पारिवारिक >> मीलू के लिए मीलू के लिएमहाश्वेता देवी
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प्रस्तुत है महाश्वेता देवी का सदाबहार उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
परिचय
कहीं कुछ भी नहीं होता। हर अन्त के बाद, कुछ न कुछ बच रहता है और वहीं से
फिर नई शुरुआत होती है-यह सूत्र ज़िन्दगी को हताशा से बचा लेता है और चलने
के लिए फिर एक राह देता है। निरन्तर चलते रहना ही जिन्दगी है और जो चलते
रहते हैं, उनकी राह कभी गुम नहीं होती, यही सच हर इंसान के जीवन का
आलोक-स्तम्भ है।
मीलू के लिए
1
आज शाम को हिमाद्रिशेखर का सत्तरवाँ जन्मदिन मनाया जानेवाला था। सरदार
शंकर रोड का यह घर ज़रा अलग किस्म का है। यहाँ हिमाद्रिशेखर रहते हैं,
उनकी पत्नी, हेमकाया रहती हैं। वैसे उनके बेटी-दमाद और नातिन भी इसी शहर
में मौजूद हैं।
जन्मदिन हिमाद्रि का ही मनाया जाता था।
यह घर बिलकुल अलग-थलग है। इतने वर्षों से इस मुहल्ले में रहते-सहते हुए भी, अड़ोसी-पड़ोसी के यहाँ आना-जाना बिलकुल नहीं था। मुहल्ले का यह हिस्सा ऐसा नहीं था कि अनगिनत हाइराइज़ इमारतों ने सिर उठाया हो। लेकिन मुहल्ले का भूगोल जरूर बदल गया था। यहाँ सुधन्य मिष्ठान्न भण्डार, कमला फार्मेसी वगैरह अभी भी मौजूद थे। सरित बाबू के घर के नीचे उनके बेटी-दामाद ने कैसी तो वीडीओ फ़िल्म की दुकान खोल रखी है और बेली मौसी का बड़े गर्व का संयुक्त परिवार, फूट-फूटकर बिखर चुका है और उनका परिवार कई-कई टुकड़ों में बँट चुका है।
अड़ोसी-पड़ोसी का जो मतलब होता है, ऐसे सभी लोग वहाँ मौजूद हैं। लेकिन हिमाद्रिशेखर ने अपने पड़ोसियों को किसी दिन भी अपनी बराबरी का नहीं समझा कि उनसे मेल-जोल रखा जाए। इसे उनका दोष या गुण नहीं कहा जा सकता। दरअसल, यह हिमाद्रि का ख़ानदानी मामला है। वे लोग समझते हैं कि उन लोगों का खून नीला है। कहा जाता है कि उनके किसी पुरखे को, मुगलों की तरफ से रायरायान का खिताब मिला था। हिमाद्रि की दादी भी किसी रायबहादुर की बेटी थीं। हिमाद्रि अपने बचपन से ही देखते आए हैं। उनकी दादी अपने अड़ोसी-पड़ोसी के बारे में अकसर कहा करती थीं कि वे लोग मेल-जोल के लायक नहीं हैं।
उनकी माँ भी हमेशा यही कहती थीं, ‘‘आमने-सामने भले मेल-जोल रखो, लेकिन अपनी ख़ानदानी शान हमेशा याद रखना।’’
हिमाद्रि ने जब यह मकान बनवाया, उस वक्त उनकी पहली पत्नी ज़िन्दा थीं। उनका नाम भी प्रथमा था। प्रथमा को उनके पीहर और ससुराल से एक ही शिक्षा मिली थी।—‘‘पति परमेश्वर जैसा रखे, उसी तरह रहना।’’
प्रथमा ने अपने पड़ोस में किसी से भी मेल-जोल नहीं रखा। पड़ोसी भी उनके अहंकार पर नाक-भौं ही सिकोड़ते रहे। किसी की राय में पति जनाब ही बेहद नकचढ़े जीव थे। कुछ का मानना था कि पत्नी ही ख़ासी दिमाग़ी है।
ख़ैर, अब यह बात सभी समझ गए हैं कि यह घराना असम्भव विधि-नियमों में बँधा हुआ, ख़ासा अलग-थलग है। कभी इस घर के लड़के-लड़कियाँ छोटे थे, लेकिन उनके जन्मदिन की धूमधाम कभी नज़र नहीं आई। इस मकान में सिर्फ एक ही दिन रोशनी-बत्ती जलती है; लोग-बाग आते हैं, जिस दिन घर के मालिक का जन्मदिन मनाया जाता है।
वैसे यह बात हिमाद्रि भी जानते हैं कि यह रिवाज प्रथमा ने ही शुरु किया था। विवाह के बात, जब वे दोनों मालदह गए, उन्हें अन्यान्य सरकारी अफसरों के जन्मदिन की दावत मिलती थी।
प्रथमा ने कहा, ‘‘सुनो, हम हर दावत में जाते हैं, खा-पीकर चले आते हैं। हमारा भी तो फर्ज़ है कि उन लोगों को अपने यहाँ दावत दी जाए।’’
‘‘किस बहाने बुलाओगी ?’’
