कहानी संग्रह >> रामवृक्ष बेनीपुरी रचना संचयन रामवृक्ष बेनीपुरी रचना संचयनमस्तराम कपूर
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प्रस्तुत संचयन में बेनीपुरी ने न केवल समकालीन राजनीति,समाज,साहित्य और संस्कृति के प्रति अपनी सक्रियता सचेतना दिखलाई वरन् पाठको में उर्जास्वित करने अपनी रचनात्मक एवं प्रेरणात्मक भूमिका निभाई।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के विपुल लेखन से प्रेरित रामवृक्ष बेनीपुरी
साहित्य की हर विधा में लिखकर साहित्य जगत में छा जाना चाहते थे। उन्होंने
उपन्यास, कहानी, शब्दचित्र, रेखाचित्र, नाटक, एकांकी, जीवन-साहित्य,
बाल-किशोर साहित्य, निबन्ध, संस्मरण और भ्रमण सम्बन्धी कृतियों का ही
प्रणयन नहीं बल्कि कविताएँ लिखीं और बाङ्ला तथा अंग्रेज़ी से कविताओं के
अनुवाद भी किए। हिन्दी में शब्द चित्रों की एक अनोखी दुनिया तैयार
करनेवाला रामवृक्ष बेनीपुरी जैसा अप्रतिम चितेरा सम्भवतः कोई दूसरा नहीं
है। उनकी रचना-शैली की जादुई छड़ी के प्रशंसकों में मैथिलीशरण गुप्त,
शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, जगदीशचन्द्र माथुर और माखनलाल
चतुर्वेदी प्रमुख थे। माटी की मूरतें कृति यूनेस्को द्वारा विश्व की कई
भाषाओं में अनूदित करवाई गई है।
हिन्दी साहित्य में उनके विशिष्ट योगदान को देखते हुए साहित्य अकादेमी ने उनकी जन्मशती के अवसर पर रामवृक्ष बेनीपुरी रचना संचयन का प्रकाशन किया है। इसमें उनकी प्रतिनिधि रचनाएँ इस तरह संकलित की गई है कि पाठक को हर विधा में लिखी गई उनकी रचनाओं का आस्वाद मिल सके। इस कार्य में उनके पुत्र-श्री जितेन्द्र बेनीपुरी और श्री महेन्द्र बेनीपुरी का विशेष योगदान मिला है। प्रस्तुत संचयन के लिए सामग्री का चयन और सम्पादन डॉ.मस्तराम कपूर (जन्म 22 दिसम्बर 1926 ईं.) ने किया है। प्रसिद्ध समाजसेवी लेखक, चिन्तक और सम्पादक डॉ.कपूर कई महत्त्वपूर्ण संस्थाओं में विभिन्न पदों पर कार्य कर चुके हैं। अभी हाल में उनके द्वारा संपादित स्वतन्त्रता सेनानी ग्रन्थमाला (ग्यारह खंड़ों में) प्रकाशित हुई है। किसी भी संचयन की यह सीमा है कि उसमें कुछ-न-कुछ रचनाएँ संकलित होने से अवश्य रह जाती हैं। आशा है, पाठकों को यह ऐतिहासिक आयोजन पसंद आयेगा और वे बेनीपुरी जैसे यशस्वी रचनाकार के रचना-वैविध्य से अवश्य ही अनुप्राणित एवं लाभान्वित होंगे। साहित्य अकादेमी की एक विनम्र प्रस्तुति।
हिन्दी साहित्य में उनके विशिष्ट योगदान को देखते हुए साहित्य अकादेमी ने उनकी जन्मशती के अवसर पर रामवृक्ष बेनीपुरी रचना संचयन का प्रकाशन किया है। इसमें उनकी प्रतिनिधि रचनाएँ इस तरह संकलित की गई है कि पाठक को हर विधा में लिखी गई उनकी रचनाओं का आस्वाद मिल सके। इस कार्य में उनके पुत्र-श्री जितेन्द्र बेनीपुरी और श्री महेन्द्र बेनीपुरी का विशेष योगदान मिला है। प्रस्तुत संचयन के लिए सामग्री का चयन और सम्पादन डॉ.मस्तराम कपूर (जन्म 22 दिसम्बर 1926 ईं.) ने किया है। प्रसिद्ध समाजसेवी लेखक, चिन्तक और सम्पादक डॉ.कपूर कई महत्त्वपूर्ण संस्थाओं में विभिन्न पदों पर कार्य कर चुके हैं। अभी हाल में उनके द्वारा संपादित स्वतन्त्रता सेनानी ग्रन्थमाला (ग्यारह खंड़ों में) प्रकाशित हुई है। किसी भी संचयन की यह सीमा है कि उसमें कुछ-न-कुछ रचनाएँ संकलित होने से अवश्य रह जाती हैं। आशा है, पाठकों को यह ऐतिहासिक आयोजन पसंद आयेगा और वे बेनीपुरी जैसे यशस्वी रचनाकार के रचना-वैविध्य से अवश्य ही अनुप्राणित एवं लाभान्वित होंगे। साहित्य अकादेमी की एक विनम्र प्रस्तुति।
