विविध >> जगत की रचना जगत की रचनागुरुदत्त
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भारतीय शास्त्र जगत की रचना का युक्तियुक्त समाधान...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पुस्तक परिचय
यह जगत एक अत्यन्त आश्चर्यमय, विस्मयजनक और रहस्ययुक्त घटना है। यह कितना बड़ा है, इसमें क्या-क्या पदार्थ हैं, वे पदार्थ कहां कहां है, कैसे बने
वे, और कब बने और फिर क्यों बने ? इनका लाभ किसको है, कितना है और कैसे होता है ? ये कुछ प्रश्न हैं, जो आदिकाल से लेकर आज तक के साधारण मनुष्यों तथा विद्वानों को चकित करते रहे हैं।
प्राचीन काल के ऋषि-महर्षि योग-ध्यान से तथा अपनी तपस्या से और वर्तमान युग के वैज्ञानिक इलैक्ट्रानिक दूरबीन, क्षुद्रबीन, फोटोग्राफी, राकेट, द्युलोक में घूमने वाले यानों तथा अनेकानेक उपकरणों की सहायता से जगत के विषय में उक्त व अन्य अनेक संबन्धित विषयों पर खोज करते रहे हैं। इस पर भी, इनका ठीक-ठीक, अपने को भी सन्तोषदायक, उत्तर प्राप्त नहीं कर सके।
आरम्भ काल का मनुष्य जो इस भूतल पर खड़ा होकर आकाश की ओर देखता हुआ अवर्णनीय कौतुक अनुभव करता रहा होगा, उससे आज अपने को उन्नत मन और बड़े-बड़े यंत्रों को रखने का दावा करने वाला मनुष्य कुछ अधिक जानकारी प्राप्त कर चुका है, कहना कठिन है। जानकारी का मार्ग, दोनों के लिए एक सीमा पर पहुँचकर बन्द हो जाता है।
उक्त प्रश्नों को एक दूसरे ढंग पर भी रखा जा सकता है। मैं क्या हूं, कैसे बना हूँ, क्यों बना हूँ, कैसे कार्य करता हूँ और क्यों कार्य करता हूँ ? किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मेरी कामना होती हैं, क्यों ? उस कामना की पूर्ति पर किस को सुख मिलता है और अपूर्ति पर दुख किस को होता है और फिर यह सुख-दुख क्यों होता है ? इस प्रकार के अनेकानेक प्रश्न किसी भी विचारशील मनुष्य के सम्मुख यदा-कदा उपस्थित होते रहते हैं और जब उसको इनके उत्तर नहीं मिलते तो कभी वह चकित होकर इन सबको करने वाले ही अपरम्पार माया अथवा शक्ति का चिन्तन करने लगता है और कभी कोई अधीर हो अपना माथा चट्टान से फोड़ चुप रह जाता है।
एक मनुष्य प्रात:काल उठता है, स्नान-ध्यान से निवृत्त हो, जल्दी-जल्दी भोजन कर अपने जीविकोपार्जन के काम पर भागा हुआ जाता है। सात-आठ घंटे काम कर घर को लौटता है तो कभी बच्चों की चीं-पीं सुन झुंझलाता हुआ पागलों की भाँति व्याकुल हो उठता है। कभी अपनी पत्नी तथा बच्चों को अपनी आय से प्राप्त सुख-सामग्री देकर आनन्द अनुभव करता है। अगले दिन फिर वही दिन-चर्या का चक्र और फिर वही सुख-दुख की उपलब्धि और इसी प्रकार दिन के बाद दिन, सप्ताह के बाद सप्ताह, महीने, वर्ष और फिर जवानी, बुढ़ापा और अन्त में मृत्यु। विचारशील मनुष्यों के अपने मन में इस चक्की पीसने में कारण जानने की इच्छा होती है और वे स्वयं से पूछते हैं, हम यह क्यों करें ?
परन्तु कभी-कभी कोई यह भी कह देता है, इन सब पर मस्तिष्क खराब करने की क्या आवश्यकता है ? जो मिलता है लो, जो नहीं मिलता, उस पर संतोष रखो; जो जैसा मिलता है, उसको वैसा उसी प्रकार स्वीकार करो। परन्तु देखा जाए तो यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा मनुष्य के अन्त:करण की विशेषता है।
इस अभिलाषा का होना अकारण भी नहीं है। मनुष्य अपनी इच्छित वस्तु जब नहीं पा सकता तो ये सब प्रश्न उसके मन में उत्पन्न होते ही हैं, जो हमने ऊपर लिखे हैं। जब कोई मनुष्य अपने प्रयत्न का इच्छित अथवा आशा से भी अधिक फल पा जाता है, तो भी वह आश्चर्यचकित हो यही प्रश्न पूछता है, कि यह कैसे हुआ ?
अत: यह माना जाता है कि जगत् में सबसे महान्, सबसे जटिल, सबसे अधिक आश्चर्यजनक, सबसे अधिक विस्मयजनक और सबसे अधिक चकित करने वाला यदि कोई प्रश्न है तो यह है-
यह जगत क्या है ? कैसे हुआ है ? और क्यों हुआ है ?
