बहुभागीय पुस्तकें >> कृष्णावतार : भाग-3 - पाँच पाण्डव कृष्णावतार : भाग-3 - पाँच पाण्डवकन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी
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प्रस्तुत है पाँच पाण्डव कृष्णावतार उपन्यास का तीसरा भाग
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Paanch Pandav
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पौराणिक चरित्रों को आधार बना कर अनेक श्रेष्ठतर उपन्यासों की रचना करने वाले सुप्रसिद्ध गुजराती कथाकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का भारतीय कथा साहित्य में अपना एक विशेष स्थान है। अपनी कृतियों में उन्होंने सुदूर अतीत का जो विस्तृत जीवन-फलक प्रस्तुत किया है वह जितना विराट् है उतना ही आकर्षक, साथ ही वह वैज्ञानिकता की कसौटी पर भी खरा उतरता है।
मुंशीजी की कृष्णावतार एक वृहत् उपन्यास है सात खण्डों में विभक्त। ‘पाँच पाँडव’ तीसरे खंड की हिन्दी रूपांतर है। अन्य खंडों की तरह अगर यह परस्पर संबद्ध है तो अपने आप में एक पूरी कथा भी है। पाँचों पाण्डवों के जीवन, विकास और संघर्षों –उपलब्धियों की इस रोचक रोमांचक गाथा में आर्यावर्त के महान् नायक श्रीकृष्ण की विलक्षण ऐतिहासिक भूमिका बड़ी कलात्मकता से रेखांकित हुई है। पुराकालीन आर्यों की संघर्षशील गतिविधियों, नागों की अरण्य संस्कृति और ‘राक्षस’ नाम पुकारे जाने वाले प्रस्तरयुगीन मानवों की आदिम जीवनचर्या के जीवंत चित्र इसमें पूरी तरह से मुखर हैं।
मुंशीजी की कृष्णावतार एक वृहत् उपन्यास है सात खण्डों में विभक्त। ‘पाँच पाँडव’ तीसरे खंड की हिन्दी रूपांतर है। अन्य खंडों की तरह अगर यह परस्पर संबद्ध है तो अपने आप में एक पूरी कथा भी है। पाँचों पाण्डवों के जीवन, विकास और संघर्षों –उपलब्धियों की इस रोचक रोमांचक गाथा में आर्यावर्त के महान् नायक श्रीकृष्ण की विलक्षण ऐतिहासिक भूमिका बड़ी कलात्मकता से रेखांकित हुई है। पुराकालीन आर्यों की संघर्षशील गतिविधियों, नागों की अरण्य संस्कृति और ‘राक्षस’ नाम पुकारे जाने वाले प्रस्तरयुगीन मानवों की आदिम जीवनचर्या के जीवंत चित्र इसमें पूरी तरह से मुखर हैं।
निवेदन
श्रीमद्भागवतगीता के प्रवक्ता भगवान श्रीकृष्ण का नाम कौन नहीं जानता, जिन्हें भागवत् में ‘भगवान स्वयम्’ कहा गया है?
जहाँ तक स्मृति पहुँच पाती है, बचपन से ही श्रीकृष्ण मेरी कल्पना में छाये रहे हैं। बचपन में उनके पराक्रम की कथाएं सुनकर आश्चर्य से मेरी साँस टँगी रह जाती थी। उसके बाद मैंने उनके बारे में पढ़ा, उनके गीत गाये, उनकी प्रशंसा की और शत-शत मन्दिरों में तथा उनके जन्म दिन पर प्रतिवर्ष घर में उनका पूजन किया। और वर्षों से, दिनानुदिन, उनका सन्देश मेरे जीवन को बल देता रहा है।
खेद है कि महाभारत के जिस मूल में उनके आकर्षक व्यक्तित्व की झाँकी मिल सकती है, उसे दन्तकथाओं, मिथकों, चमत्कारों और पूजन-अर्चन ने ढँक रखा है।
वे बुद्धिमान और वीर थे; स्नेहालु और स्नेह-भाजन थे; दूरदर्शी भी होकर वर्तमान समय के अनुकूल आचरण करते थे; उन्हें ऋषियों-जैसी अनासक्ति प्राप्त थी, फिर उनमें पूर्ण मानवता थी। वे कूटनीतिज्ञ थे, ऋषि-तुल्य थे, कर्मठ थे। उनका व्यक्तित्व दैवी-प्रभा से मण्डित था।
फलतः बार-बार मेरे मन में यह इच्छा उठती रही कि मैं, उनकी वीर-गाथा का गुम्फन करके, उनके जीवन और पराक्रमों की कथा की पुनर्रचना का कार्य आरम्भ करूँ।
कार्य प्रायः असाध्य था, किन्तु शतियों से भारत के विभिन्न भागों में अच्छे-बुरे और उदासीन लेखकों के समान मुझे भी एक अदम्य इच्छा ने विवश किया और मेरे पास जो भी थोड़ी-सी कल्पना और रचनात्मक शक्ति थी, चाहे वह जितनी क्षीण रही हो, उसकी अंजलि चढ़ाने से मैं अपने को रोक नहीं सका।
मैंने पूरी पुस्तक को ‘कृष्णावतार’ नाम दिया है।
कंस-वध के साथ समाप्त होने वाले इसके प्रथम खण्ड को मैंने ‘बंसी की धुन’ कहा है, क्योंकि इसमें उनके बाल्यकाल का वर्णन है, जिसके साथ उनका अविभाज्य सम्बन्ध रहा था। इस बंसी ने मनुष्यों और पशु-पक्षियों को भी समान रूप से मन्त्र-मुग्ध किया था। असंख्य कवियों ने उसकी मोहिनी के मधुर गीत गाये हैं।
दूसरा खण्ड रुक्मिणी-हरण के साथ समाप्त हुआ है, अतः उसे ‘रुक्मिणी-हरण’ कहा गया है। मूल कथा है श्रीकृष्ण के द्वारा मगध-सम्राट जरासन्ध का सफल प्रतिकार।
