लोगों की राय

सामाजिक >> कुम्भीपाक

कुम्भीपाक

नागार्जुन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3007
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 11 पाठकों को प्रिय

181 पाठक हैं

मध्यवर्गीय जिन्दगी के नरक पर आधारित पुस्तक...

Kumbhipak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नागार्जुन के अपने उपन्यासों में भारतीय जीवन के यथार्थ का अविस्मरणीय चित्रण किया है। कुम्भीपाक भी उनका ऐसी ही उपन्यास है। इसमें उन्होंने शहरी निम्न मध्यवर्ग की जिन्दगी का नरक विस्तार से उद्घाटित किया है।

इस नरक में अभाव और पीड़ा के बीच किसी तरह जीने की विडम्बना आज के भारतीय समाज की सडाँध की पोल खोलती है। एक ही किराए के मकान में रहने वाले छह परिवारों की जिन्दगी के माध्यम से नागार्जुन पूरे भारतीय समाज की विसंगति को सामने लाते हैं।

संरचनात्मक दृष्टि से बिलकुल ही नए साँचे में ढला नागार्जुन का यह उपन्यास ‘कुम्भीपाक’ उनकी कालजयी कृति है।

कुम्भीपाक

आधा पूस गुजर चुका था।
पिछले दो दिनों से सर्दी बेहद बढ़ गई थी। आसमान और धरती को कोहरा एक बनाए हुए था। बीच-बीच में बूंदाबाँदी भी होती रही। जाड़ा लोगों की हड्डी-हड्डी में समा गया था। दाँत बज उठते और मौसम को गालियाँ सुननी पड़तीं।
और यह मकान।
लगता था कि सूर्य की किरणों के लिए कोई आकार लक्ष्मण-रेखा खींच गया है। दुपहर के बाद वे सहम-सहमकर अन्दर झाँकतीं। घड़ी-आधी घड़ी के लिए दरस दिखाकर लापरवाही में सिर के आँचल की तरह खिसकती जातीं, पीछे हटती जातीं-क्वाँर की कछार में नदी की लहरों की तरह।
चालीस प्राणी थे, किरायेदारों के छै परिवार।
सभी धूप के लिए तरसते थे।
मकान-मालिक को सभी कोसते थे।

सामने लेकिन कोई कुछ कहता नहीं था उससे। वह भारी हिसाबी था, बेजोड़ मिठबोला। मकान के अगले हिस्से में, सड़क के किनारे उसने दूकान के लायक तीन कमरे निकलवा लिए थे। एक में बुकसेलर, दूसरे में दर्जी, तीसरे में प्रोविजन स्टोर के प्रोप्राइटर के नाते वह खुद ही बैठता था। अन्दर वाली खोलियों से किराये के तौर पर दो सौ, और दूकानों से नब्बे रुपये हर महीने आते थे।
उसका अपना परिवार ऊपर के तिनतल्ले पर धूप की गर्माहट के मजे लूटता होता और पिछली खोलियों में बाकी ‘प्रजा’ उसको कोस रही होती।
मगर आज तो शिविर की प्रकृति ने सभी के लिए साम्य योग उपस्थित कर दिया था:
कोहरा और बादल !
ठण्ड और गीलापन !
धुआँ और भाप।
सारा दिन यह हाल रहा और शाम होते ही बारिश टूट पड़ी।
ऊपर वाले कमरे में बच्चे ऊधम मचा रहे थे।
नीचे प्रतिभामा फुलके सेंक रही थी।
कि बिजली गुम हो गई...