जीवन-परिचय
डॉ. सुरेन्द्रनाथ दीक्षित
अन्धकार के खिलाफ़ रोशनी की तलाश के लिए सतत बेचैनी का नाम
है-‘बेनीपुरी’। यह चिरविद्रोही बेनीपुरी अपने विलक्षण
व्यक्तित्व में जीवन की बहुरंगी धाराओं को एकत्र समेटकर जब तक जीया,
वाग्मती की कलकल उच्छल धार की तरह चतुर्दिक् बाधाओं से अहर्निश टकराता ही
रहा। विपत्तियों के झंझावातों, नियति के थपेड़ों से जूझता ही रहा। न जाना
उसने विश्राम, न आराम। वह महायात्री चलता रहा और चलती रही जीवन संगिनी
लेखनी क्रान्ति की चिगारियों को प्रज्वलित करती, आन्दोलनों का आह्वान
करती। सच तो यह है कि आन्दोलन एक अपर पर्याय है बेनीपुरी का। बालपन से
परिनिर्वाण तक के उनहत्तर वर्षों की आयु में उनका कर्ममय जीवन आन्दोलनों
की अटूट श्रृंखला ही है।
चिरविद्रोही बेनीपुरी सतत बेचैन, संघर्षरत ‘माटी की मूरतों’ के गढ़नेवाले उनमें प्राणों की स्फूर्ति भरनेवाले, आत्मा के शिल्पी थे। उनके शिल्प का परिदृश्य था कितना विराट् और भव्य ! इनकी संवेदना क्रान्ति के खून पसीने से सनी थी। बिहार में समाजवाद के प्रथम प्रकल्पक, किसान आन्दोलन के अग्रणी युवाओं के हृदयों में गुलामी के खिलाफ संघर्ष को लहराने वाले, तरुणाई की प्रतिमूर्ति, जो न झुके न टूटे। पत्रकार ऐसे ओजस्वी और निर्भीक कि विद्रोह के स्फुलिंगों से दहकते लेखन के लिए उनकी बार-बार की जेल यात्रा जीवन की गति और शक्ति हो गई। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कितना सच कहा था-नाम तो मेरा दिनकर है पर असल सूर्य तो बेनीपुरी थे।’1
चिरविद्रोही बेनीपुरी सतत बेचैन, संघर्षरत ‘माटी की मूरतों’ के गढ़नेवाले उनमें प्राणों की स्फूर्ति भरनेवाले, आत्मा के शिल्पी थे। उनके शिल्प का परिदृश्य था कितना विराट् और भव्य ! इनकी संवेदना क्रान्ति के खून पसीने से सनी थी। बिहार में समाजवाद के प्रथम प्रकल्पक, किसान आन्दोलन के अग्रणी युवाओं के हृदयों में गुलामी के खिलाफ संघर्ष को लहराने वाले, तरुणाई की प्रतिमूर्ति, जो न झुके न टूटे। पत्रकार ऐसे ओजस्वी और निर्भीक कि विद्रोह के स्फुलिंगों से दहकते लेखन के लिए उनकी बार-बार की जेल यात्रा जीवन की गति और शक्ति हो गई। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कितना सच कहा था-नाम तो मेरा दिनकर है पर असल सूर्य तो बेनीपुरी थे।’1
जीवन-प्रभात
बीसवीं सदी के शुभारम्भ से कुल नौ दिन पहले 23 दिसम्बर, 1899, पूस की
ठिठुरती ओस की बूँदों से भरी धरती का वह दूर दूर तक पसरा धानी आँचल, भरथुआ
चौर के पूर्वी क्षितिज पर घने कुहासे को भेदकर उदित होती सूरज-किरणों की
लाली ज्यों ही फूटी कि बेनीपुर के एक ग़रीब किसान परिवार के घर में नन्हें
से लाल के ‘चेहाँ-चेहाँ’ की ध्वनि से घर-आँगन,
पास-पड़ोस
खुशियों से भर उठा। कितने तप, त्याग व्रत उपवास की अटूट साधना, लम्बी
प्रतीक्षा के बाद अपनी माँ की गोद को निहाल करने और पिता फूलवन्त सिंह को
धन्य करने यह धरती पुत्र जन्मा। इसने अपने निराले कर्तव्यों से अपने गाँव