‘‘क्यों ? तुम्हारे जन्मदिन पर...’’
इस तरह उनका जन्मदिन मनाया जाने लगा। यह तो रिवाज शुरु हुआ, अब नियम बन चुका है। जन्मदिन करीब आते ही, वे खुद ही हो-हल्ला मचाने लगते थे।
‘‘याद है न ?’’
ख़ैर, यह दिन सभी को याद रहता है।
हिमाद्रि के जन्मदिनपर, दोपहर के वक्त सभी मेहमान, गोविन्दभोग चावल का भात, सोनामूँग की दाल, खसखस का बड़ा, केले के फूलों की भुजिया, पकौड़े और अनार की चटनी का भोज खाते हैं।
रात के वक्त फ्रायड राइस, राधा वल्लभी, चिकन, गोवानीज़, दही-मथली, अनारस की चटनी, पतली-पतली रोटियाँ और छेने की खीर !
पकवान की यह फेहरिश्त किसी जमाने में चालू हुई थी आज भी चल रही है। प्रथमा ने ही पहली बार ये सब व्यंजन पकाए थे।
हेमकाया ने पूछा, ‘‘प्रथमा का भी जन्मदिन मनाया जाता था ?’’
‘‘अरे नहीं, उसका जन्मदिन कौन मनाता ?’’
‘‘तुम्हारा जन्मदिन वह मनाती थी। तुम भी तो उसका जन्मदिन मना सकते थे—’’
हिमाद्रि ने जवाब दिया, ‘‘उसे तो मेरे अलावा और कोई ख़्याल नहीं आता था। अब देखो न, रणो हमारी पहलौठी सन्तान थी। उस पर से-बेटा ! जब वह साल-भर का हुआ, प्रथमा ने कहा, जन्मदिन की क्या ज़रूरत है भला ?’’
सभी लोग दंग रह गए ! पहली सन्तान, वह भी बेटा ! उसका जन्मदिन नहीं मनाया जाएगा ?
प्रथमा ने इनकार में सिर हिलाया। चाहे हिमाद्रि का घर हो या प्रथमा का। ज़िन्दगी में कहीं, किसी ने भी, यह नहीं देखा था कि उसने कभी अपनी राय जाहिर की हो।
प्रथमा ने कहा, ‘‘हाँ, क्या जरूरत है ? मज़ा उस बित्ते-भर के बच्चे को तो आएगा नहीं, बड़े लोग ही मौज-मज़ा करेंगे। मुझे धूमधाम नहीं सुहाता। जन्मदिन फिर कभी मना लेंगे ! अभी, अन्नप्राशन पर ही, कितना बड़ा जश्न मनाया गया ! भोज-भात हुआ !’’
बहरहाल, रणजय के जन्मदिन का मतलब था खीर खिला देना और एक जोड़ी कमीज-पैंट दिला देना।
प्रथमा के इन्तकाल के बाद, वह भी बन्द हो गया।
दूर्वा का जन्मदिन मनाने का तो किसी को ख़्याल ही नहीं आया जिस बेटी के पैदा होने के चन्द दिनों बाद ही, माँ दम तोड़ दे, वह तो कुलक्षणी, मनहूस और राक्षसी होती है। उसका जन्म दिन भला कौन मनाता ?
हिमाद्रि की बात अलग है।
सत्तरवें साल का जन्मदिन ! यह कोई आसान बात है ?
कई दिनों से हिमाद्रि का जी चाह रहा था कि इस बार जन्म दिन की बात हेमकाया की तरफ से ही छिड़े।
लेकिन हेमकाया के चेहरे से यह लगा ही नहीं कि ऐसी अहम बात उसे याद भी है !
