संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......
एक बार हम पिता के प्राक्तन छात्र कपूरथला के युवराज से मिलने गए और चन्दा ने
सीतादेवी को, जिनकी गणना तब भारत की सर्वश्रेष्ठ सात सुन्दरियों में की जाती
थी, पहली बार देखा। वे शायद अभी भी जीवित हैं, किन्तु कुटिल काल ने क्या वह
रूप रहने दिया होगा? वैसा रंग और वैसी गढ़न अब शायद ही देखने को मिले।
आकर दीदी बोली, “सीतादेवी की ऊँची एड़ी की लाल जूती देखी तूने? कितनी सुन्दर लग रही थी उनके गोरे पैरों में।" हमारे पिता ने सुन लिया और पता लगा लिया कि किस चीनी जूते की दुकान से वह जूतियाँ खरीदी गई हैं। दूसरे ही दिन बहन का नाप का ऑर्डर दे दिया गया। जाने से पूर्व बनकर आ भी गई. पर बेचारी पहनती कहाँ? वैसे ही उनके सदीर्घ मायके प्रवास के कारण उन्हें ससुराल में दिनों तक जली-कटी सुननी पड़ती, "बड़े बाप की बेटी, इसी से बाप ने रसोइया-नौकर साथ में भेज दिए हैं, जैसे हम सब तो भिखारी हैं।"
धरती-सी सहिष्णु चन्दा, सबकुछ चुपचाप सह लेती। तब स्नेही उदार जीवन-सहचर का सहारा था। जब भगवान ने वह सहारा सहसा छीन लिया, तो वर्षों का दबाया गया आक्रोश बाँध तोड़कर बह निकला। पति की मृत्यु के बाद, हमारे पिता ने, उन्हें ससुराल नहीं जाने दिया, न वहाँ से ही कोई लिवाने आया।
"मैं उनकी बरसी के लिए रुकी हूँ माँ," चन्दा ने माँ से बहुत पहले ही कह दिया था, "अपने हाथों से उनकी बरसी करके जाऊँगी।" यही किया भी, दिन-भर विधि-विधान से बरसी की, रात को ठीक अपने जन्म-दिन के दिन प्राण त्याग दिए। हम तब हॉस्टल में थे। माँ ने ही बाद में बताया, "मरने के चार दिन पहले, अपने ससुर को बुला भेजा। वे आए, तो यूँघट निकालने की भी शक्ति नहीं रही थी। जिनके सामने कभी ऊँचे स्वर में बोली भी नहीं थीं, पिता और पितामह की उपस्थिति में निर्भीक शेरनी-सी दहाड़ने लगी, “आपके यहाँ मेरे साथ कैसा अन्याय हुआ, पूछिए मेरे माँ-बाप से, दादा से, क्या कभी मैंने मुँह खोला, पर आज आपको सब सुनना होगा, जिससे आपके घर में आनेवाली बहुओं को वह अत्याचार न सहना पड़े, जो मैंने सहा है। वैसे शायद उनके साथ ऐसा नहीं होगा, क्योंकि वे बहुएँ मेरी तरह मेरी सास की सौतेली बेटी की बहू नहीं होंगी। क्या आप जानते हैं कि चोरी तक का लांछन मुझ पर लगाया गया?" उत्तेजना से वह थर-थर काँपती जा रही थी और ससुर हाथ जोड़कर क्षमा याचना में दुहरे हुए जा रहे थे, "माफ कर देवी, हमें माफ कर।"
"मैं माफ करनेवाली कौन होती हूँ, माफी उससे माँगिए...।" दोनों हाथ आकाश की ओर उठा वह निढाल होकर बिस्तर पर ही ढह गई।
चौथे दिन जब कड़कती ठंड में हवा का वेग भी जमा जा रहा था, ठीक अपनी वर्षगाँठ के दिन अपने जीवन के कुल जमा चौबीस वसंत देखकर ही चन्दा दीदी ने आँखें मूंद लीं। हमारे पिता, किसी काम से बाहर गए थे, न जाने कौन-सी ममता उन्हें समय से पूर्व ही घर खींच लाई। चन्दा के प्राण शायद पिता के लिए ही रुके थे, सिर था हमारे गृह के चिरपुरातन मृत्यु वृद्ध लोहनीजी की गोद में, अबोध पुत्री माँ का स्तन मुँह में लिए सो रही थी।
"हब्बी।" हम अपने पिता को इसी नाम से पुकारते थे, उन्होंने क्षीण स्वर में कहा, "कह बेटी, क्या कहना है?" पिता की सबसे दुलारी बेटी ने स्थिर दृष्टि से उन्हें देखा, “मेरे मरने के बाद मेरे दोनों बच्चों को अपने पास ही रखना।"
हमारे पिता ने फिर एक दिन के लिए भी उन दोनों बच्चों को अपने से विलग नहीं किया और जिस लाड़-दुलार में वे ननिहाल में पले, वैसे विरले ही बच्चे पलते होंगे।
उसी रात को जब चन्दा की चिता शायद ठंडी भी नहीं हुई होगी कि उसके ससुर, उसके गहनों की पिटारी माँगने हमारे आँगन में खड़े हो गए थे। पुत्री-शोक से लगभग निष्प्राण हो गए हमारे पिता ने बिना सोचे-समझे वह पिटारी उनके सामने पटक दी, और कहा, "आज से हमारा रिश्ता खतम, समझे आप!"
पर अपनी मृत्यु से पूर्व हमारे पितामह ने जब सबकुछ जानकर भी उन्हें बुलाने को कहा, तो उनका अन्तिम आग्रह पिता टाल नहीं सके। वे आए, तो दोनों समधियों का हाथ अपने करसम्पुट में धर दादा ने मेरे पिता से कहा, "अम्बादत्त (पिता को वे इसी नाम से पुकारते थे, यद्यपि बाद में पिता ने स्वयं अपना नाम बदलकर अश्विनी कुमार रख लिया था), ये तुम्हारे समधी हैं, तुमने इन्हें कन्या दी है, इनसे बैर ठीक नहीं। सब कटुता भुला दो।"
किन्तु ऐसी कटुता क्या सहज में भुलाई जा सकती है? परायों के दिए आघात, हम भले ही भुला दें, प्रियजनों के, आत्मीय स्वजनों के दिए गए आघात मधुमेह के रोगी के घावों की भाँति सदा रिसते रहते हैं, कभी भरते नहीं।
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