इस तीसरे खण्ड का शीर्षक है ‘पांच पाण्डव’। यह द्रौपदी के स्वयंवर के साथ समाप्त हुआ है।
इसके चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें खण्डों का शीर्षक क्रमशः ‘भीम की कथा’, ‘सत्यभामा की कथा’, ‘महामुनि व्यास की कथा’ और ‘युधिष्ठिर की कथा’ होगा। मेरी इच्छा इस सारी कथा को वहाँ तक ले जाने की है, जहाँ कुरुक्षेत्र में ‘शाश्वत धर्मगोप्ता’ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विश्व-रूप का दर्शन कराया है।
मैं बारम्बार यह स्पष्ट कर चुका हूँ कि यह कृति किसी पुराण का रूपान्तरण नहीं है। श्रीकृष्ण के जीवन और पराक्रमों को पुनर्गठित करते हुए, अपने अनेक पुरोगामियों के समान, मुझे भी अतीत से प्राप्त अनेक घटनाओं का पुनः सृजन करना पड़ा है। उनके चरित्र, आचरण और दृष्टिकोण को, आधुनिक गाथा की प्रणाली से, व्यक्तित्व केन्द्रित बनाने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। महाभारत में जिन अनेक पात्रों का धुँधला उल्लेख-मात्र हुआ है, मैंने उनको भी जीवन्त रूप देना चाहा है।
इस लेखन-क्रम में मुझे प्रायः दन्तकथाओं और मिथकों से अलग जाना पड़ा है, क्योंकि ऐसी कथाओं का पुनर्गठन करते समय किसी आधुनिक लेखक के लिए यह नितान्त आवश्यक होता है कि जो भी थोड़ी—बहुत कल्पना उसके पास है, वह उसका उपयोग करे। आशा है कि जो छूट मैं ले रहा हूँ, उसके लिए भगवान श्रीकृष्ण मुझे क्षमा करेंगे, क्योंकि मैंने अपनी अल्पायु में उन्हें जिस रूप में देखा है, मुझे उसी रूप में उनका चित्रण करना चाहिए।
जहाँ तक स्मृति पहुँच पाती है, बचपन से ही श्रीकृष्ण मेरी कल्पना में छाये रहे हैं। बचपन में उनके पराक्रम की कथाएं सुनकर आश्चर्य से मेरी साँस टँगी रह जाती थी। उसके बाद मैंने उनके बारे में पढ़ा, उनके गीत गाये, उनकी प्रशंसा की और शत-शत मन्दिरों में तथा उनके जन्म दिन पर प्रतिवर्ष घर में उनका पूजन किया। और वर्षों से, दिनानुदिन, उनका सन्देश मेरे जीवन को बल देता रहा है।
खेद है कि महाभारत के जिस मूल में उनके आकर्षक व्यक्तित्व की झाँकी मिल सकती है, उसे दन्तकथाओं, मिथकों, चमत्कारों और पूजन-अर्चन ने ढँक रखा है।
वे बुद्धिमान और वीर थे; स्नेहालु और स्नेह-भाजन थे; दूरदर्शी भी होकर वर्तमान समय के अनुकूल आचरण करते थे; उन्हें ऋषियों-जैसी अनासक्ति प्राप्त थी, फिर उनमें पूर्ण मानवता थी। वे कूटनीतिज्ञ थे, ऋषि-तुल्य थे, कर्मठ थे। उनका व्यक्तित्व दैवी-प्रभा से मण्डित था।
फलतः बार-बार मेरे मन में यह इच्छा उठती रही कि मैं, उनकी वीर-गाथा का गुम्फन करके, उनके जीवन और पराक्रमों की कथा की पुनर्रचना का कार्य आरम्भ करूँ।
कार्य प्रायः असाध्य था, किन्तु शतियों से भारत के विभिन्न भागों में अच्छे-बुरे और उदासीन लेखकों के समान मुझे भी एक अदम्य इच्छा ने विवश किया और मेरे पास जो भी थोड़ी-सी कल्पना और रचनात्मक शक्ति थी, चाहे वह जितनी क्षीण रही हो, उसकी अंजलि चढ़ाने से मैं अपने को रोक नहीं सका।
मैंने पूरी पुस्तक को ‘कृष्णावतार’ नाम दिया है।
कंस-वध के साथ समाप्त होने वाले इसके प्रथम खण्ड को मैंने ‘बंसी की धुन’ कहा है, क्योंकि इसमें उनके बाल्यकाल का वर्णन है, जिसके साथ उनका अविभाज्य सम्बन्ध रहा था। इस बंसी ने मनुष्यों और पशु-पक्षियों को भी समान रूप से मन्त्र-मुग्ध किया था। असंख्य कवियों ने उसकी मोहिनी के मधुर गीत गाये हैं।
दूसरा खण्ड रुक्मिणी-हरण के साथ समाप्त हुआ है, अतः उसे ‘रुक्मिणी-हरण’ कहा गया है। मूल कथा है श्रीकृष्ण के द्वारा मगध-सम्राट जरासन्ध का सफल प्रतिकार।
इस तीसरे खण्ड का शीर्षक है ‘पांच पाण्डव’। यह द्रौपदी के स्वयंवर के साथ समाप्त हुआ है।
इसके चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें खण्डों का शीर्षक क्रमशः ‘भीम की कथा’, ‘सत्यभामा की कथा’, ‘महामुनि व्यास की कथा’ और ‘युधिष्ठिर की कथा’ होगा। मेरी इच्छा इस सारी कथा को वहाँ तक ले जाने की है, जहाँ कुरुक्षेत्र में ‘शाश्वत धर्मगोप्ता’ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विश्व-रूप का दर्शन कराया है।
