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एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5990
आईएसबीएन :978-81-8361-161

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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...


रोग शोक परितापं

बंधनं व्यसनानि च

आत्मापराध वृक्षस्य

फलानेतानि देहिनाम्।

रोग, शोक, परिताप, बन्धन, व्यसन सब हमारे ही अपराध-वृक्ष के फल हैं--चाहे इस जन्म के हों या उस जन्म के।

घाघ, भड्डरी सदा उसके जिह्वान पर रहते। मैं कहीं जाने को होती और घटाटोप मेघांधकार देख छतरी लेने लगती तो वह कहती-“का करिहो छतरी, जाओ, बेहिचक जाओ, बरसिहै नाँही, कारी बदरी जिया डरायै...भूरी बदरी जल बरसायै।"

उसके मौसम विभाग की सूचना कभी गलत नहीं निकलती। मैं नित्य करेला खाती थी, पर मजाल है कुँआर में यह धृष्ट फरमाइश कर सकूँ-“नाहीं,  हम न देव। जानती हो- ‘कुँआर करेला, कातिक दही... मरिहै ना तो परिहैं सही।"

कुँआर में करेला खा लिया तो मरूँ भले ही नहीं, बीमार अवश्य पड़ जाऊँगी!

आज मुझे असंख्य सीखों के कवच से सेंतनेवाला कोई नहीं है। मैं चिलमिलाती धूप में लौटती तो वह मेरे प्रत्यावर्तन का समय सूंघ, अपने दक्ष हाथों से मँजा, दर्पण-सा शीतल जल पूरित काँसे का लोटा लिए खड़ी रहती"ल्योउ, पहिलै ठंडाय लो।" प्रायः ही गरमी में लखनऊ की बिजली किसी दगाबाज मित्र-सी चली जाती। किन्तु सिर के ऊपर फरफराता बिजली का पंखा अचल होने पर आँखें खुलती तो देखती, विजना डुलाती सींक-सी दुबली कलाइयाँ निरन्तर सचल हैं। मेरे लाख मना करने पर भी वह मेरे सिरहाने बैठी तब तक पंखा झलती रहती जब तक बिजली न आ जाए!

जब मैं दिल्ली से पद्मश्री लेकर लौटी तो वह द्वार पर बेले-गुलाब का हार लिए स्वागत के लिए खड़ी थी। अपनी संचित सीमित धनराशि से उसने हार ही नहीं मँगवाया था, लड्डू-भरी प्लेट से एक लड्डू मेरे मुँह में धरा तो मेरी आँखें भर आई थीं। जहाँ मेरी साहित्यिक बिरादरी से इक्के-दुक्के ही ने मुझे बधाई दी थी. वहीं उस अनपढ, सरला सेविका का उल्लास सँभाले नहीं संभल रहा था। फिर कुछ ही दिनों बाद अचानक मेरे दाहिने हाथ में असह्य दर्द उपजा। कलम भी नहीं पकड़ पा रही थी। इधर 'धर्मयुग' से दो तार आ चुके थे कि मैं दीवाली अंक के लिए अविलम्ब ताजा कहानी भेजूं। “रामरती, लगता है अब कभी नहीं लिख पाऊँगी।” मैंने कहा तो वह तुनककर बोली, “न लिखें तोहार दुश्मन! अरे, हम जानित हैं का हुआ, नजरिया गया है हाथ, ई जौन पदमसिरी पाये हो, सब जल-भुन गए हैं, अतवार को हम नजर उतारी।"

उस इतवार को जब मेरे कमरे में कुछ शालीन अतिथि बैठे थे, “ए दीदी, सुनो तनी,” कह उसने मुझे इशारे से बुलाया। देखती क्या हूँ कि एक हाथ. में लोहे के कलछुल में दहकते अंगारे लिए, दूसरी मुट्ठी में मिर्च, चून, भूसी बाँधे रामरती खड़ी है, “बोल्यो नाँही, हम नजर उतारब।" उसने सात बार मेरे वायल हाथ की परिक्रमा कर मुट्ठी में बँधी मिर्चे अंगारों में झोंक दी। भयानक खखार उठी कि मेरे अतिथि खाँसते-खाँसते बेदम हो गए, “लगता है, आग में मिर्च चली गई!" एक ने कहा।

मैं किस मुँह से कहती कि मेरे नजरिया गए हाथ की नजर का ही उन्हें यह मूल्य चुकाना पड़ रहा है। आज जब एक बार फिर वही दाहिना हाथ अस्थिभंग के कारण अचल पड़ा है तो उसकी नजर उतारनेवाली बहुत दूर चली गई है।

उसे इधर-उधर घूमने का बेहद शौक था। दस वर्ष की थी तो विवाह हो गया। सौतेली सास थी। पति को शराब ने बरबाद कर दिया था। उधर कच्ची वयस में ही धारावाहिक प्रसवों ने उसे प्रौढ़ बना दिया था। कई घरों में काम किया, तसलों में गारा-चूना ढोया, छतें पीटी, घास बेची, किन्तु भरी जवानी में भी कभी किसी प्रलोभन की अबरकी चट्टान पर पैर नहीं फिसलने दिया। दिन-रात ढोल-दमामे-सी पीटी जाती, ननिहाल में सबकुछ था, स्वयं उसी के शब्दों में, “जब नानी सुनिन कि 'फलाने' (वह कभी अपने पति का नाम नहीं लेती थी) हमार गत बनाइ डारिन तो या नोटन की मोटी गड्डी थमाकर कहिन, 'रतिया, छोड़ दे इस मनई को, ननिहाल चली आ, हम तोहार अंतै घर बसाय देव!' हम कहिन–'खबरदार, जो कबहु इह बात दोहरायो। हमार मनसेधू हैं, हमार अंगूठा पकड़िन हैं, हम का अइसन छोड़ देईं छोड़ें तो ऊ छोड़ें, हम काहे छोड़ीं?"