आखिरकार हिमाद्रि ने ही बात छेड़ी, ‘‘कल तो....’’
‘‘हाँ, कल तुम्हारा जन्मदिन है।’’
‘‘अच्छा, तो तुम्हें याद है ?’’
‘‘याद क्यों नहीं रहेगा ?’’
‘‘लेकिन...तुम तो कुछ बोल ही नहीं रहीं.....’’
‘‘क्या बोलूँ ? बताओ ?’’
‘‘सत्तर साल पार कर जाना, कोई हँसी-खेल नहीं है—’’
‘‘आजकल तो बन्दा सौ साल भी जीता है।’’
‘‘नहीं, नहीं ! अपाहिज या लाचार होकर, उतने दिनों तक ज़िन्दा रहना...’’
‘‘नहीं, तुम्हें अपनी सेहत की हिफ़ाज़त करना आता है-’’
‘‘मेरा ख़्याल है, कल तीस लोग तो होंगे ही...’’
‘‘तीस !’’
‘‘तीस क्यों, यह तो तुमने पूछा ही नहीं—’’
‘‘पूछने जैसी कोई बात नहीं थी—’’
हिमाद्रि को लगा, विवाह से पहले की शर्त, हेमकाया इस ढंग से न मानतीं, तो ही बेहतर था।
लेकिन वे अजीब कशमकश में फँसे हुए थे। सुबह के अखबार में देवांशु की ख़बर पढ़कर, मन को कहीं, बेभाव चोट लगी थी। देवांशु मर गया ? कैंसर का शिकार होकर, उसने दम तोड़ दिया। वे दोनों एक ही बैच के अफसर थे। दोनों में काफी गहरी दोस्ती थी। देवांशु को सितार बजाने का शौक था। अकसर संगीत सम्मेलन में भी जाते रहते थे।
रात को अगल-बगल लेटे हुए, आखिर उन्होंने मन का अफसोस उगल ही डाला।
‘‘देवांशु की ख़बर देखकर...’’
‘‘अच्छा ही किया...’’
‘‘मुझे तो पता भी नहीं था कि उसे कैंसर हुआ है.....’’
‘‘कैंसर तो आखिर कैंसर होता है ! यह कोई ऐसी-वैसी बीमारी तो नहीं—’’
‘‘इसीलिए...इसीलिए तो मैं सेहत के बारे में इतना फ़िक्रमन्द रहता हूँ।’
‘‘ख़ैर, छोड़ों, ऐसी बातें मत सोचा करो।’’
‘‘जन्मदिन को...सुबह-सुबह, पहले वही फोन करता था।’’
‘‘कहा न, अब यह सब सोचना छोड़ो। चलो, सो जाओ ! मैं सिर सहला देती हूँ।’’
‘‘आज नींद नहीं आएगी, हेम !’’
जन्मदिन हिमाद्रि का ही मनाया जाता था।
यह घर बिलकुल अलग-थलग है। इतने वर्षों से इस मुहल्ले में रहते-सहते हुए भी, अड़ोसी-पड़ोसी के यहाँ आना-जाना बिलकुल नहीं था। मुहल्ले का यह हिस्सा ऐसा नहीं था कि अनगिनत हाइराइज़ इमारतों ने सिर उठाया हो। लेकिन मुहल्ले का भूगोल जरूर बदल गया था। यहाँ सुधन्य मिष्ठान्न भण्डार, कमला फार्मेसी वगैरह अभी भी मौजूद थे। सरित बाबू के घर के नीचे उनके बेटी-दामाद ने कैसी तो वीडीओ फ़िल्म की दुकान खोल रखी है और बेली मौसी का बड़े गर्व का संयुक्त परिवार, फूट-फूटकर बिखर चुका है और उनका परिवार कई-कई टुकड़ों में बँट चुका है।
अड़ोसी-पड़ोसी का जो मतलब होता है, ऐसे सभी लोग वहाँ मौजूद हैं। लेकिन हिमाद्रिशेखर ने अपने पड़ोसियों को किसी दिन भी अपनी बराबरी का नहीं समझा कि उनसे मेल-जोल रखा जाए। इसे उनका दोष या गुण नहीं कहा जा सकता। दरअसल, यह हिमाद्रि का ख़ानदानी मामला है। वे लोग समझते हैं कि उन लोगों का खून नीला है। कहा जाता है कि उनके किसी पुरखे को, मुगलों की तरफ से रायरायान का खिताब मिला था। हिमाद्रि की दादी भी किसी रायबहादुर की बेटी थीं। हिमाद्रि अपने बचपन से ही देखते आए हैं। उनकी दादी अपने अड़ोसी-पड़ोसी के बारे में अकसर कहा करती थीं कि वे लोग मेल-जोल के लायक नहीं हैं।
