बहुभागीय पुस्तकें >> अस्ताचल की ओर - भाग 3 अस्ताचल की ओर - भाग 3गुरुदत्त
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एक रोचक उपन्यास...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्री गुरुदत्त प्रथम उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ से ही
ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
विज्ञान की पृष्ठभूमि पर वेद, उपनिषद्, दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको ज्ञान का अथाह सागर देख उसी में रम गये।
वेद, उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत करना गुरुदत्त की ही विशेषता है।
उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है, रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता।
विज्ञान की पृष्ठभूमि पर वेद, उपनिषद्, दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको ज्ञान का अथाह सागर देख उसी में रम गये।
वेद, उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत करना गुरुदत्त की ही विशेषता है।
उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है, रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता।
भूमिका
‘अस्ताचल की ओर’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है। यह इतिहास
है भारत के सांस्कृतिक पतन का।
आजकल के बुद्धिमान इतिहासज्ञ यह मानते हैं कि सम्राट अशोक का काल भारत का अति उज्जवल कीर्तिमान काल रहा है और अशोक के उपरान्त समुद्रगुप्त का काल भारत का कीर्तिमान काल रहा है। हम उनकी इस मान्यता से सहमत नहीं। किसी भी देश अथवा जाति का कीर्तिमान और उज्जवल काल वह होता है, जब उस काल में मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कला अर्थात् बुद्धि सुचारू रूप से कार्य कर रही हो।
इन दोनों सम्राटों के काल में भारत में बुद्धि का कार्य शून्य के तुल्य हो चुका था।
अशोकवर्धन के काल को शान्ति का काल कहा जा सकता है। परन्तु वह काल जनमानस में बुद्धि-विहीनता का काल भी था। उस काल में बौद्ध भिक्षुओं और विहारों के महाप्रभुओं की तूती बोलती थी। दूसरी ओर समुद्रगुप्त के काल में अनपढ़ रूढ़िवादी ब्राह्मणों का बोलबाला था। परिणाम में दोनों काल देश और समाज को पतन की ओर द्रुतगति से ले जाने वाले सिद्ध हुए थे।
समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया था। परन्तु यह ऐतिहासिक तथ्य है कि समुद्रगुप्त का अश्वमेघ यज्ञ सर्वथा असंगत रहा था। अश्वमेघ यज्ञ के, उद्देश्य से विपरीत परिणाम प्रकट हुए थे। यह यज्ञ व्यर्थ में धन और परिश्रम का व्यय ही कहा जा सकता है। केवल मात्र समुद्रगुप्त का कीर्तिस्तम्भ स्थापित करना, वह भी उसके अपने राज्य के महामात्य द्वारा संकलित , कितनी शोभा की बात हो सकती है, विचारणीय है। यह ऐसे ही है जैसे अशोक के काल में अनपढ़ समाज के निम्न वर्ग में से बने भिक्षुओं का लिखा इतिहास। यह कितना विश्वस्त होगा, ईश्वर ही बता सकता है।
दोनों राज्यों के परिणाम भयंकर सिद्ध हुए थे। ऐसा क्यों ? अशोक के विषय में हमने उपन्यास ‘लुढ़कते पत्थर’ में अपना आशय स्पष्ट किया है और गुप्त परिवार के ‘वैभव’ की कथा ‘अस्ताचल की ओर’ में प्रस्तुत है।
अशोक के राज्य का परिणाम था सफल विदेशीय आक्रमण। उस सीदियन आक्रमण द्वारा प्रचलित अवस्था को पलटकर ही निस्तेज किया जा सकता था। वैसा ही परिणाम गुप्त परिवार की प्रभुता से हुआ था। यही इस पुस्तक का विषय है। सीदियनों के आक्रमण से भी भयंकर हूण आक्रमण इस काल का परिणाम था।
हमारा विचारित मत है कि दोनों कालों में समाज के अस्तित्व का हीन होना ब्राह्मणों के रूढ़िवादी व्यवहार के कारण ही था। उस व्यवहार में बुद्धि का किंचित् मात्र भी सहयोग नहीं था।
इस तथ्य का हमने अपने विचार से मंथन करने का यत्न किया है। जहाँ तक सम्भव हुआ है, इस काल के ऐतिहासिक पुरुषों के क्रिया-कलाप को इतिहास के अनुरूप ही हमने रखने का यत्न किया है और काल्पनिक पात्रों का निर्माण उस काल की गतिविधियों को उग्र रूप से प्रकट करने के लिए किया है।
एक बात हम यहाँ पुन: दुहरा देना चाहते हैं। समुद्रगुप्त का तिथिकाल जो वर्तमान इतिहासकार मानते हैं, वह हमें स्वीकार नहीं है। उदाहरण के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य का काल 325 ईसा पूर्व माना जाता है। पुराणों से संकलित तिथिकाल के अनुसार यह 1502 ईसा पूर्व बनता है।
इसी प्रकार समुद्रगुप्त का राज्यारोहण काल 333 ई. का बताया गया है। भारतीय प्रमाणों से समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी को विक्रम सम्वत् का आरम्भ करने वाला माना जाता है। इसका अभिप्राय हुआ कि समुद्रगुप्त लगभग 99 ई. पूर्व में राजगद्दी पर बैठा था।
इसी प्रकार सब तिथियाँ बदल जाती हैं। हमारा कहने का अभिप्राय यह है कि भारत का भी एक इतिहास है और उसके समझने का एक ढंग है। वर्तमान विश्वविद्यालयों के इतिहासकार भारतीय परमपराओं से सर्वथा अनभिज्ञ, राज्यआश्रय पर बगलें बजाते फिरते हैं।
इसी प्रकार सिकन्दर के आक्रमण की बात है। इस बात के प्रमाण तो मिलते हैं कि सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार कर ली थी और झेलम नदी के तट पर पोरस से युद्ध हुआ था। परन्तु उसके बाद का वर्णन सिकन्दर के साथ आये इतिहासकार ने नहीं किया। एक यूनानी लेखक अरायन के अनुसार पोरस से सिकन्दर का युद्ध अनिर्णीत था। जीत किसी की नहीं हुई। सिकन्दर चौथे प्रहर थककर अपने डेरे पर चला गया था । वहाँ उसने पोरस को बुलाकर उससे सन्धि कर ली थी।
