नारी विमर्श >> विषय-पुरुष विषय-पुरुषमस्तराम कपूर
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स्त्री-स्वतंत्रता के दमन की पुरुष-प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में लिखा उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्त्री और पुरुष दोनों स्वतंत्रचेता व्यक्ति होने के नाते कभी विषयी के
रूप में काम करते हैं तो कभी विषय बनते होते हैं। किसी के प्यार करते समय
वे विषयी होते हैं और प्यार किए जाने की चाह में वे विषय बनते हैं। किन्तु
विषयी अथवा विषय बनना उनकी स्वतंत्र चेतना का अधिकार है। भय या प्रलोभन से
किसी पर यह भूमिका लादना अनैतिक ही नहीं अश्लील भी है। दुर्भाग्य से
मानव-समाज ने स्त्री को हमेशा विषय के रूप में ही स्वीकार किया उसे विषयी
बनने के अधिकार से वंचित रखा और यह काम पुरुष-समाज ने किया भय और प्रलोभन
दिखाकर जिसमें धर्म का भय और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रलोभन भी शामिल है।
स्त्री-स्वतंत्रता के दमन की पुरुष-प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में लिखा गया यह उपन्यास सशक्त काहनी के साथ-साथ एक वैचारिक प्रयोग भी है। हमेशा विषयी की भूमिका निभाने वाले को (अथवा इसका दंभ करने वाले को) जब विषय बनना पड़ता है तो उसकी क्या दशा होती है यह इस उपन्यास का विषय है।
स्त्री-स्वतंत्रता के दमन की पुरुष-प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में लिखा गया यह उपन्यास सशक्त काहनी के साथ-साथ एक वैचारिक प्रयोग भी है। हमेशा विषयी की भूमिका निभाने वाले को (अथवा इसका दंभ करने वाले को) जब विषय बनना पड़ता है तो उसकी क्या दशा होती है यह इस उपन्यास का विषय है।
विषय पुरुष
उसे अपने ऊपर ही गुस्सा आ रहा था। गुस्सा उन पर आना चाहिए था जिन्होंने
उसे यहां बुलाया था लेकिन न जाने क्यों उसे लग रहा था कि मैं ही कुसूरवार
हूँ।
कितनी ही बार वह मन ही मन प्रण कर चुका था कि आइंदा किसी सेमिनार में हिस्सा नहीं लेगा। यहाँ वक्त बर्बाद करने के सिवा कुछ हासिल नहीं होता। दो तीन दिन लगातार आलेख तैयार करो और सेमिनार में कह दिया जाता है कि पूरा आलेख पढ़ने का समय नहीं और संक्षेप में अपनी बात कह दी जाए। आलेख की प्रतियां सबको उपलब्ध कराने के बाद मान लिया जाता है कि आलेख प्रस्तुत हो गया। कोई बहस नहीं, कोई आदान-प्रदान नहीं। वह जानता था कि सेमिनारों की एक अलग संस्कृति बन गई है और जिन्हें इसका चस्का लग गया है उन्हें भीड़ में अलग पहचाना जा सकता है। बिल्ले लटकाए, फोल्डर बगल में दबाए सड़क पर चलते या बस में सफर करते इन लोगों को देख कर लगता था कि ये लोग सारे देश की चिंताओं का बोझ कंधे पर उठाए जैसे सलीब पर चढ़ने जा रहे हैं। चूंकी वह खुद अपने को इस अदा में देख चुका था, उसे अब इन पर हंसी आती है। कभी-कभी तो तरस भी आता है।
फिर भी जब डा. धर्मपाल का पत्र मिला तो उसने तुरंत चंडीगढ़ जाने का प्रोग्राम बना लिया था। एक तो इसलिए कि धर्मपाल पुराने मित्र थे और कई बार चंडीगढ़ बुला चुके थे और वह नहीं जा पाया था। कोई न कोई काम बीच में आ जाता था। दूसरा इसलिए कि उन्होंने सेमिनार का जो विषय बताया था उसमें उसकी खासी रुचि थी। सेमिनार स्त्री की अस्मिता पर था और हालांकि पुरुष होने के कारण यह उसकी अपनी समस्या नहीं थी लेकिन उसे हमेशा एक लेखक की बात परेशान करती थी कि स्त्री को सारी दुनिया में विशेषकर हमारे समाज में आब्जेक्ट ही क्यों बनाया गया। उसे सब्जेक्ट क्यों नहीं माना गया था ? उसे आलंबन ही क्यों कहा गया था, आश्रय क्यों नहीं कहा गया ? क्या वह कभी आश्रय नहीं बन सकती और पुरुष को अपना विषय या आलंबन नहीं बना सकती ?
