास तभी हो गया था जब वे मात्र दस वर्ष के थे। उनके बाद उनके परिवार में आनेवाली एकमात्र स्त्री है रमा भाभी। इसमें कोई संदेह नहीं कि मातृ प्रेम से वंचित परम मातृभक्त डॉक्टर साहब के जीवन में वह मातास्वरूप है। जिस समय स्त्रियाँ दरवाजे की चौखट से बाहर आकर पर-पुरुष या घर के पुरुषों से भी कभी बात नहीं करतीं, उस काल में डॉक्टर साहब अपनी भाभी से इतनी सहजता से बात करते जैसे अपनी माँ से करते हैं। मेरे इस उपन्यास में यह भूमिका देने का प्रयोजन तत्कालीन रूढ़रीति, परंपरा और प्रथाओं में प्रथक्ता है; क्योंकि रमा भाभी घर की चारदीवारी में ही है और चरित्र नायक डॉ. हेडगेवार का कार्यक्षेत्र विस्तृत हो चुका है। उनके आचार-विचार व्यापक बन गए हैं। इसी कारणवश उनके जीवन में माता स्वरूप रमा भाभी बार-बार झाँकती है।

डॉक्टर साहब कर्मयोगी थे। संघ कार्य जैसी एकमात्र कार्यनिष्ठा उनके पास थी। अहोरात्र वे इसी धुन में मग्न रहते। उनके चरित्र से अथवा सुनी-सुनाई बातों से यही दिखाई देता है कि उन्हें अन्यत्र ध्यान देने –साहित्य, काव्यशास्त्र, विनोद-के लिए समय नहीं था; तथापि मेरे उपन्यास में उनका आध्यात्मिक, वैचारिक, बुद्धिनिष्ठ तथा सुसंस्कृत दर्शन होता है। मेरे सामने साकार हुए डॉक्टर साहब की ऐसी चंचल तथा सनकी प्रवृत्ति नहीं कि ‘चलो, मन में आया, इसलिए संघ स्थापना करें। मन में आया तो चार लोगों से मिलो, अथवा मन में आया तो कच्चा चिड़वा चबाओ।’ उनकी हर बात में व्यक्तित्व की परिपक्वता, विकसित विचार और दूरदृष्टि होती। उन्होंने कोई भी कृति अकारण नहीं की। इसके विपरीत हर कृति को उनके वैचारिक एवं बुद्धिनिष्ठ मन का अपरंपार पारस स्पर्श हुआ है। जो व्यक्ति व्यक्तिशः इतनी बलाढ़्य एवं दृढ़ संकल्प संघटना उभारता है वह व्यक्तिशः अत्यंत विचारपूर्वक, चिंतापूर्वक कदम उठाएगा, इस संबंध में भी मन में संदेह न हो। डॉक्टर साहब के मन में धर्म भावना, हिंदू धर्म भावना एकाएक उत्पन्न नहीं हुई। जिस कुल-खानदान के वातावरण में प्रथम जीवन के संस्कार होते हैं वे आजीवन अमिट रहते हैं, इस सच्चाई का भान डॉक्टर साहब को था। कई लोग जानते हैं कि इसलिए तो वे स्वयं भी शिशु गट की ओर अधिक ध्यान देते।

स्वयं डॉक्टर साहब का व्यक्तित्व-गठन एक वेदशास्त्र-संपन्न घराने में हुआ। पिता एवं प्रपिता वेदशास्त्र-संपन्न थे; घर में अहोरात्र अग्निहोत्र धधकता रहता। बंधु महादेव शास्त्री थे, दूसरे बंधु सीताराम भैया पुरोहित कर्म करते (पुरोहित कर्म से उदरपूर्ति करते और परिवार चलाते) प्रतिदिन डॉक्टर साहब के कानों में मंत्रोच्चारण पड़ता। बचपन में उन्होंने प्रचुर मात्रा में संस्कृत पठन किया था। तिसपर उनके अगतो जीवन में प्रखर राष्ट्रभक्ति की भावना प्रस्फुटित होने पर भी उनके आसपास उनके संपर्क में आनेवाले लोग, उनके मार्गदर्शक, आदर्श लोग साहित्यशास्त्र व काव्य से संबंधित होते। उनके घरेलू संस्कारों ने उनके जीवन में अहम स्थान लिया है। जिसपर अखंड संस्कार हुए हैं वही संस्कारशील व्यक्ति दूसरे का जीवन संस्कारों से, सतत हो रहे संस्कारों से गढ़ा सकते हैं।