उसके उपरान्त यह कहा मिलता है कि वह नौकाओं में व्यास नदी से लौट गया था। परन्तु झेलम और व्यास के बीच दो नदियाँ और पड़ती हैं, उनका लम्बा-चौड़ा क्षेत्र भी है। वह क्षेत्र जनशून्य और राज्यशून्य नहीं था।
ऐसा प्रतीत होता है कि झेलम नदी में ही नौकाएँ डाल सिकन्दर लौट गया था। उन दिनों झेलम का नाम बतिस्ता था। इसी को यूनानियों ने व्यास लिखा है। इसमें हमारा कथन यह है कि इस अनिर्णीत युद्ध के बाद पोरस के राज्यासीन रहने का अभिप्राय यही सिद्ध करता है कि सिकन्दर और उसकी सेना युद्ध से उपराम हो लौट गयी थी।
हम समझते हैं कि महाभारत काल से लेकर गुप्त काल के ह्रास तक का इतिहास पुराणों में लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत का इतिहास लिखने वाले कहे जाने वाले विद्वान यहाँ की भाषा, भाव और पुराणों की शैली से अनभिज्ञ होने के कारण ऐसा लिख गये हैं, कि यह भारत का वैभव काल था।
हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त ने शकों को सिन्ध पार भगाया था। दिल्ली में महरौली के समीप तथाकथित कुतुब मीनार के प्रांगण में लौह स्तम्भ में लिखे लेख के अनुसार वह विक्रम सम्वत् का आरम्भ काल था। यह समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरान्त चन्द्रगुप्त (विक्रम) के राज्य में हुआ था। यह राज्यारोहण के दूसरे वर्ष की बात है। रामगुप्त की मृत्यु के उपरान्त ही यह हो सका था।
इस विचार से ही इस उपन्यास का आरम्भ किया गया है। यह विक्रम सम्वत् पूर्व -12-13 वर्ष था। ईसा सम्वत् के अनुसार यह ई. पूर्व 69-70 वर्ष के लगभग होगा।
एक वंशावली जो एक विद्वान लेखक पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी ने पुराणों से संकलित की है, उसका सारांश यहाँ लिख दें तो ठीक होगा।
महाभारत युद्ध के उपरान्त मगध के राज्यों की तालिका इस विज्ञ लेखक ने इस प्रकार लिखी है-
कलि सम्वत् ईसवीसम्वत् ई.पूर्व
बृहद् वंश 1 1001 3102 2101
प्रद्योत वंश 1001 1139 2101 1964
शिशुनाक् वंश 1139 1501 1964 1602
पद्मनन्द वंश 1501 1602 1602 1502
मौर्य वंश 1602 1738 1502 1365
शुंग वंश 1738 1850 1365 1253
इस तिथिकाल के अनुसार बुद्ध का जन्म लगभग 1285 कलि सम्वत् में अर्थात् ईसा से 1818 वर्ष पूर्व बनता है।
इसी तालिका के अनुसार समुद्रगुप्त का काल विक्रम पूर्व 42 से वि.पूर्व 2 तक बनता है।
इसी गणना के अनुसार समुद्रगुप्त का राज्य हुआ ईसा पूर्व 99 से 59 तक। इस तिथिकाल का सीधा सम्बन्ध यद्यपि इस पुस्तक के कथानक से नहीं है, इस पर भी यह सब इस कारण बताया जा रहा है कि इससे कुछ घटनाओं को समझने में सहायता मिलेगी।
इतना और समझ लेना चाहिए कि भारतवर्ष के ह्रास का आरम्भ युधिष्ठिर के जुआ खेलने से पूर्व ही हो चुका था। वास्तव में जो कुछ जुआ खेलने में हुआ, उसका बीज पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा में निहित था। दोनों के गुरु थे द्रोणाचार्य और वह राज्य-सेवा में पल रहे पतित ब्राह्मण ही थे। द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य का पूर्ण जीवन राजाओं की चाटुकारी में व्यतीत हुआ था। यही महान् विनाश का आरम्भ कहा जा सकता है।
तब से लुढकती सभ्यता हर्षवर्धन के काल के उपरान्त अस्त हो गयी प्रतीत होती है। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान युग भारतीयता की मध्य रात्रि का काल है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसे अन्धकार में मनुष्य कंचन और राँगा में भेद नहीं कर सकता, वैसे ही यही दशा अपने भारतवासियों की हो रही है। प्राचीन भारतीय धर्म और संस्कृति को राँगा समझा जा रहा है।
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के काल को भारतीय संस्कृति का मध्य दिवस काल कहा जा सकता है। प्रत्येक सफलता में ह्रास का बीज रहता है। यही उस यज्ञ में हुआ था।
उसके उपरान्त चिकनी ढलवान् भूमि पर फिसलते पगों की भाँति ह्रास आरम्भ हुआ। हमारा यह कहना है कि अशोक का राज्यकाल और गुप्त परिवार का काल भारतीय संस्कृति का तीसरा प्रहर था। समाज द्रुतगति से रात्रि के अन्धकार की ओर जा रहा था। यही हमारा अभिप्राय है ‘अस्ताचल की ओर’ से।
वर्तमान युग तो मध्य रात्रि ही माना जा सकता है। रात्रि के अन्धकार में टिमटिमाते दीपक ही प्रकाश का स्रोत प्रतीत होते हैं और उन्हीं को प्राप्त कर अपने को धन्य माना जाता है। यही बात इस समय हो रही है।
शेष तो यह उपन्यास है। ऐतिहासिक पात्रों के अतिरिक्त काल्पनिक पात्र भी हैं। यत्न किया गया है कि बुद्धि पर छा रहे अन्धकार का कुछ दर्शन कराया जाए।
आजकल के बुद्धिमान इतिहासज्ञ यह मानते हैं कि सम्राट अशोक का काल भारत का अति उज्जवल कीर्तिमान काल रहा है और अशोक के उपरान्त समुद्रगुप्त का काल भारत का कीर्तिमान काल रहा है। हम उनकी इस मान्यता से सहमत नहीं। किसी भी देश अथवा जाति का कीर्तिमान और उज्जवल काल वह होता है, जब उस काल में मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कला अर्थात् बुद्धि सुचारू रूप से कार्य कर रही हो।
इन दोनों सम्राटों के काल में भारत में बुद्धि का कार्य शून्य के तुल्य हो चुका था।
अशोकवर्धन के काल को शान्ति का काल कहा जा सकता है। परन्तु वह काल जनमानस में बुद्धि-विहीनता का काल भी था। उस काल में बौद्ध भिक्षुओं और विहारों के महाप्रभुओं की तूती बोलती थी। दूसरी ओर समुद्रगुप्त के काल में अनपढ़ रूढ़िवादी ब्राह्मणों का बोलबाला था। परिणाम में दोनों काल देश और समाज को पतन की ओर द्रुतगति से ले जाने वाले सिद्ध हुए थे।
समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया था। परन्तु यह ऐतिहासिक तथ्य है कि समुद्रगुप्त का अश्वमेघ यज्ञ सर्वथा असंगत रहा था। अश्वमेघ यज्ञ के, उद्देश्य से विपरीत परिणाम प्रकट हुए थे। यह यज्ञ व्यर्थ में धन और परिश्रम का व्यय ही कहा जा सकता है। केवल मात्र समुद्रगुप्त का कीर्तिस्तम्भ स्थापित करना, वह भी उसके अपने राज्य के महामात्य द्वारा संकलित , कितनी शोभा की बात हो सकती है, विचारणीय है। यह ऐसे ही है जैसे अशोक के काल में अनपढ़ समाज के निम्न वर्ग में से बने भिक्षुओं का लिखा इतिहास। यह कितना विश्वस्त होगा, ईश्वर ही बता सकता है।
दोनों राज्यों के परिणाम भयंकर सिद्ध हुए थे। ऐसा क्यों ? अशोक के विषय में हमने उपन्यास ‘लुढ़कते पत्थर’ में अपना आशय स्पष्ट किया है और गुप्त परिवार के ‘वैभव’ की कथा ‘अस्ताचल की ओर’ में प्रस्तुत है।
अशोक के राज्य का परिणाम था सफल विदेशीय आक्रमण। उस सीदियन आक्रमण द्वारा प्रचलित अवस्था को पलटकर ही निस्तेज किया जा सकता था। वैसा ही परिणाम गुप्त परिवार की प्रभुता से हुआ था। यही इस पुस्तक का विषय है। सीदियनों के आक्रमण से भी भयंकर हूण आक्रमण इस काल का परिणाम था।
हमारा विचारित मत है कि दोनों कालों में समाज के अस्तित्व का हीन होना ब्राह्मणों के रूढ़िवादी व्यवहार के कारण ही था। उस व्यवहार में बुद्धि का किंचित् मात्र भी सहयोग नहीं था।
इस तथ्य का हमने अपने विचार से मंथन करने का यत्न किया है। जहाँ तक सम्भव हुआ है, इस काल के ऐतिहासिक पुरुषों के क्रिया-कलाप को इतिहास के अनुरूप ही हमने रखने का यत्न किया है और काल्पनिक पात्रों का निर्माण उस काल की गतिविधियों को उग्र रूप से प्रकट करने के लिए किया है।
एक बात हम यहाँ पुन: दुहरा देना चाहते हैं। समुद्रगुप्त का तिथिकाल जो वर्तमान इतिहासकार मानते हैं, वह हमें स्वीकार नहीं है। उदाहरण के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य का काल 325 ईसा पूर्व माना जाता है। पुराणों से संकलित तिथिकाल के अनुसार यह 1502 ईसा पूर्व बनता है।
इसी प्रकार समुद्रगुप्त का राज्यारोहण काल 333 ई. का बताया गया है। भारतीय प्रमाणों से समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी को विक्रम सम्वत् का आरम्भ करने वाला माना जाता है। इसका अभिप्राय हुआ कि समुद्रगुप्त लगभग 99 ई. पूर्व में राजगद्दी पर बैठा था।
इसी प्रकार सब तिथियाँ बदल जाती हैं। हमारा कहने का अभिप्राय यह है कि भारत का भी एक इतिहास है और उसके समझने का एक ढंग है। वर्तमान विश्वविद्यालयों के इतिहासकार भारतीय परमपराओं से सर्वथा अनभिज्ञ, राज्यआश्रय पर बगलें बजाते फिरते हैं।
इसी प्रकार सिकन्दर के आक्रमण की बात है। इस बात के प्रमाण तो मिलते हैं कि सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार कर ली थी और झेलम नदी के तट पर पोरस से युद्ध हुआ था। परन्तु उसके बाद का वर्णन सिकन्दर के साथ आये इतिहासकार ने नहीं किया। एक यूनानी लेखक अरायन के अनुसार पोरस से सिकन्दर का युद्ध अनिर्णीत था। जीत किसी की नहीं हुई। सिकन्दर चौथे प्रहर थककर अपने डेरे पर चला गया था । वहाँ उसने पोरस को बुलाकर उससे सन्धि कर ली थी।
उसके उपरान्त यह कहा मिलता है कि वह नौकाओं में व्यास नदी से लौट गया था। परन्तु झेलम और व्यास के बीच दो नदियाँ और पड़ती हैं, उनका लम्बा-चौड़ा क्षेत्र भी है। वह क्षेत्र जनशून्य और राज्यशून्य नहीं था।
ऐसा प्रतीत होता है कि झेलम नदी में ही नौकाएँ डाल सिकन्दर लौट गया था। उन दिनों झेलम का नाम बतिस्ता था। इसी को यूनानियों ने व्यास लिखा है। इसमें हमारा कथन यह है कि इस अनिर्णीत युद्ध के बाद पोरस के राज्यासीन रहने का अभिप्राय यही सिद्ध करता है कि सिकन्दर और उसकी सेना युद्ध से उपराम हो लौट गयी थी।
हम समझते हैं कि महाभारत काल से लेकर गुप्त काल के ह्रास तक का इतिहास पुराणों में लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत का इतिहास लिखने वाले कहे जाने वाले विद्वान यहाँ की भाषा, भाव और पुराणों की शैली से अनभिज्ञ होने के कारण ऐसा लिख गये हैं, कि यह भारत का वैभव काल था।
हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त ने शकों को सिन्ध पार भगाया था। दिल्ली में महरौली के समीप तथाकथित कुतुब मीनार के प्रांगण में लौह स्तम्भ में लिखे लेख के अनुसार वह विक्रम सम्वत् का आरम्भ काल था। यह समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरान्त चन्द्रगुप्त (विक्रम) के राज्य में हुआ था। यह राज्यारोहण के दूसरे वर्ष की बात है। रामगुप्त की मृत्यु के उपरान्त ही यह हो सका था।
इस विचार से ही इस उपन्यास का आरम्भ किया गया है। यह विक्रम सम्वत् पूर्व -12-13 वर्ष था। ईसा सम्वत् के अनुसार यह ई. पूर्व 69-70 वर्ष के लगभग होगा।
एक वंशावली जो एक विद्वान लेखक पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी ने पुराणों से संकलित की है, उसका सारांश यहाँ लिख दें तो ठीक होगा।
महाभारत युद्ध के उपरान्त मगध के राज्यों की तालिका इस विज्ञ लेखक ने इस प्रकार लिखी है-
कलि सम्वत् ईसवीसम्वत् ई.पूर्व
बृहद् वंश 1 1001 3102 2101
प्रद्योत वंश 1001 1139 2101 1964
शिशुनाक् वंश 1139 1501 1964 1602
पद्मनन्द वंश 1501 1602 1602 1502
मौर्य वंश 1602 1738 1502 1365
शुंग वंश 1738 1850 1365 1253
इस तिथिकाल के अनुसार बुद्ध का जन्म लगभग 1285 कलि सम्वत् में अर्थात् ईसा से 1818 वर्ष पूर्व बनता है।
इसी तालिका के अनुसार समुद्रगुप्त का काल विक्रम पूर्व 42 से वि.पूर्व 2 तक बनता है।