बहरहाल, सेमिनार के विषय का आकर्षण कहिए या डा. धर्मपाल से मिलने की चाह, वह दिल्ली के धूल-धुएं से दो-तीन की मुक्ति की उम्मीद लेकर चंडीगढ़ आ गया था। बस के अड्डे से सीधे किसान भवन में पहुँचा जहां ठहरने की व्यवस्था थी। धर्मपाल तो वहाँ नहीं मिले संभवताः उन्हें सेमिनार के काम में व्यस्त रहना पड़ा जो दो बजे शुरू होने वाला था, किंतु वे सारा इंतजाम कर गए थे। किसान भवन पहुंचते ही काउंटर पर बैठे एक नौजवान ने गरमजोशी से स्वागत किया। एक लड़का सामान उठाकर कमरे में पहुँचा आया। डबल बेडरूम काफी खुला और हवादार था। टायलट भी साफ-सुथरा था। खिड़की से बाहर देखने पर शिवालिक हिल्स की छोटी-छोटी पहाड़ियां दिखाई देती थीं।
जल्दी-जल्दी नहा कर उसने कपड़े बदले। तब तक एक लड़का चाय-नाश्ता ले कर आ गया। उसके साथ वह काउंटर नौजवान भी था। उसने बताया कि युनिवर्सिटी की लाइब्रेरी के ब्लाक में दो बजे सेमिनार शुरू होगा। भोजन की व्यवस्था भी वहीं है और एक बजे तक वहाँ पहुँचना है। डा. धर्मपाल ने गाड़ी भिजवाई है। बाहर खड़ी है।
अभी साढ़े ग्यारह बजे थे और उसके पास काफी समय था। नाश्ता करने के बाद वह खिड़की के पास आरामकुर्सी सरका कर बैठ गया और पहाड़ियों का दृश्य देखने लगा। किसी ने जोर से दरवाजे की घंटी बजाई। खीज कर उठना पड़ा। दरवाजा खोलते ही विजय और भुल्लर कमरे में घुस आए और उन्होंने गालियों की बौछार कर दी ‘‘पाजी साले चुपचाप आ गये और कमरे में घुस गए, ‘‘भुल्लर ने अपनी अनोखी अदा से स्वागत करते हुए कहा, ‘‘सोचा होगा खत-वत लिखा तो आतंकवादियों को पता चल जाएगा।’’ विजय बोला, ‘‘लेकिन आतंकवादी तो पता लगा ही लेते है शायद तुम्हें पता नहीं किसान भवन हमारा अड्डा है।’’
पाँच साल पहले दोनों उसके साथ सड़कें नापने का काम करते थे। अब चंडीगढ़ के एक अखबार में आ गए थे। लेकिन वह नहीं जानता था कि किसान भवन उसका अड्डा है। सरकार की तरफ से दोनों को यहाँ स्पेशल कमरे मिले हुए थे जिनका इस्तेमाल वे अपने दोस्तों की खातिर करने या व्हिस्की पार्टियों के लिए करते थे। उसके आने की सूचना उन्हें काउंटर पर मिली थी। वैसे डा. धर्मपाल को भी वे भलीभाँति जानते थे और उनके सेमिनार के बारे में भी काफी कुछ जानकारी उन्हें थी। वह उनके सेमिनार में आया है यह जानकार उन्होंने जोर का ठहाका लगाया था।
‘‘तुम फेमिनिस्ट कब से हो गए ? ’’भुल्लर ने मजाक किया।
उसने कहा, ‘‘हमारे यहां भगवान को अर्धनारीश्वर कहा गया है। मतलब पुरुष में आधे गुण स्त्री के और स्त्री में आधे गुण पुरुष के होने चाहिए।’’