का नाम तो उजागर न किया हो-उसकी उज्जवल कीर्तिलता की सुगन्ध कहाँ किस
क्षेत्र में न फूटी ! कि बिहारवासियों का मस्तक गौरव से उन्नत हुआ।
प्रसिद्ध यायावर देवेन्द्र सत्यार्थी के शब्दों में, ‘बिहार ही
नहीं
पूरा भारत उनपर गर्व करता है।’’2
बालक रामवृक्ष का पालन-पोषण बड़े नाजों अदा से हुआ। ममतामयी माँ-बेटे को अपनी आँखों की पुतली बनाकर रखती। बालक नटखट भी कम न था। तोड़-फोड़, उलट-पटल, उच्छृंखल, ज़िद्दी, दुलार से टेढ़ा पर वत्सला माँ का प्रेम भाग्य में बदा न था। दूधमुँहें बेटे की अबोध उम्र में ही लम्बी बीमारी के बाद बालक रामवृक्ष की माँ चल बसी। अन्तिम साँस ले रही माँ के प्राण पखेरू तभी उड़े, जब अपने इस बेटे के हाथ से गंगाजल की पवित्र अमृत बूँदें कण्ठ तक गयीं। माने अबोध शिशु से तर्पण की बूँदों को पा तृप्ति से जो आँखें मुँदीं, वे सदा के लिए मुँदी रह गयीं।
उन दिनों अन्धविश्वास और अज्ञान का कैसा घना कुहासा जमा था अपने भारतीय समाज में ! असमय ही मृत माँ के प्रेत अपने शिशु को अपने पास न ले जाए, सो माँ के शव की टाँगों में दाह कर्म से पहले लोहे की कीलें ठोंक दी जाती थीं, कि यह लौट न सके। बेनीपुरी की प्यारी माँ की टाँगों में ऐसी ही कीलें ठोंक दी गयी थीं। बेनीपुरी इस क्रूर अन्धविश्वास को याद कर बाद के वर्षों में सिहर-सिहर उठते और आक्रोश उनका यों फूट उठता-‘‘जहाँ माँ का, मातृत्व का, सन्तान-प्रेम का ऐसा अपमान हो, निरादर हो उस समाज को जहन्नुम में जाना चाहिए।’’3
वस्तुतः बेनीपुरी के बाल्य जीवन का यह ‘कील-प्रसंग’ उनके भावी विद्रोही जीवन का, उनकी मानस यात्रा का प्रथम प्रस्थान बिन्दु है। उन्होंने बाद के वर्षों में समाज की अस्वस्थ परम्पराओं का बार-बार भंजन किया। सामाजिक समता की स्थापना के लिए शिखासूत्र तक त्याग दिया। नाम के आगे की जातीय उपाधि उठा फेंकी, ‘श्री रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी से केवल श्री रामवृक्ष बेनीपुरी रह गये। क्योंकि उससे ब्राह्मणत्व की गन्ध जो फूटती थी।4 यहाँ तककि परमात्मा तक को ताक पर रख दिया।
चार-पाँच वर्षों बाद ही मातृहीन बालक रामवृक्ष के माथे पर, पिता के प्रेम की वह आख़िरी छाया भी घनी अँधेरी रात के रूप में सहसा बदल गयी। पिता की मौत ने रामवृक्ष को सच्चे अर्थों में अनाथ बना दिया। रामवृक्ष निराधार, अवलम्बहीन कितना निराश्रित था ? कितना सूना-सूना, उदासी से भरा इसका वह आरम्भ का जीवन ! नियति कितनी क्रूर हो, अपने मजबूत थपेड़ों से पीट-पीटकर कुम्भकार की तरह उसके भावी जीवन को कठोर संघर्ष के लिए इस बालक के व्यक्तित्व के, रग-रंग में इस्पाती ताकत दे रही थी।
यद्यपि बालक रामवृक्ष के पिता-माता बाल्य जीवन में ही चल बसे, पर उन दोनों की धुँधली याद उनके हृदय पट से कभी नहीं मिटी। दाह कर्म के समय की पिता की शान्त, सौम्य, आकृति अभी भी आँखों में इतने वर्षों बाद तैर जाती और माँ को स्मरण कर बाद के वर्षों में तो आँगन में रखा माँ के निष्प्राण शरीर प्रौढ़ बेनीपुरी को भी श्रद्धा और चिरन्तन मातृप्रेम से आकुल-व्याकुल कर देता-
‘‘माँ, माँ प्रणाम माँ। तुम मुझे छोड़कर उस सन्ध्या को कहाँ चली गयी माँ ? तुम चली गयी और मेरे लिए छोड़ गयी टकटकी बँधी, गीली-गीली डबडबाई पुतलियों की वह करुण स्मृति जो मुझे व्याकुल बनाती है, रुलाती है, ढाढस देती है और अहर्निश रक्षा करती है। प्रमाण माँ, माँ माँ।’’5