हमने यह बताया है कि आदि-काल से मनुष्य इस प्रश्न का उत्तर पाने की इच्छा करता रहा और इस आज के काल में भी सब वैज्ञानिक मीमांसक और अन्वेषक इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने में लीन हैं।
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों की उच्चतम चोटियों पर चढ़ने में जीवन-भय का सामना किया जाता है; समुद्र की गहराइयों में डुबकी लगाकर निम्नतम तल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग जान हथेली पर रख लेते हैं; ध्रुवों के बर्फानी क्षेत्रों में, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमरीका के घने जंगलों में लोग जाते हैं और अब तो अन्तरिक्ष यानों पर बैठ चाँद और मंगल आदि ग्रहों पर जाने के लिए मानव लालायित है। यह सब इसी कारण है कि मानव का अन्त:करण अपने विषय में और उस जगत् के विषय में जिसमें वह रहता है, ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। यह जिज्ञासा उसके स्वभाव में है। वह इसकी अवहेलना नहीं कर सकता।
इस पुस्तक में स्थानाभाव के कारण इस जगत् के विषय में हम संक्षेप में ही लिख पाएंगे। हमारे लिखने का आधार भारतीय विज्ञान होगा। हां, यत्र-तत्र भारतीय विज्ञान की खोज का आधुनिक विज्ञान की खोज के साथ मिलान भी करते जाएंगे।
हमारा उद्देश्य केवल उपलब्ध ज्ञान को सरल तथा रोचक ढंग से पाठकों के सम्मुख रखना है।
प्राचीन काल के ऋषि-महर्षि योग-ध्यान से तथा अपनी तपस्या से और वर्तमान युग के वैज्ञानिक इलैक्ट्रानिक दूरबीन, क्षुद्रबीन, फोटोग्राफी, राकेट, द्युलोक में घूमने वाले यानों तथा अनेकानेक उपकरणों की सहायता से जगत के विषय में उक्त व अन्य अनेक संबन्धित विषयों पर खोज करते रहे हैं। इस पर भी, इनका ठीक-ठीक, अपने को भी सन्तोषदायक, उत्तर प्राप्त नहीं कर सके।
आरम्भ काल का मनुष्य जो इस भूतल पर खड़ा होकर आकाश की ओर देखता हुआ अवर्णनीय कौतुक अनुभव करता रहा होगा, उससे आज अपने को उन्नत मन और बड़े-बड़े यंत्रों को रखने का दावा करने वाला मनुष्य कुछ अधिक जानकारी प्राप्त कर चुका है, कहना कठिन है। जानकारी का मार्ग, दोनों के लिए एक सीमा पर पहुँचकर बन्द हो जाता है।
उक्त प्रश्नों को एक दूसरे ढंग पर भी रखा जा सकता है। मैं क्या हूं, कैसे बना हूँ, क्यों बना हूँ, कैसे कार्य करता हूँ और क्यों कार्य करता हूँ ? किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मेरी कामना होती हैं, क्यों ? उस कामना की पूर्ति पर किस को सुख मिलता है और अपूर्ति पर दुख किस को होता है और फिर यह सुख-दुख क्यों होता है ? इस प्रकार के अनेकानेक प्रश्न किसी भी विचारशील मनुष्य के सम्मुख यदा-कदा उपस्थित होते रहते हैं और जब उसको इनके उत्तर नहीं मिलते तो कभी वह चकित होकर इन सबको करने वाले ही अपरम्पार माया अथवा शक्ति का चिन्तन करने लगता है और कभी कोई अधीर हो अपना माथा चट्टान से फोड़ चुप रह जाता है।
एक मनुष्य प्रात:काल उठता है, स्नान-ध्यान से निवृत्त हो, जल्दी-जल्दी भोजन कर अपने जीविकोपार्जन के काम पर भागा हुआ जाता है। सात-आठ घंटे काम कर घर को लौटता है तो कभी बच्चों की चीं-पीं सुन झुंझलाता हुआ पागलों की भाँति व्याकुल हो उठता है। कभी अपनी पत्नी तथा बच्चों को अपनी आय से प्राप्त सुख-सामग्री देकर आनन्द अनुभव करता है। अगले दिन फिर वही दिन-चर्या का चक्र और फिर वही सुख-दुख की उपलब्धि और इसी प्रकार दिन के बाद दिन, सप्ताह के बाद सप्ताह, महीने, वर्ष और फिर जवानी, बुढ़ापा और अन्त में मृत्यु। विचारशील मनुष्यों के अपने मन में इस चक्की पीसने में कारण जानने की इच्छा होती है और वे स्वयं से पूछते हैं, हम यह क्यों करें ?
परन्तु कभी-कभी कोई यह भी कह देता है, इन सब पर मस्तिष्क खराब करने की क्या आवश्यकता है ? जो मिलता है लो, जो नहीं मिलता, उस पर संतोष रखो; जो जैसा मिलता है, उसको वैसा उसी प्रकार स्वीकार करो। परन्तु देखा जाए तो यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा मनुष्य के अन्त:करण की विशेषता है।
इस अभिलाषा का होना अकारण भी नहीं है। मनुष्य अपनी इच्छित वस्तु जब नहीं पा सकता तो ये सब प्रश्न उसके मन में उत्पन्न होते ही हैं, जो हमने ऊपर लिखे हैं। जब कोई मनुष्य अपने प्रयत्न का इच्छित अथवा आशा से भी अधिक फल पा जाता है, तो भी वह आश्चर्यचकित हो यही प्रश्न पूछता है, कि यह कैसे हुआ ?