मैं बारम्बार यह स्पष्ट कर चुका हूँ कि यह कृति किसी पुराण का रूपान्तरण नहीं है। श्रीकृष्ण के जीवन और पराक्रमों को पुनर्गठित करते हुए, अपने अनेक पुरोगामियों के समान, मुझे भी अतीत से प्राप्त अनेक घटनाओं का पुनः सृजन करना पड़ा है। उनके चरित्र, आचरण और दृष्टिकोण को, आधुनिक गाथा की प्रणाली से, व्यक्तित्व केन्द्रित बनाने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। महाभारत में जिन अनेक पात्रों का धुँधला उल्लेख-मात्र हुआ है, मैंने उनको भी जीवन्त रूप देना चाहा है।
इस लेखन-क्रम में मुझे प्रायः दन्तकथाओं और मिथकों से अलग जाना पड़ा है, क्योंकि ऐसी कथाओं का पुनर्गठन करते समय किसी आधुनिक लेखक के लिए यह नितान्त आवश्यक होता है कि जो भी थोड़ी—बहुत कल्पना उसके पास है, वह उसका उपयोग करे। आशा है कि जो छूट मैं ले रहा हूँ, उसके लिए भगवान श्रीकृष्ण मुझे क्षमा करेंगे, क्योंकि मैंने अपनी अल्पायु में उन्हें जिस रूप में देखा है, मुझे उसी रूप में उनका चित्रण करना चाहिए।
कन्हैयालाल मुंशी
प्रस्तावना
यादव
आर्य जाति अत्यन्त शक्तिशाली थी। प्राचीनकाल में उस जाति के लोग सारे भारत में फैल गये थे। वे नागों के साथ आन्तर-विवाह करते, उनसे अथवा परस्पर युद्ध करते, राज्यों की स्थापना अथवा उच्छेदन किया करते थे।
आर्य ऋषियों का जीवन विद्या और संयम को समर्पित था। वे आश्रमों में रहते, देवताओं से सम्पर्क साधते और सत्य, यज्ञ तथा तपःपूत जीवन-मार्ग का उपदेश देते और इसे धर्म कहते थे।
साहसिक आर्य राजाओं ने जब उत्तर-भारत के उपजाऊ मैदानों में साम्राज्यों की स्थापना की, इसके बहुत पहले ही यादव गंगा के पार पहुँच चुके थे। उनमें शूरों, अन्धकों और वृष्णियों की संघबद्ध जातियाँ अत्यन्त शक्तिशाली थीं।
इन संगठित जातियों ने यमुना की तराई के जंगल साफ किये और वहाँ बस्तियाँ बसायीं। शूरों के नाम पर इन्हें सामूहिक रूप से शूरसेन कहा गया, क्योंकि अपने सरदारों के बीच वे सर्वाधिक शक्तिशाली थे अनन्तर उन्होंने मथुरा को जीता। उन लोगों ने उसकी शक्ति, समृद्धि और प्रभाव का बहुत विस्तार किया।
मथुरा के अदम्य यादवों पर किसी पुराने शाप का प्रभाव था। उनमें कोई राजा नहीं होता था। सरदारों की एक परिषद के द्वारा वे राज-काज चलाते थे। फिर भी अन्धक जाति के सरदार उग्रसेन को शिष्टतावश ‘राजा’ कहा जाता था।
अन्धक उग्रसेन का पुत्र कंस दुःसाहसी, उग्र स्वभाव का और महत्वाकांक्षी था। अपने पराक्रम से उसने विशिष्टता प्राप्त की और मगध-सम्राट जरासन्ध की अस्ति तथा प्राप्ति नाम की कन्याओं से विवाह किया। जरासन्ध की संसार-भर के राजाओं का मान-मर्दन करने की लालसा बड़ी प्रबल थी। कंस उसका विश्वस्त अनुचर बना। उसने मथुरा की सत्ता पर अधिकार जमाया और अपने अत्याचारों से लोगों को सन्त्रस्त कर दिया।
शूर जाति के पराक्रमी सरदार शूर ने नागराज आर्यक की कन्या मारिषा से विवाह किया था। उससे उनको वसुदेव और देवभाग नाम के दो पुत्र तथा पृथा और श्रुतश्रवा नाम की दो पुत्रियाँ हुईं।
पृथा को राजा कुन्तिभोज ने गोद ले लिया, जो कुन्ती नाम से प्रसिद्ध हुई। उसका विवाह हस्तिनापुर के कुरु-राजा पाण्डु के साथ हुआ। वह पाँच पुत्रों की माता बनी, जो पाण्डव कहलाये। इनमें से तीन युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन—का जन्म उसके गर्भ में हुआ और शेष दो—नकुल और सहदेव—पाण्डु की दूसरी पत्नी माद्री से जनमे।
शूर की दूसरी कन्या श्रुतश्रवा चेदि के राजा दमघोष से ब्याही गयी, जिसके शिशुपाल नाम का पुत्र हुआ। वह बड़ा उग्र और महत्वाकांक्षी था। वह भी मगधसम्राट जरासन्ध का कृपा-पात्र बनना चाहता था।
शूर के ज्येष्ठ पुत्र वसुदेव ने उग्रसेन के भाई देवक की कन्या देवकी से विवाह किया।
इस भविष्यवाणी को असत्य करने के लिए कि कंस की चचेरी बहन देवकी का आठवाँ पुत्र उसे मार डालेगा, कंस ने वसुदेव और देवकी को कारागार में डाल दिया और जन्म लेते ही उसके छः पुत्रों की हत्या कर दी;
उसकी सातवीं संतान को समय से पहले ही गर्भ से निकालकर चुपचाप बाहर पहुँचा दिया गया, जो बड़ा होकर बलराम-संकर्षण बना।
आठवीं संतान के रूप में कृष्ण का जन्म हुआ। भविष्यवाणी के अनुसार वे यादवों के उद्धारक थे। आधी रात के समय, जन्म होते ही, उन्हें गोकुल पहुँचा दिया गया, जहाँ गोपालकों के सरदार नन्द के घर उनका लालन-पालन हुआ।
वसुदेव के छोटे भाई देवभाग के पुत्र उद्धव हुए। बचपन में ही उन्हें कृष्ण के सखा के रूप में पालन-पोषण के लिए गोकुल भेज दिया गया।
