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पुरानी जूतियों का कोरस

नागार्जुन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5596
आईएसबीएन :81-7055-398-9

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प्रस्तुत है नागार्जुन की कविताओं का संकलन...

Purani Jutiyon Ke Koras

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

यहाँ संकलित रचनाओं में से अधिकांश दीपक, कौमी बोली, सरस्वती, हंस, नया पथ, नया साहित्य, नई धारा, लोकयुद्ध, जनयुग, जनशक्ति, उत्तरार्ध, कथन, मुक्तधारा, हिन्दी टाइम्स आदि में समय-समय पर छपती रहती है।
‘35’ से ‘47’ में रचित कविताओं को पूरी तरह संकलित कर पाना असंभव ही है, क्योंकि रचनाएँ या तो खो गई हैं, या पत्र-पत्रिकाओं के पुरानें अंकों में बिखरी हैं और उनकी अनुपलब्धता एक समस्या है।

समय-समय पर इन रचनाओं को सुधी पाठकों ने मुक्त कंठ से सराहा है और विभिन्न शोध-ग्रंथों या संदर्भ-ग्रंथों में इनकी पंक्तियाँ ‘कोट’ की जाती रही हैं, पूरी रचना नहीं दिखलाई पड़ती थी।
किसी भी रचना को ‘आउट ऑफ डेट’ मानने का अधिकार मुझे तो नहीं है। रचनाओं के गुण-तत्त्व की परख का भार मर्मज्ञ पाठकों पर ही छोड़ता हूँ।

पाठ-भेद और अपूर्णता सम्बन्धी त्रुटियों का अभाव नहीं है, यह लाचारी रही है।

 

शोभाकान्त

लो, देखो अपना चमत्कार !

अब तक भी हम हैं अस्त-व्यस्त
मुदित-मुख निगड़ित चरण-हस्त
उठ-उठकर भीतर से कण्ठों में
टकराता है हृदयोद्गार
आरती न सकते हैं उतार
युग को मुखरित करने वाले शब्दों के अनुपम शिल्पकार !
हे प्रेमचन्द
यह भूख-प्यास
सर्दी-गर्मी
अपमान-ग्लानि
नाना अभाव अभियोगों से यह नोक-झोंक
यह नाराजी
यह भोलापन
यह अपने को ठगने देना
यह गरजू होकर बाँह बेच देना सस्ते—
हे अग्रज, इनसे तुम भली-भाँति परिचित थे
मालूम तुम्हें था हम कैसे थोड़े में मुर्झा जाते हैं
खिल जाते हैं, थोड़े में ही
था पता तुम्हें, कितना दुर्वह होता अक्षम के लिए भार
हे अन्तर्यामी, हे कथाकार
गोबर महगू बलचनमा और चातुरी चमार
सब छीन ले रहे स्वाधिकार
आगे बढ़कर सब जूझ रहे
रहनुमा बन गये लाखों के
अपना त्रिशंकुपन छोड़ इन्हीं का साथ दे रहा मध्य वर्ग
तुम जला गये हो मशाल
बन गया आज वह ज्योति-स्तम्भ
कोने-कोने में बढ़ता ही जाता है किरनों का पसार
लो, देखो अपना चमत्कार !

 

इतनी जल्दी भूल गया ?

 

 

कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया ?
ज़ालिम, क्यो मुझसे पहले तू ही झूल गया ?
आ, देख तो जा, तेरा यह अग्रज रोता है !
यम के फंदों में इतना क्या सचमुच आकर्षण होता है
कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया ?
ज़ालिम, क्यों मुझसे पहले तू ही झूल गया ?

ये खेत और खलिहान और वो अमराई
सारी कुदरत ही मानो गीली हो आई
तू छोड़ गया है इन्हें, उदासी में डूबे
धरती के कण-कण घुटे-घुटे डूबे-डूबे
आ, देख तो जा, ये सिर्फ उसासें भरते हैं
अड़हुल के पौधे हिलने तक से डरते हैं।
ये खेत और खलिहान और वो अमराई
सारी कुदरत ही मानो निष्प्रभ हो आई
ज़ालिम, क्यों मुझसे पहले तू ही झूल गया ?
कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया ?

