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संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


जन्म हुआ मेरा राजकोट में, और अपने राजकोट के उस गृह की, एक-एक स्मृति अब भी मेरे लिए सवा-सवा लाख की है। सामने खड़ी थी, नागर ब्राह्मणों की हवेली जिसकी खिड़की, हमारी खिड़की से हाथ-भर की दूरी पर थी। इसी गवाक्ष से कुमाऊँ और सौराष्ट्र की संस्कृति का आदान-प्रदान चलता रहता। वहाँ से आती खमण ढोकला, और गुड़ कोकम डली-खटमिट्टी कढ़ी या दाल की कटोरियाँ, इधर से भेजे जाते पहाड़ी सिंगल, चीनी पगे खजूर, दाडिम की चटनी, अखरोट । वहीं से हवा के मीठे झोंके के साथ, कभी हमारे घर में घुस आई दो-तीन लोकधुनें इजा (माँ) को बहुत पसन्द थीं, जिन्हें वह अपने मधुर कंठ से गुनगुनाती रहती। एक थी-


आज तो सपना माँ मने
डोलना डूंगर दीठा जो-

(आज सपने में मुझे झूमती पर्वत-श्रेणियाँ दिखीं)

और दूसरी थी-

जननी नी जोड़ सखी
नहीं मेड़े रे लाले।

(जननी की जोड़, संसार में कहीं नहीं मिल सकती)

और फिर वह प्रसिद्ध गुजराती गरबा-

मेहँदी तो आबी मालवे
एनों रंग गयो गुजरात
मेहँदी रंग लाग्या-

(मालवा से आई मेंहदी, गुजरात को रंग सिक्त कर गई)

एक और भजन, हमारी माँ प्रायः ही खाना पकाते-पकाते गुनगुनाती थी। उसमें उसके हृदय की कोई गहन अव्यक्त वेदना साकार होकर उभर उठती-

बिनुकाज आज महाराज
लाज गई मेरी
दुख हरो द्वारकानाथ
शरण मैं तेरी-

दुख भी उसने क्या कुछ कम झेले थे? असमय पति का विछोह, प्रिय देवर की मृत्यु, जवान जामाता एवं पुत्री की मृत्यु और अन्त में दर्शनीय मातभक्त श्रवण कुमार-से सुदर्शन ज्येष्ठ पुत्र की अकाल मृत्यु। तब तक साधनहीन, धनहीन हो चुकी माँ ने शुरू में जीवन के स्वर्णिम दिन भी देखे थे। पर भाग्य ने स्वर्ण ग्रस लिया। रही शेष उदासी। हमारे पिता की मृत्यु के समय जहाज-से परिवार की बागडोर अकेली ही थामे, माँ परदेश में पड़ी थी। पिता के पुराने मित्र मि. हेनरी की कृपा से हम किसी प्रकार पहाड़ पहुँचे तो भविष्य अन्धकारमय लगता था। तब हम छः बहनें और दो भाई थे। न किसी का विवाह हुआ था न कोई कमाने योग्य था। मि. हेनरी ने अपने दिवंगत मित्र के परिवार की आर्थिक सहायता करने का सहृदय प्रस्ताव भेजा तो तत्काल माँ ने (जिन्हें हम गुजरात के पारम्परिक सम्बोधन से ही 'बा' पुकारते थे) खोटे सिक्के-सा फेर दिया। माँ हद दर्जे की स्वाभिमानी महिला थी-किसी से भीख माँगना क्या मरने जैसा नहीं होता? जैसे भी होगा दिन काट लेंगे। ईश्वर सब द्वार बंद नहीं करता, वह कहती--एक खिड़की खुली वह अवश्य छोड़ जाता है।

हमने अपनी माँ से यही सत्य बार-बार हृदयंगम किया-कभी किसी के सम्मुख हाथ न फैलाओ-देते रहो माँगो नहीं। भले ही दाता स्वयं अपनी ही सन्तान क्यों न हो। हाथ फैलाया तो एक-न-एक दिन, तुम उनके लिए भी भार बन जाओगे।
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