बलराम, कृष्ण और उद्धव बड़े हुए। वे बलवान, सुन्दर और साहसी थे। उनमें कृष्ण अत्यन्त प्रिय थे। वे वहाँ के गोपालकों और वृन्दावन की गोपियों के लाड़ले बन गये, जहाँ नन्द जा बसे थे। सोलह वर्ष की आयु में कृष्ण को मथुरा लाया गया। कृष्ण ने वहाँ अपने मामा, दुष्ट कंस को मार डाला।
कृष्ण, बलराम और उद्धव अपनी शिक्षा पूरी करने तथा शस्त्र-विद्या सीखने के लिए गुरु सान्दीपनि के विद्यालय में गये। सान्दीपनि के यहाँ रहते हुए कृष्ण ने अद्भुत पराक्रम के साथ अपहरणकर्ताओं से गुरु के पुत्र पुनर्दत्त की रक्षा की।
जब जरासन्ध को पता चला कि कृष्ण ने उसके जमाता को मार डाला है तो वह उसकी मृत्यु का बदला लेने के लिए मथुरा की ओर बढ़ा। ऐसे पराक्रमी शत्रु की घेराबन्दी का सामना करने में असमर्थ यादवों ने कृष्ण और बलराम को रात्रि के समय नगर से निकल भागने का अवसर दिया। दोनों भाई साह्याद्रि के पार गोमन्तक में जाकर गरुड़ जाति के लोगों के साथ रहने लगे।
जरासन्ध ने गोमन्तक तक कृष्ण और बलराम का पीछा किया। किन्तु उन साहसी युवकों ने उसे और उसके मित्रों को वहाँ से भागने को विवश कर दिया।
कृष्ण और बलराम की कीर्ति सारे आर्यावर्त में फैल गयी। वे विजेता के रूप में मथुरा लौटे। उनके नेतृत्व में मथुरा के यादव शक्तिशाली और अनुशासित बने।
मथुरा के यादवों का विनाश करने के लिए जरासन्ध ने विदर्भ के राजा भीष्मक और चेदि के राजा दमघोष के साथ अपनी मैत्री को सुदृढ़ बनाने का निश्चय किया। उसने भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी का विवाह चेदि-राज दमघोष के पुत्र शिशुपाल के साथ और अपनी पौत्री का विवाह भीष्मक के पुत्र रुक्मि के साथ करने की योजना बनायी।
इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर में एक स्वयंवर का आयोजन किया गया। वस्तुतः यह स्वयंवर नहीं, आर्यों की प्राचीन विधि का कपटानुकरण था, क्योंकि रुक्मिणी को पति के चुनाव की स्वतन्त्रता नहीं थी—उसे शिशुपाल के ही गले में वरमाला डालनी थी। कृष्ण कुछ यादवों-सरदारों और उनके मित्रों के साथ निमन्त्रण के बिना ही कुण्डिनपुर गये। वहाँ उन्होंने भीष्मक को इस झूठे स्वयंवर का विचार त्याग देने के लिए प्रेरित किया।
कृष्ण की कीर्ति चारों ओर फैल गयी। उनके ऐतिहासिक पराक्रमों ने उन्हें देव-तुल्य प्रभा-मण्डल से मण्डित किया।
जरासनध कृष्ण के प्रति सहज न हो सका। उसने मथुरा के यादवों का विनाश करने का संकल्प किया। अतः उसने निश्चय किया कि वह किसी आर्य राजा को अपना विश्वासपात्र नहीं बनायेगा। उसने सिन्धुपार के बर्बर राजा कालयवन के साथ सन्धि की। सन्धि के अनुसार यह निश्चय हुआ कि कालयवन पश्चिम से और जरासन्ध पूर्व दिशा मथुरा जाकर आक्रमण करके उसे जलाकर राख कर देंगे।
इन प्रचण्ड शक्तियों के फन्दे में फँस जाने पर यादवों का जो हाल होता, उससे उनकी रक्षा करने के लिए कृष्ण उन्हें दलदलों और मरुभूमियों के पार सुदूर सौराष्ट्र में ले गये। वहाँ जाकर वे कुकुद्मिन के राज्य में बस गये, जिसकी कन्या रेवती का बलाराम के साथ विवाह हुआ था। उनकी राजधानी द्वारका शीघ्र ही एक विकसित बन्दरगाह बन गयी।
कालयवन मथुरा नहीं पहुँच सका। मार्ग में ही वह मुचकुन्द ऋषि का कोपभाजन बन गया। उसने ऋषि की हत्या करने का प्रयत्न किया था।
मथुरा पहुँचकर उसने मथुरा में भीषण विध्वंस मचाया।
अपने तथा चेदि और विदर्भ के राजाओं के बीच राजवंशीय संधि स्थापित करने के लिए उसने कुण्डिनपुर में फिर रुक्मिणी का स्वयंवर आयोजित करने का आदेश दिया। उसके अनुसार स्वयंवर में शिशुपाल के साथ रुक्मिणी का विवाह होना था।
कृष्ण अकस्मात् कुण्डिनपुर जा पहुँचे। वे रुक्मिणी का हरण करके उसे द्वारका ले आए। वहाँ उन्होंने रुक्मिणी से विवाह कर लिया।
आर्य ऋषियों का जीवन विद्या और संयम को समर्पित था। वे आश्रमों में रहते, देवताओं से सम्पर्क साधते और सत्य, यज्ञ तथा तपःपूत जीवन-मार्ग का उपदेश देते और इसे धर्म कहते थे।
साहसिक आर्य राजाओं ने जब उत्तर-भारत के उपजाऊ मैदानों में साम्राज्यों की स्थापना की, इसके बहुत पहले ही यादव गंगा के पार पहुँच चुके थे। उनमें शूरों, अन्धकों और वृष्णियों की संघबद्ध जातियाँ अत्यन्त शक्तिशाली थीं।