उन्होंने कभी काव्य किया था या नहीं, प्राकृतिक सुंदरता का आस्वाद लिया था या नहीं, उनके मन में लोक-संग्राहक भगवान् श्रीकृष्ण थे कि नहीं; स्वातंत्र्यवीर सावरकर, महात्मा गांधी, नेताजी बोस के साथ उन्होंने क्या और कितनी बातें कीं-इस संदर्भ में उनका जीवन चरित्र और सुनी-सुनाई जानकारी ही आधार है। यद्यपि डॉक्टर साहब ऐसे थे, इस प्रकार विधान करनेवाले मान्यवर अपने अनुभवों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत करते होंगे। चरित्र और सुनी-सुनाई जानकारी से भी परे जाकर उनका अगम्य, अलौकिक चरित्र एक पूर्णत्व प्राप्त साधक का है- यह वादातीत है। डॉक्टर साहब के मन में आए हुए विचार मेरे पढ़ने में आए थे तथा मैंने अनुभव भी किए थे। प्रकट व्याख्यानों से तथा हर स्थान पर उनके मुख से निकले वाक्यों से मैंने उनकी भूमिका गृहीत की। हो सकता है, इसी कारणवश मेरे उपन्यास में निजी अनुषंग से कुछ स्पष्टीकरण डॉक्टर साहब को देने पड़े हों। किसी सज्जन ने कहा, ‘डॉक्टर दुर्वासा मुनि का अवतार हैं, वैसे ही शीघ्र कोपी।’ उसपर उन्होंने पाँच-छह उदाहरण दिए। मेरा मन यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं हुआ और न ही इसपर विश्वास करने के लिए तैयार हुआ कि जो राष्ट्र-जीवन के गहरे अध्येता हैं, जिन्होंने हिंदू धर्म का प्रतिष्ठापन किया वे अविचारी, क्रोधी भी हो सकते हैं। हालाँकि कुछ ऐसी भूमिकाएँ डॉक्टर साहब के मुख से स्पष्ट हुई हैं।

इस उपन्यास में मैंने उन्हीं डॉक्टर साहब का चित्रण किया है, जो मेरी अल्पमति ने देखा था तथा जैसे मेरी कल्पना शक्ति ने उनका मन पाया। यह सत्य हैं कि डॉक्टर साहब के विषय में, जिनका अनेक को अनेक तरीके से आकलन हुआ है, परिपूर्णता से कोई भी नहीं लिख सकता।
अपने पाठकों की मैं अत्यंत ऋणी हूँ। उन्होंने मेरे प्रत्येक उपन्यास का मनःपूर्वक स्वागत किया है। उनके असंख्य पत्र मुझे बार-बार लिखने के लिए प्रेरित करते हैं।
पाठकों से स्नेह प्राप्त हो, इस विश्वास के साथ यह उपन्यास मैं उनके हाथों में सौंपती हूँ।

शुभांगी भडभडे

पारसमणि


दोपहर की वेला धीरे-धीरे नीचे उतरकर थोड़ी देर के लिए आँगन में सुस्ताई, फिर तेज गति के साथ सांध्य छाया बनकर के नीचे उतर गई। हाथ में चावल की थाली लिये रेवतीबाई बरामदे में बैठी थी। उसका पूरा ध्यान आँगन के दरवाजे की ओर लगा हुआ था। शरयू-राजू आँगन में करंजे खेल रही थीं। उनका भी ध्यान दरवाजे की ओर ही था। महादेव ऊपर अटारी पर था। केशव माँ के पास बैठा था।
‘माँ, बाबूजी अभी तक नहीं आए’ चिंता की एक लहर प्रवाहित हो गई। हाथ में करंजे थामे दोनों माँ की ओर ही देख रही थीं। अकुलाई सी उदास संध्या रेवती की आँखों में समाई।
‘माँ री !’ केशव ने उसका आँचल थामा।