बालक रामवृक्ष का पालन-पोषण बड़े नाजों अदा से हुआ। ममतामयी माँ-बेटे को अपनी आँखों की पुतली बनाकर रखती। बालक नटखट भी कम न था। तोड़-फोड़, उलट-पटल, उच्छृंखल, ज़िद्दी, दुलार से टेढ़ा पर वत्सला माँ का प्रेम भाग्य में बदा न था। दूधमुँहें बेटे की अबोध उम्र में ही लम्बी बीमारी के बाद बालक रामवृक्ष की माँ चल बसी। अन्तिम साँस ले रही माँ के प्राण पखेरू तभी उड़े, जब अपने इस बेटे के हाथ से गंगाजल की पवित्र अमृत बूँदें कण्ठ तक गयीं। माने अबोध शिशु से तर्पण की बूँदों को पा तृप्ति से जो आँखें मुँदीं, वे सदा के लिए मुँदी रह गयीं।
उन दिनों अन्धविश्वास और अज्ञान का कैसा घना कुहासा जमा था अपने भारतीय समाज में ! असमय ही मृत माँ के प्रेत अपने शिशु को अपने पास न ले जाए, सो माँ के शव की टाँगों में दाह कर्म से पहले लोहे की कीलें ठोंक दी जाती थीं, कि यह लौट न सके। बेनीपुरी की प्यारी माँ की टाँगों में ऐसी ही कीलें ठोंक दी गयी थीं। बेनीपुरी इस क्रूर अन्धविश्वास को याद कर बाद के वर्षों में सिहर-सिहर उठते और आक्रोश उनका यों फूट उठता-‘‘जहाँ माँ का, मातृत्व का, सन्तान-प्रेम का ऐसा अपमान हो, निरादर हो उस समाज को जहन्नुम में जाना चाहिए।’’3
वस्तुतः बेनीपुरी के बाल्य जीवन का यह ‘कील-प्रसंग’ उनके भावी विद्रोही जीवन का, उनकी मानस यात्रा का प्रथम प्रस्थान बिन्दु है। उन्होंने बाद के वर्षों में समाज की अस्वस्थ परम्पराओं का बार-बार भंजन किया। सामाजिक समता की स्थापना के लिए शिखासूत्र तक त्याग दिया। नाम के आगे की जातीय उपाधि उठा फेंकी, ‘श्री रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी से केवल श्री रामवृक्ष बेनीपुरी रह गये। क्योंकि उससे ब्राह्मणत्व की गन्ध जो फूटती थी।4 यहाँ तककि परमात्मा तक को ताक पर रख दिया।
चार-पाँच वर्षों बाद ही मातृहीन बालक रामवृक्ष के माथे पर, पिता के प्रेम की वह आख़िरी छाया भी घनी अँधेरी रात के रूप में सहसा बदल गयी। पिता की मौत ने रामवृक्ष को सच्चे अर्थों में अनाथ बना दिया। रामवृक्ष निराधार, अवलम्बहीन कितना निराश्रित था ? कितना सूना-सूना, उदासी से भरा इसका वह आरम्भ का जीवन ! नियति कितनी क्रूर हो, अपने मजबूत थपेड़ों से पीट-पीटकर कुम्भकार की तरह उसके भावी जीवन को कठोर संघर्ष के लिए इस बालक के व्यक्तित्व के, रग-रंग में इस्पाती ताकत दे रही थी।
यद्यपि बालक रामवृक्ष के पिता-माता बाल्य जीवन में ही चल बसे, पर उन दोनों की धुँधली याद उनके हृदय पट से कभी नहीं मिटी। दाह कर्म के समय की पिता की शान्त, सौम्य, आकृति अभी भी आँखों में इतने वर्षों बाद तैर जाती और माँ को स्मरण कर बाद के वर्षों में तो आँगन में रखा माँ के निष्प्राण शरीर प्रौढ़ बेनीपुरी को भी श्रद्धा और चिरन्तन मातृप्रेम से आकुल-व्याकुल कर देता-
‘‘माँ, माँ प्रणाम माँ। तुम मुझे छोड़कर उस सन्ध्या को कहाँ चली गयी माँ ? तुम चली गयी और मेरे लिए छोड़ गयी टकटकी बँधी, गीली-गीली डबडबाई पुतलियों की वह करुण स्मृति जो मुझे व्याकुल बनाती है, रुलाती है, ढाढस देती है और अहर्निश रक्षा करती है। प्रमाण माँ, माँ माँ।’’5
दूसरे पिता की छाया में !