इन संगठित जातियों ने यमुना की तराई के जंगल साफ किये और वहाँ बस्तियाँ बसायीं। शूरों के नाम पर इन्हें सामूहिक रूप से शूरसेन कहा गया, क्योंकि अपने सरदारों के बीच वे सर्वाधिक शक्तिशाली थे अनन्तर उन्होंने मथुरा को जीता। उन लोगों ने उसकी शक्ति, समृद्धि और प्रभाव का बहुत विस्तार किया।
मथुरा के अदम्य यादवों पर किसी पुराने शाप का प्रभाव था। उनमें कोई राजा नहीं होता था। सरदारों की एक परिषद के द्वारा वे राज-काज चलाते थे। फिर भी अन्धक जाति के सरदार उग्रसेन को शिष्टतावश ‘राजा’ कहा जाता था।
अन्धक उग्रसेन का पुत्र कंस दुःसाहसी, उग्र स्वभाव का और महत्वाकांक्षी था। अपने पराक्रम से उसने विशिष्टता प्राप्त की और मगध-सम्राट जरासन्ध की अस्ति तथा प्राप्ति नाम की कन्याओं से विवाह किया। जरासन्ध की संसार-भर के राजाओं का मान-मर्दन करने की लालसा बड़ी प्रबल थी। कंस उसका विश्वस्त अनुचर बना। उसने मथुरा की सत्ता पर अधिकार जमाया और अपने अत्याचारों से लोगों को सन्त्रस्त कर दिया।
शूर जाति के पराक्रमी सरदार शूर ने नागराज आर्यक की कन्या मारिषा से विवाह किया था। उससे उनको वसुदेव और देवभाग नाम के दो पुत्र तथा पृथा और श्रुतश्रवा नाम की दो पुत्रियाँ हुईं।
पृथा को राजा कुन्तिभोज ने गोद ले लिया, जो कुन्ती नाम से प्रसिद्ध हुई। उसका विवाह हस्तिनापुर के कुरु-राजा पाण्डु के साथ हुआ। वह पाँच पुत्रों की माता बनी, जो पाण्डव कहलाये। इनमें से तीन युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन—का जन्म उसके गर्भ में हुआ और शेष दो—नकुल और सहदेव—पाण्डु की दूसरी पत्नी माद्री से जनमे।
शूर की दूसरी कन्या श्रुतश्रवा चेदि के राजा दमघोष से ब्याही गयी, जिसके शिशुपाल नाम का पुत्र हुआ। वह बड़ा उग्र और महत्वाकांक्षी था। वह भी मगधसम्राट जरासन्ध का कृपा-पात्र बनना चाहता था।
शूर के ज्येष्ठ पुत्र वसुदेव ने उग्रसेन के भाई देवक की कन्या देवकी से विवाह किया।
इस भविष्यवाणी को असत्य करने के लिए कि कंस की चचेरी बहन देवकी का आठवाँ पुत्र उसे मार डालेगा, कंस ने वसुदेव और देवकी को कारागार में डाल दिया और जन्म लेते ही उसके छः पुत्रों की हत्या कर दी;
उसकी सातवीं संतान को समय से पहले ही गर्भ से निकालकर चुपचाप बाहर पहुँचा दिया गया, जो बड़ा होकर बलराम-संकर्षण बना।
आठवीं संतान के रूप में कृष्ण का जन्म हुआ। भविष्यवाणी के अनुसार वे यादवों के उद्धारक थे। आधी रात के समय, जन्म होते ही, उन्हें गोकुल पहुँचा दिया गया, जहाँ गोपालकों के सरदार नन्द के घर उनका लालन-पालन हुआ।
वसुदेव के छोटे भाई देवभाग के पुत्र उद्धव हुए। बचपन में ही उन्हें कृष्ण के सखा के रूप में पालन-पोषण के लिए गोकुल भेज दिया गया।
बलराम, कृष्ण और उद्धव बड़े हुए। वे बलवान, सुन्दर और साहसी थे। उनमें कृष्ण अत्यन्त प्रिय थे। वे वहाँ के गोपालकों और वृन्दावन की गोपियों के लाड़ले बन गये, जहाँ नन्द जा बसे थे। सोलह वर्ष की आयु में कृष्ण को मथुरा लाया गया। कृष्ण ने वहाँ अपने मामा, दुष्ट कंस को मार डाला।
कृष्ण, बलराम और उद्धव अपनी शिक्षा पूरी करने तथा शस्त्र-विद्या सीखने के लिए गुरु सान्दीपनि के विद्यालय में गये। सान्दीपनि के यहाँ रहते हुए कृष्ण ने अद्भुत पराक्रम के साथ अपहरणकर्ताओं से गुरु के पुत्र पुनर्दत्त की रक्षा की।
जब जरासन्ध को पता चला कि कृष्ण ने उसके जमाता को मार डाला है तो वह उसकी मृत्यु का बदला लेने के लिए मथुरा की ओर बढ़ा। ऐसे पराक्रमी शत्रु की घेराबन्दी का सामना करने में असमर्थ यादवों ने कृष्ण और बलराम को रात्रि के समय नगर से निकल भागने का अवसर दिया। दोनों भाई साह्याद्रि के पार गोमन्तक में जाकर गरुड़ जाति के लोगों के साथ रहने लगे।
जरासन्ध ने गोमन्तक तक कृष्ण और बलराम का पीछा किया। किन्तु उन साहसी युवकों ने उसे और उसके मित्रों को वहाँ से भागने को विवश कर दिया।
कृष्ण और बलराम की कीर्ति सारे आर्यावर्त में फैल गयी। वे विजेता के रूप में मथुरा लौटे। उनके नेतृत्व में मथुरा के यादव शक्तिशाली और अनुशासित बने।
मथुरा के यादवों का विनाश करने के लिए जरासन्ध ने विदर्भ के राजा भीष्मक और चेदि के राजा दमघोष के साथ अपनी मैत्री को सुदृढ़ बनाने का निश्चय किया। उसने भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी का विवाह चेदि-राज दमघोष के पुत्र शिशुपाल के साथ और अपनी पौत्री का विवाह भीष्मक के पुत्र रुक्मि के साथ करने की योजना बनायी।
इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर में एक स्वयंवर का आयोजन किया गया। वस्तुतः यह स्वयंवर नहीं, आर्यों की प्राचीन विधि का कपटानुकरण था, क्योंकि रुक्मिणी को पति के चुनाव की स्वतन्त्रता नहीं थी—उसे शिशुपाल के ही गले में वरमाला डालनी थी। कृष्ण कुछ यादवों-सरदारों और उनके मित्रों के साथ निमन्त्रण के बिना ही कुण्डिनपुर गये। वहाँ उन्होंने भीष्मक को इस झूठे स्वयंवर का विचार त्याग देने के लिए प्रेरित किया।
कृष्ण की कीर्ति चारों ओर फैल गयी। उनके ऐतिहासिक पराक्रमों ने उन्हें देव-तुल्य प्रभा-मण्डल से मण्डित किया।
जरासनध कृष्ण के प्रति सहज न हो सका। उसने मथुरा के यादवों का विनाश करने का संकल्प किया। अतः उसने निश्चय किया कि वह किसी आर्य राजा को अपना विश्वासपात्र नहीं बनायेगा। उसने सिन्धुपार के बर्बर राजा कालयवन के साथ सन्धि की। सन्धि के अनुसार यह निश्चय हुआ कि कालयवन पश्चिम से और जरासन्ध पूर्व दिशा मथुरा जाकर आक्रमण करके उसे जलाकर राख कर देंगे।
इन प्रचण्ड शक्तियों के फन्दे में फँस जाने पर यादवों का जो हाल होता, उससे उनकी रक्षा करने के लिए कृष्ण उन्हें दलदलों और मरुभूमियों के पार सुदूर सौराष्ट्र में ले गये। वहाँ जाकर वे कुकुद्मिन के राज्य में बस गये, जिसकी कन्या रेवती का बलाराम के साथ विवाह हुआ था। उनकी राजधानी द्वारका शीघ्र ही एक विकसित बन्दरगाह बन गयी।
कालयवन मथुरा नहीं पहुँच सका। मार्ग में ही वह मुचकुन्द ऋषि का कोपभाजन बन गया। उसने ऋषि की हत्या करने का प्रयत्न किया था।
मथुरा पहुँचकर उसने मथुरा में भीषण विध्वंस मचाया।
अपने तथा चेदि और विदर्भ के राजाओं के बीच राजवंशीय संधि स्थापित करने के लिए उसने कुण्डिनपुर में फिर रुक्मिणी का स्वयंवर आयोजित करने का आदेश दिया। उसके अनुसार स्वयंवर में शिशुपाल के साथ रुक्मिणी का विवाह होना था।
कृष्ण अकस्मात् कुण्डिनपुर जा पहुँचे। वे रुक्मिणी का हरण करके उसे द्वारका ले आए। वहाँ उन्होंने रुक्मिणी से विवाह कर लिया।
कुरु
आर्य-जगत में भरतों और पांचालों का कुल सबसे बड़ा और सर्वाधिक शक्तिशाली था। प्राचीनकाल में भरतों ने आर्यावर्त के सभी राजाओं पर चक्रवर्तित्व स्थापित किया था। उनके राजा भरत सभी चक्रवर्तियों में श्रेष्ठ माने गये थे। सम्राट भरत के एक वंशज हस्ति ने गंगा के तट पर हस्तिनापुर बसाया था। परवर्तीकाल में भरतों को कुरु भी कहा जाने लगा। उन्होंने अनेक राज्यों पर अधिकार किया और बहुतेरे राजाओं पर चक्रवर्तीत्व स्थापित किया।
आर्यावर्त के जिस भाग पर कुरुओं और उनके प्रतिद्वन्द्वी पांचालों का शासन था, वह आर्यावर्त का हृदय-प्रदेश था और विद्वता और पराक्रम के लिए प्रसिद्ध था। वहाँ सर्वश्रेष्ठ आर्य ऋषियों के आश्रम थे और वहाँ के राजाओं ने धर्म की प्राचीन परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा था।
हस्ति के वंशज शान्तनु का एक धीवर-कन्या से प्रेम हो गया, जो बाद में सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई। सत्यवती का पिता शान्तनु से अपनी कन्या का विवाह करने को सहमत नहीं हुआ। उसने कहा कि वह तभी उन्हें अपनी कन्या दे सकता है, जब उसी का भावी पुत्र सिंहासन का अधिकारी हो। अपने पिता को सुखी करने के लिये गांगेय ने प्रतिज्ञा की कि वे आजीवन अविवाहित रहेंगे और सिंहासन का अधिकार त्याग देंगे। यह प्रतिज्ञा बड़ी कठोर थी, अतः वे भीष्म कहे जाने लगे। सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य दो पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र युद्ध में मारा गया। भीष्म ने विचित्रवीर्य को सिंहासनरूढ़ किया। फिर काशिराज की दो कन्याओं का हरण कर लाये और उनका विवाह बालक विचित्रवीर्य से कर दिया। अल्पवयस्क विचित्रवीर्य की मृत्यु निःसन्तान रहते ही हो गयी। भीष्म ने न तो विवाह करना और न सिंहासन पर बैठना ही स्वीकार किया। कुरुओं के राजवंश के समाप्त होने का संकट उपस्थित हो गया।
भीष्म के परामर्ष से विधवा समाज्ञी सत्यवती ने ऋषि पराशर से उत्पन्न अपने पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास को बुलाकर कहा कि वह प्राचीन प्रथा के अनुसार विचित्रवीर्य की विधवाओं से पुत्र उत्पन्न करें।