बड़ा लड़का विभाकर टूटा छाता लेकर बाहर वाली दूकान से दो मोमबत्तियाँ ले आया तो माँ ने बेलन वाला हाथ उठाकर माचिस की ओर संकेत किया।
दीवार वाली अलमारी से माचिस लेकर विभाकर ने मोमबत्ती जला दी। दूसरी मोमबत्ती ऊपर के लिए थी।
रजाई में उलझकर छोटी बच्ची तख्त के नीचे गिर गई और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।
अप्पी और दामो खेल रहे थे, दोनों लपककर बच्ची को उठाने गए।
विभाकर ने मोमबत्ती जलाई तो हवा का झोंका उसे लील गया। खस-खस-खस...तीन तीलियाँ बेकार गईं तो कन्धे पर का छाता उलटकर सीढ़ियों पर लुढ़क चला-भट-भट-भट।
कि रोशनी आ गई।
कमरा जगमगा उठा, मगर बच्ची अप्पी की गोद में रोती रही।
छाता लेकर वापस आया विभाकर, उसे समेटकर बाहर खूँटी में लटका दिया। अन्दर होते ही सामने दीवार पर पिता के फोटो की तरफ निगाहें गईं। क्षण-भर के लिए गौरव के अहसास से सीना तन गया...कितना नाम है मेरे पिता का !
‘‘भइया,’’ दामो ने कहा, ‘‘हेम चुप नहीं होती है !’’
‘‘ला, मुझे दे ! तू नीचे जा, खाना तैयार है !’’
‘‘लो, यह तुमसे थोड़े चुप होगी ?’’
‘‘ला भी तो !’’

‘‘अप्पी ने मेरी गोली चुरा ली है, भइया !’’
विभाकर ने दामो की इस शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह बच्ची को चुप कराने लगा-‘‘आ आ आ आ, ओ ओ ओ ओ, ई,ई,ई,ई, आ गे हेम ! चू प.....’’
कन्धे के सहारे सँभालकर लेने की वजह से नन्ही जान को आराम मिला और रुलाई सानुनासिक स्वर की प्रलम्बित मात्रा में बदल गई।
‘‘अब सोएगी’’, नीचे से माँ ने कहा।
विभाकर कमरे में घूम-घूमकर बच्ची को चुपचुपाता रहा। दामों और अप्पी भीगते-भीगते नीचे चले गए। सीढ़ियों पर साया नहीं था, न रोशनी थी। सीढ़ियाँ हमवार होती सो भी नहीं। बच्चे ही नहीं, सयाने भी गिरते-पड़ते थे। मकान-मालिक किराया-दोहन कला का आचार्य तो था ही, अपने को एक्ज़िक्यूटिव इन्जीनियरों का नाना समझता था।
अप्पी को भूख लग गई थी। दिल सिकते हुए गोल-गोल फुलकों में उलझ रहा था, नथनों में सेम-टमाटर-गाँठगोभी की तीमन महक-महक उठती थी। पिसी हुई सरसों और इमली का सौरभ मसाले को कई गुना अधिक स्वादिष्ट बना देते हैं, अपर्णा को इस तरह की तीमन बेहद पसन्द थी।
बेचारी के पैर चूक गए ठीक वहीं पर, जहाँ उत्तर से पूरब की ओर मुड़कर नीचे जाती थीं सीढ़ियाँ।
नंगी खुरदुरी ईंटों से टकराकर माथा फूट गया। ज़ोर की चीख निकली।
चूल्हे के पास से उठकर माँ दौडी, उपर से दौड़ा विभाकर।

वर्षा का वेग थम चुका था लेकिन बूँदाबाँदी जारी थी। अर्पणा को गोद में उठाकर प्रतिभामा ऊपर आ गई....लहू की लकीरें कनपटियों के नीचे आकर कन्धों पर फ्राक को भिगो रही थीं। सख्त चोट ने लड़की को संज्ञाशून्य कर दिया था।
पड़ोस की स्त्रियाँ कमरे में इकट्ठी हो गई।
विभाकर हकीम को बुलाने गया।
दामो छोटी बच्ची को सँभाले हुए था। इस तरह लोगों की भीड़ और उनका हल्ला-गुल्ला देख-सुनकर बच्ची पहले तो चकरा गई, बाद को उसकी नन्ही चेतना पर आतंक छा गया और वह पूरी ताकत लगाकर रो पड़ी।
प्रतिभामा अप्पी के माथे का लहू आँचल के खूँट से बार-बार पोंछती थी, लेकिन वह बन्द नहीं हो रहा था।
पड़ोस वाली औरत का घरवाला बड़े हास्पिटल में कम्पाउण्डर था। वह टिंचर का फाहा ले आई। दाई चटपट आलू पीस लाई।
उम्मी की माँ ने लहू पोंछकर घाव पर टिंचर वाला फाहा रख दिया तो अप्पी दर्द की टीस से तड़प उठी।
बाकी औरतें मकान-मालिक और कार्पोरेशन को कोस रही थीं।
हकीम जी आए तो औरतें हट गईं। प्रतिभामा उसी तरह बैठी रही।
देख-देखकर दढ़ियल बोला, ‘‘घाव गहरा है लेकिन घबराने की बात नहीं जाड़े का मौसम न होता तो अन्देशे की बात थी...’’