‘‘इस परिभाषा में तो भुल्लर ही आता है।’’ विजय ने चुटकी ली।
‘‘कैसे ?’’ उसने पूछा।
‘इसके बाल घुटनों तक आते हैं।’’
‘‘दाढ़ी भी तो है,’’ भुल्लर बोला।
‘‘तभी तो आधा मर्द आधी औरत हो।’’
‘‘तुमने भी तो दाढ़ी-मूंछ सफाचट्ट करा रखी हैं।’’
‘‘चलो इसका फैसला शाम को हो जाए। जो साला पहले पेग सरका दे वह औरत। लगी शर्त ?’’
‘‘लगी.....।’’
और शाम को व्हिस्की पार्टी का दमदार न्यौता देने के बाद दोनों भड़भड़ा कर कमरे से निकल गए।
ठीक एक बजे वह सेमिनार के स्थल पर पहुंचा तो लंच के लिए लोग एक बड़े हाल में इकट्ठे हो गये थे। यह देखकर कुछ परेशानी महसूस हुई कि उसे और धर्मपाल को छोड़कर दो-तीन पुरुष ही उस भीड़ में थे। किंतु महिलाओं की उपस्थिति बहुत अच्छी थी। एक से एक सुन्दर महिलाएं, तरह-तरह का बनाव-श्रृंगार और वेशभूषा। साड़ी-सलवार कुर्ता, जींस, बाब हेयर सादा जूड़ा वेणी और खुली केश-राशि। सुगंध से हाल भर दिया था। उसने प्लेट में खाना लिया और हाल के एक कोने में खड़ा हो गया। आशय था कि कोने में सारी महिलाओं पर एक नजर डाल लेगा।
सुंदरता का कोई मापदंड नहीं होता। जिसे सुंदरता की नजर से देखा जाए वह सुन्दर दिखायी देने लगती है। काला गोरा, श्याम सब रंग सुन्दर लगते हैं। इसका मतलब सुन्दरता बाहर नहीं हमारे भीतर होती है। एक एक ही वस्तु किसी को सुन्दर किसी को असुन्दर लग सकती है। उसे लग वह दार्शनिक मुद्रा अपनाने लगा है। तभी एक सुंदर महिला आइसक्रीम को हाथ में पकड़े पास से करीब-करीब सटकर गुजरी। उसने उसकी ओर देखा। उसकी नजरें उससे टकराईं। वह धीरे से मुस्कराई लेकिन उसकी पलकें नहीं झपकीं। उसे लगा उन नजरों की ताव नहीं झेल पाएगा। उस उस महिला को सुंदर कहना हद दर्जें की न्यूनोक्ति थी और उसे महिला कहना तो निरा चुगदपन था। वह तीस-बत्तीस की जरूर रही होगी लेकिन विवाहित बिल्कुल नहीं लगती थी। विवाहित महिलाओं में दूसरी ही किस्म का सौंदर्य होता है। मसलन उसके पेट, कमर और कूल्हों में स्पर्श-सुख की अलसाई छाप होती है। उसके होठों में भी काकटेल जैसी मिली-जुली मादकता झलकती है। किंतु अविवाहित सौंदर्य शराब की बंद बोतल की तरह होता है, विशेषकर ऐसी बोतल जिसकी सील खुलने में नहीं आती। सिर्फ घूमती जाती है और सामने वाले को ललचाती जाती है। उसकी देह में अलसाई मादकता नहीं, एक आक्रामक तेज होता है जिसे झेलना आसान नहीं होता। उसके होंठों पर नींबू पानी की तरलता होती है जो देखते ही सूख जाती है। उसकी आँखों में आमंत्रण या तिरस्कार का भाव नहीं चुनौती का भाव होता है।
