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संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


“सबको पान खाते देखती, तो जी में आता मैं भी खाऊँ और खूब ओंठ रचाऊँ, हाथ भर चूड़ियाँ पहनें, बिन्दी लगाऊँ। एक दिन जब घर में कोई नहीं था, मैंने हथेली में ईंगुर घोला, जमकर ओठों पर लेप लिया, आईना देखने खड़ी भी नहीं हो पाई थी कि अम्माँ आ गईं, और मेरी वह धुनाई हुई कि पूछो मत। ओंठ कट गया, रक्त की धार से मेरे कपड़े रँग गए। क्या-क्या नहीं कह दिया अम्माँ ने, 'राँड रँडकुली, भतार को खा गई अब ओंठ रँग रही है।"


बुआ की आँखों में बताते हुए आँसू आ गए, पर ओठों पर उनकी वही चिरपरिचित सदाबहार हँसी थी। मुझे दया आ गई, "बुआ, अब पान खाओगी? मैं ले आऊँ, अब तो तुम्हारी अम्माँ भी नहीं हैं, और हमारी अम्माँ कुछ नहीं कहेंगी।"

“अरी मूर्ख!" बुआ उलटे मुझ पर ही बरस पड़ी, "तब तो मैं नादान थी, अम्माँ ने ठीक ही किया। अब तो तीस बरस की हो गई हूँ। ऐसा पाप कर सकती हूँ भला। इतना भी नहीं जानती कि विधवा पान नहीं खा सकती।"

“और क्या-क्या नहीं खा सकती बुआ?" मैंने बड़े भोलेपन से पूछ दिया, तो उन्होंने बड़े दुलार से मुझे अपने पास खींच लिया, "तब सुन मसूर की दाल, बैंगन, टमाटर, लहसुन, प्याज...।"

"यह तो अन्याय है बुआ, क्यों नहीं खा सकतीं यह सब?"

"उसकी इच्छा, उसका हुकुम।" उन्होंने दोनों हाथ आकाश की ओर उठा दिए। अपनी इस व्याख्या से सन्तुष्ट थीं।

हमारे पड़ोस में आत्महत्या करने से पूर्व तरुण पति ने अपनी भोली बालिका वधू से पूछा था, “मैं जा रहा हूँ, तुझे कुछ चाहिए?"

"एक रुपया!" उसने फरमाइश की और फिर गुट्टियाँ खेलने लगी।

वह बेचारी क्या जानती थी कि सुदीर्घ वैधव्य की विषम व्यथा को झेलने के लिए वह एक रुपया उसकी अन्तिम फरमाइश होगी।

हमारी अपनी कोई सगी बुआ नहीं थी। पिता की रिश्ते की बहनों से अम्माँ का व्यवहार एकदम सगी ननदों-सा था। आए दिन एक-न-एक विधवा, पतिपरित्यक्ता, ताड़िता रिश्ते की बुआ हमारे यहाँ बनी रहतीं। बाल-विधवा वह बुआ तो एक प्रकार से हमारे गृह की स्थायी सदस्या ही बन गई थीं। मैंने उन्हें कभी उदास या मुँह लटकाए नहीं देखा। हमें नया कपड़ा या माँ को नया गहना पहने देखतीं, तो ऐसी प्रसन्न हो उठतीं, जैसे स्वयं पहन लिया हो। अब ऐसा मात्सर्य, ईर्ष्यारहित औदार्य कहाँ? इसी ईर्ष्या का फल है वह 'डिप्रेशन', जो आज हमारे लिए एक आम बीमारी बन गई है। तब इसका नाम भी हमने नहीं सुना था। आज कौन-सा गृह ऐसा बचा है, जहाँ इस बीमारी का एक-न-एक मरीज अपनी और अपने घरवालों की नींद हराम न कर रहा हो। सच पूछा जाए, तो तब लोगों को न बोरियत के लिए समय मिलता था, न डिप्रेशन के लिए। फिर हमारी यह बुआ तो जन्मजात आनंदी प्रकृति की थीं। पढ़ी-लिखी नहीं थीं, फिर भी रुक-रुककर हिन्दी पढ़ ही लेतीं। अन्त में जलोदर से पीड़ित हुईं, तो हमारे पिता ने उन्हें अपने एक परिचित अंग्रेज सिविल सर्जन के पास भेजा। उदर की अस्वाभाविक परिधि देख, डॉक्टर ने पूछा, "कितना महीना, सात या आठ? अभी बच्चा होने में देर है। ताकत की दवा लिख देता हूँ।"

बुआ ने आव देखा, न ताव, उस पर बरस पड़ी, “अरे सत्यानाश हो तेरा, मुझ राँड रँडकुली पर इस उम्र में लांछन लगा रहा है? मैं बाल-विधवा हूँ। तू कैसा डॉक्टर है रे, जो इत्ती बात भी नहीं समझ पाया कि मेरे पेट में पानी भरा है, बच्चा नहीं।" और वेगवती नदी-सी ही उफनती गरजती, वे घर आ गईं और अम्माँ से बोली, “कहाँ भेज दिया तुमने बोज्यू (भाभी), आज एकादशी के दिन उस लालमुखी गोरे ने सबके सामने मेरी इज्जत उतार दी, पूछने लगा, कितना महीना है?"