फटी-फटी आँखों से हकीम का चेहरा देख रही थी, साँवली सूरत का लम्बोतरा चेहरा और तरतीब से तराशी हुई खिचड़ी दाढ़ी। बड़ी-बड़ी आँखें और चौड़ी पेशानी पर चमकता हुआ घाव का गहरा निशान। सिर पर काश्मीरी टोपी थी, ऊनी और रोएँदार।...प्रतिभामा की निगाहें गड़ी थीं-ट्रेन में एक बार इसी से मिलता-जुलता चेहरा प्रतिभामा के कन्धे के करीब था, बिल्कुल करीब...ठीक यही आँखें, ठीक यही नाक...। भीड़ की वजह से वे दूसरे-तीसरे नहीं, पाँचवें बर्थ की सीटों के छोर पर ऊपरी बर्थ की मोटी चेन के सहारे खड़े-खड़े झूल रहे थे। पिछली लड़ाई का जमाना था और इलाहाबाद-जंघई के दर्म्यान दौड़ रही थी उस वक्त वह ट्रेन, अपर इण्डिया एक्सप्रेस और तब हिलती-डुलती ट्रेन के मुताबिक छँटी-दीढ़ीवाले का हाथ भी हरकत में था। बाँह के नीचे बगल के जिस्म से बार-बार हथेली सट रही थी और सहज शील-संकोच वाला लाजवन्ती का सनातनी संस्कार प्रतिरोध के नाम पर बस घुटकर ही रह गया था और उधर विभाकर के पिता जी ऊपरी बर्थ की मोटी चेन के सहारे खड़े-खड़े झूल रहे थे...
चलिए हकीम उठकर खड़ा हुआ और विभाकर से बोला, ‘‘साथ चलके मल्हम ले आइए और खाने वाली दवा भी मिलेगी...अन्देशे की कोई बात नहीं...आप लोग इस मकान में शायद नए-नए आए हैं !’’
‘‘जी हाँ’’, विभाकर ने कहा, ‘‘चार-पाँच महीने हो रहे हैं मगर आपका नाम हम तक पहले ही पहुँच चुका था !’’
बेटे की बात के समर्थन में माँ ने भी माथा हिला दिया। हकीम साहब के होंठ खुशी में फैल गए। दाँतों की चमक ने मुस्कान को ज़ाहिर कर दिया।
हकीम नीचे उतरा।
विभाकर पीछे-पीछे गया।
उम्मी की माँ आ डटी।