कृष्ण द्वैपायन व्यास का पालन-पोषण उनके पिता ने वैदिक ऋषियों की श्रेष्ठतम परम्परा के अनुसार किया था। उस परम्परा के संस्थापकों में से एक उनके प्रपितामह वशिष्ठ भी थे।
अपनी विद्वता और तपश्चचर्या के द्वारा व्यास ने आर्यावर्त के ऋषियों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था। उन्होंने वेदों का भी संकलन किया था।
कुरुओं के वंश को बनाये रखने के लिए ऋषि ने अपनी माता का आदेश स्वीकार किया। अम्बिका से उन्होंने धृतराष्ट्र नामक पुत्र उत्पन्न किया, जो जन्मान्ध था। अम्बालिका से पाण्डु का जन्म हुआ। वह जन्मजात रोगी था। एक दासी ने भी भक्तिभाव से उन्हें आत्म-समर्पण किया। उसके पुत्र विदुर हुए।
भीष्म ने तीनों बालकों का पालन-पोषण बड़ी सावधानी और बुद्धिमत्ता के साथ किया। अन्धे होने के कारण धृतराष्ट्र राजसिंहासन के अधिकारी नहीं हो सकते थे, अतः कुरुओं के राजसिंहासन पर पाण्डु का अभिषेक हुआ। उन्होंने बड़ी कुशलता और विवेक से शासन किया, जिससे उन्हें अत्यधिक लोकप्रियता मिली। बड़े होकर विदुर बुद्धिमान और साधु स्वभाववाले मन्त्री बने।
अन्धे धृतराष्ट्र का विवाह गान्धारी से हुआ। उनके दुर्योधन, दुःशासन आदि अनेक पुत्र हुए।
पाण्डु ने कृष्ण के पिता वसुदेव की बहन कुन्ती और मद्रदेश की राजकुमारी माद्री से विवाह किया। पाण्डु को जीवन का सुख न भोग सकने का शाप था, अतः राज्य का त्याग करके वह अपनी पत्नियों के साथ हिमाचल चले गए। अपने पति की सम्मति और विभिन्न देवताओं की कृपा से उन्हें पाँच पुत्र प्राप्त हुए—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, तथा जुड़वें नकुल और सहदेव।
पाण्डु की मृत्यु होने पर उनकी छोटी रानी माद्री पति के साथ सती हो गयी। वह अपने दोनों पुत्रों को कुन्ती को सौंप गयी। ऋषिगण कुन्ती और पाँचों भाइयों को हस्तिनापुर ले आये। वेदव्यास के परामर्श से भीष्म ने उन्हें पाण्डु के पुत्र और उनका उत्तराधिकारी स्वीकार किया।
पाँचों भाई बड़े हुए। वे बड़े रूपवान, शक्तिशाली और सम्माननीय हुए। वे सबके प्रियपात्र बने। यह सब दुर्योधन, दुःशासन और उनके अन्य भाइयों की अप्रसन्नता का कारण बना।
परशुराम के शिष्य और रण-नीति में महान् आचार्य द्रोणाचार्य को भीष्म ने राजकुमारों की शिक्षा के लिए नियुक्त किया। शिक्षा प्राप्त करते हुए पाँचों भाइयों ने विद्वता और शास्त्रों की निपुणता में अपने चचेरे भाइयों को पीछे छोड़कर अप्रतिम स्थान प्राप्त किया।
शिक्षा पूरी होने पर उन लोगों ने अपने गुरु के लिए पांचाल-नरेश यज्ञसेन द्रुपद के राज्य के उत्तरी भाग को जीतने में द्रोणाचार्य का सहायता की।
पाण्डवों को कुरुओं में बड़ी लोकप्रियता मिली। उनके सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर धर्मराज कहे जाने लगे। भीम ने उन्हें हस्तिनापुर के युवराज-पद पर अभिशिक्त किया, क्योंकि वह इस पद के सर्वथा योग्य तो थे ही, हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठने वाले अन्तिम राजा उनके पिता पाण्डु ही थे।
युवराज पद पर युधिष्ठिर के अभिषेक के बाद भीम, जो पाँचों भाइयों में दूसरे थे, गदा-युद्ध की अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए बलराम के पास मथुरा चले गये। बलराम गदा-युद्ध के जाने-माने और प्रसिद्ध आचार्य थे।
यह ठीक उस समय के पहले की बात है, जब मगध-सम्राट जरासन्ध के द्वारा अपने विनाश के भय से यादव सौराष्ट्र चले गये थे और कृष्ण ने उनका नेतृत्व किया था।
आर्यावर्त के जिस भाग पर कुरुओं और उनके प्रतिद्वन्द्वी पांचालों का शासन था, वह आर्यावर्त का हृदय-प्रदेश था और विद्वता और पराक्रम के लिए प्रसिद्ध था। वहाँ सर्वश्रेष्ठ आर्य ऋषियों के आश्रम थे और वहाँ के राजाओं ने धर्म की प्राचीन परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा था।
हस्ति के वंशज शान्तनु का एक धीवर-कन्या से प्रेम हो गया, जो बाद में सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई। सत्यवती का पिता शान्तनु से अपनी कन्या का विवाह करने को सहमत नहीं हुआ। उसने कहा कि वह तभी उन्हें अपनी कन्या दे सकता है, जब उसी का भावी पुत्र सिंहासन का अधिकारी हो। अपने पिता को सुखी करने के लिये गांगेय ने प्रतिज्ञा की कि वे आजीवन अविवाहित रहेंगे और सिंहासन का अधिकार त्याग देंगे। यह प्रतिज्ञा बड़ी कठोर थी, अतः वे भीष्म कहे जाने लगे। सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य दो पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र युद्ध में मारा गया। भीष्म ने विचित्रवीर्य को सिंहासनरूढ़ किया। फिर काशिराज की दो कन्याओं का हरण कर लाये और उनका विवाह बालक विचित्रवीर्य से कर दिया। अल्पवयस्क विचित्रवीर्य की मृत्यु निःसन्तान रहते ही हो गयी। भीष्म ने न तो विवाह करना और न सिंहासन पर बैठना ही स्वीकार किया। कुरुओं के राजवंश के समाप्त होने का संकट उपस्थित हो गया।