उन्हीं की एक छोटी बहन भी प्रायः हमारे यहाँ ही बनी रहतीं। इस बुआ के पति बद्ध पागल थे। निरीह पत्नी को ढोल-दमामे-सी पीट-पाट, कभी सड़क पर डाल जाते, कभी हमारे दरवाजे। माँ न जाने कितनी बार उन्हें इधर-उधर से उठा-उठाकर हमारे यहाँ लातीं। उनकी गुमचोटों पर डालू की जड़ घिसकर लगाती और उनके पागल पति को कोसती-खबरदार लली, जो अब वहाँ गई, फिर समझ लेना मायके के द्वार, तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बन्द हो गए हैं।

जब तक काँखती-कराहती बुआ अशक्त रहतीं, तब तक बनी रहतीं, एक दिन देखते उनका बिस्तरा खाली है। आधी रात को ही बर्फ फाँदती वे फिर ससुराल चली जातीं।

हमारी एक अन्य बुआ थीं, जो अपनी सब बहनों में बड़ी थीं। हमारी माँ से उनकी बहुत पटती थी। लहँगा-पिछौड़ा पहने उन बुआ को हम दूर से ही पहचान लेते। उनके हाथ में रहती एक छोटी-सी पुड़िया। उन दिनों पहाड़ का एक रिवाज यह भी था कि खाली हाथ किसी के यहाँ मत जाओ, भले ही चार बताशे हों या सूजी के बिस्किट या भुने खोये का अपूर्व स्वाद का लड्डू, जो दो पैसे में एक आता था। यह बुआ, अल्पना देने में पारंगत थीं, पर सबसे मोहक थी उनकी हँसी, सिर पीछे कर आँखें मूंद ऐसा ठहाका लगातीं कि अम्माँ कभी उनको टोक भी देती, “धीरे हँसो लली, तुम्हारी यह रावण की-सी हँसी मर्दो की बैठक तक चली जाएगी, तो अन्धेर हो जाएगा।"

पर बुआ थीं कि हमारे गृह के सारे अदब-कायदों को ताक पर धर पूर्ववत् ठहाके मारती रहतीं। मुझे उनकी यह मुद्रा बहुत प्रिय थी। कोई तो है इस घर में जो गृह के मर्दो के अनुशासन की धज्जियाँ उड़ाने में समर्थ है।

जोर से हँसना-बोलना या पैर पटक धम्म-धम्म कर चलना, यह तब हम औरतों के लिए अच्छा नहीं समझा जाता था। यह नियम तो बहुत बाद तक हमारे यहाँ निभाया जाता रहा। मेरी छोटी पुत्री, मेरे साथ नानी से मिलने गई, तो अम्माँ ने कहा, “तेरी यह लड़की कन्धे सतर कर चलती है, इसे झुककर चलना नहीं सिखाया तूने?" और फिर उसके सिर पर तौलिया डाल, अम्माँ उसे झुककर चलना सिखाती, "लड़कियों को झुककर चलना सीखना चाहिए।" अम्माँ ने कहा था, “यह भी नहीं कि एकदम ही झुककर दोहरी हो जाओ, पर थोडा बहत झकना सीखो। बाद में कष्ट नहीं उठाओगी।" पता नहीं माँ के इस तर्क में कितनी सच्चाई थी, किन्तु हमने माँ के व्यक्तित्व से यह अवश्य सीखा कि अपना मेरुदंड सतर रखो, कन्धे झुकाने भी पढ़ें, तो तुम्हारा अहित नहीं होगा।

हमारी एक और दूर के सम्पर्क की बुआ थीं, जिन्हें उनके पुत्र का नाम ले, फलाँ की माँ कहकर ही पुकारा जाता। नाम इसलिए नहीं लिख पा रही हूँ कि आज भले ही वह स्नेही बुआ नहीं रहीं, उनका पुत्र अच्छे-खासे पद पर है; और अपने अतीत के वैभव का बखान जितना ही प्रिय लगता है, अतीत के अवांछित दारिद्र्य पर पड़ा विस्मृति का पर्दा कोई उठाना नहीं चाहता। यह बुआ थीं किसी अबोध बालिका-सी निष्कपट, स्नेही, सहिष्णुता की साकार मूर्ति। पति अधिकांश कुमाऊँनी पुरुषों की भाँति अकर्मण्य, आलसी और बेकार-निगरगंड मोटा, नफा न टोटा' को सार्थक करते, जीवन-भर पराश्रयी हो कभी किसी रिश्तेदार के यहाँ मुफ्त की रोटियाँ तोड़ते, कभी किसी के यहाँ दिनों तक अवांछित अतिथि बने रहते। बेचारी बुआ उतनी ही कर्मठ थीं, उतनी ही आत्माभिमानी। मजाल है, जो कभी किसी के सामने हाथ फैलाया हो, कूट-पीसकर बच्चों को पाल ही नहीं रही थीं, पढ़ा भी रही थीं। मेरी माँ ने, उनकी अन्त तक सहायता की, जिसे वे परम कृतज्ञता से स्वीकार भी करती रहीं। कुछ वर्षों पूर्व मुझे एक विवाह में मिलीं, तो कहने लगीं, "बच्चों को जन्म मैंने दिया, पाला तेरी माँ ने। बोज्यू, तुम सीधे स्वर्ग जाकर इंद्रासन पर बैठी होगी।"
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