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संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


माँ की एक बड़ी तस्वीर, हमारे ननिहाल में लगी थी जो बाद में हमारे "यहाँ आ गई थी। फिर वह कहाँ इधर-उधर हो गई पता नहीं चला। पर उसकी एक कॉपी अभी भी छोटे भाई के पास धरी है। जरीदार कन्नी की दक्षिणी साड़ी, कानों में भारी झुमके, कंठ में मोती की कंठी, हाथ में मगरमुखी इमरती कंगन, चपटी माँग-पट्टी समेत माँ राजरानी-सी बैठी है, आसपास धरे हैं दो गमले। एकदम वैसा ही दूसरा जुड़वाँ चित्र उसकी बहन जिबू मौसी का लगा था। बीच में धरी रहती नानाजी की काँच केस में बन्द भव्य मूर्ति, जो उनके किसी रोगमुक्त कृतज्ञ मरीज ने, अपने असाध्य कुख्यात रोग से मुक्त होने पर उन्हें अपने हाथों से बनाकर दी थी।


कर्ण जैसी दानवीर अपनी माँ के उन ऐतिहासिक आभूषणों से हमारा परिचय उसी चित्र तक सीमित रहा। देखने या पहनने का सौभाग्य कभी मिला ही नहीं। कभी माँ ही अपनी चित्रांकित कंठी या जड़ाऊ कंगन का इतिहास, एक-एक गहने पर अँगुली धरकर बताती-यह कंठी मुझे मेरे विवाह पर दौलतपुर नवाब ने दी थी। और यह कंगन राजा गौबा ने।

-कहाँ गए वे गहने माँ? हम पूछते।

-यह कंठी फलाँ नौकर की शादी में बिकी-माँ बताती-और इन कंगनों को बेच मैंने नौकरानी पाँची बाई का कन्यादान किया था, ये झुमके दूसरे भृत्य गधौली के गुंसाई का घर बसाने में काम आए। जब से हमारी स्मृति सयानी हुई हमने अपने परिवार में आश्रितों की एक लम्बी कतार ही देखी। माँ की ससुराल का परिवार सीमित था, बस मेरे पिता और चाचा। चाचा आजन्म कुँआरे रहे, वैरागी स्वभाव के थे, जीवन-भर साधु-सन्तों की गाँजे की चिलमें ही सँवारते रहे। उन्होंने एक बार बड़ी कठिनता से विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दी थी, लड़की का दिव्य रूप ही सम्भवतः उन्हें वैराग्य सोपान के नीचे खींच लाया। लेकिन विधाता को कुछ और ही मंजूर था। चाचा ने तो अपनी स्वीकृति दे दी, किन्तु हमारे गृह के ज्योतिषी रुद्रदत्त भट्ट जी ने अपनी स्वीकृति नहीं दी-कैसे कहूँ पांडे जी, पर जीवन-भर, आपका कृपा-भाजन रहा हूँ, आप मेरे गुरु भी रहे हैं, उन्होंने कन्या की कुंडली पितामह को थमाकर कहा-प्रश्न आपके पुत्र के भविष्य का है, इस कुंडली में लग्न से अष्टम भावगत मंगल ग्रह है-आप स्वयं देख लीजिए, स्पष्ट वैधव्य योग है। ऐसे क्रूर ग्रह को कैसे मिटा दूं? यह तो स्वयं विधाता का भेजा फाँसी का फरमान है।

लिहाजा विवाह स्थगित हो गया, लाख मनाने पर भी चाचा फिर दूसरी लड़की देखने को तैयार नहीं हुए। और हमारी माँ ही अन्त तक हमारे गृह की इकलौती बहू रही।

