पौराणिक >> गंगा की धारा गंगा की धारागुरुदत्त
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एक पौराणिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सम्पादकीय
हमारी यह मान्यता रही है कि उपन्यास-सम्राट्
स्व० श्री गुरुदत्त कालातीत
साहित्य के स्रष्टा थे। साहित्य का, विशेषतया उपन्यास साहित्य का, सबसे
बड़ा समालोचन समय होता है। सामान्यता यह देखने में आता है कि अधिकांश
उपन्यासकारों का गौरव अल्पकालीन होता है इसका मुख्य कारण होता
है उसकी रचना की महत्ता का अल्पकाल में प्रभावशून्य हो जाना। वास्तव में
वह रचनाकार ही गौरवशाली माना जाता है जिसकी रचना साहित्य की स्थायी
सम्पत्ति बन जाती है। इसकी यथार्थ परीक्षा काल ही करता है। स्व० श्री
गुरुदत्त उन रचनाकारों में से थे जिनकी कृतियाँ कालातीत हैं। उसका मुख्य
कारण है उनकी रचनाओं का सोद्देश्य होना। क्योंकि उद्देश्य को काल की सीमा
में नहीं बाँधा जा सकता है, अतः उसके आधार पर रचित साहित्य भी काल की सीमा
में सीमित नहीं किया जा सकता। यदि लेखक किसी उद्देश्य विशेष को आधार बनाकर
रचना नहीं करता है तो वह श्रेष्ठ लेखक नहीं कहा जा सकेगा।
स्व० गुरुदत्त के उपन्यासों की अनेक प्रकार से आलोचनाएँ होती रही हैं। उन्हें हम समीक्षा नहीं कह सकते, वे विशुद्ध आलोचनाएँ ही थीं। उन आलोचनाओं का मुख्य कारण था उपन्यासकार के रूप में स्व० श्री गुरुदत का लोकप्रिय होना। शिविर विशेष से सम्बन्धित उपन्यासकार जब स्व० श्री गुरुदत्त की भाँति लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सके तो उन्होंने श्री गुरुदत्त की आलोचना में ही अपना समय व्यतीत करना आरम्भ किया। इसका सुपरिणाम यह हुआ। आलोचक के पक्ष में नहीं अपितु आलोच्य के पक्ष में। उपन्यासकार और उसकी कृतियाँ इसमें अधिकाधिक लोकप्रिय होती गयीं। इन आलोचनाओं में एक आक्षेप था उनकी कृतियों में उपदेशात्मकता की अत्यधिक मात्रा। किन्तु हमारे उपन्यासकार ने इसे किसी प्रकार का कोई अवगुण नहीं स्वीकार किया। उनका कहना था कि लेखक की रसपूर्ण रचना यदि सदुपदेश भी देती है तो इसे सोने पर सोहागा ही समझना चाहिए। श्रेष्ठ साहित्य का स्वरूप बुद्धि को व्यावसायात्मिका बनाने वाला होता है। इसी के लिए वे अपनी कृतियों के माध्यम से यत्नशील भी रहे।
स्व० श्री गुरुदत्त के उपन्यासों में कतिपय ऐसे विशेष तत्त्व हैं जो कथाकार को लोकप्रियता की चरमसीमा तक पहुँचने में सदैव सहायक होते हैं। उपन्यासों की घटनात्मकता, स्वभाविक चित्रण, समाज के कटु और नग्न सत्य, इतिहास की वास्तविकता दृष्टि, घटनाओं की आकस्मिकताएँ तथा अनूठी वर्णन-शैली आदि लोकप्रियता को बढ़ाने वाले तत्त्व पाठकों के लिए विशेष आकर्षण बनते हैं। वर्ग-संघर्ष, यौनाकर्षण, चारित्रिक पतनोत्थान, व्यर्थ का दिखावा और चकाचौंध में छिपी कटुता, नग्नता और भ्रष्टाचार का सुन्दर अंकन उनके उपन्यासों को जनमानस के निकट ले जाता है। यही उनकी कृतियों के अत्यधिक लोकप्रिय होने का प्रधान कारण रहा है।