अत: यह माना जाता है कि जगत् में सबसे महान्, सबसे जटिल, सबसे अधिक आश्चर्यजनक, सबसे अधिक विस्मयजनक और सबसे अधिक चकित करने वाला यदि कोई प्रश्न है तो यह है-
यह जगत क्या है ? कैसे हुआ है ? और क्यों हुआ है ?
हमने यह बताया है कि आदि-काल से मनुष्य इस प्रश्न का उत्तर पाने की इच्छा करता रहा और इस आज के काल में भी सब वैज्ञानिक मीमांसक और अन्वेषक इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने में लीन हैं।
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों की उच्चतम चोटियों पर चढ़ने में जीवन-भय का सामना किया जाता है; समुद्र की गहराइयों में डुबकी लगाकर निम्नतम तल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग जान हथेली पर रख लेते हैं; ध्रुवों के बर्फानी क्षेत्रों में, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमरीका के घने जंगलों में लोग जाते हैं और अब तो अन्तरिक्ष यानों पर बैठ चाँद और मंगल आदि ग्रहों पर जाने के लिए मानव लालायित है। यह सब इसी कारण है कि मानव का अन्त:करण अपने विषय में और उस जगत् के विषय में जिसमें वह रहता है, ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। यह जिज्ञासा उसके स्वभाव में है। वह इसकी अवहेलना नहीं कर सकता।
इस पुस्तक में स्थानाभाव के कारण इस जगत् के विषय में हम संक्षेप में ही लिख पाएंगे। हमारे लिखने का आधार भारतीय विज्ञान होगा। हां, यत्र-तत्र भारतीय विज्ञान की खोज का आधुनिक विज्ञान की खोज के साथ मिलान भी करते जाएंगे।
हमारा उद्देश्य केवल उपलब्ध ज्ञान को सरल तथा रोचक ढंग से पाठकों के सम्मुख रखना है।
प्रथम अध्याय
विज्ञान की परिभाषा
भारतीय साहित्य में विज्ञान का अर्थ विशेष ज्ञान लिया गया है। संसार के
दिखाई देने वाले तथा न दिखाई देने वाले पदार्थों के विषय में, जानकारी को
ज्ञान कहते हैं। जैसे वायु, जिसमें सांस लेते हैं, जल, जो प्यास लगने पर
पिया जाता है, अन्न, फल, मूल, कन्द इत्यादि जिनसे भूख मिटाई जाती है,
पृथिवी जिस पर हम टिके हुए हैं, जिस पर मकान कल-कारखाने लगे हुए हैं,
सूर्य जो दिन भर प्रकाश देता है और ऊष्मा तथा शक्ति प्रदान करता है, चाँद
जो शीतलता सौम्यता प्रदान करता है और मन में उल्लास उत्पन्न करता है,
अभिप्राय यह कि सब पदार्थ, अन्तरिक्ष के नक्षत्रादि से लेकर अति शक्तिशाली
क्षुद्रबीन से देखे जाने वाले कीटाणु तथा पदार्थों के अणु तक के विषय की
सब बातें ज्ञान के अन्तर्गत हैं। इस सब को भारतीय साहित्य में कार्य-जगत्
कहते हैं।
विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान। यह सब जगत कैसे उत्पन्न हुआ ? उसके कारण पदार्थ की जानकारी को विज्ञान कहते हैं। उदाहरण से बात स्पष्ट हो जावेगी।
हम पीने वाला जल लें। जब हम जल के विषय में यह जानकारी प्राप्त करते हैं यह तरल है, पारदर्शक है, भार रखता है, इसका तुलनात्मक गुरुत्व (Specific gravity) एक है, यह हृदय है पोषक है और प्राणी के जीवन के लिये एक अत्यावश्यक पदार्थ है इत्यादि; तो हम ज्ञान के क्षेत्र में ही हैं। अर्थात् जल के विषय में इन और ऐसी बातों का जानना ज्ञान प्राप्त करना कहलाता है।
परन्तु जब हम जल का विश्लेषण कर यह जान जाते हैं कि यह दो प्रकार के वायु रूप पदार्थों से बना है। इनमें से एक पदार्थ का नाम हाइड्रोजन और दूसरे का नाम ऑक्सीजन है; फिर हम यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि दो भाग हाइड्रोजन और एक भाग ऑक्सीजन के संयोग से जल बनता है।
इसके साथ ही जब हम यह देखते हैं कि हाइड्रोजन रासायनिक विचार से एक प्रारम्भिक पदार्थ है और जल की भांति दो पदार्थों के संयोग से नहीं बना; और यह हाइड्रोजन बहुत ही बारीक-बारीक कणों से बनी है, इनको रासायनिक परमाणु (atom) कहते हैं।