उनकी माँ भी हमेशा यही कहती थीं, ‘‘आमने-सामने भले मेल-जोल रखो, लेकिन अपनी ख़ानदानी शान हमेशा याद रखना।’’
हिमाद्रि ने जब यह मकान बनवाया, उस वक्त उनकी पहली पत्नी ज़िन्दा थीं। उनका नाम भी प्रथमा था। प्रथमा को उनके पीहर और ससुराल से एक ही शिक्षा मिली थी।—‘‘पति परमेश्वर जैसा रखे, उसी तरह रहना।’’
प्रथमा ने अपने पड़ोस में किसी से भी मेल-जोल नहीं रखा। पड़ोसी भी उनके अहंकार पर नाक-भौं ही सिकोड़ते रहे। किसी की राय में पति जनाब ही बेहद नकचढ़े जीव थे। कुछ का मानना था कि पत्नी ही ख़ासी दिमाग़ी है।
ख़ैर, अब यह बात सभी समझ गए हैं कि यह घराना असम्भव विधि-नियमों में बँधा हुआ, ख़ासा अलग-थलग है। कभी इस घर के लड़के-लड़कियाँ छोटे थे, लेकिन उनके जन्मदिन की धूमधाम कभी नज़र नहीं आई। इस मकान में सिर्फ एक ही दिन रोशनी-बत्ती जलती है; लोग-बाग आते हैं, जिस दिन घर के मालिक का जन्मदिन मनाया जाता है।
वैसे यह बात हिमाद्रि भी जानते हैं कि यह रिवाज प्रथमा ने ही शुरु किया था। विवाह के बात, जब वे दोनों मालदह गए, उन्हें अन्यान्य सरकारी अफसरों के जन्मदिन की दावत मिलती थी।
प्रथमा ने कहा, ‘‘सुनो, हम हर दावत में जाते हैं, खा-पीकर चले आते हैं। हमारा भी तो फर्ज़ है कि उन लोगों को अपने यहाँ दावत दी जाए।’’
‘‘किस बहाने बुलाओगी ?’’
‘‘क्यों ? तुम्हारे जन्मदिन पर...’’
इस तरह उनका जन्मदिन मनाया जाने लगा। यह तो रिवाज शुरु हुआ, अब नियम बन चुका है। जन्मदिन करीब आते ही, वे खुद ही हो-हल्ला मचाने लगते थे।
‘‘याद है न ?’’
ख़ैर, यह दिन सभी को याद रहता है।
हिमाद्रि के जन्मदिनपर, दोपहर के वक्त सभी मेहमान, गोविन्दभोग चावल का भात, सोनामूँग की दाल, खसखस का बड़ा, केले के फूलों की भुजिया, पकौड़े और अनार की चटनी का भोज खाते हैं।
रात के वक्त फ्रायड राइस, राधा वल्लभी, चिकन, गोवानीज़, दही-मथली, अनारस की चटनी, पतली-पतली रोटियाँ और छेने की खीर !
पकवान की यह फेहरिश्त किसी जमाने में चालू हुई थी आज भी चल रही है। प्रथमा ने ही पहली बार ये सब व्यंजन पकाए थे।
हेमकाया ने पूछा, ‘‘प्रथमा का भी जन्मदिन मनाया जाता था ?’’
‘‘अरे नहीं, उसका जन्मदिन कौन मनाता ?’’
‘‘तुम्हारा जन्मदिन वह मनाती थी। तुम भी तो उसका जन्मदिन मना सकते थे—’’
हिमाद्रि ने जवाब दिया, ‘‘उसे तो मेरे अलावा और कोई ख़्याल नहीं आता था। अब देखो न, रणो हमारी पहलौठी सन्तान थी। उस पर से-बेटा ! जब वह साल-भर का हुआ, प्रथमा ने कहा, जन्मदिन की क्या ज़रूरत है भला ?’’
सभी लोग दंग रह गए ! पहली सन्तान, वह भी बेटा ! उसका जन्मदिन नहीं मनाया जाएगा ?