इसी गणना के अनुसार समुद्रगुप्त का राज्य हुआ ईसा पूर्व 99 से 59 तक। इस तिथिकाल का सीधा सम्बन्ध यद्यपि इस पुस्तक के कथानक से नहीं है, इस पर भी यह सब इस कारण बताया जा रहा है कि इससे कुछ घटनाओं को समझने में सहायता मिलेगी।
इतना और समझ लेना चाहिए कि भारतवर्ष के ह्रास का आरम्भ युधिष्ठिर के जुआ खेलने से पूर्व ही हो चुका था। वास्तव में जो कुछ जुआ खेलने में हुआ, उसका बीज पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा में निहित था। दोनों के गुरु थे द्रोणाचार्य और वह राज्य-सेवा में पल रहे पतित ब्राह्मण ही थे। द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य का पूर्ण जीवन राजाओं की चाटुकारी में व्यतीत हुआ था। यही महान् विनाश का आरम्भ कहा जा सकता है।
तब से लुढकती सभ्यता हर्षवर्धन के काल के उपरान्त अस्त हो गयी प्रतीत होती है। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान युग भारतीयता की मध्य रात्रि का काल है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसे अन्धकार में मनुष्य कंचन और राँगा में भेद नहीं कर सकता, वैसे ही यही दशा अपने भारतवासियों की हो रही है। प्राचीन भारतीय धर्म और संस्कृति को राँगा समझा जा रहा है।
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के काल को भारतीय संस्कृति का मध्य दिवस काल कहा जा सकता है। प्रत्येक सफलता में ह्रास का बीज रहता है। यही उस यज्ञ में हुआ था।
उसके उपरान्त चिकनी ढलवान् भूमि पर फिसलते पगों की भाँति ह्रास आरम्भ हुआ। हमारा यह कहना है कि अशोक का राज्यकाल और गुप्त परिवार का काल भारतीय संस्कृति का तीसरा प्रहर था। समाज द्रुतगति से रात्रि के अन्धकार की ओर जा रहा था। यही हमारा अभिप्राय है ‘अस्ताचल की ओर’ से।
वर्तमान युग तो मध्य रात्रि ही माना जा सकता है। रात्रि के अन्धकार में टिमटिमाते दीपक ही प्रकाश का स्रोत प्रतीत होते हैं और उन्हीं को प्राप्त कर अपने को धन्य माना जाता है। यही बात इस समय हो रही है।
शेष तो यह उपन्यास है। ऐतिहासिक पात्रों के अतिरिक्त काल्पनिक पात्र भी हैं। यत्न किया गया है कि बुद्धि पर छा रहे अन्धकार का कुछ दर्शन कराया जाए।
गुरुदत्त
प्रथम परिच्छेद
पण्डित शिवकुमार जब पाठशाला का कार्य पूर्ण कर अपने घर वापस लौटा तो उसकी
पत्नी चन्द्रमुखी ने उसका स्वागत करते हुए प्रश्न किया,
‘‘आज
तो आप बहुत प्रसन्न प्रतीत हो रहे हैं ?’’
‘‘हाँ देवी ! तुम्हारा अनुमान सत्य है। आज एक विशेष घटना घटी है।’’
‘‘क्या ?’’
तब तक पण्डित शिवकुमार और उसकी पत्नी द्वार से प्रांगण में पहुँच गये थे। वहाँ दीवार के सहारे खड़ी की गयी चारपाई को चन्द्रमुखी ने प्रांगण में बिछा दिया और पति को उस पर बैठने के लिए कहने के उपरान्त पूछने लगी, वह शुभ साचार अभी बतायेंगे अथवा दूध पीने के उपरान्त कुछ तरो-ताजा होकर ?’’
‘‘समाचार इतना सुखकर है कि उससे भूख भी लग आयी है, इसलिए पहले दूध ले आओ, इसके बाद तुम्हें समाचार सुनाऊँगा।’’
शुभ समाचार सुनने की लालसा में पण्डितजी की पत्नी तेजी से रसोईघर में घुसी और उसे गर्म करने के लिए अँगीठी पर रख दिया।
पण्डित शिवकुमार गाँव की पाठशाला में ही अध्यापक था। उस पाठशाला में दस वर्ष से कम आयु के बालक और बालिकायें पढ़ने के लिए आया करते थे। पाठशाला का कार्य मध्याह्नतर समाप्त हो जाया करता था।
शिवकुमार के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। उसके पिता का स्वर्गवास तो उसके होश सम्हालने से पहले ही हो गया था। बड़ा होने पर वह विद्याध्ययन के लिए काशी चला गया था और जब वह अपना अध्ययन पूर्ण कर घर लौटा तो तभी उसकी माता परलोक सिधार गयी।
जिस समय शिवकुमार के पिता का देहान्त हुआ था उस समय उनके घर की आर्थिक स्थिति अति दुर्बल थी। तदपि उसके माता के मन में अपने पुत्र को प्रकाण्ड विद्वान बनाने की उत्कट अभिलाषा थी। शिवकुमार का पिता भी काशी में अध्ययन के लिए गया था। वहाँ से वह तर्कभूषण की उपाधि से विभूषित होकर लौटा था। शिवकुमार की माता की इच्छा थी कि यदि उसका पुत्र अपने पिता से अधिक नहीं तो कम से कम उतनी विद्या तो ग्रहण कर ही ले।
उनके गाँव से आधा कोस के अन्तर पर हस्तिनापुर नगर में उनके एक सम्पन्न यजमान रहते थे। उनका नाम था मुरारी कृष्ण। जिस समय शिवकुमार की आयु छः वर्ष की हुई उसने अपने पुत्र को मुरारी कृष्ण के पुत्र के साथ काशी भेज दिया। मुरारी कृष्ण का पुत्र काशी में रेशमी कपड़ा क्रय करने के लिए जाया करता था। तब शिवकुमार की माँ ने अपने पुत्र को उसे सौंपते हुए कहा था, ‘‘छोटे सेठ ! हमारे शिव को काशी ले जाओ और इसे किसी विद्वान् के पास पढ़ने के लिए बैठा देना। तुम्हारी इस सहायता के लिए मैं आजीवन तुम्हारी ऋणी रहूँगी।’’
मुरारी कृष्ण के लड़के ने शिव को अपने साथ ले जाना स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन उसे अपने साथ लेकर काशी के लिए चल दिया। उस समय केवल दो टका ही शिव की माता ने अपने पुत्र को उसके मार्ग-व्यय आदि के लिए दे पायी थी। इससे अधिक उसके पास था ही नहीं।
मुरारी कृष्ण के पुत्र ने जब देखा कि शिव को वह दो टका बहुत कम-सा लग रहा है तो उसने मुस्कुराते हुए उससे कहा था, ‘‘ले लो शिव !’’ किन्तु ध्यान रखना, इसका एक लाख गुणा करके माँ को लौटाना होगा।’’
तब शिव इसका अर्थ नहीं समझा था और वह विस्मय से सेठ का मुख देखने लगा था। सेठ ने पण्डिताइन को प्रणाम किया और शिव का हाथ पकड़कर उसको अपने रथ पर बैठा लिया। दोनों जब बैठ गये तो रथ पूर्व दिशा की ओर चल दिया।
