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संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


एक बार मैं छुट्टियों में शान्तिनिकेतन से घर लौटी, तो सड़क पर ही बुआ मिल गईं, “अब बहुत पढ़ाई कर ली, शादी-ब्याह नहीं करोगी? शादी-ब्याह समय पर ही ठीक रहता है। फिर तो लड़की, छत पर बीज के लिए सुखाई जा रही तोरयाँ (तुरई)-सी जाल-जाल हो जाती है। वैसे तुझे क्या सीख दूँ? मेरी शादी हुई तो बारह साल की थी, पन्द्रह की ही हुई, तो ले दनादन, ले दनादन हर साल फसल तैयार ।"


"फूफा अब भी कुछ नहीं करते बुआ?"

“अरी मत पूछ! मैंने पंजीरी कूटकर थोड़े पैसे बचाए थे। त्रिपुरसुन्दरी मन्दिर के नीचे, सस्ते गले फल खरीद, इनके लिए एक फड़ (चादर बिछाकर खोली गई दुकान) खोल दिया। तीन बजे तक स्कूली बच्चे घर लौटते हैं, भूखे बच्चे निश्चय ही सस्ते फल खरीदेंगे, पर क्या बताऊँ बेटी, बारह बजे दुकान खोलने और तीन बजे तक स्कूली बच्चों के आने से पहले ही पूरी दुकान इनके पेट में चली जाती है।"

एक बार उनकी बहनों ने उन्हें आड़े हाथों लिया, "हद है दीदी, भिज्यू को समझाती क्यों नहीं? हर साल एक बच्चा तेरे पेट में रहता है, दूसरा गोद में।"

वाक्पटु हमारी बुआ की आँखों में नटखट बालिका की-सी चुहल चुलबुला उठी, “अरी कितनी बार समझाया, सड़े-गले फल मत खाओ, मत खाओ, मानते ही नहीं।"

पता नहीं हमारे उन पौरुष-दर्प प्रमत्त फूफाजी को ताजा फल मिलते, तो राजा सगर की भाँति न जाने कितने कुमाऊँ की धरणी को धन्य कर देते। यही गनीमत थी कि सातों बेटे थे, पुत्री होती तो बुआ बेचारी दहेज कहाँ से जुटातीं।

एक दिन मैं कुछ लिख रही थी, तो बुआ कहने लगीं, “अरी सुन, एक कविता मैंने भी लिखी है, सुनेगी?"

"सुनाओ ना बुआ।"

वे हँसकर अपनी कविता सुनाने लगीं, "चक्की पीसै नार बड़ी दुखियारी। फूटे तिनके भाग जो कंता घर बैठा री..."

पता नहीं वह कविता उन्हीं की मौलिक रचना थी, या किसी और की, पर बार-बार ललाट पर हाथ मार, चक्की पीसने का उनका अभिनय, उनका नितान्त अपना ही था। बेटों के पास एक जोड़ा कपड़े थे, जिन्हें वे धो-धाकर स्कूल के लिए बचाए रखतीं। पहले बेचारों की अर्धनग्न टाँगों पर पैबंद लगी पैंटों का जिरहबख्तर रहता, पूरी बाँह की कमीजों को फटने पर बड़े सुघड़ तरीके से आधी बाँह का बनाया जाता, फिर वह बाँहें भी चुक जातीं तो काट कर बनियान। द्वार पर लटका रहता फटी टाट का पर्दा और काठ की एक पट्टी पर सफेद कमेट से लिखी गई, सही मात्राओं से विच्युत एक भयानक चेतावनी-

किरपया भित्तर न आएँ
यहाँ भुत्त रहता है।

एक दिन मैं साहस कर, उस अदर्शी भयावह भूत को चुनौती देने भीतर चली गई, तो नंगधडंग खड़े सात भाई मुझे देखकर हँसने लगे।

"कहाँ है रे तुम्हारा भूत?" मैंने कहा।

"हम यहाँ नंगे रहते हैं, कोई भीतर न आए इसीलिए ददा ने यह तख्ती टाँग दी।"
"तो नंगे क्यों रहते हो?" अपना मूर्ख प्रश्न पूछते ही मैं स्वयं अपनी मूर्खता पर पछता उठी।
बेचारों के पास बदलने को कपड़े ही कहाँ होंगे?
"अब हमारी पुरानी बनियानें और निकर भी फट गई हैं।" सबसे छोटे और सबसे सुन्दर चनुआ ने कहा।

उसी दिन अम्माँ ने उनके लिए मेरे छोटे भाई के कपड़ों का गट्ठर भिजवा दिया था।

मैं जब भी छुट्टियों में आती, अपनी उस स्नेही बुआ से मिलने अवश्य जाती और सात भाइयों के लिए लैमन ड्राप्स का भरा थैला रखना न भूलती। पहाड़ में तब उसे लैमनचूस नाम से जाना जाता था 'बिलैत मिठै' अर्थात विलायती प्रसन्न हो जाते, "लैमनचूस लाई है! लैमनचूस लाई है!" सबसे छोटा चनुआ अपनी तोतली जबान से दंतस्थ 'स' का उच्चारण नहीं कर पाता और जिस विचित्र उच्चारण से उस मिठाई का नाम लेता, उसे आज लिखने में कलम शालीनता की परिधि में सिमटी जा रही है।

आज उन सरल देवदूत-से सातों चेहरों की छवि मुझे बरबस उसी छोटे से कमरे में खींचे लिए जा रही है, जहाँ टाट का पर्दा टँगा था, और ऊपर लगी थी वह भ्रामक लकड़ी की टेढ़ी तख्ती 'किरपया भित्तर न आएँ, यहाँ भुत्त रहता है।'
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