बगल वाली पड़ोसिन ने गर्दन बढ़ाकर हकीम की हिदायतों के बारे में जानना चाहा तो कम्पाउण्डर की बीवी ने नीचे से ही उसे सब कुछ बता दिया और आदत के अनुसार पूछ लिया, ‘‘समझीं भला ? कि नहीं समझीं ?’’
‘‘इत्ती-सी बात भला नहीं समझूँगी ?’’ दर्जा छै तक मिडिल स्कूल में पढ़ी पड़ोसिन तमककर बोली, ‘‘और मेरा तो भाई ही डाक्टर है....पौने चार सौ पाता है।’’
पौने चार सौ की इस बात पर कम्पाउण्डर की बीवी मुर्झा गई। केतली में चाय का पानी खौल रहा था, बस उसे यों ही उतारकर छोड़ दिया। लिहाफ को ऊपर गर्दन तक खींच लिया। पचासी की तनखा पानेवाला ‘कम्पोटर बाबू’ मुंगेरीलाल जाड़े की रातों में भी साढ़े आठ-नौ से पहले शायद ही कभी घर आते थे। घर आकर वह कपड़े बदलते थे यानी कमीज-बण्डी निकालकर खूँटियों पर लटका देते थे और दो रुपये दो आनेवाली मद्रासी लुंगी माथा झुकाकर माला की तरह गले में डाल लेते थे, तत्पश्चात् कमर तक लाकर बेचारी को नीचे छोड़ देते...निबटने जाएँगे और पाखाने में दस मिनट बैठकर इत्मीनान से बीड़ी धूकेंगे, इसी से लुंगी में नाभि के नीचे हल्की गाँठ देकर खड़ाऊँ डालते थे पैरों में। फिर गुन-गुनाकर अस्पष्ट ध्वनि से गाना शुरू करते थे, ‘‘आ रे बदरा आ...’’ शंकर शैलेन्द्र का यह गीत बाबू मुंगेरीलाल को बेहद प्रिय था...तो सूती पाजामा तह करके तकिया के नीचे दबाकर वह कमरे से निकलेंगे। निबटकर तैयार होंगे तो टाइमपीस की मिनट वाली सुई काफी आगे बढ़ चुकी होगी और दूसरे ब्याह की इस नवेली का कर्कश स्वर मुंगेरीलाल के सींकिया पैरों में फुर्ती भर देगा, चूल्हे के करीब जाकर वह खुद ही पीढ़ा खींचकर बैठ जाएँगे।
बूँदाबाँदी थम चुकी थी।
मल्हम लगाते ही अर्पणा की आँखें मूँद गईं।
प्रतिभामा ने उसे गद्दे पर लिटा दिया।
छोटी बच्ची को भी नींद आ रही थी। इसे गोद में लेकर उसने विभाकर से कहा, ‘‘क्या पता यह नट्टिन सो ही जाएगी, तुम और दामो नीचे जाकर खाना उठा लाओ। स्टोर वाला रूम बन्द करते आना...और हाँ, कटोरे में दूध होगा, लेते आना....’’

दो


‘‘लेमनजूस !’’
‘‘नहीं, मुझे बिस्कुट दीजिए।’’
‘‘और तुझे नहीं चाहिए बिस्कुट ? सुबह का वक्त है, लेमनजूस भी ले और बिस्कुट भी। आरारोट का बिस्कुट खाने से ताकत ब़ढती है बेटी !...’’
तीन बिस्कुट और दो लेमनजूस थमाकर बुढ़ऊ ने दोनों बच्चों को वापस रवाना किया, दुअन्नी कैश बाक्स के हवाले हो चुकी थी।
सामने चाय का प्याला था जिसकी नाक गायब थी।
मुंशी मनबोधलाल मकान-मालिक ही नहीं थे, सफल दूकानदार भी थे। बच्चों को लुभाने वाली जितनी भी वस्तुएँ हो सकती हैं, सबका संग्रह था उनकी दूकान में। बीड़ी-सिगरेट, लेमनजूस-बिस्कुट से लेकर लोटा-बाल्टी, गंजी-कमीज़ तक...क्या नहीं था उनकी दूकान में ? लालटेन थी तो बिजली के बल्ब भी थे।
कापी-पेन्सिल थीं तो मैट्रिक के गेस-पेपर भी थे।

आखिरी बार प्याला उठाकर वह चाय की शेष बूँद तक सुड़क गए और तृप्तिपूर्वक सामने सड़क पर गुज़रने वाले राहगीरों को देखते रहे।
मुसल्लहपुर हाल से लौटते हुए रिक्शे सब्ज़ियों के अधिकाधिक बोझों से लदे होने के कारण यों भी अपनी तरफ ध्यान खींच लेते थे और यही हाल था उन बंगाली बाबुओं का जो हाथ में झोला लटकाए हाट की दिशा में जा रहे होते, आगे की तरफ से धोती का निचला छोर सँभाले और बीड़ी टानते हुए मासान्त के दिनों में उनका यह सब्ज़ी-अभियान देखते ही बनता था !
मुंशी जी ने एक परिचित रिक्शा वाले को आवाज दी, ‘‘ए सुनते हो जी !’’
मैली-नीली बुश्शर्ट और खाकी हाफ पैण्ट...साँवली सूरत वाले उस नौजवान ने ब्रेक लगाकर रिक्शा रोका, रुकते-रुकते भी पहिए दस-पाँच गज बढ़ ही गए।
उतरकर रिक्शा वाला दुकान के करीब आया।
‘‘लो,’’ मुंशी जी ने बीड़ी का बण्डल थमाया, ‘‘परसों ही आ गए थे, कहाँ गायब हो जाते हो तुम ?’’