इस प्रकार छोटे सेठ के सहारे शिव भी काशी जा पहुँचा। पन्द्रह वर्ष तक उसने काशी में अध्ययन किया और न्यायभूषण की उपाधि अर्जित कर वह पन्द्रह वर्ष उपरान्त ही घर लौटकर आया। सेठ मुरारी कृष्ण के परिवार का कोई-न-कोई व्यक्ति समय-समय पर माल क्रय करने के लिए काशी जाता रहता था और वही शिव की माता को शिव का कुशल समाचार और उसके पढ़ने की प्रगति के विषय में बताता रहता था। इस प्रकार शिव की माँ उत्सुकता से अपने पुत्र के विद्वान बन कर वापस घर लौटने की प्रतीक्षा कर रही। निर्धनता के कारण कठोर परिश्रम और जीवन-संघर्ष में उसकी माता के स्वास्थ्य ने साथ छोड़ना आरम्भ कर दिया। वह असाध्य श्वास रोग से ग्रस्त हो गयी।
शिवकुमार की माता श्वास रोग के कारण इतनी दुर्बल हो गयी थी कि जब शिवकुमार उपाधि प्राप्त कर घर वापस लौटा तो वह अपनी माता को भी नहीं पहचान पाया। जिस समय वह आया था उस समय उसकी माँ कंकाल के रूप में अपने घर के प्रांगण में एक चारपाई पर पड़ी हुई थी। शिवकुमार उसका मुख देखता रह गया। शिव जब छः वर्ष की आयु में काशी के लिए गया था तो वह उस समय सुकोमल बालक था। आज वह लम्बा-चौड़ा, स्वस्थ तथा दाढ़ी-मूँछ वाला नवयुवक जब उसके सामने खड़ा हुआ तो माता को भी अपने पुत्र को पहचानने में कुछ कठिनाई हुई। दोनों एक-दूसरे का मुख देखते रहे। पहले शिव ने ही अपनी माँ को पहचाना और उसने माँ को प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘माँ ! मैं शिव हूँ।’’
माँ ने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘ईश्वर को अनेक धन्यवाद। बेटा ! तुम समय पर पहुँच गये हो। मैं तो तुम्हें देखने की अभिलाषा ही छोड़ चुकी थी। अच्छा अब तुम एक काम करो। पड़ोस के मकान में जाकर वहाँ से माताजी को बुला लाओ। कहना मैंने बुलाया है।’’
शिव माता की आज्ञापालन करता हुआ पड़ोस के मकान में चला गया। उसने द्वार खटखटाया तो एक युवती द्वार खोलने बाहर आयी। द्वार खोलते ही एक अपरिचित नवयुवक को वहाँ खड़ा देख उसको विस्मय हुआ। उसने पूछा, ‘‘कहिए, किससे मिलना है ?’
’
‘‘मौसी से कहिये कि उनको मेरी माताजी बुला रही हैं।’’
‘‘किन्तु आप कौन हैं ?’’ पूछते हुए युवती मुस्करा पड़ी थी।
‘‘मेरा नाम शिवकुमार है।’’
युवती नहीं समझ पायी तो उसने पूछा, ‘‘आपकी माताजी कहाँ रहती हैं ?’’
शिवकुमार समझ गया कि युवती ने उसको पहिचाना नहीं है। पहिचानना सम्भव भी नहीं था, क्योंकि शिवकुमार जब काशी के लिए गया था तो उस समय वह एक-दो वर्ष की रही होगी। शिवकुमार ने भी अनुमान ही लगाया था कि कदाचित् यह युवती वही होगी। उसने उस युवती को समझाते हुए कहा, ‘‘मेरी माताजी आपके इस साथ वाले गृह में रहती हैं। मैं अभी-अभी काशी से वापस लौटा ही था कि मेरी माताजी ने मुझे उलटे पाँव आपकी माताजी को बुलाने के लिए भेज दिया है।’’
यह सब सुन और शिवकुमार की ओर देखकर युवती का मुख लज्जा से लाल हो गया और वह भागती-सी घर के भीतर चली गयी। शिव को लड़की के इस लज्जालू स्वभाव पर आश्चर्य हो ही रहा था कि तभी प्रौढ़ावस्था की एक महिला बाहर निकलकर आयी और उसने भी शिवकुमार को सिर से पाँव तक एक दृष्टि में देख लिया। फिर कुछ सन्तोष-सा व्यक्त करती हुई उससे पूछने लगी ‘‘तुम शिवकुमार हो ?’’
‘‘जी।’’ शिव ने उत्तर में कहा। वह उस प्रौढ़ा को पहचान गया था। फिर बोला, ‘‘बहुत बदल गया हूँ न ?’’
यह उसके बाल सखा रामेश्वर का घर था और वह प्रौढ़ा उसकी माता थी। शिवकुमार ने उसको पहचाना तो उसने झुककर उनको प्रणाम किया। निर्मला देवी ने शिव को आशीर्वाद दिया और बोली, ‘‘चलो, मैं अभी तुम्हारे घर चलती हूँ।’’
इस प्रकार दोनों शिवकुमार के घर पहुँच उसकी माता की चारपाई के पास जाकर खड़े हो गये। शिवकुमार की माता ने दोनों को आये देख अपने पुत्र से कहा, ‘‘बेटा ! तनिक आश्रय देकर मुझे उठाकर बैठाओ तो।’’
शिवकुमार ने वैसा ही किया और अपनी माता को चारपाई पर सावधानी से बैठा दिया। कुछ स्वस्थ होने पर वह अपनी पड़ोसिन निर्मला देवी से कहने लगी,
‘‘बहिन ! यह शिव आ गया है। किन्तु मैं तो जा रही हूँ। मैं अब अधिक नहीं टिक सकती। यदि सम्भव हो सके तो मेरी मनोकामना पूर्ण कर दो।’’
निर्मला बोली, ‘‘रामेश्वर के पिता बाहर गये हुए हैं, उनके आते ही मैं उनसे बात करूँगी।’’
‘‘कहाँ गये हैं वे ?’’
‘‘प्रातःकाल ही हस्तिनापुर चले गये थे। अब आने वाले ही होंगे।’’
‘‘देखो बहिन ! अब समय बहुत ही कम रह गया है।’’
‘‘मैं कल तक कर देने के लिए कह दूँगी।’’
‘‘नहीं बहिन ! आज ही हो जाय तो ठीक है। कल तक तो....।’’
निर्मला समझ गयी थी, इसलिए बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘अच्छा शिव अभी स्नान आदि कर ले। मैं अभी आती हूँ।’’
इतना कहकर निर्मला अपने घर को चल दी। उसके जाने पर राधा ने अपने पुत्र से कहा, ‘‘शिव बेटा ! शीघ्र स्नान करके अपने वस्त्र बदल डालो। देखो, मैंने निर्मला बहिन से तुम्हारे विवाह के विषय में कहा है। कहीं अन्यत्र मेरी कोई प्रतीक्षा कर रहा है, इसलिए मैं यह कार्य जल्दी करने के लिए कह रही हूँ।’’
शिव भी निर्मला देवी के साथ हुए वार्तालाप का अभिप्राय समझ गया था, इसलिए माता की आज्ञा का पालन करता हुआ वह स्नान के लिए चला गया। वह प्रातःकाल सूर्योदय से एक मुहुर्त पहले चला था। घर पहुँचने तक उसने तीन योजन यात्रा की थी और वह इस यात्रा में धूल से भर गया था। उसने स्नान किया और फिर नये वस्त्र धारण कर जब वह पुनः अपनी माता के समक्ष उपस्थित हुआ तो उस समय उसके पड़ोसी ईश्वरकृष्ण भी वहाँ आ गये थे। उन्हें देख उसने प्रणाम किया।
ईश्वरकृष्ण ने उसी आशीर्वाद देते हुए पूछा, ‘‘बैठो बेटा ! सुनाओ क्या-क्या पढ़कर आए हो ?’’