इस युग में कितने अंगूठे ऐसे स्वामिभक्त रह गए हैं!

मैं देखती, उसका पति कभी-कभी पूरी तनख्वाह ही मधुशाला में लुटा, लड़खड़ाते कदमों से घर लौटता। कभी खबर आती, वह बेहोश किसी नाले में पड़ा है। वह फौरन भागती, उसे रिक्शा में लादकर घर लाती, सिर पर ठंडा पानी डालती, वमन पोंछती। और थाली परसकर चुपचाप उसके सामने रख देती। वह मदालस जिह्वा के प्रहार से धरती-सी सहिष्णु पत्नी को ही धराशायी नहीं करता, एक लात मार थाली भी दूर पटक देता, और वह रोती-रोती मेरे पास लौट आती, “फलाने आज फिर नशे में ‘डौन' हैं दीदी, पूरी तनख्वाह कोई निकाल लिहिस है जेब से-अइसन-अइसन महतारी-बहिनियाँ न्यौत रहें कि बस!"

“और तू रोज उसका चरणामृत पीती है, जा, फिर पी आ।" मैं उसे कई बार सोये पति के पैर धोकर आचमन करते देख चुकी थी। किन्तु उस अटूट पतिभक्ति का उसे पुरस्कार भी मिला। शायद उसी की असंख्य मनौतियों से पति की शराब की लत हमेशा के लिए छूट गई। जिस पत्नी के यौवन अंकुर को उसने अपने रूखे आतप से असमय ही सुखा दिया था, उसे वह अब उसकी प्रौढ़ावस्था में यत्न से सींचने लगा था। वह भी अपना कर्जा ब्याज सहित वसूलने लगी थी। मेरा काम निबटाकर वह घर जाती तो बड़े दबंग स्वर में बीसियों आदेश देने लगती, “फलाने, हमार बिस्तर लगाय देव, अउर तनी ठंडा पानी पिलाओ तो हम लेटी!” फिर एक दिन अचानक वह सब काम स्वयं करने लगी। मैंने पूछा, “क्यों री, अब तू हुकुम नहीं चलाती अपने फलाने पर?"

“का बताई दीदी, एक दिन अम्माजी (मेरी माँ) बरामदे में खड़ी देख रही थीं। फलाने हमार पेटीकोट धोकर फैलाय रहे थे, बस्स, अम्माजी उँही से गरजी, 'काय री रामरती? खसम निठल्ला कूटे धान...बीबी नरंगी चाबै पान! शरम नहीं आती तुझे?' उई दिन से हम कान पकड़िन दीदी-इनसे काम न कराब!" फिर भी वह रौब जमा ही देती। कभी-कभी वह भुनभुनाकर कहता, “हम जानत हैं रतिया, तू खूटे के बल पर नाचत है!" स्पष्ट चोट मेरे ही खूटे पर है, मैं यह समझ जाती।

“अऊर का, तू हमका अब छूकर तो देख, दीदी चट्ट से अखबार में छपवा देहीं।” पर पति-पत्नी दोनों ही मुझे भवानी-सा पूजते थे। दिन-रात रामरती मेरी छाया बनी रहती, फिर भी उसके पति ने कभी मुझे उलाहना नहीं दिया। मैंने बाली की हृदयहीनता से उसकी पत्नी को छीन लिया था, फिर भी न कोई शिकवा, न गिला। मैं ही उससे कहती, “तू दिन-रात यहीं रहती है, बेचारा थका-माँदा दफ्तर से आया है। जा जरा उसके पास बैठकर हँस-बोल आ!"

“अब का हँसी दीदी?" वह एक दीर्घ श्वास लेकर कहती, “जब हँसने के दिन थे तब तो हँसिन नाँही। हम जाब तो मार भुन्न-भुन्न करें लगिहैं।” सचमुच ही दोनों बिना जूझे एक पल भी नहीं रह सकते थे-कभी वह ताना मारता, कभी यह। वह सेर था तो रामरती सवा सेर। पर एक-दूसरे के बिना रह भी नहीं सकते थे।

मैंने एक दिन कहा, “मुझे और नहीं तुझे ठौर नहीं वाला हिसाब है तुम्हारा। पर तू भी तो कम नहीं है। छौंक तो तू भी खूब लगाती है। चुप क्यों नहीं रहती?”

“बिना छौंक के का दाल नीक लगत है दीदी? मनई से तनी खट्ट-पट्ट रहे तब ही जिनगी में खन्नक रहता है।"

कितना सत्य कथन था उसका! उसकी दृष्टि में 'तनी खट्ट-पट्ट' वैवाहिक जीवन के अजीर्ण अपच का रामबाण पाचक था। “ई का कि दिन-रात मनसेधू के गले में गलबँहिया डारै पड़े रहो। हम इत्ती मार खाइन हैं, तब ही तो अब हमका पान के पत्ते-सा फेरत हैं फलाने।”

अपनी दुबली कलाई में उसने वर्षों पूर्व एक दर्शनीय गोदना गुदाया थागमले में गुलाब का पौधा, राधाकृष्ण की युगल जोड़ी और ऊपर लिखा पति का नाम फिक्कूलाल ! समय के साथ-साथ बैंजनी स्याही प्रगाढ़ होती जा रही थी और वैसे ही प्रगाढ़ होते जा रहे दोनों के प्रेम को देख मैं कभी-कभी शंकित हो उठती। क्या दोनों ही मन-ही-मन जान गए हैं कि अब उस सुदीर्घ साहचर्य का अन्त समीप है?

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