बालक रामवृक्ष पिता को खोकर जब बेनीपुर से वंशीपचड़ा मामा के यहाँ आये तो
इतना सहज, अयाचित स्नेह, लाड़-प्यार, दुलार अपने मामा से मिला कि सचमुच
उन्हें दूसरा पिता मिल गया। मामा थे रईस मिजाज के पूरे शाहखर्च और
धर्मपरायण। उनके शानदार बैठका में कभी सूरसागर, कभी सुखसागर और कभी रामायण
की कथा होती। यह सब सुनते-सुनाते रक्त में अनजाने भक्ति-भावना और साधना का
भाव सुगबुगा उठा। नित पूजा -पाठ, चन्दन-लेप और रामायण का नवाह पाठ करने
लगे बेनीपुरी। धीरे-धीरे रामायम कण्ठस्थ होने लगी। तुलसीकृत रामायण के इसी
पाठ ने बेनी-पुरी के बाल-हृदय में साहित्यिकता का जो मधुर दीप प्रज्वलित
किया, दिन-दिन वह उज्ज्वलतर होता गया। जीवन में आये आँधी तूफानों में भी
साहित्य का वह दीप नीरव, निष्कम्प जलता ही रहा।
सच तो यह है कि जीवन के उन आरम्भिक वर्षों में तबके रामवृक्ष ‘राम’ और ‘रामकथा’ के पात्रों के सपने देखते। उसी में एकदम रमे रहते। जब रामवृक्ष ने अपने सपनों की बात पहुँचे हुए सन्त को सुनायी तो उन्होंने कहा तुम बड़े भाग्यवान् हो कि सपने में राम तुम्हें दर्शन देते हैं। किसी से भी यह न कहना। उस दिन राम में रमा रामवृक्ष अपने भाग्य पर फूला नहीं समाया।6 और यही वंशीपचड़ा में आरम्भिक शिक्षा पायी उसने। उर्दू भी मेहनत के साथ पढ़ी और पाटी पर लिखने का रियाज किया। मामा की दिलीख्वाहिश यही थी कि भगिना उर्दू पढ़-लिखकर ताईदी करेगा और सुखी, सम्पन्न होगा। पर नियति जैसे पर्दे के पीछे खड़ी मामा की चाह पर मुस्करा रही थी। मेरे मन कुछ और है, विधना के कुछ और। सो एक दिन ममेरे बहनोई आये। अकस्मात् उन्हें अपने साथ लेते गये पढ़ाने वंशीपचड़ा से बहुत दूर। पर बेनीपुर की बाढ़ जैसे बेनीपुरी के नस-नस में समा गयी थी, उनके रक्त में उनकी चेतना को सतत तरंगित और आलोकित करती ही रही, वैसे ही वंशीपचड़ा का प्रवास जीवन व्यापी मधुर राग ही हो गया।
बेनीपुरी की किशोरावस्था वंशीपचड़ा में बीती। वहीं से आत्मीयता और जीवनदायी सौन्दर्यानुभूति का रस पीते रहे। बेनीपुर में बाढ़ के कारण कहीं पेड़ पौधे नहीं थे, पर वंशीपचड़ा में बाढ़ नहीं आती थी। यहाँ चारों ओर सघन अमराइयों की हरीतिमा, लीची के फलों की मस्ती भरी लाली, नीलाकाश को शाद्वल बनाती रहती। हर ऋतु में कोई न कोई फलडालियों पर झूमते नजर आते। प्रकृति के इस नयनाभिराम रूप ने बेनीपुरी के किशोर हृदय को ऐसा मोहाविष्ट कर लिया कि जब भी वे कुछ लिखते तो वंशीपचड़ा की वह रमणीय प्रकृति सुन्दरी उनकी लेखनी पर बरबस उतर पड़ती।