‘‘चाचाजी ! पढ़ा तो बहुत कुछ है, जैसे वेद, दर्शन, उपनिषद्, पुराण आदि। तात्पर्य यह है कि मुझे न्यायभूषण की उपाधि प्राप्त हो गयी है।’’
‘‘अति उत्तम। तुम्हारे पिता तर्कभूषण थे, तुम न्यायभूषण बन गये हो। परमात्मा से प्रार्थना है कि वह तुम्हें सिद्धि और यश प्रदान करे।’’
शिवकुमार की माँ चारपाई पर बैठी थी। अपने पुत्र को देख उसको सन्तोष हुआ था और अब उसकी सफलता की बात सुनकर उसको सुख का अनुभव हो रहा था। ईश्वरकृष्ण समीप बिछी चटाई पर बैठा था। उसने शिवकुमार को भी अपने समीप बैठा लिया। शिवकुमार के बैठने पर उसने कहा, ‘‘भोजन आ रहा है। मैंने अपने पुरोहितजी को भी बुलवा लिया है। पुरोहितजी के आते ही विवाह-संस्कार का प्रबन्ध कर देंगे।’’
विवाह की बात सुन सहसा राधा के मुख से निकल गया, ‘‘भैया ! जुग-जुग जियो।’’
शिव के लिए भोजन आया तो ईश्वरकृष्ण ने कहा, ‘‘लो, भोजन कर लो। यात्रा से थक गये होगे। भोजन करके कुछ देर विश्राम कर लेना।’’
शिव ने वैसा ही किया। भोजन समाप्त कर वह भीतर गया और वहाँ एक चारपाई डालकर उस पर लेट गया। वास्तव में वह बहुत थक गया था। लगभग दो घड़ी विश्राम करके जब शिव बाहर आया तो तब तक ईश्वरकृष्ण का पुरोहित आ चुका था तथा वहीं प्रांगण में मण्डप तैयार किया जा रहा था।
प्रांगण में काफी भीड़ एकत्र हो गयी थी। ईश्वरकृष्ण के सभी परिजन और समीप रहने वाले नाते-रिश्तेदार तथा गाँव के अन्यान्य व्यक्ति वहाँ एकत्रित हो गये थे। कुछ देर बाद जब एक कन्या विवाह योग्य वस्त्र धारण करके उसके प्रांगण में लायी गयी तो शिव उसको देखते ही पहचान गया। यह वही कन्या थी जो अभी दो-तीन घड़ी पूर्व उसको ईश्वरकृष्ण के द्वार पर मिली थी। उस समय वह शिव का नाम सुनकर लज्जा से भीतर भाग गयी थी।
शिवकुमार उसको देखकर मुस्करा दिया। कन्या के साथ उसकी माता निर्मला देवी थी। शिव को मुस्कराता देख वह पूछने लगी, ‘‘क्यों शिव ! पसन्द है न ?’’
प्रश्न सुनकर शिव ने कुछ उत्तर तो नहीं दिया किन्तु उसके भावों से कृतज्ञता झलक रही थी।
मण्डप आदि बन जाने पर विवाह हुआ और फिर सभी उपस्थित जनों ने मिलकर जलपान आदि किया। इस विवाह से सबको ही प्रसन्नता हो रही थी। शिवकुमार की माँ भी चारपाई से उठकर उस समूह में सम्मिलित हो गयी थी। उसने अपनी पुत्रवधू चन्द्रमुखी की पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी ! सुनो। मैं अपने पुत्र को तुम्हारे हाथों में सौंपकर जा रही हूं। भगवान् की कृपा से वह पढ़ लिख कर विद्वान् बनकर आया है। तुम इसे प्यार से रखोगी तो यह भी तुम्हें प्यार से रखेगा और तुम्हें संसार का सब सुख देने का यत्न करेगा। ईश्वर की कृपा हुई तो तुम दोनों का परिवार शीघ्र ही सुख-समृद्धि और सन्तति वाला हो जायेगा।’’
‘‘हाँ देवी ! तुम्हारा अनुमान सत्य है। आज एक विशेष घटना घटी है।’’
‘‘क्या ?’’
तब तक पण्डित शिवकुमार और उसकी पत्नी द्वार से प्रांगण में पहुँच गये थे। वहाँ दीवार के सहारे खड़ी की गयी चारपाई को चन्द्रमुखी ने प्रांगण में बिछा दिया और पति को उस पर बैठने के लिए कहने के उपरान्त पूछने लगी, वह शुभ साचार अभी बतायेंगे अथवा दूध पीने के उपरान्त कुछ तरो-ताजा होकर ?’’
