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सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


राजकोट से प्रत्येक वर्ष हम गर्मियों में पहाड़ आते, तो हमारे आने की सूचना पाते ही परिचिता, आत्मीया, मौसियाँ, बुआएँ, मौसेरी-फुफेरी बहनें, छतरी सैनिकों-सी टपकने लगतीं। माँ भी प्रत्येक के लिए कुछ-न-कुछ अवश्य लाती। एक बार मेरी दो मौसेरी बहनों ने अम्माँ से दो हार बनवा कर लाने को कहा था। तब सोना था बीस रुपए तोला, फिर राजकोट के सुनारों की अपूर्व कारीगरी! मेरी उन दोनों मातृहीना मौसेरी बहनों और मौसेरे भाई पर, हमारी माँ जान छिड़कती थी-सरला, चम्पा, कृष्णा और विपिन। विपिन तो अल्पायु लेकर ही आया था, किन्तु कृष्णा दा थे तेजस्वी सुदर्शन सुपुरुष, हॉकी के प्रख्यात खिलाड़ी, मस्तमौला, संसार में रहकर भी संसार से विलग। दून स्कूल के लोकप्रिय हाउस मास्टर। सरला दीदी थी दीर्घदेही, सोने-सा दमकता रंग, तीखी नाक, लाल अधर, दाडिम-सी दन्तपंक्ति। दोनों बहनें अपने सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध थीं। वह रूप उन्होंने अपनी माँ, हमारी जिबू मौसी से विरासत में पाया था।


दोनों दीदियों में से जहाँ सरला हँसमुख, आनन्दी, मुखरा थीं, उनकी बहन चम्पा दी उतनी ही अन्तर्मुखी, अल्पभाषिणी। उन्होंने ससुराल में कड़ी कवायद की थी। ननदों का विवाह किया, देवरों को पुत्रवत् पाला, ससुर रौबदार अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे, सास भी। उनके पति हमारे जीजाजी वैसे तो बड़े स्नेही मेधावी व्यक्ति थे, किन्तु कई बुद्धिजीवियों की तरह वक्रोक्ति में पारंगत। कभी-कभी उनके व्यंग्यबाण बेचारी चम्पा दी को कुछ आहत भी कर देते होंगे, पर मजाल है, जो उन्होंने कभी पलट कर जवाब दिया हो। अपने मायके में दोनों बहनों ने अंग्रेजियत ही देखी थी। हमारे मौसा जी देखने ही में नहीं, स्वभाव में भी सौ फीसदी साहब थे। शिक्षा विभाग में अन्त तक उच्च पद पर आसीन रहे। दोनों पुत्रियों को उन्होंने बड़े लाड़-प्यार से सेंता था। ससुरालें भी दोनों को मिली थीं स्नेही, किन्तु खाँटी पहाड़ी। सरला दीदी के पति साहित्यिक रुचि के व्यक्ति थे, वकालत पास करने पर भी उन्होंने कभी वकालत नहीं की। शायद उनके आत्माभिमानी चित्त ने उन्हें नौकरी करने की अनुमति नहीं दी। हिन्दी पढ़ाने में उनकी जोड़ का गुरु मिलना असम्भव था। मैं छुट्टियों में घर आती, तो 'जायसी' लेकर उन्हीं के पास पहुँचती।

इसी बीच हमारे पिता का यायावरी ग्रह उन्हें रामपुर खींच ले गया, जहाँ तत्कालीन नवाब रज़ा अली खान ने उन्हें गृहमन्त्री का पद-भार सौंप दिया। इस प्रकार वे रामपुर के पहले हिन्दू गृहमन्त्री बने। सुना है, हमारी आलमगीर कोठी मुस्तफा लॉज अभी भी वैसी ही धरी है। अब वहाँ शायद कोई कॉलेज खुल गया है या कोई दफ्तर। विराट अहाता, मेहँदी की मेड़, जिसे सरूपा माली संध्या होते ही तर किए रहता। बरसाती में खड़ी संगीनधारी पुलिस की टुकड़ी। कुछ दिनों हमने वह राजसी सुख भरपूर भोगा, फिर हमारे पितामह श्री हरीराम पांडे बनारस विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण कर अल्मोड़ा चले आए, तो हमारी शिक्षा उनकी देख-रेख में हो, यह सोच हमें उनके पास पहाड़ भेज दिया गया। मैं और मेरी बहन जयन्ती उनके पास रह घर ही में पढ़ने लगे और बड़े भाई त्रिभुवन को एक गवर्नेस मिस मम्फर्ड की देख-रेख में नैनीताल भेज दिया गया।