 

भारतेन्दु

 

 

सरल स्वभाव सदैव, सुधीजन संकटमोचन
व्यंग्य बाण के धनी, रूढ़ि-राच्छसी निसूदन
अपने युग की कला और संस्कृति के लोचन
फूँक गए हो पुतले-पुतले में नव-जीवन
हो गए जन्म के सौ बरस, तउ अंततः नवीन हो !
सुरपुरवासी हरिचंद जू, परम प्रबुद्ध प्रवीन हो !

दोनों हाथ उलीच संपदा बने दलीदर
सिंह, तुम्हारी चर्चा सुन चिढ़ते थे गीदर
धनिक वंश में जनम लिया, कुल कलुख धो गये
निज करनी-कथनी के बल भारतेन्दु हो गये
जो कुछ भी जब तुमने कहा, कहा बूझकर जानकर !
प्रियवर, जनमन के बने गये, जन-जन को गुरु मानकर !

बाहर निकले तोड़ दुर्ग दरबारीपन का
हुआ नहीं परिताप कभी फूँके कंचन का
राजा थे, बन गये रंक दुख बाँट जगत का
रत्तीभर भी मोह न था झूठी इज्जत का
चौंतीस साल की आयु पा, चिरजीवी तुम हो गये !
कर सदुपयोग धन-माल का, वर्ग-दोष निज धो गये !

अभिमानी के नगद दामाद, सुजन जन-प्यारे
दुष्टों को तो शर तुमने कस-कस के मारे
आफिसरों की नुक्ताचीनी करने वाले
जड़ न सका कोई भी तेरे मुँह पर ताले
तुम सत्य प्रकट करते रहे बिना झिझक बिना सोचना
हमने सीखी अब तक नहीं तुलित तीव्र आलोचना

सर्व-सधारन जनता थी आँखों का तारा
उच्चवर्ग तक सीमित था भारत न तुम्हारा
हिन्दी की है असली रीढ़ गँवारू बोली
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हम में घोली
बहुजन हित में ही दी लगा, तुमने निज प्रतिमा पखर !
हे सरल लोक साहित्य के निर्माता पण्डित प्रवर !

हे जनकवि सिरमौरसहज भाखा लिखवइया
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे बाबू-भइया
तुम सी जिंदादिली कहाँ से वे लावेंगे
कहाँ तुम्हारी सूझ-बूझ वे सब पावेंगे
उनकी तो है बस एक रट : भाषा संस्कृतनिष्ठ हो !
तुम अनुक्रमणिका ही लिखो यदपि अति सुगम लिस्ट हो !

जिन पर तुम थूका करते थे साँझ-सकारे
उन्हें आजकल प्यार कर रहे प्रभु हमारे
भाव उन्हीं का, ढब उनका, उनकी ही बोली
दिल्ली के देवता, फिरंगिन के हमजोली
सुनना ही पन्द्रह साल तक अंग्रेजी बकवास है
तन भर अजाद हरिचंद जू, मन गोरन कौ दास है

कामनवेल्थी महाभँवर में फँसी बेचारी
बिलख रही है रह-रह भारतमाता प्यारी
यह अशोक का चक्र, इसे क्या देगा धोखा
एक-एक कर लेगी, सबका लेखा जोखा
जब व्यक्ति-व्यक्ति के चित्त से मिट जायेगी दीनता
माँ हुलसेगी खुलकर तभी लख अपनी स्वाधीनता
दूइ सेर कंकड़ पिसता फी मन पिसान में
घुस बइठा है कलिजुग राशन की दुकान में
लगती है कंट्रोल कभी, फिर खुल जाती है
कपड़ों पर से पहली कीमत धुल जाती है
बनिये तो यही मना रहे; विश्व युद्ध फिर से हो शुरू
फिर लखपति कोटीश्वर बने; कुछ चेहरे हों सुर्खरू !