‘‘समाचार इतना सुखकर है कि उससे भूख भी लग आयी है, इसलिए पहले दूध ले आओ, इसके बाद तुम्हें समाचार सुनाऊँगा।’’
शुभ समाचार सुनने की लालसा में पण्डितजी की पत्नी तेजी से रसोईघर में घुसी और उसे गर्म करने के लिए अँगीठी पर रख दिया।
पण्डित शिवकुमार गाँव की पाठशाला में ही अध्यापक था। उस पाठशाला में दस वर्ष से कम आयु के बालक और बालिकायें पढ़ने के लिए आया करते थे। पाठशाला का कार्य मध्याह्नतर समाप्त हो जाया करता था।
शिवकुमार के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। उसके पिता का स्वर्गवास तो उसके होश सम्हालने से पहले ही हो गया था। बड़ा होने पर वह विद्याध्ययन के लिए काशी चला गया था और जब वह अपना अध्ययन पूर्ण कर घर लौटा तो तभी उसकी माता परलोक सिधार गयी।
जिस समय शिवकुमार के पिता का देहान्त हुआ था उस समय उनके घर की आर्थिक स्थिति अति दुर्बल थी। तदपि उसके माता के मन में अपने पुत्र को प्रकाण्ड विद्वान बनाने की उत्कट अभिलाषा थी। शिवकुमार का पिता भी काशी में अध्ययन के लिए गया था। वहाँ से वह तर्कभूषण की उपाधि से विभूषित होकर लौटा था। शिवकुमार की माता की इच्छा थी कि यदि उसका पुत्र अपने पिता से अधिक नहीं तो कम से कम उतनी विद्या तो ग्रहण कर ही ले।
उनके गाँव से आधा कोस के अन्तर पर हस्तिनापुर नगर में उनके एक सम्पन्न यजमान रहते थे। उनका नाम था मुरारी कृष्ण। जिस समय शिवकुमार की आयु छः वर्ष की हुई उसने अपने पुत्र को मुरारी कृष्ण के पुत्र के साथ काशी भेज दिया। मुरारी कृष्ण का पुत्र काशी में रेशमी कपड़ा क्रय करने के लिए जाया करता था। तब शिवकुमार की माँ ने अपने पुत्र को उसे सौंपते हुए कहा था, ‘‘छोटे सेठ ! हमारे शिव को काशी ले जाओ और इसे किसी विद्वान् के पास पढ़ने के लिए बैठा देना। तुम्हारी इस सहायता के लिए मैं आजीवन तुम्हारी ऋणी रहूँगी।’’
मुरारी कृष्ण के लड़के ने शिव को अपने साथ ले जाना स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन उसे अपने साथ लेकर काशी के लिए चल दिया। उस समय केवल दो टका ही शिव की माता ने अपने पुत्र को उसके मार्ग-व्यय आदि के लिए दे पायी थी। इससे अधिक उसके पास था ही नहीं।
मुरारी कृष्ण के पुत्र ने जब देखा कि शिव को वह दो टका बहुत कम-सा लग रहा है तो उसने मुस्कुराते हुए उससे कहा था, ‘‘ले लो शिव !’’ किन्तु ध्यान रखना, इसका एक लाख गुणा करके माँ को लौटाना होगा।’’
तब शिव इसका अर्थ नहीं समझा था और वह विस्मय से सेठ का मुख देखने लगा था। सेठ ने पण्डिताइन को प्रणाम किया और शिव का हाथ पकड़कर उसको अपने रथ पर बैठा लिया। दोनों जब बैठ गये तो रथ पूर्व दिशा की ओर चल दिया।
इस प्रकार छोटे सेठ के सहारे शिव भी काशी जा पहुँचा। पन्द्रह वर्ष तक उसने काशी में अध्ययन किया और न्यायभूषण की उपाधि अर्जित कर वह पन्द्रह वर्ष उपरान्त ही घर लौटकर आया। सेठ मुरारी कृष्ण के परिवार का कोई-न-कोई व्यक्ति समय-समय पर माल क्रय करने के लिए काशी जाता रहता था और वही शिव की माता को शिव का कुशल समाचार और उसके पढ़ने की प्रगति के विषय में बताता रहता था। इस प्रकार शिव की माँ उत्सुकता से अपने पुत्र के विद्वान बन कर वापस घर लौटने की प्रतीक्षा कर रही। निर्धनता के कारण कठोर परिश्रम और जीवन-संघर्ष में उसकी माता के स्वास्थ्य ने साथ छोड़ना आरम्भ कर दिया। वह असाध्य श्वास रोग से ग्रस्त हो गयी।
शिवकुमार की माता श्वास रोग के कारण इतनी दुर्बल हो गयी थी कि जब शिवकुमार उपाधि प्राप्त कर घर वापस लौटा तो वह अपनी माता को भी नहीं पहचान पाया। जिस समय वह आया था उस समय उसकी माँ कंकाल के रूप में अपने घर के प्रांगण में एक चारपाई पर पड़ी हुई थी। शिवकुमार उसका मुख देखता रह गया। शिव जब छः वर्ष की आयु में काशी के लिए गया था तो वह उस समय सुकोमल बालक था। आज वह लम्बा-चौड़ा, स्वस्थ तथा दाढ़ी-मूँछ वाला नवयुवक जब उसके सामने खड़ा हुआ तो माता को भी अपने पुत्र को पहचानने में कुछ कठिनाई हुई। दोनों एक-दूसरे का मुख देखते रहे। पहले शिव ने ही अपनी माँ को पहचाना और उसने माँ को प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘माँ ! मैं शिव हूँ।’’
माँ ने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘ईश्वर को अनेक धन्यवाद। बेटा ! तुम समय पर पहुँच गये हो। मैं तो तुम्हें देखने की अभिलाषा ही छोड़ चुकी थी। अच्छा अब तुम एक काम करो। पड़ोस के मकान में जाकर वहाँ से माताजी को बुला लाओ। कहना मैंने बुलाया है।’’
शिव माता की आज्ञापालन करता हुआ पड़ोस के मकान में चला गया। उसने द्वार खटखटाया तो एक युवती द्वार खोलने बाहर आयी। द्वार खोलते ही एक अपरिचित नवयुवक को वहाँ खड़ा देख उसको विस्मय हुआ। उसने पूछा, ‘‘कहिए, किससे मिलना है ?’
’
‘‘मौसी से कहिये कि उनको मेरी माताजी बुला रही हैं।’’
‘‘किन्तु आप कौन हैं ?’’ पूछते हुए युवती मुस्करा पड़ी थी।
‘‘मेरा नाम शिवकुमार है।’’
युवती नहीं समझ पायी तो उसने पूछा, ‘‘आपकी माताजी कहाँ रहती हैं ?’’
शिवकुमार समझ गया कि युवती ने उसको पहिचाना नहीं है। पहिचानना सम्भव भी नहीं था, क्योंकि शिवकुमार जब काशी के लिए गया था तो उस समय वह एक-दो वर्ष की रही होगी। शिवकुमार ने भी अनुमान ही लगाया था कि कदाचित् यह युवती वही होगी। उसने उस युवती को समझाते हुए कहा, ‘‘मेरी माताजी आपके इस साथ वाले गृह में रहती हैं। मैं अभी-अभी काशी से वापस लौटा ही था कि मेरी माताजी ने मुझे उलटे पाँव आपकी माताजी को बुलाने के लिए भेज दिया है।’’
यह सब सुन और शिवकुमार की ओर देखकर युवती का मुख लज्जा से लाल हो गया और वह भागती-सी घर के भीतर चली गयी। शिव को लड़की के इस लज्जालू स्वभाव पर आश्चर्य हो ही रहा था कि तभी प्रौढ़ावस्था की एक महिला बाहर निकलकर आयी और उसने भी शिवकुमार को सिर से पाँव तक एक दृष्टि में देख लिया। फिर कुछ सन्तोष-सा व्यक्त करती हुई उससे पूछने लगी ‘‘तुम शिवकुमार हो ?’’
‘‘जी।’’ शिव ने उत्तर में कहा। वह उस प्रौढ़ा को पहचान गया था। फिर बोला, ‘‘बहुत बदल गया हूँ न ?’’