हमारे लिए यह सहसा एक झटके में किया गया परिवर्तन पहले तो बड़ा कष्टदायक प्रतीत हुआ। कहाँ रामपुर की राजसी दिनचर्या! चमन ख़ाँ, मुन्ने खाँ, रंगीलाल जैसे सिखे-पढ़े नौकरों की त्रुटिहीन सेवा। प्रातः होते ही सिकन्दर मियाँ घुड़सवारी सिखाने उपस्थित हो जाते। आज बिलासपुर घूमने जा रहे हैं, कल मुरादाबाद। कहाँ अल्मोड़े में कट्टर सनातनी पितामह का कठोर अनुशासन! सूर्योदय से पहले उठना, फिर त्रिफला के जल से आँखें धोना और फिर गृह के चिरपुरातन अभिभावक लोहनी जी के साथ दीर्घकालीन भ्रमण। लौटकर सात्विकी नाश्ता, फिर आ जाते संस्कृत पढ़ाने पंडित गंगादत्त शास्त्री। हिन्दी-अंग्रेजी पढ़ाते स्वयं पितामह, जिन्हें हम बड़बाज्यू कहते थे, उनका दर्शनीय व्यक्तित्व वास्तव में अद्भुत था-श्वेत लम्बी दाढ़ी, दृष्टिहीन आँखों से निरन्तर झरती सौम्य-शान्त स्निग्ध धारा। मालवीयजी के वे परम मित्र थे, उनकी मृत्यु पर मालवीयजी ने लिखा था-'आज पृथ्वी से एक ऋषि उठ गया। सचमुच ही दादाजी ऋषि ही थे। सत्तासी वर्ष की दीर्घ आयु पाकर गए, किन्तु बत्तीसी अन्त तक अपनी ही रही। आँखों की ज्योति चली गई थी, किन्तु स्मरणशक्ति ऐसी अद्भुत कि कहाँ कौन-सी पुस्तक रखी है, कौन-सा उद्धरण हमें कहाँ मिलेगा, सब बता देते थे। अन्तिम दिन अपनी मृत्यु को न जाने किस दिव्य दृष्टि से देख वे गंगाजल स्रात धरा पर कुशा बिखेर स्वयं लेट गए। वासुदेव मन्त्र में उनके ओंठ अन्त तक सचल रहे। सहसा मुंदी आँखें खोलीं, मेरे पिता से कहा, “जाओ, अपने समधी को बुला लो, मेरे पास समय नहीं है।"

पिता का चेहरा अजीब हो गया। वे नहीं चाहते थे कि उन्हें बुलाकर वे पितामह के अन्तिम क्षणों को म्लान करें। यह समधी हमारी बड़ी बहन के ससुर थे।

हमारी बहन ने ससुराल में बड़ा कष्ट भोगा था, पर न कभी कोई शिकवा, न शिकायत। बारह वर्ष की थीं, तो विवाह हुआ, चौदह वर्ष की कच्ची वयस में एक पुत्र की जननी बनीं। समृद्ध गृह की ज्येष्ठ पुत्री थीं, बड़े लाड़-दुलार में पली थीं। विवाह हुआ तो मायके से रसोइया-नौकर सब साथ में भेजे गए कि बहन को काम न करना पड़े। हमारे जीजा भी ऊँचे अगले व्यक्तित्व-सम्पन्न सुपुरुष थे, जैसा ही व्यक्तित्व वैसा ही आचरण। हमारी बहन अठारह वर्ष की वयस में ही दो बच्चों की माँ बन गईं। पति के प्रेम की छाया में ससुराल के व्यंग्य बाण हँस-खेल कर झेलना भी सीख चुकी थीं, किन्तु विधाता से उनका सुख शायद देखा नहीं गया। वे हमारी ममेरी बहन के विवाह का निमन्त्रण पाकर अल्मोड़ा आईं। उधर जीजाजी नाव में बैठकर किसी मरीज को देखने जा रहे थे कि नाव पाषाणदेवी के कुख्यात भंवर में फँस गई। देखते-ही-देखते सर्वनाश हो गया। हम दोनों बहनों ने यह खबर शान्तिनिकेतन में, अखबार में पढ़ी।

बहन शायद जान गई थीं कि हम गर्मी की छुट्टियों में आए, तो यह उनसे हमारी अन्तिम भेंट होगी। हमने उन्हें देखा, तो कलेजा मुँह को आ गया। सुना था वैधव्य नारी को श्रीहीन कर देता है, पर उनका रूप जैसे फटा पड़ रहा था। हम पहुँचे, तो वे हमारी प्रतीक्षा में हमारे काठ के बरामदे की मुँडेर पकड़े खड़ी थीं। जीजाजी की मृत्यु का समाचार सुनते ही, उनके कटि का अधोभाग लगभग अचल हो गया था। बड़े कष्ट से सहारा लेकर खड़ी होतीं और पैर घिसट-घिसट कर चल भर लेतीं। उनकी तीन साल की अबोध बिटिया माधुरी, माँ के बैठने के लिए रबर का गोल तकिया लेकर साथ-साथ चलती। हमें देखा, तो दीदी न रोईं, न कुछ बोलीं। काँपते ओंठों को बड़े यत्न से संयत कर हँसने की चेष्टा की और कैसी करुण हँसी, जैसे मृत्यु पथ का यात्री चलते-चलते बड़ी विवशता से प्रियजनों को अन्तिम बार देख हँसने की व्यर्थ चेष्टा करता है।

