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हिन्दुत्व की यात्रा

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5409
आईएसबीएन :0000

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हिन्दुत्व की यात्रा...

Hindutva Ki Yatra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

‘हिन्दुत्व की यात्रा’ नाम से ही पुस्तक का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट हो जाता है। प्रस्तुत पुस्तक द्वारा विद्वान लेखक ने आदिकाल से आरम्भ कर अब तक के आर्य-हिन्दू की जीवन मीमांसा का विशद वर्णन किया है। न केवल इतना, अपितु उन्होंने तथाकथित पाश्चात्य पण्डितों ने भारतीय मानस-पुत्रों, उनकी धारणाओं एवं मान्यताओं का निवारण एवं निराकरण भी किया है जो आर्य-हिन्दू को यहां का मूल निवासी नहीं मानते।

उन विकृत इतिहासकारों को भी इस पुस्तक में दो टूक उत्तर देने का प्रयास किया गया है जो आर्यों के प्राचीन ऐतिह्य की न केवल अनदेखी करते हैं, अपितु उसका उपहास भी करते रहे हैं।

लेखक की युक्तियुक्त मान्यता है कि हिन्दुत्व की यात्रा में आज सबसे बड़ी बाधा मैकाले द्वारा चलाई गई शिक्षा, जिसने प्रायः सभी को दिग्भ्रमित कर दिया है। यहां तक कि हिन्दू संगठन का कार्य करने के लिए कटिबद्ध भी, उसी शिक्षा की उपज होने से, हिन्दू विरोधी रूख अपनाने में लीन हैं।
विशेषतया ऐसे ही लोगों के मस्तिष्क को झकझोरने के लिए लेखक ने इस विषय पर कलम उठाई है।
आशा है हमारे पाठक तथा हिन्दुत्व प्रेमी इससे प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगे।


अशोक कौशिक

 

प्राक्कथन

हिन्दुत्व का अभिप्राय है—हिन्दुस्तान देश के रहने वालों का आचार-विचार; केवल आज के युग के रहने वालों का ही नहीं, वरन् आदिकाल से इस भूखण्ड पर रहने वालों का आचार-विचार।

संशय यह किया जाता है कि आजकल के रहने वालों का आचार-विचार वह नहीं रहा हो आज से दो-तीन सहस्र वर्ष पूर्व निवासियों का था। आदिकाल की तो बात ही दूसरी है।

वर्तमान युग के अंग्रेजी तथा यूरोपियन सभ्यता से प्रभावित इतिहासकार यह समझते हैं कि यूरोप की उन्नत जातियों की भांति हिन्दुस्तान के वर्तमान रहने वालों के पूर्वज इस भूखण्ड पर रहते ही नहीं थे। यहां के मूल निवासी तो भील, गोंड, नाग, इत्यादि वन्य जातियों के लोग हैं। वर्तमान काल में इस देश पर शासन करने वाले तथा यहां की भूमि एवं अन्य प्राकृतिक सम्पत्ति पर आधिपत्य रखने वाले तो कहीं बाहर से आए हैं। उनका विचार है कि वर्तमान हिन्दुस्तानी मध्य एशिया से अथवा यूरोप-एशिया के मध्यवर्ती किसी देश से आये थे।


इसके साथ ही वे लोग यह भी कहते हैं कि इस देश का नाम आर्यों के आने से पहले क्या था, पता नहीं। आर्य जब यहाँ आए तो उन्होंने इस देश का नाम भारतवर्ष रखा था। पीछे जब आर्य लोग यहां स्थायी रूप में रहने लगे थे और बाहर के रहने वाले भारत पर आक्रमण करने लगे थे, तब विदेशियों ने इस देश का नाम, जो सिन्द नदी के पूर्व की ओर था, हिन्दुस्तान रखा था।

वर्तमान युग के इतिहासकार यह भी कहते हैं कि आज भारत में रहने वालों की एक जाति नहीं। उत्तरी भारत में रहने वाले भिन्न जाति के हैं और दक्षिण में रहने वाले द्रविण जाति के हैं। वे समुद्र पार से यहां आये थे। भारत के पूर्व में रहने वाले भी आर्य समुदाय से नहीं हैं। कुछ तो अज्ञातकाल से यहां रहते हैं। कुछ गोंड इत्यादि लोग हैं, और भी कई नस्लें यहां की रहने वाली हैं।

हम इसको मिथ्या प्रलाप मानते हैं। हमारे पास यूरोप वालें से अधिक समृद्ध प्राचीन इतिहास है। इस पर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि भारत के रहने वाले ही जो अंग्रेजी मिथ्यावाद से शिक्षित हैं अथवा जो अनपढ़, परन्तु अपने को पढ़े-लिखे मानने वाले यहां के ब्राह्मण देवता हैं, इस इतिहास के विषय में इस मिथ्यावाद का उत्तर नहीं दे सकते। इस असमर्थता का कारण इस देश में पिछले एक-डेढ़ सहस्र वर्ष का विदेशी राज्य रहा है।