उपन्यासकार की यह दृढ़ धारणा थी कि आदिकाल से भारतवर्ष में निवास करने वाला आर्य-हिन्दू समाज ही देश की सुसम्पन्नता और समृद्धि के लिए समर्पित हो सकता है क्योंकि उसका ही इस देश की धरती से मातृवत् सम्बन्ध है। उनका विचार था कि शाश्वत धर्म के रूप में यदि किसी को मान्यता मिलनी चाहिए तो वह एकमात्र ‘वैदिक धर्म’ ही हो सकता है।
प्रस्तुत खण्ड का उपन्यास ‘गंगा की धारा’ ऐतिहासिक उपन्यास है। मुगल सम्राट् अकबर के शासन का कालखण्ड इसमें वर्णित है। इतिहास के कालखण्डों पर लिखे गये उनके उपन्यासों की संख्या कम नहीं है, किन्तु उनमें ‘गंगा की धारा’ का विशेष स्थान इसलिए माना जाना चाहिए कि इसमें ऐतिहासिक वर्णन के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक स्थिति, प्रजा की मानसिकता आदि पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
जो रचनाकार ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना करते हैं, उनका दायित्व इतिहासकार और उपन्यासकार के रूप में द्विगुणित हो जाता है। उपन्यास की औपन्यासिकता बनी रहे, वह शुष्क इतिहास का वर्णन मात्र न रह जाय और साथ ही ऐतिहासिक घटनाओ में किसी प्रकार की विकृति न आने पाये, वह उसका दायित्व है। अपने इस दायित्व को हमारे उपन्यासकार ने बड़ी सुन्दरता से निभाया है।
स्व० श्री गुरुदत्त ने जिन-जिन ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की है उनमें तत्कालीन संस्कृति, सभ्यता और घटनाओं के चित्रण के साथ-साथ उनकी अपनी कल्पना मुखर बनकर घटनाओं के क्रम विपर्यय और आकस्मिक रोमांच का भी निर्माण करती है। उनके द्वारा ऐसे नये पात्रों को प्रस्तुत किया जाता है, जिनका भले ही उपन्यास से दूर का भी सम्बन्ध न हो परन्तु जो उपन्यास के दृष्टिकोण को सबल रूप से प्रस्तुत कर सकें और समय-समय तथा स्थान स्थान पर ऐतिहासिक शैथिल्य का बौद्धिक विश्लेषण भी करते रहें। प्रस्तुत उपन्यास में कर्मचन्द और पूर्णानन्द इसी प्रकार के चरित्र अथवा पात्र हैं।
प्रस्तुत खण्ड में उनका एक ही वृहत् उपन्यास ‘गंगा की धारा’ समाहित है। इसमें उन्होंने राजपूत राजाओं में फूट, हिन्दुओं का पतन, हिन्दू पुनर्जागरण के प्रति समायोजनवादी बौद्घिक दृष्टिकोण आदि बातों पर विशेष बल दिया है। यदि राजपूत राजाओं में पारस्परिक ईष्या, द्वेष और सामान्य-सी बातों पर भी मानापमान की निम्न भावनाएँ न होतीं, तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मुसलमान भारत में टिक नहीं पाते, जम नहीं पाते। वे नहीं जम पाते तो ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में प्रविष्ट होने से पूर्व सौ बार सोचना पड़ता और भारत अंग्रेजों की दासता से पद-दलित न होता। मुसलमान यदि आ भी गये थे तो उसके बाद भी यदि कुछेक राजपूत राजाओं ने निजी स्वार्थवश उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध जोड़कर उनका पक्ष लेना आरम्भ न कर दिया होता और वे राणा प्रताप के पक्ष में एकत्र हो गये होते तो भारत सदैव स्वतन्त्र बना रह सकता था। अकबर के काल में इन राजपूत राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया गया था, जिसका चित्रण प्रस्तुत उपन्यास में किया गया है, किन्तु हिन्दुओं अथवा राजपूतों की हठधर्मिता और स्वार्थान्धता ने उस प्रयास को विफल कर दिया।