नाना लखनऊ के प्रख्यात चिकित्सक थे। वह भी अनेक राजपरिवारों के पारिवारिक चिकित्सक। माँ का विवाह हुआ तो वह बताती, इतने गहने उपहार में आए कि कभी एक साथ सब पहन ही नहीं पाई। किन्तु हमारी माँ थी औघड़दानी। कन्यादान के पूर्व, लगन की प्रतीक्षा में उन्हें, ऊपर के एक निभृत कमरे में बिठा दिया गया था-खबरदार मुन्नी, खिड़की से झाँक अपनी बारात देखने का दुःसाहस मत करना, कन्या अपनी बारात स्वयं देख ले तो बूढ़ा दूल्हा मिलता है, कहकर नानी ने बाहर से कुंडी चढ़ा दी। उसी कमरे में भंडार भी था-गेहूँ, चावल, चीनी के बोरों के बीच तब दस बरस की अम्मा चुपचाप बैठी थी। तभी उसे स्मरण हुआ कि उससे सटी एक छोटी-सी कोठरी में, एक अत्यंत दरिद्र बंगाली परिवार रहता था, जिन्हें हमारी माँ, नानी से छिपाकर प्रायः ही कुछ-न-कुछ दिया करती थी। उस दिन उसने सोचा-कल तो मैं ससुराल चली जाऊँगी, अब इन्हें कौन देगा?-चटपट मैंने साँकल खटखटाई, सब मेरी बारात देखने गए थे, घर की दादी, जो शायद बुखार में पड़ी थी, ने द्वार खोला। मैंने न कुछ कहा न बोली, चुपचाप गेहूँ, चीनी, चावल के तीन बोरे घसीटकर, उनकी अँधेरी कोठरी में ढकेल, चटपट कुंडी लगा दी। तब किसी को यह सुध भी नहीं हो सकती थी कि भंडार में कुल कितने बोरे थे? तब क्या रसद के बोरे गिने जाते थे?

जीवन-भर माँ चुपचाप अपने समृद्ध गृह से ऐसे कितने ही बोरे दरिद्र गृहों में पहुँचाती रही। उसका यह कहना था कि जितना दोगे, उसका दुगुना पाओगेएक हाथ से अपनी समृद्धि बाँटो और दूसरे हाथ से समेट लो। किन्तु उसका यही औदार्य किसी की चोरी पकड़ते ही फन उठा फुफकारता नाग बन जाता। एक बार उनकी दौहित्री माधुरी की नौकरानी बोली-माँजी घर जाकर रोटी डालते हैं, बड़ी अवेर हो जाती है, हम अपने आटे का कनस्तर ले आए हैं, यहीं अपने और बिटवा के लिए, दो रोटी डाल लिया करेंगे।

नौकरानी एक वक्त का खाना और प्रचुर वेतन तो पाती ही थी फिर भी जाने कब उसकी नीयत में खोट आ गया। माँ कहती थी-मैं देखती हमारे आटे का कनस्तर तो बिजली की गति से रीता हो रहा है। उसका ज्यों का त्यों धरा है। मैंने चुपचाप उसका कनातर खोला और अपने हाथ की छाप सतह पर लगा दी। पन्द्रह दिन बाद देखा, मेरे हाथ की छाग ज्यों की त्यों धरी है। बस चोरी पकड़ी गई। पर उस चोर नौकरानी की स्वामिनी मेरी बहन की बेटी माधुरी थी जन्म से ही सन्त। विवाह नहीं किया, कॉलेज में पढ़ाती थी, सूक्ष्म आहारी और सांसारिक कुटिल गतिविधियों से सर्वथा अछूती। कोई जनी ऐसी प्रवंचना भी कर सकती है, उसने कभी सोचा भी नहीं था। उसने अपनी क्षमाशीलता को ही प्रश्रय दिया, और माँ की बात हँसी में उड़ा दी।

हमारी एक दूर के रिश्ते की बुआ थीं, बेचारी प्रतिवर्ष आसन्न प्रसवा रहतीं, पति अकर्मण्य । सात पुत्रों की वह दुखी जननी आए दिन अपने सप्ताश्वों का रथ हाँकती हमारी माँ के पास आ जातीं। हम कभी उन उदंड पुत्रों की अबाध्यता देख अँझला जाते, पर मजाल जो माँ के चेहरे पर कभी शिकन भी उभरी हो। तब हमारे घर में दो रसोइया थे-बड़े लोहनीजी, छोटे लोहनीजी। माँ उन्हें आदेश देती-आटा और गूंध लो, सब्जी भी बढ़ा लो, फलाँ की इजा अपने सातों बेटों के साथ आई हैं, यहीं खाना खाएँगी।

उग्र तेजा लोहनी जी भुनभुनाते-तुझे ठौर नहीं मुझे और नहीं-यहाँ तो रोज का ही सदाव्रत है।
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