उसके पेट, कमर और नितंबों का ठोसपन रबड़ का ढीला ढाला ठोसपन नहीं, संगमरमर का ठोसपन होता है। उस महिला ने नहीं उस लड़की ने जब नजरों से नजर मिलाई तो वह सकपका गया और अपनी प्लेट की तरफ देखने लगा जिसमें अब भी काफी खाना बचा था। उसे लगा कि खाना बंद करना चाहिए। उसे हमेशा लगा है कि आदमी खाना खाते समय लगभग पशु हो जाता है उसी तरह जैसे वह भय, निद्रा और मैथुन की स्थिति में पशु बन जाता है। आहार निद्रा, भय, मैथुन को पशु-सम क्रियाएं जिसने भी कहा है उसकी नजर बहुत पैनी रही होगी। खाना खाता हुआ आदमी जंगली लगता है। चम्मच से जरा-जरा–सी आइसक्रीम कुतर कर खाना और बात है। यह तो आचमन की तरह धार्मिक, सभ्य और संस्कृत क्रिया लगती है। लेकिन खाना खाता आदमी नहीं, निरा जानवर लगता है। यदि उसकी प्लेट में मुर्गे की टांग या बकरे आदि की हड्डी हो तब तो वह निरा आदिम बर्बर लगता है। दाल-भात रोटी आदि खाने वाला बैल या भैंसा लगता है जो आस-पास की दुनिया से बेखबर केवल पेट भरने की उतावली में रहता है।
उसकी नजरों की ताव को तो वह खाने की प्लेट की तरफ आंख मोड़कर झेल गया उसकी मुस्कान को झेलना इतना आसान नहीं था। अजीब सम्मोहिनी थी उस मुस्कान में। जादूगरी जमूरे पर जिस तरह असर करता है, कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति उसकी हो गई। लगा कि वह उसके इशारा भर करने पर जमीन पर लेट जाएगा। आंखे बंद कर लेगा और उसके सवालों का उसकी इच्छा के अनुसार जवाब देन लगेगा। यदि वह तलवार हाथ में लेकर सिर और टांगों को धड़ से अलग करने लगेगी तब भी वह आँखे बंद किए पड़ा रहेगा। वह नाचने के लिए कहेगी तो नाचने लगेगा। सिर पत्थर पर मारने के लिए कहेगी तो सिर पत्थर पर मारेगा। वह उसके कहने पर खुद अपना गला काट देगा।
लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। मुस्कान डालकर आगे बढ़ गई और महिलाओं की भीड़ में खो गयी। उसने देखा वह कसी हुई जीन और टी-शर्ट पहने हुए थी जिसमें उसके शरीर का एक-एक अंग अपनी पूरी दीप्ति और ठोसपन के साथ उद्घाटित हो रहा था। अब तक उसका ध्यान उसकी त्वचा के रंग की तरफ नहीं गया था।
वह युरोपियनों-अमरीकनों की तरह गोरा, हिंदुस्तानियों की तरह गेहुआँ-सावला या अफ्रीकनों की तरह आबनूसी काला कुछ भी हो सकता था। उसे सिर्फ उसकी आँखों की याद थी जिसमें से जैसे रस का फव्वारा छूटा था और उसे सिर से पैर तक सराबोर कर रहा था। लेकिन अब दिमाग में उसकी त्वचा का रंग उभरने लगा और उसने अनुमान लगाया कि वह कोई विदेशी लड़की थी यूरोप के किसी देश या अमरीका-कनाड़ा की। उसने दिमाग पर जोर डालकर सोचने की कोशिश की