इससे भी आगे जब हम यह पता करते हैं कि एक हाइड्रोजन का रासायनिक परमाणु भी तीन प्रकार के कणों से बना है। उन कणों को इलेक्टौन, प्रोटौन और न्यूट्रौन कहते हैं, और कुछ लोग तो इससे भी दूर जाने का दावा करते हैं। वे कहते हैं कि ये तीनों कण शक्ति से उत्पन्न हुए हैं।
तो इस प्रकार की खोज को भारतीय साहित्य में विज्ञान की ओर जाना कहा जाता है। विज्ञान कार्य-जगत् के पदार्थों में कारण-पदार्थ के ज्ञान का नाम है। पूर्ण जगत् के कारण-पदार्थ अर्थात् मूल पदार्थ के ज्ञान को विज्ञान का नाम दिया है।
मूल पदार्थ तीन हैं। आदि प्रकृति, आत्मा और परमात्मा। कुछ भारतीय विद्वान यह भी कहते हैं कि अन्त में ये तीनों मूल पदार्थ भी एक ही पदार्थ के तीन रूप हैं।
अतएव चर-अचर जगत, जो दृष्टिगोचर होता है इसको कार्य-जगत् कहते हैं और भारतीय साहित्य में इस कार्य-जगत् की जानकारी को ज्ञान कहते हैं। और इस कार्य-जगत के कारण पदार्थ अथवा पदार्थों की जानकारी को प्राप्त करना विज्ञान माना जाता है।
परन्तु आजकल का सायंस शब्द इससे भिन्न अर्थ रखता है। उदाहरण के रूप में खनिज पदार्थों की विद्या को, समुद्र जल के गुणों को तथा इसी प्रकार की वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करने को भी सायंस (Science) का नाम दिया जाता है और आधुनिक हिन्दी में सायंस का अर्थ विज्ञान लिया जाने लगा है। भारतीय साहित्य में इसको ज्ञान के नाम से पुकारा जाता है। भगवान जाने आजकल के हिन्दी के विद्वानों ने क्यों सायंस का अर्थ विज्ञान किया है। कदाचित् उनको भारतीय साहित्य में विज्ञान-शब्द के यथार्थ अर्थ का ज्ञान नहीं होगा।
भारतीय साहित्य में विज्ञान का सम्बन्ध विद्या अर्थात् ब्रह्मज्ञान से है। यहां तक समझ लेना चाहिए कि ब्रह्म के अर्थ उन तीन मूल पदार्थों से हैं जिनसे यह पूर्ण कार्य-जगत बना और चल रहा है। वे तीन मूल पदार्थ हैं, मूल प्रकृति (Primordial matter) ,आत्मा (Soul) और परमात्मा (God)। यह ठीक है कि कई भारतीय इन तीन मूल पदार्थों को एक ही मूल पदार्थ के तीन रूप मानते हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि अनेक अन्य विद्वान हैं जो इस पूर्ण जगत के मूल में दो और कई विद्वान तीन पदार्थों का होना स्वीकार करते हैं। परन्तु इस पुस्तक में हम इस विवाद में नहीं पड़ेंगे कि मूल पदार्थ तीन हैं, दो हैं अथवा एक है। यह इस पुस्तक के विषय से सम्बन्ध नहीं रखता। यहाँ हम भारतीय ज्ञान और विज्ञान के अनुसार इस रहस्यमयी और आश्चर्यजनक जगत की जानकारी पाठकों को कराना चाहते हैं।
विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान। यह सब जगत कैसे उत्पन्न हुआ ? उसके कारण पदार्थ की जानकारी को विज्ञान कहते हैं। उदाहरण से बात स्पष्ट हो जावेगी।
हम पीने वाला जल लें। जब हम जल के विषय में यह जानकारी प्राप्त करते हैं यह तरल है, पारदर्शक है, भार रखता है, इसका तुलनात्मक गुरुत्व (Specific gravity) एक है, यह हृदय है पोषक है और प्राणी के जीवन के लिये एक अत्यावश्यक पदार्थ है इत्यादि; तो हम ज्ञान के क्षेत्र में ही हैं। अर्थात् जल के विषय में इन और ऐसी बातों का जानना ज्ञान प्राप्त करना कहलाता है।
परन्तु जब हम जल का विश्लेषण कर यह जान जाते हैं कि यह दो प्रकार के वायु रूप पदार्थों से बना है। इनमें से एक पदार्थ का नाम हाइड्रोजन और दूसरे का नाम ऑक्सीजन है; फिर हम यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि दो भाग हाइड्रोजन और एक भाग ऑक्सीजन के संयोग से जल बनता है।