गया यूनियन जैक, तिरंगे के दिन आये
चालाकों ने खद्दर के कपड़े बनवाये
टोप झुका टोपी की इज्जत बढ़ी सौगुनी
माल मारती नेतन की औलाद औगुनी
हम जैसे तुक्कड़ राति-दिन कलम रगड़ि मर जायँगे
तो भी शायद ही पेट भर अन्न कदाचित पायँगे

वही रंग है वही ढंग है वही चाल है
वही सूझ है वही समझ है वही चाल है
बुद्धिवाद पर दंडनीति शासन करती है
मूर्च्छित हैं हल बैल और भूखी धरती है
इस आजादी का क्या करें बिना भूमि के खेतिहर ?
हो असर भला किस बात का बिन बोनस मजदूर पर ?

लाटवाट का पता नहीं अब प्रेसिडेंट है
अपने ही बाबू भइया की गवर्मेंट है
चावल रुपये सेर, सेर ही भाजी भाजा
नगरी है अंधेर और चौपट है राजा
एक जोंक वर्ग को छोड़ कर सब पर स्याही छा रही
दुर्दशा देखकर देश की याद तुम्हारी आ रही

बड़े-बड़े गुनमंत धँस रहे प्रगट पंक में
महाशंख अब बदल गए हैं हड़ा शंख में
प्रजातंत्र में बुरा हाल है काम काज का
निकल रहा है रोज जनाजा रामराज का
प्रिय भारतेन्दु बाबू कहो, चुप रहते किस भाँति तुम
हैं चले जा रहे सूखते बिना खिले ही जब कुसुम ?

प्रभुपद पूजैं पहिरि-पहिरि जो उजली खादी
वे ही पा सकते हैं स्वतंत्रता की परसादी
हम तो भल्हू देस दसा के पीछे पागल
महँगी-बाढ़-महामारी मइया के छागल
है शहर जहल-दामुल सरिस निपट नरक सम गाँव है
अति कस्ट अन्न का वस्त्र का नहीं ठौर ना ठाँव है

पेट काट कर सूट-बूट की लाज निबाहैं
पिन से खोदैं दाँत, बचावैं कहीं निगाहैं
दिल दिमाग का सत निचोड़ कर होम कर रहे
पढ़ुआ बाबू दफ्तर में बेमौत मर रहे
अति महँगाई के कारण जीना जिन्हें हराम है
उनकी दुर्गति का क्या कहूँ जिनका मालिक राम है

संपादकगन बेबस करै गुमस्तागीरी
जदपि पेट भर खायँ न बस फाँकैं पनजीरी
बढ़ा-चढ़ा तउ अखबारन का कारोबार है
पाँति-पाँति में पूँजीवादी प्रचार है
क्या तुमने सोचा था कभी; काले-गोरे प्रेसपति
भोले पाठक समुदाय की हर लेंगे मति और गति

अंडा देती है सिनेट की छत पर चींटी
ढूह ईंट-पत्थर की, कह लो यूनिवर्सिटी
तिमिर-तोम से जूझ रहा मानव का पौधा
ज्ञान-दान भी आज बन गया कौरी सौदा
हे भारतेन्दु, तुम ही कहो, संकट को कैसे तरे ?
औसत दर्जे के बाप को कुछ न सूझता क्या करे ?

टके-टके बिक रहा जहाँ पर गीतकार है
बाकी सिरिफ सिनेमाघर में जहाँ प्यार है
कवि विरक्त बन फाँकि रहे चित्त चैतन चूरन
शिक्षक को भूखा रखता परमातम पूरन
अब वहाँ रोष है रंज है, जहाँ नेह सरिता बही
लो-प्रेम जोगनी आजकल अन्न-जोगनी हो रही

दीन दुखी मैं लिए चार प्रानिन की चिंता
बेबस सुनता महाकाल की धा धा धिनता
रीते हाथों से कैसे मैं भगति जताऊँ
किस प्रकार मैं अपने हिय का दरद बताऊँ
लो आज तुम्हारी याद में लेता हूँ मैं यह सपथ
अपने को बेचूँगा नहीं चाहे दुख झेलूँ अकथ