कि उस महिला को उसने कहां देखा है। पूर्व-पहचान के बिना वह मुस्कराती नहीं। लेकिन कुछ याद नहीं आ पड़ा उसकी पीठ पर बँधे पिट्टूनुमा बैग से वह अनुमान लगा सकता था लेकिन वह कोई सैलानी लड़की और चंडीगढ़ में कुछ देर पहले पहुँची है। हो सकता है वह इस सेमिनार में भाग लेने आई हो, हो सकता है वह महज तमाशाबीन हो या हिप्पियों की आदत के अनुसार यूँ ही इस मजबे में शामिल हो गयी हो। उसके लिए कुछ भी कहना कठिन था। उससे पूछने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि वह भीड़ में लापता हो गयी थी। उसने भीड़ में उसे ढूँढ़ने की कोशिश की किंतु वह दिखाई नहीं पड़ी। उसकी गैरहाजिरी में औरतों की भीड़ उसे मनहूस मानव-आकृतियों की भीड़ लगने लगी और वह अपने को बहुत अकेला महसूस करने लगा।
कितनी ही बार वह मन ही मन प्रण कर चुका था कि आइंदा किसी सेमिनार में हिस्सा नहीं लेगा। यहाँ वक्त बर्बाद करने के सिवा कुछ हासिल नहीं होता। दो तीन दिन लगातार आलेख तैयार करो और सेमिनार में कह दिया जाता है कि पूरा आलेख पढ़ने का समय नहीं और संक्षेप में अपनी बात कह दी जाए। आलेख की प्रतियां सबको उपलब्ध कराने के बाद मान लिया जाता है कि आलेख प्रस्तुत हो गया। कोई बहस नहीं, कोई आदान-प्रदान नहीं। वह जानता था कि सेमिनारों की एक अलग संस्कृति बन गई है और जिन्हें इसका चस्का लग गया है उन्हें भीड़ में अलग पहचाना जा सकता है। बिल्ले लटकाए, फोल्डर बगल में दबाए सड़क पर चलते या बस में सफर करते इन लोगों को देख कर लगता था कि ये लोग सारे देश की चिंताओं का बोझ कंधे पर उठाए जैसे सलीब पर चढ़ने जा रहे हैं। चूंकी वह खुद अपने को इस अदा में देख चुका था, उसे अब इन पर हंसी आती है। कभी-कभी तो तरस भी आता है।
फिर भी जब डा. धर्मपाल का पत्र मिला तो उसने तुरंत चंडीगढ़ जाने का प्रोग्राम बना लिया था। एक तो इसलिए कि धर्मपाल पुराने मित्र थे और कई बार चंडीगढ़ बुला चुके थे और वह नहीं जा पाया था। कोई न कोई काम बीच में आ जाता था। दूसरा इसलिए कि उन्होंने सेमिनार का जो विषय बताया था उसमें उसकी खासी रुचि थी। सेमिनार स्त्री की अस्मिता पर था और हालांकि पुरुष होने के कारण यह उसकी अपनी समस्या नहीं थी लेकिन उसे हमेशा एक लेखक की बात परेशान करती थी कि स्त्री को सारी दुनिया में विशेषकर हमारे समाज में आब्जेक्ट ही क्यों बनाया गया। उसे सब्जेक्ट क्यों नहीं माना गया था ? उसे आलंबन ही क्यों कहा गया था, आश्रय क्यों नहीं कहा गया ? क्या वह कभी आश्रय नहीं बन सकती और पुरुष को अपना विषय या आलंबन नहीं बना सकती ?