इसके साथ ही जब हम यह देखते हैं कि हाइड्रोजन रासायनिक विचार से एक प्रारम्भिक पदार्थ है और जल की भांति दो पदार्थों के संयोग से नहीं बना; और यह हाइड्रोजन बहुत ही बारीक-बारीक कणों से बनी है, इनको रासायनिक परमाणु (atom) कहते हैं।
इससे भी आगे जब हम यह पता करते हैं कि एक हाइड्रोजन का रासायनिक परमाणु भी तीन प्रकार के कणों से बना है। उन कणों को इलेक्टौन, प्रोटौन और न्यूट्रौन कहते हैं, और कुछ लोग तो इससे भी दूर जाने का दावा करते हैं। वे कहते हैं कि ये तीनों कण शक्ति से उत्पन्न हुए हैं।
तो इस प्रकार की खोज को भारतीय साहित्य में विज्ञान की ओर जाना कहा जाता है। विज्ञान कार्य-जगत् के पदार्थों में कारण-पदार्थ के ज्ञान का नाम है। पूर्ण जगत् के कारण-पदार्थ अर्थात् मूल पदार्थ के ज्ञान को विज्ञान का नाम दिया है।
मूल पदार्थ तीन हैं। आदि प्रकृति, आत्मा और परमात्मा। कुछ भारतीय विद्वान यह भी कहते हैं कि अन्त में ये तीनों मूल पदार्थ भी एक ही पदार्थ के तीन रूप हैं।
अतएव चर-अचर जगत, जो दृष्टिगोचर होता है इसको कार्य-जगत् कहते हैं और भारतीय साहित्य में इस कार्य-जगत् की जानकारी को ज्ञान कहते हैं। और इस कार्य-जगत के कारण पदार्थ अथवा पदार्थों की जानकारी को प्राप्त करना विज्ञान माना जाता है।
परन्तु आजकल का सायंस शब्द इससे भिन्न अर्थ रखता है। उदाहरण के रूप में खनिज पदार्थों की विद्या को, समुद्र जल के गुणों को तथा इसी प्रकार की वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करने को भी सायंस (Science) का नाम दिया जाता है और आधुनिक हिन्दी में सायंस का अर्थ विज्ञान लिया जाने लगा है। भारतीय साहित्य में इसको ज्ञान के नाम से पुकारा जाता है। भगवान जाने आजकल के हिन्दी के विद्वानों ने क्यों सायंस का अर्थ विज्ञान किया है। कदाचित् उनको भारतीय साहित्य में विज्ञान-शब्द के यथार्थ अर्थ का ज्ञान नहीं होगा।
भारतीय साहित्य में विज्ञान का सम्बन्ध विद्या अर्थात् ब्रह्मज्ञान से है। यहां तक समझ लेना चाहिए कि ब्रह्म के अर्थ उन तीन मूल पदार्थों से हैं जिनसे यह पूर्ण कार्य-जगत बना और चल रहा है। वे तीन मूल पदार्थ हैं, मूल प्रकृति (Primordial matter) ,आत्मा (Soul) और परमात्मा (God)। यह ठीक है कि कई भारतीय इन तीन मूल पदार्थों को एक ही मूल पदार्थ के तीन रूप मानते हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि अनेक अन्य विद्वान हैं जो इस पूर्ण जगत के मूल में दो और कई विद्वान तीन पदार्थों का होना स्वीकार करते हैं। परन्तु इस पुस्तक में हम इस विवाद में नहीं पड़ेंगे कि मूल पदार्थ तीन हैं, दो हैं अथवा एक है। यह इस पुस्तक के विषय से सम्बन्ध नहीं रखता। यहाँ हम भारतीय ज्ञान और विज्ञान के अनुसार इस रहस्यमयी और आश्चर्यजनक जगत की जानकारी पाठकों को कराना चाहते हैं।
द्वितीय अध्याय
जगत
जगत के शाब्दिक अर्थ हैं जो गतिशील हो। जो चलता है उसको जगत अथवा जगत का
अंग कहते हैं। जगत के पारिभाषिक अर्थ हैं ब्रह्माण्ड। ब्रह्माण्ड में
सूर्य, चन्द्र, तारागण, नक्षत्र पृथिवी और इस पृथिवी अथवा किसी अन्य
नक्षत्र पर प्राणिजन यह सब कुछ आता है।
यह कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड की सब वस्तुएं गतिशील हैं। यदि इनमें गति न रहे तो इनमें से किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं रह सकता। इनकी गति रुकने से सब कुछ टूट-फूट और नष्ट हो जावे। सूर्य, चन्द्र, तारागण, नक्षत्र सब के सब चलते हैं और अपनी गति समाप्त होने पर ये सब के सब गिर कर परस्पर टकरा जावेंगे और चकनाचूर हो जावेंगे।
यह जगत कितना बड़ा है ?