अनिंद्य सुन्दरी तो वे थी ही, इधर उनके रूपरंग में, उठने-बैठने में एक दिव्य अशरीरी तेज आ गया था। किसी अदृश्य काल वैशाखी के प्रबल झोकों में शतावरी लता के समान झूमती वह दुर्बल देहवल्लरी, जैसे धरा का स्पर्श किए बिना ही उड़ती चली जा रही थी, धीरे-धीरे हमारी पकड़ से दूर-बहुत दूर । हमने जान लिया था कि उन्हें पकड़ कर रखना अब हमारे लिए असम्भव हो जाएगा। गिरजे की घंटियों के साथ मिशन स्कूल के विद्यार्थियों की अशेष पंक्ति जब खटखट करती सड़क के मोड़ से अदृश्य हो जाती, दफ्तर की भीड़ दस बजे तक दफ्तर चली जाती और पहाड़ के कृष्ण सूर्य का प्रकाश हमारे प्रांगण पर बड़े औदार्य से उतर आता, तो जनशून्य सड़क को शून्य रिक्त दृष्टि से निहारती हमारी बड़ी बहन चन्दा पुत्री के साथ दीवार पर बैठी रहतीं। मैं वह दृश्य, जीवन-भर नहीं भूल सकती। माँ का हाथ थामे वह नन्ही-सी नासमझ बच्ची, जैसे एक ही झटके में सयानी बन गई थी। न माँ से कुछ पूछती, न बोलती-बतियाती। दूर-बहुत दूर, हमारी बहन की ससुराल की लाल अबरकी छत हमारे आँगन से स्पष्ट दिखती थी। समृद्ध पांडे कुल का दुमंजिला मकान, सीढ़ियों से खेत और कुलदेवता के मन्दिर का चमकता कलश। न जाने किन-किन स्मृतियों में डूबती-उतराती सिर से पैर तक बदल गई। हमारी बड़ी बहन घंटों तक बैठी रहतीं, फिर बड़बाज्यू (दादाजी) बड़े प्यार से उसके दिवास्वप्नों को बिखेरकर कहते, “उठ चेली (बेटी), नहा-धोकर मुँह में कुछ डाल ले।"

दीदी का नाम था चन्द्रप्रभा, हमारे लिए वह चन्दा थी। हम अपने से बड़े भाई या बहनों को नाम लेकर ही पुकारते थे अर्थात् नाम के साथ दीदी या ददा जोड़कर नहीं। जीजाजी ने उनका नाम रखा था चाँद; और थी भी वह चाँद का टुकड़ा। मेरे पास उनकी जीजा के साथ खिंची एक बड़ी-सी फोटो थी। कुछ वर्ष पूर्व मैंने वह चित्र उसके पुत्र को दे दिया। उनके बैठने की राजसी भंगिमा, खड्ग के धार-सी तीखी नाक, उदास आँखें, किन्तु सुडौल चिबुक से लेकर, लम्बी अँगुलियों की बनावट में कहीं भी त्रुटि नहीं थी।

हम वर्ष-भर में एक ही बार हॉस्टल से आ पाते थे, इसी से उन्हें यह क्षणिक अवकाश मिल पाता, पर जीजा के साथ हमसे मिलने पहाड़ आतीं, तो मायके में भी डरी-सहमी रहतीं, जैसे पैरोल पर छूटी बन्दिनी हों। शरीर और मन दोनों रुग्ण रहने पर भी वे अच्छा पहनने-ओढ़ने की शौकीन थीं, उस पर जीजा उनसे भी अधिक शौकीन थे। नैनीताल के प्रसिद्ध दर्जी आत्माराम के सिले उनके ब्लाउज एक-से-एक नए डिजाइन के कार्डिगन, जिन्हें उन दिनों 'जम्पर' कहा जाता था, कमर में डोरी और फिर कटि स्पर्श करता धमावदार घेर। कभी-कभी हमारे मुँह में भी पानी आ जाता, तो वे कहतीं, "लो तुम रख लो, हॉस्टल में पहनना, मैं दूसरा सिलवा लूँगी। वहाँ कम-से-कम लोग देखकर तारीफ तो करेंगे। मैं पहनेंगी तो जंगल में नाचते मोर को भला कौन देखेगा?" इस प्रकार अपना पूरा वॉरड्रोब ही हमें थमाकर वह फिर ससुराल लौट जातीं। कभी-कभी उनका सुदीर्घ साहचर्य भी हमें नसीब हो जाता, जब रामपुर नवाब की स्पेशल ट्रेन में हम मसूरी जाते और जीजा चन्दा की पैरवी कर उन्हें हमारे साथ भेज देते। वह राजसी सफर क्या कभी भूल सकती हूँ? पहुँचने पर मैमोरियल लॉज में हमारे रुकने की सुचारु व्यवस्था रहती। तब हमारा परिवार सीमित था--तीन बहनें और दो भाई। चन्दा के ससुराल जाने से पूर्व माँ उनका बक्सा नाना उपहारों से भर पूरे वर्ष-भर का ठेका कर देती, मेवे, मिष्टान्न, हंटले पामर के बिस्किट के लुभावने डिब्बे, बच्चों के लिए गर्म कपड़े और एक न एक नया गहना।
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