भीष्म के परामर्ष से विधवा समाज्ञी सत्यवती ने ऋषि पराशर से उत्पन्न अपने पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास को बुलाकर कहा कि वह प्राचीन प्रथा के अनुसार विचित्रवीर्य की विधवाओं से पुत्र उत्पन्न करें।
कृष्ण द्वैपायन व्यास का पालन-पोषण उनके पिता ने वैदिक ऋषियों की श्रेष्ठतम परम्परा के अनुसार किया था। उस परम्परा के संस्थापकों में से एक उनके प्रपितामह वशिष्ठ भी थे।
अपनी विद्वता और तपश्चचर्या के द्वारा व्यास ने आर्यावर्त के ऋषियों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था। उन्होंने वेदों का भी संकलन किया था।
कुरुओं के वंश को बनाये रखने के लिए ऋषि ने अपनी माता का आदेश स्वीकार किया। अम्बिका से उन्होंने धृतराष्ट्र नामक पुत्र उत्पन्न किया, जो जन्मान्ध था। अम्बालिका से पाण्डु का जन्म हुआ। वह जन्मजात रोगी था। एक दासी ने भी भक्तिभाव से उन्हें आत्म-समर्पण किया। उसके पुत्र विदुर हुए।
भीष्म ने तीनों बालकों का पालन-पोषण बड़ी सावधानी और बुद्धिमत्ता के साथ किया। अन्धे होने के कारण धृतराष्ट्र राजसिंहासन के अधिकारी नहीं हो सकते थे, अतः कुरुओं के राजसिंहासन पर पाण्डु का अभिषेक हुआ। उन्होंने बड़ी कुशलता और विवेक से शासन किया, जिससे उन्हें अत्यधिक लोकप्रियता मिली। बड़े होकर विदुर बुद्धिमान और साधु स्वभाववाले मन्त्री बने।
अन्धे धृतराष्ट्र का विवाह गान्धारी से हुआ। उनके दुर्योधन, दुःशासन आदि अनेक पुत्र हुए।
पाण्डु ने कृष्ण के पिता वसुदेव की बहन कुन्ती और मद्रदेश की राजकुमारी माद्री से विवाह किया। पाण्डु को जीवन का सुख न भोग सकने का शाप था, अतः राज्य का त्याग करके वह अपनी पत्नियों के साथ हिमाचल चले गए। अपने पति की सम्मति और विभिन्न देवताओं की कृपा से उन्हें पाँच पुत्र प्राप्त हुए—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, तथा जुड़वें नकुल और सहदेव।
पाण्डु की मृत्यु होने पर उनकी छोटी रानी माद्री पति के साथ सती हो गयी। वह अपने दोनों पुत्रों को कुन्ती को सौंप गयी। ऋषिगण कुन्ती और पाँचों भाइयों को हस्तिनापुर ले आये। वेदव्यास के परामर्श से भीष्म ने उन्हें पाण्डु के पुत्र और उनका उत्तराधिकारी स्वीकार किया।
पाँचों भाई बड़े हुए। वे बड़े रूपवान, शक्तिशाली और सम्माननीय हुए। वे सबके प्रियपात्र बने। यह सब दुर्योधन, दुःशासन और उनके अन्य भाइयों की अप्रसन्नता का कारण बना।
परशुराम के शिष्य और रण-नीति में महान् आचार्य द्रोणाचार्य को भीष्म ने राजकुमारों की शिक्षा के लिए नियुक्त किया। शिक्षा प्राप्त करते हुए पाँचों भाइयों ने विद्वता और शास्त्रों की निपुणता में अपने चचेरे भाइयों को पीछे छोड़कर अप्रतिम स्थान प्राप्त किया।
शिक्षा पूरी होने पर उन लोगों ने अपने गुरु के लिए पांचाल-नरेश यज्ञसेन द्रुपद के राज्य के उत्तरी भाग को जीतने में द्रोणाचार्य का सहायता की।
पाण्डवों को कुरुओं में बड़ी लोकप्रियता मिली। उनके सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर धर्मराज कहे जाने लगे। भीम ने उन्हें हस्तिनापुर के युवराज-पद पर अभिशिक्त किया, क्योंकि वह इस पद के सर्वथा योग्य तो थे ही, हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठने वाले अन्तिम राजा उनके पिता पाण्डु ही थे।
युवराज पद पर युधिष्ठिर के अभिषेक के बाद भीम, जो पाँचों भाइयों में दूसरे थे, गदा-युद्ध की अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए बलराम के पास मथुरा चले गये। बलराम गदा-युद्ध के जाने-माने और प्रसिद्ध आचार्य थे।
यह ठीक उस समय के पहले की बात है, जब मगध-सम्राट जरासन्ध के द्वारा अपने विनाश के भय से यादव सौराष्ट्र चले गये थे और कृष्ण ने उनका नेतृत्व किया था।
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