सच तो यह है कि जीवन के उन आरम्भिक वर्षों में तबके रामवृक्ष ‘राम’ और ‘रामकथा’ के पात्रों के सपने देखते। उसी में एकदम रमे रहते। जब रामवृक्ष ने अपने सपनों की बात पहुँचे हुए सन्त को सुनायी तो उन्होंने कहा तुम बड़े भाग्यवान् हो कि सपने में राम तुम्हें दर्शन देते हैं। किसी से भी यह न कहना। उस दिन राम में रमा रामवृक्ष अपने भाग्य पर फूला नहीं समाया।6 और यही वंशीपचड़ा में आरम्भिक शिक्षा पायी उसने। उर्दू भी मेहनत के साथ पढ़ी और पाटी पर लिखने का रियाज किया। मामा की दिलीख्वाहिश यही थी कि भगिना उर्दू पढ़-लिखकर ताईदी करेगा और सुखी, सम्पन्न होगा। पर नियति जैसे पर्दे के पीछे खड़ी मामा की चाह पर मुस्करा रही थी। मेरे मन कुछ और है, विधना के कुछ और। सो एक दिन ममेरे बहनोई आये। अकस्मात् उन्हें अपने साथ लेते गये पढ़ाने वंशीपचड़ा से बहुत दूर। पर बेनीपुर की बाढ़ जैसे बेनीपुरी के नस-नस में समा गयी थी, उनके रक्त में उनकी चेतना को सतत तरंगित और आलोकित करती ही रही, वैसे ही वंशीपचड़ा का प्रवास जीवन व्यापी मधुर राग ही हो गया।
बेनीपुरी की किशोरावस्था वंशीपचड़ा में बीती। वहीं से आत्मीयता और जीवनदायी सौन्दर्यानुभूति का रस पीते रहे। बेनीपुर में बाढ़ के कारण कहीं पेड़ पौधे नहीं थे, पर वंशीपचड़ा में बाढ़ नहीं आती थी। यहाँ चारों ओर सघन अमराइयों की हरीतिमा, लीची के फलों की मस्ती भरी लाली, नीलाकाश को शाद्वल बनाती रहती। हर ऋतु में कोई न कोई फलडालियों पर झूमते नजर आते। प्रकृति के इस नयनाभिराम रूप ने बेनीपुरी के किशोर हृदय को ऐसा मोहाविष्ट कर लिया कि जब भी वे कुछ लिखते तो वंशीपचड़ा की वह रमणीय प्रकृति सुन्दरी उनकी लेखनी पर बरबस उतर पड़ती।
बालस्वप्नों में देशभक्ति नाम की देवी !
अकस्मात् अध्ययन की तलाश में अपने बड़े ममेरे बहनोई के साथ जब उस कस्बे
में (सुरसंड, वर्तमान सीतामढ़ी जिलान्तर्गत) बेनीपुरी पहुँचे तो लगा वे
एकदम नयी दुनिया में आ गये।
यहाँ ही उन्होंने पहले पहल अंग्रेजी वर्णमाला सीखी, उर्दू-फ़ारसी छूट गयी। वहाँ वंशीपचड़ा में नित कथाएँ होती और यहाँ मिडिल स्कूल के सेक्रेटरी साहब बड़ा ही ओजस्वी भाषण देते। हेडमास्टर साहब कविता सुनाते और उनकी कविताएँ छपा करतीं। किशोर बेनीपुरी के मन में यहाँ के नये परिवेश न नए-नए अस्पष्ट धुँधले सपनों की छाया को जन्म दिया। वह सोचता काश वह ओजस्वी वक्ता होता, सभा में वह बोलता और लोग प्रभावित हो, तालियाँ बजाते। वह कवि होता, लोग उसकी कविता मन्त्रमुग्ध हो सुनते, पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कविताएँ भी छपा करतीं। क्या मैं कवि नहीं हो सकता ! क्या मैं लेख नहीं लिख सकता ?
