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एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5990
आईएसबीएन :978-81-8361-161

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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...

एक दिन उसने मुझसे पूछा, “ऐ दीदी, हवाई जहाज में बैठे पै कइसन लगत है?"

“तू कभी नागर दोले में बैठी है? जब जहाज उतरता है तो ठीक वैसा ही लगता है।"

“अरे बईठन काहे नाँही, उँही तो हम पहली बार फलाने को देखे रहिन।"

और फिर उसने मुझे अपनी कोर्टशिप की रोचक कहानी सुनाई थी। अपनी बात प्रभावशाली ढंग से कहने की जो विलक्षण क्षमता विधाता ने उसे दी थी, वह इतने वर्षों तक कलम घिसने पर भी मैं शायद आज तक प्राप्त नहीं कर सकी हूँ।

“गुढ़ियन का मेला लगा रहा। हम रहे होंगे यही कोई दस बरस केर। मेला गए तो जिदियाय गए। अम्मा, चरखी पर बैठब!"

फिर उसी के शब्दों में उसकी सज्जा का वर्णन सुनिए, “हाथ-भर चूड़ियाँ पहनाइन थीं अम्मा, फूलदार कन्नी की नई साड़ी पहने रहे, माथे पर टिकुली, आँखिन माँ काजर, मिस्सी, पायल, लच्छा। खूब पान गुलगुलाये रहे, हमका का पता कि ऊपर के कोठे में फलाने बइठे हैं-हम का कौनौ देखै रहे इनका?

“झूला चला और बस्स, फलाने टपकाई दिहिन खुसबूदार रूमाल ! हमार तन-बदन में आग लग गई। हम खूब गरियाव लाग, 'ऐ दाढ़ीजार, मुसकिया के रूमाल काहे डालिस हमारी गोद में? तेरी खटिया उठै! न जाने कहाँ से आय गवा गुंडवा!' हमार अम्मा हमें आँखी दिखाइन, 'अरी चुप कर, इन्हीं से तो तोहार बात लगी है, फिर तीसरे दिन हम अकेली कुएँ से पानी खींचत रहीं तो देखिन फिर ही रेशमी रूमाल जेब से लटकाय खड़े हैं। कहिन--ए लड़की पानी पिला! हम कहिन-तोहार बाप केर नौकर हैं का? बोले-अउर का! एक-न-एक दिन हमार नौकरी करबई परी। अउर फिर अइसन नौकरी करवाइन बाप-बिटवा कि का कही!"

फ़िल्म देखने का उसे बेहद शौक था। उसके प्रिय अभिनेता थे धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन, जिनके लिए उसके अपने नाम थे-धरमेंदुआ अउर अमितभुवा। मैं कुछ वर्ष पूर्व बम्बई आने लगी तो वह बीमार अमिताभ की रोगमुक्ति के लिए इधर-उधर मन्नतें माँग डोरे बाँधती फिर रही थी। कभी खम्मन पीर, कभी सैयद बाबा की मजार! मुझसे बड़ी उत्कंठा से उसने पूछा, “काहे दीदी, अमितभुवा से मिलिहो?"

"क्यों?" मैंने पूछा।

"मेरी दीदी, कहियो बचुआ, रामरती बहुत याद करत रही।"

मुझे उसके सरल सन्देश पर तब हँसी आ गई थी। जिसे उसने कभी सशरीर देखा भी नहीं था, उसके लिए वह महत्त्वपूर्ण सन्देश ! पर मैंने भी उसका सन्देश अमिताभ तक पहुँचा ही दिया था। दूरदर्शन चालू होता तो वह कृषि दर्शन से लेकर अन्त तक प्रत्येक कार्यक्रम देखती। रामायण में तो उसके प्राण अटके रहते। आठ ही बजे से हाथ में फूल लेकर बैठ जाती और आरम्भ होते ही ज़मीन पर दंडवत् की मुद्रा में लेट फूल चढ़ाकर जोर से कहती, “सियावर रामचन्द की जै!" राम की मुस्कान पर वह मुग्ध थी। कहती, “जान्यो दीदी, तीन ही जनी गजब की मुसकी छाँटत है, रामायण केर राम, राजीव भैया और हमार राधिका बिटिया (मेरी दौहित्री)!

राजीव गांधी लखनऊ आते तो हो न हो, उन्हें हमारे ही गृह के पास की सड़क से गुजरना पड़ता, हवाई अड्डे का वही एकमात्र मार्ग था। रामरती उस दिन मुझे सुबह ही नोटिस दे जाती, “आज हम राजीव भैया को देखे जाब, काम ना होई हमसे।” और फिर, “दीदी, कउन-सी साड़ी पहनें?" वह ऐसे पूछती जैसे राजीव भैया उसी से मिलने आ रहे हों। रवीन्द्रनाथ की ‘राजार दुलाल' कविता क्षण-भर को जैसे साकार हो उठती :

ओगो माँ
राजार दुलाल जाव आजी
मोर घरेर समुख पथे-
आजिए प्रभाते गृहकाज लये
रहिबो बलो कीमते?
बले दे आमाय की करीबो साज
की छांदे कबरी बेंधेलब आज
परीबो अंगे कैमन भंगे
कोन बरने बास?