मैं न अकेला, कोटि-कोटि हैं मुझ जैसे तो
सबको ही अपना-अपना दुख है वैसे तो
पर दुनिया को नरक नहीं रहने देंगे हम
कर परास्त छलियों को, अमृत छीनेंगे हम
सब परेशान हैं, तंग हैं सभी आज नाराज हैं
हे भारतेन्दु तुम जान लो, विद्रोही सब आज हैं

जय फक्कड़ सिरताज, जयति हिंदी निर्माता !
जय कवि-कुल गुरू ! जयति जयति चेतना प्रदाता !
क्लेश और संघर्ष छोड़ दिखलावें क्या छवि—
दीन दुखी दुर्बल दरिद्र हम भारत के कवि !
जो बना निवेदन कर दिया, काँटे थे कुछ, शूल कुछ !
नीरस कवि ने अर्पित किए लो श्रद्धा के फूल कुछ !

 

अच्छा किया तुमने
भगतसिंह,
गुजर गये तुम्हारी शहादत के
वर्ष पचास
मगर बहुजन समाज की
अब तक पूरी हुई न आस
तुमने कितना भला चाहा था
तुमने किनका संग-साथ निबाहा था
क्या वे यही लोग थे—
गद्दार, जनद्वेषी अहसान फरामोश ?
हकूमत की पीनक में बदहोश ?
क्या वे यही लोग थे,
तुमने इन्हीं का भला चाहा था ?
भगतसिंह,
तुम्हारी वे कामरेड क्या लुच्चे थे, लवार थे ?
इन्हीं की तरह क्या वे आप पब्लिक की गर्दन पे सवार थे ?
अपनी कुर्सी बचाने की खातिर
अपनी जान माल की हिफाजत में
क्या तुम्हारे कामरेड
इन्हीं की तरह
कातिलों से समझौता करते ?
क्या वे इन्हीं की तरह
अपना थूक चाट-चाट कर मरते ?
हमने तुम्हारी वर्षगाँठ को भी
धंधा बना लिया है, भगतसिंह
हमने तुम्हारी प्रतिमा को भी
कुर्बानी का प्रमाण पत्र थामे रहने के लिए
भली भाँति मना लिया है !
भगतसिंह, दर-असल, हम बड़े पाजी हैं
तुम्हरी यादों के एक-एक निशान
हम तानाशाहों के हाथ बेचने को राजी हैं
दस-पाँच ही बुजुर्ग शेष बचे हैं
वे तुम्हारे नाम का कीर्तन करते हुए
यहाँ वहाँ दिखाई दे जाते हैं
वे उनके साथ शहीद स्मारक
समारोहों के अगल-बगल मंचस्थ
होते हैं उन्हीं के साथ
जिनकी जेलों के अन्दर हजार-हजार
तरुण विप्लवी नरक यातना भोग रहे हैं
और वे उनके साथ भी
शहीद-स्मारक-समारोहें में अगल-बगल
मंचस्थ होते हैं
जिनकी फैक्टरियों के अन्दर-बाहर
श्रमिकों का निरंतर बध होता है
भगतसिंह, क्या वे सचमुच तुम्हारे साथी थे ?
नहीं, नहीं, प्यारे भगतसिंह, यह झूठ है !
ऐसा हो ही नहीं सकता
कि तुम्हारा कोई साथी इन
मिनिस्टरों से, इन धनकुबेरों से
हाथ मिलाये !
दरअसल वे कोई और लोग हैं
उनरी जर्जर काया के अन्दर
निश्चय ही देश-द्रोही-जनद्रोही
दुष्टात्मा प्रवेश कर गयी है
भगतसिंह, अच्छा हुआ तुम न रहे !
अच्छा हुआ, फाँसी के फन्दे पर झूल गये तुम ?
ठीक वक्त पर शहीद हो गये,
अच्छा किया तुमने
बहोऽऽत अच्छा ! बहोऽऽत अच्छा ! !


 

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