बहरहाल, सेमिनार के विषय का आकर्षण कहिए या डा. धर्मपाल से मिलने की चाह, वह दिल्ली के धूल-धुएं से दो-तीन की मुक्ति की उम्मीद लेकर चंडीगढ़ आ गया था। बस के अड्डे से सीधे किसान भवन में पहुँचा जहां ठहरने की व्यवस्था थी। धर्मपाल तो वहाँ नहीं मिले संभवताः उन्हें सेमिनार के काम में व्यस्त रहना पड़ा जो दो बजे शुरू होने वाला था, किंतु वे सारा इंतजाम कर गए थे। किसान भवन पहुंचते ही काउंटर पर बैठे एक नौजवान ने गरमजोशी से स्वागत किया। एक लड़का सामान उठाकर कमरे में पहुँचा आया। डबल बेडरूम काफी खुला और हवादार था। टायलट भी साफ-सुथरा था। खिड़की से बाहर देखने पर शिवालिक हिल्स की छोटी-छोटी पहाड़ियां दिखाई देती थीं।
जल्दी-जल्दी नहा कर उसने कपड़े बदले। तब तक एक लड़का चाय-नाश्ता ले कर आ गया। उसके साथ वह काउंटर नौजवान भी था। उसने बताया कि युनिवर्सिटी की लाइब्रेरी के ब्लाक में दो बजे सेमिनार शुरू होगा। भोजन की व्यवस्था भी वहीं है और एक बजे तक वहाँ पहुँचना है। डा. धर्मपाल ने गाड़ी भिजवाई है। बाहर खड़ी है।
अभी साढ़े ग्यारह बजे थे और उसके पास काफी समय था। नाश्ता करने के बाद वह खिड़की के पास आरामकुर्सी सरका कर बैठ गया और पहाड़ियों का दृश्य देखने लगा। किसी ने जोर से दरवाजे की घंटी बजाई। खीज कर उठना पड़ा। दरवाजा खोलते ही विजय और भुल्लर कमरे में घुस आए और उन्होंने गालियों की बौछार कर दी ‘‘पाजी साले चुपचाप आ गये और कमरे में घुस गए, ‘‘भुल्लर ने अपनी अनोखी अदा से स्वागत करते हुए कहा, ‘‘सोचा होगा खत-वत लिखा तो आतंकवादियों को पता चल जाएगा।’’ विजय बोला, ‘‘लेकिन आतंकवादी तो पता लगा ही लेते है शायद तुम्हें पता नहीं किसान भवन हमारा अड्डा है।’’
पाँच साल पहले दोनों उसके साथ सड़कें नापने का काम करते थे। अब चंडीगढ़ के एक अखबार में आ गए थे। लेकिन वह नहीं जानता था कि किसान भवन उसका अड्डा है। सरकार की तरफ से दोनों को यहाँ स्पेशल कमरे मिले हुए थे जिनका इस्तेमाल वे अपने दोस्तों की खातिर करने या व्हिस्की पार्टियों के लिए करते थे। उसके आने की सूचना उन्हें काउंटर पर मिली थी। वैसे डा. धर्मपाल को भी वे भलीभाँति जानते थे और उनके सेमिनार के बारे में भी काफी कुछ जानकारी उन्हें थी। वह उनके सेमिनार में आया है यह जानकार उन्होंने जोर का ठहाका लगाया था।
‘‘तुम फेमिनिस्ट कब से हो गए ? ’’भुल्लर ने मजाक किया।
उसने कहा, ‘‘हमारे यहां भगवान को अर्धनारीश्वर कहा गया है। मतलब पुरुष में आधे गुण स्त्री के और स्त्री में आधे गुण पुरुष के होने चाहिए।’’
‘‘इस परिभाषा में तो भुल्लर ही आता है।’’ विजय ने चुटकी ली।
‘‘कैसे ?’’ उसने पूछा।
‘इसके बाल घुटनों तक आते हैं।’’
‘‘दाढ़ी भी तो है,’’ भुल्लर बोला।
‘‘तभी तो आधा मर्द आधी औरत हो।’’
‘‘तुमने भी तो दाढ़ी-मूंछ सफाचट्ट करा रखी हैं।’’
‘‘चलो इसका फैसला शाम को हो जाए। जो साला पहले पेग सरका दे वह औरत। लगी शर्त ?’’