(अरी माँ, राजा का दुलाल आज मेरे घर के सामनेवाले पथ से गुजरेगा, आज सुबह, तुम्हीं बताओ मैं घर का काम-काज कैसे कर सकती हूँ? बता दे न माँ, कैसा शृंगार करूँ, कैसे चोटी गूँथूँ, कौन-सी, किस रंग की साड़ी पहनूँ ?)

मा गो की होलो तोमार?
अवाक नयने मुखपाने कैन चास
आमी दांडाब जेथाय
वातायन कोने
से चाबेना सेथा
ताहा जानी मने
फेलिबे निमेष देखा हबे शेष
जाबे से सूदूर पूरे
शुधू सगरे बांशी कोन माठ हते
बाजिबे-व्याकुल सुरे
तबू राजार दुलाल जाबे आज
मोर घरेर समुख पथे
शुधु शे निमेष लागी
ना करिया बेश रहिबो
बलो कीमते!

(अरी माँ, क्या हो गया तुझे? ऐसे क्यों देख रही है? मैं उस कोने में खड़ी रहँगी, जहाँ वह देखेगा भी नहीं, वह उधर ताकेगा भी नहीं, यह मैं जानती हूँ। एक पल में वह झाँकी समाप्त हो जाएगी। वह सुदूर नगर में चला जाएगा। केवल दूर कहीं व्याकुल स्वर में वंशी बजती रहेगी। तब भी राजा का दुलारा कुँअर आज जब मेरे घर के सामने के रास्ते से जाएगा तो मैं उसी क्षण के लिए बिना शृंगार किए कैसे रह सकती हूँ, तुम्हीं बताओ!)

हाथ में गुलाब का फूल लिए बेचारी रामरती घंटों राजा के दुलाल की प्रतीक्षा में खड़ी रहती और दर्शन कर तृप्त होकर लौटती।

मेरे साथ वह बहुत घूमी थी। बम्बई, बनारस, कानपुर, रीवाँ। जो विश्वविद्यालय मुझे बुलाता, वह पहले ही अपनी गठरी बाँध तैयार हो जाती, मैं यदि ए.सी. में जाती तो वह मेरे डिब्बे में बैठती, “देखो रामरती, तुम वहाँ बीड़ी नहीं पियोगी-समझी?” मैं कहती। यही उसके लिए बहुत बड़ी सजा थी। फिर ट्रेन चलते ही पुराना अमल उसे बेचैन कर देता।

वह मेरे कानों में फुसफुसाकर कहती, “ए महतारी, मार जमुहाय लगे हैं, गुसलखाने में सुट्टा खींच आईं ?” “जा मर!” मैं झुंझलाकर कहती तो वह तीर-सी भागती।

न जाने कितनी बार मैंने उसकी बीड़ी के बंडल छिपाए हैं। न जाने कितनी बार डाँटा-फटकारा है। पर उसने कभी पलटकर जवाब नहीं दिया। उसके तीव्र विरोध के बावजूद मैंने उसकी दो पुत्रियों को पढ़ने भेज दिया था। उसकी बिरादरी में उसकी पुत्री ही सम्भवतः प्रथम ग्रेजुएट थी। इसका उसे गर्व था, किन्तु चिन्ता भी थी, “अब इत्ता ही पढ़ा-लिखा लड़का भी तो चाही। कहाँ पाई आपन बिरादरी में!"

मैंने ही उसकी उस पुत्री को 7 वर्ष की वयस से पाला था। उसने कहा था, “अब तुम्हीं इसकी अम्मा हो, कन्यादान करे का परी।"

ईश्वर ने उस कर्तव्य को निभाने की शक्ति दी। अपने जीवन का वह चौथा कन्यादान भी सम्पन्न किया। विवाह मेरे ही घर से हुआ। ऐसी पुष्ट बरात स्वयं मेरी तीन पुत्रियों के विवाह में भी नहीं जुटी। हलवाई भी बैठे, शामियाना भी लगा, बिजली के लटू भी जगमगाए। यहाँ तक कि बरात में सजे-सँवरे मत्त गयंद भी पधारे, जिनकी आरती उतारने में बेचारी रामरती थरथर काँपने लगी। उसने शायद कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी उसके द्वार पर हाथी खड़ा होगा! पुत्री विदा हुई तो वह मेरे पैरों पर गिर पड़ी। कृतज्ञता के वे आँसू एकदम अंतस्तल से निकले विशुद्ध आँसू थे। “आज हम गंगा नहाय लिहिन, महतारी!"

पर पुत्री के विवाह के बाद उसका स्वास्थ्य गिरता ही जा रहा था। मैंने कहा, “रामरती, यह क्या हो गया है तुझे? रोज बीमार-कभी तू और कभी मैं।"

उसका म्लान चेहरा एक बार फिर पुरानी चुहल की रेखाओं से उद्भासित हो उठा, “जान्यो दीदी, अब हम दूनों केर ओवर-हॉलिंग कराए का है, टूब-टायर दूनों बदलवैया हैं।”

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