‘अरे, अभी आएँगे तुम्हारे बाबूजी। जाओ, तनिक खेल आओ।’
किंतु केशव यों ही बैठा रहा। पिछले आठ दिनों से यही अशांति उसे सता रही थी। आठ दिन पहले बलीरामजी प्रातःकालीन संध्या से निवृत्त हो ही रहे थे कि उनको किसी ने आवाज दी।
‘चाचाजी, न्यौता...’ कहते हुए सदाशिव भीतर आया।
‘कैसा न्यौता, सदाशिव ?’

‘कुलकर्णी चाचाजी नहीं रहे। उनकी अंत्येष्टि के लिए..’
‘क्या कहा, कुलकर्णी चल बसे ? अरे मूरख, तुम मुझे उसका न्यौता अब दे रहे हो ! वह भी बड़ी खुशी से ! कैसे गए ? अरे निगोड़े, क्या सारी शर्म-हया ताक पर रख दी है ? हम दोनों में कभी तू-तू, मैं-मैं हुई होगी, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि मौत उन्हें उठा ले। सदाशिव ! अरे, मनुष्य होने के नाते लड़ाई-झगड़े, प्यार-व्यार तो होता ही है। वैसे तो मैं हूँ बड़ा गुस्सैल, लेकिन किसी के प्रति मन में क्रोध या मैल नहीं रखता। कुलकर्णी को क्या हुआ था रे ?’
‘सुना है, प्लेग का चूहा गिरा था। सुनने में तो यह भी आया है कि गाँव में पहले ही इस तरह की चार-छह घटनाएँ हो चुकी हैं।’
‘सच ?’

‘झूठ क्यों बोलूँ, चाचाजी ? मैंने तो यह भी सुना है कि कुछ परिवार भयभीत होकर गाँव छोड़कर जा रहे हैं।’
बलीराम बापू चुप रहे। उन्हें यह बिलकुल अच्छा नहीं लगा कि किसीकी मौत होने पर वे इत्मीनान से गपशप करते रहें। उन्होंने चलने से पहले कंधे पर अँगोछा डाला और सिर पर टोपी रखी; लेकिन फिर से उसे उतारकर खूँटी पर टाँग दिया और नंगे पैर ही बाहर निकल पड़े। उस दिन बड़े उदास, अनमने से होकर ही वे घर लौटे। महादेव ने उनके लिए कुएँ से पाँच-छह बाल्टी पानी निकाला। बलीराम बाबू, जो प्रतिदिन दस बार स्नान करने पर भी बिना भूले अथर्वशीर्ष का पाठ करते, आज मौन थे।
‘खाना लगा दूँ ?’ काफी देर के बाद रेवती ने पूछा।
‘अभी-अभी एक को घाट पर छोड़कर आया हूँ। उसे अग्नि को समर्पित कर दिया। भला अभी गले से निवाला उतर सकता है ! तुम खा लो।’
उन्होंने रेवती को चौका समेटते हुए देखा और गौर किया कि रेवती बस प्याली भर पानी पी रही है। वे धीरे से रसोईघर में आ गए।

‘चलो, खाना लगा दो।’
‘मुझसे भूल हुई जी !’ रेवती ने कहा।
‘बिलकुल नहीं। मरनेवाला अपनी राह चला गया। फिर भी जीवित रहनेवालों को पेट में दो कौर डालने ही पड़ते हैं। यह बड़ा निर्दय नियम है। पेट की आग ही सत्य है। आज घाट पर प्लेग से दस-बारह लोगों की मौत देखी और मन अशांत हो गया। भई, नागपुर है कितना बड़ा ! अब सुना है, कुछ और परिवार बस्ती छोड़कर जा रहे हैं। रातोरात प्लेग की छुतहा बीमारी कैसी लगी ?’
‘क्या हम भी छोड़ देंगे बस्ती ?’
रेवती का प्रश्न बलीराम बाबू के मन में पैठ गया। जैसे-तैसे दो कौर गले से उतारकर वे उठ गए। नित्य की तरह रेवती ने उनकी जूठी थाली अपने सामने खींच ली।
‘नहीं, आज मेरी जूठी थाली में भोजन मत करना।’