यह उसके बाल सखा रामेश्वर का घर था और वह प्रौढ़ा उसकी माता थी। शिवकुमार ने उसको पहचाना तो उसने झुककर उनको प्रणाम किया। निर्मला देवी ने शिव को आशीर्वाद दिया और बोली, ‘‘चलो, मैं अभी तुम्हारे घर चलती हूँ।’’
इस प्रकार दोनों शिवकुमार के घर पहुँच उसकी माता की चारपाई के पास जाकर खड़े हो गये। शिवकुमार की माता ने दोनों को आये देख अपने पुत्र से कहा, ‘‘बेटा ! तनिक आश्रय देकर मुझे उठाकर बैठाओ तो।’’
शिवकुमार ने वैसा ही किया और अपनी माता को चारपाई पर सावधानी से बैठा दिया। कुछ स्वस्थ होने पर वह अपनी पड़ोसिन निर्मला देवी से कहने लगी,
‘‘बहिन ! यह शिव आ गया है। किन्तु मैं तो जा रही हूँ। मैं अब अधिक नहीं टिक सकती। यदि सम्भव हो सके तो मेरी मनोकामना पूर्ण कर दो।’’
निर्मला बोली, ‘‘रामेश्वर के पिता बाहर गये हुए हैं, उनके आते ही मैं उनसे बात करूँगी।’’
‘‘कहाँ गये हैं वे ?’’
‘‘प्रातःकाल ही हस्तिनापुर चले गये थे। अब आने वाले ही होंगे।’’
‘‘देखो बहिन ! अब समय बहुत ही कम रह गया है।’’
‘‘मैं कल तक कर देने के लिए कह दूँगी।’’
‘‘नहीं बहिन ! आज ही हो जाय तो ठीक है। कल तक तो....।’’
निर्मला समझ गयी थी, इसलिए बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘अच्छा शिव अभी स्नान आदि कर ले। मैं अभी आती हूँ।’’
इतना कहकर निर्मला अपने घर को चल दी। उसके जाने पर राधा ने अपने पुत्र से कहा, ‘‘शिव बेटा ! शीघ्र स्नान करके अपने वस्त्र बदल डालो। देखो, मैंने निर्मला बहिन से तुम्हारे विवाह के विषय में कहा है। कहीं अन्यत्र मेरी कोई प्रतीक्षा कर रहा है, इसलिए मैं यह कार्य जल्दी करने के लिए कह रही हूँ।’’
शिव भी निर्मला देवी के साथ हुए वार्तालाप का अभिप्राय समझ गया था, इसलिए माता की आज्ञा का पालन करता हुआ वह स्नान के लिए चला गया। वह प्रातःकाल सूर्योदय से एक मुहुर्त पहले चला था। घर पहुँचने तक उसने तीन योजन यात्रा की थी और वह इस यात्रा में धूल से भर गया था। उसने स्नान किया और फिर नये वस्त्र धारण कर जब वह पुनः अपनी माता के समक्ष उपस्थित हुआ तो उस समय उसके पड़ोसी ईश्वरकृष्ण भी वहाँ आ गये थे। उन्हें देख उसने प्रणाम किया।
ईश्वरकृष्ण ने उसी आशीर्वाद देते हुए पूछा, ‘‘बैठो बेटा ! सुनाओ क्या-क्या पढ़कर आए हो ?’’
‘‘चाचाजी ! पढ़ा तो बहुत कुछ है, जैसे वेद, दर्शन, उपनिषद्, पुराण आदि। तात्पर्य यह है कि मुझे न्यायभूषण की उपाधि प्राप्त हो गयी है।’’
‘‘अति उत्तम। तुम्हारे पिता तर्कभूषण थे, तुम न्यायभूषण बन गये हो। परमात्मा से प्रार्थना है कि वह तुम्हें सिद्धि और यश प्रदान करे।’’
शिवकुमार की माँ चारपाई पर बैठी थी। अपने पुत्र को देख उसको सन्तोष हुआ था और अब उसकी सफलता की बात सुनकर उसको सुख का अनुभव हो रहा था। ईश्वरकृष्ण समीप बिछी चटाई पर बैठा था। उसने शिवकुमार को भी अपने समीप बैठा लिया। शिवकुमार के बैठने पर उसने कहा, ‘‘भोजन आ रहा है। मैंने अपने पुरोहितजी को भी बुलवा लिया है। पुरोहितजी के आते ही विवाह-संस्कार का प्रबन्ध कर देंगे।’’
विवाह की बात सुन सहसा राधा के मुख से निकल गया, ‘‘भैया ! जुग-जुग जियो।’’
शिव के लिए भोजन आया तो ईश्वरकृष्ण ने कहा, ‘‘लो, भोजन कर लो। यात्रा से थक गये होगे। भोजन करके कुछ देर विश्राम कर लेना।’’
शिव ने वैसा ही किया। भोजन समाप्त कर वह भीतर गया और वहाँ एक चारपाई डालकर उस पर लेट गया। वास्तव में वह बहुत थक गया था। लगभग दो घड़ी विश्राम करके जब शिव बाहर आया तो तब तक ईश्वरकृष्ण का पुरोहित आ चुका था तथा वहीं प्रांगण में मण्डप तैयार किया जा रहा था।
प्रांगण में काफी भीड़ एकत्र हो गयी थी। ईश्वरकृष्ण के सभी परिजन और समीप रहने वाले नाते-रिश्तेदार तथा गाँव के अन्यान्य व्यक्ति वहाँ एकत्रित हो गये थे। कुछ देर बाद जब एक कन्या विवाह योग्य वस्त्र धारण करके उसके प्रांगण में लायी गयी तो शिव उसको देखते ही पहचान गया। यह वही कन्या थी जो अभी दो-तीन घड़ी पूर्व उसको ईश्वरकृष्ण के द्वार पर मिली थी। उस समय वह शिव का नाम सुनकर लज्जा से भीतर भाग गयी थी।
शिवकुमार उसको देखकर मुस्करा दिया। कन्या के साथ उसकी माता निर्मला देवी थी। शिव को मुस्कराता देख वह पूछने लगी, ‘‘क्यों शिव ! पसन्द है न ?’’
प्रश्न सुनकर शिव ने कुछ उत्तर तो नहीं दिया किन्तु उसके भावों से कृतज्ञता झलक रही थी।
मण्डप आदि बन जाने पर विवाह हुआ और फिर सभी उपस्थित जनों ने मिलकर जलपान आदि किया। इस विवाह से सबको ही प्रसन्नता हो रही थी। शिवकुमार की माँ भी चारपाई से उठकर उस समूह में सम्मिलित हो गयी थी। उसने अपनी पुत्रवधू चन्द्रमुखी की पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी ! सुनो। मैं अपने पुत्र को तुम्हारे हाथों में सौंपकर जा रही हूं। भगवान् की कृपा से वह पढ़ लिख कर विद्वान् बनकर आया है। तुम इसे प्यार से रखोगी तो यह भी तुम्हें प्यार से रखेगा और तुम्हें संसार का सब सुख देने का यत्न करेगा। ईश्वर की कृपा हुई तो तुम दोनों का परिवार शीघ्र ही सुख-समृद्धि और सन्तति वाला हो जायेगा।’’
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