‘‘लगी.....।’’
और शाम को व्हिस्की पार्टी का दमदार न्यौता देने के बाद दोनों भड़भड़ा कर कमरे से निकल गए।
ठीक एक बजे वह सेमिनार के स्थल पर पहुंचा तो लंच के लिए लोग एक बड़े हाल में इकट्ठे हो गये थे। यह देखकर कुछ परेशानी महसूस हुई कि उसे और धर्मपाल को छोड़कर दो-तीन पुरुष ही उस भीड़ में थे। किंतु महिलाओं की उपस्थिति बहुत अच्छी थी। एक से एक सुन्दर महिलाएं, तरह-तरह का बनाव-श्रृंगार और वेशभूषा। साड़ी-सलवार कुर्ता, जींस, बाब हेयर सादा जूड़ा वेणी और खुली केश-राशि। सुगंध से हाल भर दिया था। उसने प्लेट में खाना लिया और हाल के एक कोने में खड़ा हो गया। आशय था कि कोने में सारी महिलाओं पर एक नजर डाल लेगा।
सुंदरता का कोई मापदंड नहीं होता। जिसे सुंदरता की नजर से देखा जाए वह सुन्दर दिखायी देने लगती है। काला गोरा, श्याम सब रंग सुन्दर लगते हैं। इसका मतलब सुन्दरता बाहर नहीं हमारे भीतर होती है। एक एक ही वस्तु किसी को सुन्दर किसी को असुन्दर लग सकती है। उसे लग वह दार्शनिक मुद्रा अपनाने लगा है। तभी एक सुंदर महिला आइसक्रीम को हाथ में पकड़े पास से करीब-करीब सटकर गुजरी। उसने उसकी ओर देखा। उसकी नजरें उससे टकराईं। वह धीरे से मुस्कराई लेकिन उसकी पलकें नहीं झपकीं। उसे लगा उन नजरों की ताव नहीं झेल पाएगा। उस उस महिला को सुंदर कहना हद दर्जें की न्यूनोक्ति थी और उसे महिला कहना तो निरा चुगदपन था। वह तीस-बत्तीस की जरूर रही होगी लेकिन विवाहित बिल्कुल नहीं लगती थी। विवाहित महिलाओं में दूसरी ही किस्म का सौंदर्य होता है। मसलन उसके पेट, कमर और कूल्हों में स्पर्श-सुख की अलसाई छाप होती है। उसके होठों में भी काकटेल जैसी मिली-जुली मादकता झलकती है। किंतु अविवाहित सौंदर्य शराब की बंद बोतल की तरह होता है, विशेषकर ऐसी बोतल जिसकी सील खुलने में नहीं आती। सिर्फ घूमती जाती है और सामने वाले को ललचाती जाती है। उसकी देह में अलसाई मादकता नहीं, एक आक्रामक तेज होता है जिसे झेलना आसान नहीं होता। उसके होंठों पर नींबू पानी की तरलता होती है जो देखते ही सूख जाती है। उसकी आँखों में आमंत्रण या तिरस्कार का भाव नहीं चुनौती का भाव होता है।
उसके पेट, कमर और नितंबों का ठोसपन रबड़ का ढीला ढाला ठोसपन नहीं, संगमरमर का ठोसपन होता है। उस महिला ने नहीं उस लड़की ने जब नजरों से नजर मिलाई तो वह सकपका गया और अपनी प्लेट की तरफ देखने लगा जिसमें अब भी काफी खाना बचा था। उसे लगा कि खाना बंद करना चाहिए। उसे हमेशा लगा है कि आदमी खाना खाते समय लगभग पशु हो जाता है उसी तरह जैसे वह भय, निद्रा और मैथुन की स्थिति में पशु बन जाता है। आहार निद्रा, भय, मैथुन को पशु-सम क्रियाएं जिसने भी कहा है उसकी नजर बहुत पैनी रही होगी। खाना खाता हुआ आदमी जंगली लगता है। चम्मच से जरा-जरा–सी आइसक्रीम कुतर कर खाना और बात है। यह तो आचमन की तरह धार्मिक, सभ्य और संस्कृत क्रिया लगती है। लेकिन खाना खाता आदमी नहीं, निरा जानवर लगता है। यदि उसकी प्लेट में मुर्गे की टांग या बकरे आदि की हड्डी हो तब तो वह निरा आदिम बर्बर लगता है। दाल-भात रोटी आदि खाने वाला बैल या भैंसा लगता है जो आस-पास की दुनिया से बेखबर केवल पेट भरने की उतावली में रहता है।