गायब हो जाने की कोई कैफियत उसने नहीं दी, मुंशी जी लेकिन हितैषी बुजुर्ग की तरह मुस्कराते रहे। जाने लगा तो बोले, ‘‘एक और न लेते जाओ ! खास जबलपुर का माल है, पटनिया माल भला इसका क्या मुकाबला करेगा ! दूँ न ?’’
माथा हिलाकर नौजवान ने इन्कार किया।
उधर सब्ज़ी के गट्ठरों से आकण्ठ ढकी हुई अधेड़ तरकारी वाली का गेहुँआँ चेहरा उतावली निगाहों से दूकान की ओर घूम रहा था, खैर, रिक्शा वाले ने फुर्ती की और उसे कहने का मौका नहीं दिया।
मद्रासी लुँगी और गोलकट बनियान-बाबू मुंगेरीलाल कोयले वाले की प्रतीक्षा में खड़े थे। सम्पादक जी वाला ‘आर्यावर्त’ लेकर हॉकर अन्दर घुसने ही जा रहा था कि कम्पाउण्डर साहब ने हाथ बढ़ा दिया, ‘‘इधर लाओ न !’’
अखबार देकर हॉकर ने अपनी साइकिल सँभाली।
इधर मुंगेरीलाल काग़ज में डूब गए
‘‘क्या हाल-समाचार है कम्पोटर बाबू ?’’ मकान मालिक से नहीं रहा गया।
मुंगेरीलाल छठे पेज पर रेलवे का विज्ञापन देख रहे थे-प्लेटफार्म पर केले के छिलके डाल देने से कितनी बड़ी दुर्घटना हो गई ? पण्डित सोहनलाल धड़ाम से गिरे और माथा फट गया...भारी भीड़ स्टेचर..खिन्न मुद्रा में स्टेशन-मास्टर खड़ा है.....
कम्पाउण्डर ने अखबार के पन्नों से निगाहें नहीं हटाईं, विज्ञापन का आखिरी पैराग्राफ मन ही मन पढ़ता हुआ बोला, ‘‘अम्बाला के पास इंजिन पटरी से उतर गई और आसाम में औरत की कोख से बकरी का बच्चा पैदा हुआ है और नेहरू जी ने कहा है कि भारत कई मामलों में सबसे आगे है...’’

और मुंगेरीलाल आज का एक विशिष्ट समाचार मुंशी मनबोधलाल से छिपा रहे थे, यह बेईमानी उनके विवेक को खरोंचने लगी...विज्ञापन से तबीयत उचट गई, मन-मन्दिर के कोने में वह विशिष्ट समाचार गूँजने लगा-‘‘बड़े अस्पताल में दवाओं की चोरी !’’...‘‘हजारों का माल गायब’’...‘‘डाक्टरों कम्पाउण्डरों-नर्सों-कर्मचारियों का भ्रष्टाचार पराकाष्ठा पर’’...स्वार्थविभाग के मन्त्री अविलम्ब पद-त्याग करें’’....
यों छिलके वाली विज्ञापन-सामग्री भी कम्पाउण्डर के दिल को छू गई थी क्योंकि सोनपुर के फार्म पर उसके हाथों का फेंका हुआ छिलका एक घूंघट वाली नवेली के घुटनों को लहूलुहान कर चुका था। लेकिन, वह तो आठ-दस वर्ष पहले की बात थी न ? और, यह अस्पताल-काण्ड ! अरे बाप रे ! बिल्कुल ताजा मामला था यह तो !...
अखबार तहियाकर बाबू मुँगेरीलाल मकान के अन्दर आ गए और पुकारा, ‘विभाकर ! विभाकर ! ओ विभाकर !’’
‘‘जी, आया !’’ ऊपर की पीछे वाली खोली से आवाज़ आई और अगले ही क्षण चौदह साला किशोर सीढ़ियों से उतरता दिखाई पड़ा।
अखबार लेकर और मन ही मन कम्पाउण्डर को कोसता हुआ विभाकर ऊपर अपने कमरे में वापस आया। उसे यह बात एकदम नागवार लगती है कि चालीस व्यक्तियों वाले इस उपनिवेश के अन्दर खरीदकर पढ़ने वाला दूसरा कोई है ही नहीं ! कैसे हैं लोग ! अखबारों की चर्चा छिड़ने पर बोल उठते हैं, ‘‘हुँह, डेली ? हमारे दफ्तर में चौदह ठो दैनिक आता है ! सात ठो वीकली ! हम तो बस इत्मीनान से वहीं देखते रहते हैं....यहाँ तो हेड लाइन भर झाँक लेते हैं...विभाकर जी, आपके पिता सम्पादक हैं फिर भी दो ही चार ठो डेली पेपर देख पाते होंगे मगर हमारे दफ्तर में...ज़रा देख आइए चलकर !’’
विभाकर को इन लोगों पर अन्दर ही अन्दर गुस्सा आता है। इनकी सारी डींग उसे कोरी बकवास प्रतीत होती है। इस छोटी उम्र में भी वह समाचार-पत्रों की अनिवार्यता भली-भाँति महसूस करता था।