कल्पना में डैने लगे, वे उड़ने के लिए डैनों को फरफराने लगे, किन्तु तब तक पर कहाँ आये थे ? प्रथम महायुद्ध का वह चिरस्मरणीय रोमांचक समय 1914-18 का। तब तो पत्र पत्रिकाएँ उस क़स्बे में आतीं, उनमें लाल (लाला लाजपत राय), बाल (बाल गंगाधर तिलक) और पाल (बिपिनचन्द्र पाल) की गर्म राजनीतिक चर्चाएँ भरी रहतीं। एक ओर युद्ध, दूसरी ओर देशभक्ति और स्वाधीनता की हिलोरें उठतीं। उसी कच्ची उम्र में किशोर रामवृक्ष के हृदय को कहीं गहराई तक वह छू गयी-देशभक्ति नाम की नयी देवी सामने आयी।’ वह मसहूस करने लगे उस माहौल में कण-कण में पसरती उस सुगन्ध को देश के साथ स्वतन्त्रता की बात नत्थी हुई। गुलामी सबसे बड़ा अभिशाप है। आजादी के लिए बड़ी से बड़ी क़ुर्बानियाँ भी छोटी है।7
फ़िजाँ में मुज़फ़्फ़रपुर में बमप्रहार और खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी शहादत की ऊष्मा, दाहकता और क्रान्ति की ललकार धीमी न पड़ी थी। इस बमप्रहार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने मराठी केसरी में लिखा-भारत के पूर्वी क्षितिज मुजफ़्फ़रपुर में स्वाधीनता का सूरज उदित हो चुका। उसे कोई बड़ी से बड़ी शक्ति रोक नहीं सकती। उनकी उस प्रतिक्रिया पर उन्हें छह वर्षों के कारावास की सजा मांडले जेल में भोगनी पड़ी। (बिहार के स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास, पृष्ठ 121, भाग-1 डॉ. के.के. दत्त) किशोर बेनीपुरी के मन में ये भाव अंकुरित हो ही रहे थे कि सहसा इनको बहनोई की मृत्यु हो गयी। सब कुछ अस्त व्यस्त और उलट पुलट गया। जीवन एकदम चंचल हो उठा।
जब बेनीपुरी ने बी.बी. कॉलिजिएट, मुज़फ़्फ़रपुर में प्रवेश लिया तब नयी शिक्षा, नयी सभ्यता नयी संस्कृति और नयी जीवन शैली से भारतीय तेजी से प्रभावित हो रही थी। दिन-रात पढ़ना कविता का अभ्यास और पत्र पत्रिकाओं के पढ़ने की रुचि उत्तरोत्तर ऐसी पनपी कि उसी कम उम्र में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की विशारद परीक्षा में उत्तीर्ण हो अपने बड़े बुजुर्गों का प्रोत्साहन आशीर्वाद पाया।
बी.बी. कॉलिजियट, मुज़फ़्फ़रपुर में बेनीपुरी का अध्यनकाल (1915-21) उनके भविष्य के निर्माण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे सच्चे निष्ठावान् विद्यार्थी की तरह दिनरात पढ़ते, पाठ्यक्रम की पुस्तकों की अपेक्षा उस समय की पत्र पत्रिकाओं के पढ़ने में उनका मन कहीं ज्यादा रमता। क्लास में भी अव्वल आते। आदर्श विद्यार्थी का जीवन जीते। ‘‘सादा जीवन, उच्च विचार की तीखी धार पर चलते। एकदम सादे कपड़े पहनते, रूखा सूखा खाते। पाँवों में न जूते, न चप्पल। इस मालूली सी धोती और उस समय की मिरजई। ऐसी जीवन शैली से स्वाध्याय और तप का जीवन जीने से जो थोड़े से पैसे बच जाते, उनसे ही वे ज्ञानवर्द्धक रोचक पत्र पत्रिकाएँ खरीदते।
उन्हीं दिनों, (वैशाखी पर्व, 13 अप्रैल 1919) जलियाँवाला बाग में अंग्रेज शासकों ने भयानक नरमेध किया था। हजारों लोगों को डायर ने गोलियों की आग में भून दिया। उसी पंजाव हत्याकाण्ड की नृशंसता पर बहुत ही फड़कती हुई, देशभक्ति के भाव से भरी बेनीपुरी की कविता प्रताप में छपी तब कविता का छपना बड़े शान शोहरत की बात मानी जाती थी। ऐसी कच्ची उम्र के छात्र की कविता प्रताप जैसे भारत विख्यात पत्र में छपे यह बात तो सर्वथा कल्पनातीत थी।
यहाँ ही उन्होंने पहले पहल अंग्रेजी वर्णमाला सीखी, उर्दू-फ़ारसी छूट गयी। वहाँ वंशीपचड़ा में नित कथाएँ होती और यहाँ मिडिल स्कूल के सेक्रेटरी साहब बड़ा ही ओजस्वी भाषण देते। हेडमास्टर साहब कविता सुनाते और उनकी कविताएँ छपा करतीं। किशोर बेनीपुरी के मन में यहाँ के नये परिवेश न नए-नए अस्पष्ट धुँधले सपनों की छाया को जन्म दिया। वह सोचता काश वह ओजस्वी वक्ता होता, सभा में वह बोलता और लोग प्रभावित हो, तालियाँ बजाते। वह कवि होता, लोग उसकी कविता मन्त्रमुग्ध हो सुनते, पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कविताएँ भी छपा करतीं। क्या मैं कवि नहीं हो सकता ! क्या मैं लेख नहीं लिख सकता ?