रेवती ने उन्हें चौंककर देखा।
‘मौत का दर्शन करके उदास मन से भोजन किया, कहीं मेरी छूत तुम्हें न लग जाय। घर की लक्ष्मी हमेशा प्रसन्नचित रहनी चाहिए। चलो, दूसरी थाली ले लो।’
किन्तु रेवती चुपचाप उसी थाली में खाने लगी। बलीराम बाबू उसे एकटक देखते रहे। लेकिन इस विषय पर उन्होंने आगे कुछ कहना उचित नहीं समझा।
‘बच्चे कहाँ हैं ?’
‘ऊपर होंगे।... मैंने पूछा, क्या हम भी बस्ती छोड़कर...’
‘रेवती !’ कभी-कभार वे आत्मीयता के साथ उसके नाम का उच्चारण करते थे। रेवती आज अपने नाम के संबोधन से भोजन करते-करते ठिठक गई। परंतु उनका ध्यान उसकी ओर नहीं था।
‘आज या कल सब खाते-पीते परिवार बस्ती छोड़कर चले जाएँगे। यहाँ रहनेवाले गरीब परिवार भला किसके सहारे जिएँगे ? यदि सारा नागपुर शहर उजड़ गया तो हम भी जाएँगे। गाँव छोड़ना मुझे तब तक अच्छा नहीं लगता जब तक यहाँ लोग रह रहे हैं।’
‘पर बच्चों को...’

‘बच्चों का, तुम्हारा या मेरा प्रश्न नहीं है यह। वही होगा जो भगवान् की इच्छा है। तुम निश्चिंत रहो। आज तक हमने इतने कष्ट सहे हैं कि अब ईश्वर और अंत नहीं देखेगा। कुछ नहीं होगा हमारे बच्चों को। तुम बस इतना ही करो कि घरबार साफ-सुथरा रखो। यदि कोई मरा हुआ चूहा मिले तो उसे तुरंत बाहर दूर फेंक आओ। दिन में दो बार गोबर की लिपाई-पुताई करो। सब ठीक हो जाएगा।’
उसके पश्चात् आठ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा था। रेवती को चिंता दीमक की तरह चाट रही थी। हर रोज लगभग दो-तीन सौ आदमी दम तोड़ रहे थे, जैसे कड़ी गरमी में चिड़ियाँ फटाफट मरती हैं। बलीराम सवेरे से देर रात तक कंधा देने भागते। दिन में घर लौटने का कोई निश्चित समय न था। ठंडे पानी की पाँच-छह बालटियाँ सिर पर उड़ेलते और बरामदे में खंभे के पास बैठे रहते- गुमसुम से, चुपचाप। उनके शब्द जैसे खो गए थे।
रेवती धीमे स्वर में पूछती, ‘दूध ले आऊँ थोड़ा सा ?’

‘भोजन ही करता हूँ थोड़ा।’ क्षीण आवाज में उत्तर मिलता।
रेवती की आँखें गीली होतीं। बलदंड, हट्टे-कट्टे बलीराम बाबू लाचार, असहाय से हो गए थे। उनकी आवाज ही गले से नहीं निकलती। अन्यथा ऊपर छत पर भी उनकी प्रखर आवाज साफ सुनाई देती थी। उनकी गर्जना सुनते ही महादेव, सीताराम व केशव को जैसे साँप सूँघ जाता।
आज मुँह अँधेरे निकले बलीराम बाबू संध्या होने पर भी घर नहीं लौटे थे।


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