विदेशियों का लम्बे काल तक राज्य रहने के कारण यहां के मूल निवासियों का बौद्धिक विकास नहीं हो सका।

वस्तुस्थिति यह है कि आज का हिन्दू इस देश में लाखों वर्ष से रहता आया है। हमारे देश के इतिहास के ग्रन्थों में और चाहे कुछ अशुद्ध तथा अस्पष्ट हो, परन्तु इस विषय में सब एकमत हैं कि यहां के रहने वाले और आज के अपने को हिन्दू कहने वालों के पूर्वज कम-से-कम उन्नीस-बीस लाख वर्ष से यहां रहते आये हैं।

यह किस प्रकार है ? इसे समझने की आवश्यकता है। हम जाति, नसल अथवा रंग-रूप से नहीं मानते। वे लोग एक जाति के समझे जाते हैं जिनका आचार-विचार समान हो। आज के इस देश, जिसे सन् 1947 से भारत अर्थात् इण्डिया कहा जा रहा है, के बहुसंख्यक कुछ सांझी मान्यताएं स्वीकार करते हैं, जिन्हें लाखों वर्ष पूर्व यहां के रहने वाले भी स्वीकार करते थे।
वे सांझी मान्यताएं इस प्रकार हैं—

(1)    एक परमात्मा है जो इस जगत् का निर्माण करने वाला है और वर्तमान जगत् को एक अरब, सत्तानवे करोड़ वर्ष से चला रहा है।
(2)    मनुष्य में एक तत्त्व जीवात्मा है जो कर्म करने में स्वतंत्र है। इसके कर्म करने की सामर्थ्य पर सीमा तो है। वह इसकी अल्प शक्ति और अल्प ज्ञान के कारण है। इसपर भी उस सीमा के भीतर यह कार्य करने में स्वतंत्र है।
(3)    कर्म का फल इस जीवात्मा के हाथ में नहीं है। वह ऋतों (Natural laws) के अनुसार जीवात्मा  को भुगतना पड़ता है।
(4)    ये दोनों तत्त्व (परमात्मा था जीवात्मा) अनादि, अविनाशी हैं। एक असीम शक्ति और ज्ञान का स्वामी है और दूसरा अल्प शक्ति और ज्ञान का। अल्प ज्ञान वाला संसार के मोहजाल में फंस जाता है और बार-बार जन्म लेता है। इन जन्मों के लेने में दो प्रकार की गतियां हैं। एक ऊपर को अर्थात् निम्न कोटि के जन्तुओं से श्रेष्ठ कोटि के जन्तुओं की ओर और दूसरी उच्च कोटि के जन्तुओं से निम्न कोटि के जन्तुओं की ओर ले जाती है। ऊपर की गति का अन्त ब्रह्मधाम में है।
(5)    प्राणी का शरीर और अन्य निर्जीव वस्तुएं प्रकृति की बनी हैं। दोनों आत्म तत्त्व प्रकृति से भिन्न हैं। प्रकृति चेतना और गति शून्य है।
(6)    मानव जीवन में मनुष्य का स्तर उसके गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार होता है। एक परिवार में, एक जाति में अथवा एक राष्ट्र में एवं मनुष्य समाज में भी गुण, कर्म, स्वभाव से ही मनुष्य का मूल्यांकन किया जाता है।
(7)    व्यवहार में यह सिद्धान्त है कि जैसा एक प्राणी अपने साथ व्यवहार चाहता है, वैसा वह दूसरों के साथ करे।
(8)    सबके लिए व्यवहार की सांझी बात है—धैर्य, क्षमा, दया, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना, शरीर और व्यवहार की शुद्धता, इन्द्रियों पर नियंत्रण, बुद्धि का प्रयोग, ज्ञान का संचय, सत्य (मन, वचन और कर्म से) व्यवहार और क्रोध न करना, ये दस लक्षण वाला धर्म माना जाता है।
(9)    प्रत्येक व्यक्ति के लिए बुद्धि, तर्क और प्रकृतिक ऋतों (Natural laws) से सिद्ध बात ही माननीय है। यही व्यवहार श्रेष्ठ समझा जाता है।

इस प्रकार की आचार-व्यवहार सम्बन्धी कुछ मान्यताएं हैं जो इस देश में लाखों वर्ष से बसे जनसमूह में स्वीकार की गयी हैं।

ये लोग किसी समय वेदमत को मानने वाले कहे जाते थे। इन्हीं का नाम पीछे भारतीय पड़ा और अब हिन्दू है। इस जनसमूह में बाहर से कई अन्य भूखण्डों से लोग आये और इन मान्यताओं को स्वीकार कर भारतीयों में मिल गये। कई भिन्न-भिन्न रूप-रंग के लोग इस देश में आये और वे भी इन मान्यताओं को स्वीकार कर इनके साथ एक हो गये।