कल्पना में डैने लगे, वे उड़ने के लिए डैनों को फरफराने लगे, किन्तु तब तक पर कहाँ आये थे ? प्रथम महायुद्ध का वह चिरस्मरणीय रोमांचक समय 1914-18 का। तब तो पत्र पत्रिकाएँ उस क़स्बे में आतीं, उनमें लाल (लाला लाजपत राय), बाल (बाल गंगाधर तिलक) और पाल (बिपिनचन्द्र पाल) की गर्म राजनीतिक चर्चाएँ भरी रहतीं। एक ओर युद्ध, दूसरी ओर देशभक्ति और स्वाधीनता की हिलोरें उठतीं। उसी कच्ची उम्र में किशोर रामवृक्ष के हृदय को कहीं गहराई तक वह छू गयी-देशभक्ति नाम की नयी देवी सामने आयी।’ वह मसहूस करने लगे उस माहौल में कण-कण में पसरती उस सुगन्ध को देश के साथ स्वतन्त्रता की बात नत्थी हुई। गुलामी सबसे बड़ा अभिशाप है। आजादी के लिए बड़ी से बड़ी क़ुर्बानियाँ भी छोटी है।7
फ़िजाँ में मुज़फ़्फ़रपुर में बमप्रहार और खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी शहादत की ऊष्मा, दाहकता और क्रान्ति की ललकार धीमी न पड़ी थी। इस बमप्रहार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने मराठी केसरी में लिखा-भारत के पूर्वी क्षितिज मुजफ़्फ़रपुर में स्वाधीनता का सूरज उदित हो चुका। उसे कोई बड़ी से बड़ी शक्ति रोक नहीं सकती। उनकी उस प्रतिक्रिया पर उन्हें छह वर्षों के कारावास की सजा मांडले जेल में भोगनी पड़ी। (बिहार के स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास, पृष्ठ 121, भाग-1 डॉ. के.के. दत्त) किशोर बेनीपुरी के मन में ये भाव अंकुरित हो ही रहे थे कि सहसा इनको बहनोई की मृत्यु हो गयी। सब कुछ अस्त व्यस्त और उलट पुलट गया। जीवन एकदम चंचल हो उठा।
जब बेनीपुरी ने बी.बी. कॉलिजिएट, मुज़फ़्फ़रपुर में प्रवेश लिया तब नयी शिक्षा, नयी सभ्यता नयी संस्कृति और नयी जीवन शैली से भारतीय तेजी से प्रभावित हो रही थी। दिन-रात पढ़ना कविता का अभ्यास और पत्र पत्रिकाओं के पढ़ने की रुचि उत्तरोत्तर ऐसी पनपी कि उसी कम उम्र में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की विशारद परीक्षा में उत्तीर्ण हो अपने बड़े बुजुर्गों का प्रोत्साहन आशीर्वाद पाया।
बी.बी. कॉलिजियट, मुज़फ़्फ़रपुर में बेनीपुरी का अध्यनकाल (1915-21) उनके भविष्य के निर्माण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे सच्चे निष्ठावान् विद्यार्थी की तरह दिनरात पढ़ते, पाठ्यक्रम की पुस्तकों की अपेक्षा उस समय की पत्र पत्रिकाओं के पढ़ने में उनका मन कहीं ज्यादा रमता। क्लास में भी अव्वल आते। आदर्श विद्यार्थी का जीवन जीते। ‘‘सादा जीवन, उच्च विचार की तीखी धार पर चलते। एकदम सादे कपड़े पहनते, रूखा सूखा खाते। पाँवों में न जूते, न चप्पल। इस मालूली सी धोती और उस समय की मिरजई। ऐसी जीवन शैली से स्वाध्याय और तप का जीवन जीने से जो थोड़े से पैसे बच जाते, उनसे ही वे ज्ञानवर्द्धक रोचक पत्र पत्रिकाएँ खरीदते।
उन्हीं दिनों, (वैशाखी पर्व, 13 अप्रैल 1919) जलियाँवाला बाग में अंग्रेज शासकों ने भयानक नरमेध किया था। हजारों लोगों को डायर ने गोलियों की आग में भून दिया। उसी पंजाव हत्याकाण्ड की नृशंसता पर बहुत ही फड़कती हुई, देशभक्ति के भाव से भरी बेनीपुरी की कविता प्रताप में छपी तब कविता का छपना बड़े शान शोहरत की बात मानी जाती थी। ऐसी कच्ची उम्र के छात्र की कविता प्रताप जैसे भारत विख्यात पत्र में छपे यह बात तो सर्वथा कल्पनातीत थी।
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