उसकी नजरों की ताव को तो वह खाने की प्लेट की तरफ आंख मोड़कर झेल गया उसकी मुस्कान को झेलना इतना आसान नहीं था। अजीब सम्मोहिनी थी उस मुस्कान में। जादूगरी जमूरे पर जिस तरह असर करता है, कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति उसकी हो गई। लगा कि वह उसके इशारा भर करने पर जमीन पर लेट जाएगा। आंखे बंद कर लेगा और उसके सवालों का उसकी इच्छा के अनुसार जवाब देन लगेगा। यदि वह तलवार हाथ में लेकर सिर और टांगों को धड़ से अलग करने लगेगी तब भी वह आँखे बंद किए पड़ा रहेगा। वह नाचने के लिए कहेगी तो नाचने लगेगा। सिर पत्थर पर मारने के लिए कहेगी तो सिर पत्थर पर मारेगा। वह उसके कहने पर खुद अपना गला काट देगा।
लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। मुस्कान डालकर आगे बढ़ गई और महिलाओं की भीड़ में खो गयी। उसने देखा वह कसी हुई जीन और टी-शर्ट पहने हुए थी जिसमें उसके शरीर का एक-एक अंग अपनी पूरी दीप्ति और ठोसपन के साथ उद्घाटित हो रहा था। अब तक उसका ध्यान उसकी त्वचा के रंग की तरफ नहीं गया था।
वह युरोपियनों-अमरीकनों की तरह गोरा, हिंदुस्तानियों की तरह गेहुआँ-सावला या अफ्रीकनों की तरह आबनूसी काला कुछ भी हो सकता था। उसे सिर्फ उसकी आँखों की याद थी जिसमें से जैसे रस का फव्वारा छूटा था और उसे सिर से पैर तक सराबोर कर रहा था। लेकिन अब दिमाग में उसकी त्वचा का रंग उभरने लगा और उसने अनुमान लगाया कि वह कोई विदेशी लड़की थी यूरोप के किसी देश या अमरीका-कनाड़ा की। उसने दिमाग पर जोर डालकर सोचने की कोशिश की कि उस महिला को उसने कहां देखा है। पूर्व-पहचान के बिना वह मुस्कराती नहीं। लेकिन कुछ याद नहीं आ पड़ा उसकी पीठ पर बँधे पिट्टूनुमा बैग से वह अनुमान लगा सकता था लेकिन वह कोई सैलानी लड़की और चंडीगढ़ में कुछ देर पहले पहुँची है। हो सकता है वह इस सेमिनार में भाग लेने आई हो, हो सकता है वह महज तमाशाबीन हो या हिप्पियों की आदत के अनुसार यूँ ही इस मजबे में शामिल हो गयी हो। उसके लिए कुछ भी कहना कठिन था। उससे पूछने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि वह भीड़ में लापता हो गयी थी। उसने भीड़ में उसे ढूँढ़ने की कोशिश की किंतु वह दिखाई नहीं पड़ी। उसकी गैरहाजिरी में औरतों की भीड़ उसे मनहूस मानव-आकृतियों की भीड़ लगने लगी और वह अपने को बहुत अकेला महसूस करने लगा।
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