इस कारण हम कहते हैं कि मनुष्यों में जाति न तो देश में रहने से बनती है, न ही काले-गोरे रंग से बनती है। इसका लक्षण चपटे नाक वाले अथवा उभरी हुई गालों की हड्डी से भी नहीं है। ये तथा कुछ अन्य मान्यताएँ हैं जिससे भारत में रहने वाले भारतीय कहे जाते थे और आजकल हिन्दू कहे जाते हैं।

ऐसी मान्यताओं वाले हिन्दुस्तान में सन् 1947 से पहले लगभग बत्तीस-तैंतीस करोड़ लोग थे और इस प्रकार की मान्यताओं को न मानने वाले भी कुछ लोग हैं जो इस देश (हिन्दुस्तान) में रहते थे। उनकी संख्या लगभग सात-आठ करोड़ थी।

सन् 1947 से पूर्व इस देश में राज्य अंग्रेज जाति के हाथ में था। अंग्रेज अपनी जाति किसी आचार-विचार के आधार पर नहीं मानते थे। उन्होंने जाति में उन लोगों को ही स्वीकार किया था जो इंग्लैण्ड में पैदा हुए और जिन्होंने वहां के नागरिकों के रजिस्टर में अपने नाम लिखवाये हुए हैं। वहां के उत्पन्न हुओं का रंग गोरा और कुछ नाक-कान इत्यादि की बनावट भी विशेष प्रकार की है।

ये लोग भारत में आए और बल-छल से यहां के राजा बन गये। इन अंग्रेजों में भी उक्त मान्यताओं को मानने वाले कुछ हैं, जो मान्यताएं यहां के मूल निवासी हिन्दू मानते हैं। इस पर भी वे अपने जन्म के कारण अपनी एक पृथक् जाति मानते हैं।
हिन्दू तो अपने तथा पराए में भेद मान्यताओं के कारण मानते थे। हिन्दू समुदाय में जन्म, रूप-रंग, राशि जाति के लक्षण नहीं माने जाते।

अंग्रेजों से पहले इस देश में मुसलमान आये। मुसलमान मज़हब के आधार पर जाति मानते हैं। मजहब भी मान्यताओं के साथ सम्बन्ध रखता है। परन्तु एक मज़हब की मान्यताएं उन मान्यताओं और आचार-विचार से भिन्न हैं जो हमने ऊपर भारतीय अथवा हिन्दुओं के गिनाये हैं। सब मज़हबों में एक बात सांझी है। वह यह कि कोई पीर, पैगम्बर, मुर्शिद गुरु, अवतार अथवा कोई धर्म पुस्तक, बिना हील-हुज्जत के स्वीकार की जाती है।

यह बात भारतीय अर्थात् हिन्दुओं की नहीं है। जो मान्यताएं हमने ऊपर गिनाई हैं, उनमें किसी गुरु, पीर, पैगम्बर अथवा इल्हामी पुस्तक का नाम नहीं है। कुछ आचरण हैं और कुछ स्वीकारोक्तियां हैं। उनमें भी एक शर्त है। वह यह कि जो बात प्राकृतिक नियमों के विपरीत हो और जो तर्क अर्थात् बुद्धि से सिद्ध न हो सके, वह माननीय नहीं।

हिन्दुओं की एक सर्व प्रतिष्ठित पुस्तक भगवद्गीता में यह कहा जाता है कि-

 

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।

 

(भ. गीता 2-49)


अर्थ है—बुद्धि के संयोग से दूर (हटकर) कर्म तुच्छ है। इस कारण बुद्धि की शरण में आओ। फल की इच्छा से किया गया कर्म अत्यन्त हीन होता है।
यहां तक कि हिंदू जाति में वेद को अपौरुषेय मानने में भी बुद्धि ही का योग है। परमात्मा, जीवात्मा, कर्मफल इत्यादि मान्यताओं का मानना भी बुद्धि से ही है।

उदाहरण के रूप में परमात्मा के अस्तित्व को तर्क से सिद्ध होने पर ही स्वीकार किया जाता है।

पहले तर्क का अर्थ समझना चाहिए। तर्क प्रत्यक्ष पर आधारित होना चाहिए तर्क से सिद्ध करने वाली युक्ति को अनुमान-प्रमाण कहते हैं।
सांख्य दर्शन में अनुमान-प्रमाण के विषय में इस प्रकार लिखा है—


अचाक्षुषाणामनुमानेन बोधो धूमादिभिरिव वह् नेः।।

 

(सांख्य दर्शन 1-60)

 

अर्थ है—जो वस्तु (सूक्ष्मता के विचार से अथवा दूरी के विचार से) इन्द्रियातीत हो, उसे अनुमान से सिद्ध किया जाता है। जैसे धुआं इत्यादि देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है।
अनुमान की भी परिभाषा है।
जब दो वस्तुओं का परस्पर सम्बन्ध देखा गया हो तो एक को देखकर दूसरे का अनुमान, प्रत्यक्ष समान सिद्ध है। जैसे धूम्रादि से अगिन का ज्ञान होता है।


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