यह अनन्त है। रात के समय आकाश में देखने पर असंख्य तारागण चमकते हुए दृष्टिगोचर होंगे। इनकी हम गणना नहीं कर सकते। ये सब मिलकर ही जगत बना है। यह असीम लम्बा चौड़ा है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
आज के विद्वानों ने कल्पना करने का यत्न किया है। उन्होंने भिन्न-भिन्न तारों और नक्षत्रों में अन्तर जानने का यत्न किया है। उनसे जाने कुछ अन्तर इस प्रकार हैं।
हम पृथिवी से इन नक्षत्रों का अन्तर लिख रहे हैं। इससे जगत के एक अति क्षुद्र अंश का ज्ञान होगा। पूर्ण जगत का ज्ञान तो असम्भव है।
1. पृथिवी से चांद (Moon) -ग्रह-कम से कम 2,22,000 मील और अधिक से अधिक 2,53,000 मील।
2. पृथिवी से बुध ग्रह (Mercury)–कम से कम 4,91,00,000 मील और अधिक से अधिक 13,69,00,000 है।
3. पृथिवी से शुक्र ग्रह (Venus) –कम से कम 2,57,00,000 मील और अधिक से अधिक 16,09,00,000 मील।
4. पृथिवी से मंगल ग्रह (Mars) –कम से कम 3,40,00,000 मील और अधिक से अधिक 24,70,00,000 मील है।
5. पृथिवी से बृहस्पति (Jupitor) –कम से कम 36,20,00,000 मील और अधिक से अधिक 59,70,00,000 मील।
6. पृथिवी से शनि (Saturn)- कम से कम 77,30,00,000 मील और अधिक से अधिक 1,02,30,00,000 मील।
7. पृथिवी से वरुण (Uranus)– कम से कम 1,59,40,00,000 मील और अधिक से अधिक 1,94,60,00,000 मील।
8. पृथिवी से हरि (Neptune)–कम से कम 2,65,40,00,000 मील और अधिक से अधिक 2,89,10,00,000 मील।
9. पृथिवी से पाताल (pluto) –कम से कम 2,60,50,0000,0 मील अधिक से अधिक 4,50,60,00,000 मील।
यहां कम से कम अन्तर और अधिक से अधिक अन्तर की बात समझ लेनी चाहिए। ये सब ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। इनका केन्द्र पृथिवी नहीं। साथ ही ये ग्रह ठीक चक्राकार पथ पर चलते हैं। अण्डाकार (Elliptical) मार्ग पर चलते हैं। अत: अपनी गति में कभी ये पृथिवी के समीप आ जाते हैं और कभी दूर।
यह सौर जगत के कुछ ग्रहों के पृथिवी से अन्तर बताये हैं। सौर-जगत में मुख्य तो नौ ग्रह हैं और कई हजार छोटे-छोटे ग्रह हैं। इनको अंग्रेजी में एस्टीरौयड (Asteroid) कहते हैं। ये सब सूर्य के चारों ओर घूमने से सौर-जगत में माने जाते हैं। नौ मुख्य ग्रहों के नाम और उनके पृथिवी से अन्तर ऊपर लिख दिये हैं।
परन्तु यह सौर-जगत स्वयं आकाश गंगा (Milky way) का एक अति क्षुद्र अंश है।
रात के समय आकाश को देखें तो कहीं-कहीं बादल-बादल से दिखाई देते हैं। वास्तव में वह समूह है। असंख्य तारागणों का।
अनन्त आकाश का एक अंश और उसमें हमारा सौर-मण्डल
इसी को आकाश गंगा कहते हैं। यत्न किया गया है कि आकाश-गंगा को तारों की संख्या का कुछ अनुमान लगाया जाए। बहुत मोटे अनुमान से इसमें 10,00,00,00,000 (दस अरब) से ऊपर तारे हैं। ये इन बादलों को बनाते है। हमारा सौर-जगत इस पूर्ण तारक-समूह का एक बहुत ही छोटा सा अंश है।
उदाहरण के रूप में यदि हम आकाश-गंगा के तारों को गिनने लगें और एक सेकण्ड में एक तारे की गणना करें एवं दिन-रात निरन्तर गिनते जावें तो हमें उनको गिनने में 2500 वर्ष लग जावेंगे।
ब्रह्माण्ड में तारों के ऐसे झुण्ड जैसे आकाश-गंगा में हैं, अन्य भी हैं। वे हमसे इतनी दूर है कि हम उनको इस प्रकार देख नहीं सकते जैसे आकाश-गंगा को देख सकते हैं। ऐसे झुण्ड कई हैं। ये भी कई हैं।
आधुनिक वैज्ञानिकों ने अपने दूरबीन यन्त्रों से ब्रह्माण्ड को बहुत दूर दूर तक देखा है। इतनी दूर तक कि इसके एक छोर से दूसरे छोर तक ऐसे यान से यात्रा करें जो 1,86,300 मील प्रतिक्षण भाग सके तो हम को 6,00,00,00,000 (छ: अरब) वर्ष लग जावेंगे। इतना बड़ा जगत् का भाग देखा जा चुका है परन्तु कोई नहीं कह सकता कि यह जगत का अन्त है। कदाचित् हम जगत के केवल एक किनारे को ही देख पाये हैं। जगत इससे बहुत-बहुत बड़ा है।
यह अनन्त है ऐसा भारतीय विद्वानों का मत है। इतना कुछ देख लेने के बाद भी कोई विद्वान यह नहीं कह सकता कि उसने जगत का पार पा लिया है।
1,86,300 मील प्रतिक्षण गति से प्रकाश चलता है। अर्थात् एक स्थान पर प्रकाश हो तो एक क्षण में 1,83,300 मील के अन्तर पर यह प्रकाश दिखाई दे जावेगा। और ऐसे नक्षत्र इस ब्रह्माण्ड में हैं जिनका प्रकाश हमारी पृथिवी तक नहीं पहुंच पाया है।