प्रथमा ने इनकार में सिर हिलाया। चाहे हिमाद्रि का घर हो या प्रथमा का। ज़िन्दगी में कहीं, किसी ने भी, यह नहीं देखा था कि उसने कभी अपनी राय जाहिर की हो।
प्रथमा ने कहा, ‘‘हाँ, क्या जरूरत है ? मज़ा उस बित्ते-भर के बच्चे को तो आएगा नहीं, बड़े लोग ही मौज-मज़ा करेंगे। मुझे धूमधाम नहीं सुहाता। जन्मदिन फिर कभी मना लेंगे ! अभी, अन्नप्राशन पर ही, कितना बड़ा जश्न मनाया गया ! भोज-भात हुआ !’’
बहरहाल, रणजय के जन्मदिन का मतलब था खीर खिला देना और एक जोड़ी कमीज-पैंट दिला देना।
प्रथमा के इन्तकाल के बाद, वह भी बन्द हो गया।
दूर्वा का जन्मदिन मनाने का तो किसी को ख़्याल ही नहीं आया जिस बेटी के पैदा होने के चन्द दिनों बाद ही, माँ दम तोड़ दे, वह तो कुलक्षणी, मनहूस और राक्षसी होती है। उसका जन्म दिन भला कौन मनाता ?
हिमाद्रि की बात अलग है।
सत्तरवें साल का जन्मदिन ! यह कोई आसान बात है ?
कई दिनों से हिमाद्रि का जी चाह रहा था कि इस बार जन्म दिन की बात हेमकाया की तरफ से ही छिड़े।
लेकिन हेमकाया के चेहरे से यह लगा ही नहीं कि ऐसी अहम बात उसे याद भी है !
आखिरकार हिमाद्रि ने ही बात छेड़ी, ‘‘कल तो....’’
‘‘हाँ, कल तुम्हारा जन्मदिन है।’’
‘‘अच्छा, तो तुम्हें याद है ?’’
‘‘याद क्यों नहीं रहेगा ?’’
‘‘लेकिन...तुम तो कुछ बोल ही नहीं रहीं.....’’
‘‘क्या बोलूँ ? बताओ ?’’
‘‘सत्तर साल पार कर जाना, कोई हँसी-खेल नहीं है—’’
‘‘आजकल तो बन्दा सौ साल भी जीता है।’’
‘‘नहीं, नहीं ! अपाहिज या लाचार होकर, उतने दिनों तक ज़िन्दा रहना...’’
‘‘नहीं, तुम्हें अपनी सेहत की हिफ़ाज़त करना आता है-’’
‘‘मेरा ख़्याल है, कल तीस लोग तो होंगे ही...’’
‘‘तीस !’’
‘‘तीस क्यों, यह तो तुमने पूछा ही नहीं—’’
‘‘पूछने जैसी कोई बात नहीं थी—’’
हिमाद्रि को लगा, विवाह से पहले की शर्त, हेमकाया इस ढंग से न मानतीं, तो ही बेहतर था।
लेकिन वे अजीब कशमकश में फँसे हुए थे। सुबह के अखबार में देवांशु की ख़बर पढ़कर, मन को कहीं, बेभाव चोट लगी थी। देवांशु मर गया ? कैंसर का शिकार होकर, उसने दम तोड़ दिया। वे दोनों एक ही बैच के अफसर थे। दोनों में काफी गहरी दोस्ती थी। देवांशु को सितार बजाने का शौक था। अकसर संगीत सम्मेलन में भी जाते रहते थे।
रात को अगल-बगल लेटे हुए, आखिर उन्होंने मन का अफसोस उगल ही डाला।
‘‘देवांशु की ख़बर देखकर...’’
‘‘अच्छा ही किया...’’
‘‘मुझे तो पता भी नहीं था कि उसे कैंसर हुआ है.....’’
‘‘कैंसर तो आखिर कैंसर होता है ! यह कोई ऐसी-वैसी बीमारी तो नहीं—’’
‘‘इसीलिए...इसीलिए तो मैं सेहत के बारे में इतना फ़िक्रमन्द रहता हूँ।’
‘‘ख़ैर, छोड़ों, ऐसी बातें मत सोचा करो।’’
‘‘जन्मदिन को...सुबह-सुबह, पहले वही फोन करता था।’’
‘‘कहा न, अब यह सब सोचना छोड़ो। चलो, सो जाओ ! मैं सिर सहला देती हूँ।’’
‘‘आज नींद नहीं आएगी, हेम !’’
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