कोयला वाले की मोटी आवाज गूँज उठी, ‘‘ल्ले...कोइला ह..लेक्....’’
मुंगेरीलाल फिर बाहर निकल आए।
महीने का आखिरी सप्ताह था, पाँच सेर से ज्यादा लेने की गुंजाइश थी नहीं। खुद ही वह ठेले पर झुक गए और पछरिया ईंधन के छोटे-छोटे हल्के डले उठा-उठाकर तराजू वाले पटरे पर डालने लगे।
कोयला वाला खुलकर हँसा और बोला, ‘‘घटिया माल नहीं रखता हूँ सरकार ! रुई की तरह फक-से आग पकड़ लेता है और एक बार सुलगा लीजिए फिर घण्टों जलता रहेगा..हार्डिज रोड, बेली रोड, कदमकुआँ, बोरिंग, रोड..हमीं लोग सबतर कोयला पहुँचाते हैं मालिक !...’’
‘‘बड़े उस्ताद होते हो तुम लोग,’’ मुंगेरीलाल ने हाथ से हाथ झाड़कर कहा, ‘‘ज़रा-सी निगाह ओट हुई कि कोयले के बदले काले पत्थरों से ही तुम हमारी किचन भर दोगे ! दिन में दस दफे चूल्हा रूठेगा तो घर की मलिकाइन सर फोड़ लेगी...’’
इस पर उधर मुंशी मनबोधलाल को हँसी आ गई। प्राइमरी स्कूल का पड़ोसी लड़का बस्ता लटकाए पेन्सिल परख रहा था, दूसरी मुट्ठी के अन्दर से चवन्नी झाँक रही थी। ललचाई नज़र से मुंशी जी ने मुट्ठी की तरफ कई बार देखा और अपने अबोध गाहक से कहा, ‘‘कापी नहीं लोगे ? अब की बड़ा उम्दा कागज़ है बबुआ...एक ठो ज़रूर ले लो।’’
‘‘नहीं, रहने दीजिए,’’ लड़का बोला और पेन्सिल ले ली।

तब बाबू मुंगेरालील भी आ डटे।
‘‘अभी आप मुस्करा क्यों रहे थे मुंशी जी ?’’
‘‘घर का मालिक कम्पोटर रहे और घर की मलिकाइन सर फोड़ लेगी !’’
सर फोड़ने वाली बात सुनते ही कोयला वाला पास आ गया बोला, ‘‘नहीं सरकार, हमारा कोयला खराब नहीं है। मलिकाइन को रत्ती-भर भी तकलीफ हो तो मेरे नाम पर आप कुकर पोस लीजिएगा...’’
मनबोधलाल मुस्कराते रहे।
मुंगेरीलाल रुपए की रेज़गारी चाहते थे। एक हाथ दूकान की तरफ बढ़ा था, दूसरा भी अब ठेला वाले की ओर उठ गया। बोले, ‘‘बस, पैसे लो और भागो ! ज्यादा कानून मत बघारो....’’
दूकानदार बनाम मकान-मालिक ने साढ़े पाँच आने कोयला वाले के हवाले किए, बाकी रेज़गारी कम्पाउण्डर को थमाई।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book