एक बुद्धिशील व्यक्ति अनुभव ही कर सकता है कि यह जगत कितना बड़ा है। इस महान् जगत में प्रत्येक वस्तु निरन्तर चल रही है। कोई एक क्षण के लिए भी ठहर नहीं सकती। जगत का अस्तित्व ही इसकी गति पर है।
उदाहरण के रूप में हमारी पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूम रही है। इसके घूमने की गति 18.5 मील प्रतिक्षण है। सूर्य का आर्कषण अपने चारों ओर घूमने वाले ग्रहों को अपने पथ से दूर जाने नहीं देता और घूमने से उत्पन्न शक्ति से वे ग्रह सूर्य से दूर रहते हैं। वे इसमें गिर कर भस्म नहीं हो जाते।
जगत में सब कुछ चल रहा है। सारे जगत के ग्रह सूर्य के चारों ओर अण्डाकार गति में घूम रहे हैं। जो सूर्य के जितने समीप हैं वे उतनी ही तीव्र गति से घूमते हैं।
उदाहरण के रूप में बुध ग्रह का सूर्य से माध्यमिक अन्तर 3,60,00,000 (तीन करोड़ साठ लाख) मील है और यह एक क्षण में 30 मील चलता है। यह सूर्य का चक्कर 88 दिन में पूरा कर लेता है।
पृथिवी का माध्यमिक अन्तर 9,30,00,000 (नौ करोड़ तीस लाख) मील है। 18.5 मील प्रति क्षण चल कर सूर्य का चक्कर एक वर्ष में समाप्त करती है।
पाताल ग्रह (Pluto) जो सूर्य के मुख्य ग्रहों में सबसे दूर है, इसका सूर्य से माध्यमिक अन्तर 3,66,60,00,000 (तीन अरब छयासठ करोड़ साठ लाख ) मील है। और वह केवल 3 मील प्रतिक्षण की गति से चल कर सूर्य की प्रदक्षिणा 248 वर्ष में समाप्त करता है।
इस जगत में आकाश-गंगा जैसे तारागणों के कई झुण्ड हमारा सौर जगत एक आकाश-गंगा का एक बहुत ही छोटा सा अंग है। हमारे सौर जगत में सूर्य है और उसके चारों ओर घूमने वाले 9 मुख्य ग्रह हैं और सहस्रों छोटे-छोटे अन्य ग्रह हैं। आकाश-गंगा पृथिवी पर से देखने पर बादलों की एक चपटी तश्तरी दिखाई देती है।
यह कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड की सब वस्तुएं गतिशील हैं। यदि इनमें गति न रहे तो इनमें से किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं रह सकता। इनकी गति रुकने से सब कुछ टूट-फूट और नष्ट हो जावे। सूर्य, चन्द्र, तारागण, नक्षत्र सब के सब चलते हैं और अपनी गति समाप्त होने पर ये सब के सब गिर कर परस्पर टकरा जावेंगे और चकनाचूर हो जावेंगे।
यह जगत कितना बड़ा है ?
यह अनन्त है। रात के समय आकाश में देखने पर असंख्य तारागण चमकते हुए दृष्टिगोचर होंगे। इनकी हम गणना नहीं कर सकते। ये सब मिलकर ही जगत बना है। यह असीम लम्बा चौड़ा है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
आज के विद्वानों ने कल्पना करने का यत्न किया है। उन्होंने भिन्न-भिन्न तारों और नक्षत्रों में अन्तर जानने का यत्न किया है। उनसे जाने कुछ अन्तर इस प्रकार हैं।
हम पृथिवी से इन नक्षत्रों का अन्तर लिख रहे हैं। इससे जगत के एक अति क्षुद्र अंश का ज्ञान होगा। पूर्ण जगत का ज्ञान तो असम्भव है।
1. पृथिवी से चांद (Moon) -ग्रह-कम से कम 2,22,000 मील और अधिक से अधिक 2,53,000 मील।
2. पृथिवी से बुध ग्रह (Mercury)–कम से कम 4,91,00,000 मील और अधिक से अधिक 13,69,00,000 है।
3. पृथिवी से शुक्र ग्रह (Venus) –कम से कम 2,57,00,000 मील और अधिक से अधिक 16,09,00,000 मील।
4. पृथिवी से मंगल ग्रह (Mars) –कम से कम 3,40,00,000 मील और अधिक से अधिक 24,70,00,000 मील है।
5. पृथिवी से बृहस्पति (Jupitor) –कम से कम 36,20,00,000 मील और अधिक से अधिक 59,70,00,000 मील।
6. पृथिवी से शनि (Saturn)- कम से कम 77,30,00,000 मील और अधिक से अधिक 1,02,30,00,000 मील।
7. पृथिवी से वरुण (Uranus)– कम से कम 1,59,40,00,000 मील और अधिक से अधिक 1,94,60,00,000 मील।
8. पृथिवी से हरि (Neptune)–कम से कम 2,65,40,00,000 मील और अधिक से अधिक 2,89,10,00,000 मील।
9. पृथिवी से पाताल (pluto) –कम से कम 2,60,50,0000,0 मील अधिक से अधिक 4,50,60,00,000 मील।
यहां कम से कम अन्तर और अधिक से अधिक अन्तर की बात समझ लेनी चाहिए। ये सब ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। इनका केन्द्र पृथिवी नहीं। साथ ही ये ग्रह ठीक चक्राकार पथ पर चलते हैं। अण्डाकार (Elliptical) मार्ग पर चलते हैं। अत: अपनी गति में कभी ये पृथिवी के समीप आ जाते हैं और कभी दूर।
यह सौर जगत के कुछ ग्रहों के पृथिवी से अन्तर बताये हैं। सौर-जगत में मुख्य तो नौ ग्रह हैं और कई हजार छोटे-छोटे ग्रह हैं। इनको अंग्रेजी में एस्टीरौयड (Asteroid) कहते हैं। ये सब सूर्य के चारों ओर घूमने से सौर-जगत में माने जाते हैं। नौ मुख्य ग्रहों के नाम और उनके पृथिवी से अन्तर ऊपर लिख दिये हैं।
परन्तु यह सौर-जगत स्वयं आकाश गंगा (Milky way) का एक अति क्षुद्र अंश है।
रात के समय आकाश को देखें तो कहीं-कहीं बादल-बादल से दिखाई देते हैं। वास्तव में वह समूह है। असंख्य तारागणों का।
अनन्त आकाश का एक अंश और उसमें हमारा सौर-मण्डल
इसी को आकाश गंगा कहते हैं। यत्न किया गया है कि आकाश-गंगा को तारों की संख्या का कुछ अनुमान लगाया जाए। बहुत मोटे अनुमान से इसमें 10,00,00,00,000 (दस अरब) से ऊपर तारे हैं। ये इन बादलों को बनाते है। हमारा सौर-जगत इस पूर्ण तारक-समूह का एक बहुत ही छोटा सा अंश है।
उदाहरण के रूप में यदि हम आकाश-गंगा के तारों को गिनने लगें और एक सेकण्ड में एक तारे की गणना करें एवं दिन-रात निरन्तर गिनते जावें तो हमें उनको गिनने में 2500 वर्ष लग जावेंगे।
ब्रह्माण्ड में तारों के ऐसे झुण्ड जैसे आकाश-गंगा में हैं, अन्य भी हैं। वे हमसे इतनी दूर है कि हम उनको इस प्रकार देख नहीं सकते जैसे आकाश-गंगा को देख सकते हैं। ऐसे झुण्ड कई हैं। ये भी कई हैं।
आधुनिक वैज्ञानिकों ने अपने दूरबीन यन्त्रों से ब्रह्माण्ड को बहुत दूर दूर तक देखा है। इतनी दूर तक कि इसके एक छोर से दूसरे छोर तक ऐसे यान से यात्रा करें जो 1,86,300 मील प्रतिक्षण भाग सके तो हम को 6,00,00,00,000 (छ: अरब) वर्ष लग जावेंगे। इतना बड़ा जगत् का भाग देखा जा चुका है परन्तु कोई नहीं कह सकता कि यह जगत का अन्त है। कदाचित् हम जगत के केवल एक किनारे को ही देख पाये हैं। जगत इससे बहुत-बहुत बड़ा है।
यह अनन्त है ऐसा भारतीय विद्वानों का मत है। इतना कुछ देख लेने के बाद भी कोई विद्वान यह नहीं कह सकता कि उसने जगत का पार पा लिया है।
1,86,300 मील प्रतिक्षण गति से प्रकाश चलता है। अर्थात् एक स्थान पर प्रकाश हो तो एक क्षण में 1,83,300 मील के अन्तर पर यह प्रकाश दिखाई दे जावेगा। और ऐसे नक्षत्र इस ब्रह्माण्ड में हैं जिनका प्रकाश हमारी पृथिवी तक नहीं पहुंच पाया है।
एक बुद्धिशील व्यक्ति अनुभव ही कर सकता है कि यह जगत कितना बड़ा है। इस महान् जगत में प्रत्येक वस्तु निरन्तर चल रही है। कोई एक क्षण के लिए भी ठहर नहीं सकती। जगत का अस्तित्व ही इसकी गति पर है।
उदाहरण के रूप में हमारी पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूम रही है। इसके घूमने की गति 18.5 मील प्रतिक्षण है। सूर्य का आर्कषण अपने चारों ओर घूमने वाले ग्रहों को अपने पथ से दूर जाने नहीं देता और घूमने से उत्पन्न शक्ति से वे ग्रह सूर्य से दूर रहते हैं। वे इसमें गिर कर भस्म नहीं हो जाते।
जगत में सब कुछ चल रहा है। सारे जगत के ग्रह सूर्य के चारों ओर अण्डाकार गति में घूम रहे हैं। जो सूर्य के जितने समीप हैं वे उतनी ही तीव्र गति से घूमते हैं।
उदाहरण के रूप में बुध ग्रह का सूर्य से माध्यमिक अन्तर 3,60,00,000 (तीन करोड़ साठ लाख) मील है और यह एक क्षण में 30 मील चलता है। यह सूर्य का चक्कर 88 दिन में पूरा कर लेता है।
पृथिवी का माध्यमिक अन्तर 9,30,00,000 (नौ करोड़ तीस लाख) मील है। 18.5 मील प्रति क्षण चल कर सूर्य का चक्कर एक वर्ष में समाप्त करती है।
पाताल ग्रह (Pluto) जो सूर्य के मुख्य ग्रहों में सबसे दूर है, इसका सूर्य से माध्यमिक अन्तर 3,66,60,00,000 (तीन अरब छयासठ करोड़ साठ लाख ) मील है। और वह केवल 3 मील प्रतिक्षण की गति से चल कर सूर्य की प्रदक्षिणा 248 वर्ष में समाप्त करता है।
इस जगत में आकाश-गंगा जैसे तारागणों के कई झुण्ड हमारा सौर जगत एक आकाश-गंगा का एक बहुत ही छोटा सा अंग है। हमारे सौर जगत में सूर्य है और उसके चारों ओर घूमने वाले 9 मुख्य ग्रह हैं और सहस्रों छोटे-छोटे अन्य ग्रह हैं। आकाश-गंगा पृथिवी पर से देखने पर बादलों की एक चपटी तश्तरी दिखाई देती है।
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