स्व० श्री गुरुदत्त का सभी प्रकार के उपन्यासों के रचनाक्रम में विशिष्ट दृष्टिकोण स्पष्ट परिलक्षित होता है। यही बात उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में भी देखने में आती है। वह दृष्टिकोण है अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी बात अर्थात् अपना विशिष्ट दृष्टिकोण पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास करना। इतिहास क्योंकि पूर्वयुगीन राजाओं अथवा बादशाहों, राज्यों और राष्ट्रीय महापुरुषों की कथाओं से सम्बन्धित होता है, इसलिए इस वर्ग के उपन्यासों में उन्होंने अपनी मनन परिधि को भी राजा और प्रजा तथा राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों तक सीमित किया है। अपनी कृतियों में उन्होंने राजा और राज्य का अन्तर, राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध तथा राज्य की सुरक्षा और विकास का एकमात्र साधन एवं बल, इन तीन प्रश्नों का विश्लेषण करके इनका अनुकूल उत्तर देने का प्रयास किया है। वे राजा और प्रजा के पारस्परिक सम्बन्ध को शासन और शासित का नहीं मानते, अपितु वे राजा को प्रजा के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित करने का यत्न करते हैं। उन्होंने इस उपन्यास की घटनाओं के बौधिक विश्लेषण को विशेष स्थान दिया है। सामान्यता कथा कहते-कहते अनेक गम्भीर बातों की ओर भी उन्होंने संकेत किये हैं।
स्व०श्री गुरुदत्त ने जिस विद्या एवं विषय पर अपनी लेखनी चलाई, उसे पूर्णता प्रदान की है। उनकी कृति को आद्योपान्त पढ़ने के उपरान्त पाठक के मन में कोई संशय बचा नहीं रह जाता, यही उनकी विशेषता थी। अपनी इन रचनाओं के माध्यम से वे जन-जन के मानस में सदा विद्यमान रहेंगे।
स्व० गुरुदत्त के उपन्यासों की अनेक प्रकार से आलोचनाएँ होती रही हैं। उन्हें हम समीक्षा नहीं कह सकते, वे विशुद्ध आलोचनाएँ ही थीं। उन आलोचनाओं का मुख्य कारण था उपन्यासकार के रूप में स्व० श्री गुरुदत का लोकप्रिय होना। शिविर विशेष से सम्बन्धित उपन्यासकार जब स्व० श्री गुरुदत्त की भाँति लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सके तो उन्होंने श्री गुरुदत्त की आलोचना में ही अपना समय व्यतीत करना आरम्भ किया। इसका सुपरिणाम यह हुआ। आलोचक के पक्ष में नहीं अपितु आलोच्य के पक्ष में। उपन्यासकार और उसकी कृतियाँ इसमें अधिकाधिक लोकप्रिय होती गयीं। इन आलोचनाओं में एक आक्षेप था उनकी कृतियों में उपदेशात्मकता की अत्यधिक मात्रा। किन्तु हमारे उपन्यासकार ने इसे किसी प्रकार का कोई अवगुण नहीं स्वीकार किया। उनका कहना था कि लेखक की रसपूर्ण रचना यदि सदुपदेश भी देती है तो इसे सोने पर सोहागा ही समझना चाहिए। श्रेष्ठ साहित्य का स्वरूप बुद्धि को व्यावसायात्मिका बनाने वाला होता है। इसी के लिए वे अपनी कृतियों के माध्यम से यत्नशील भी रहे।
स्व० श्री गुरुदत्त के उपन्यासों में कतिपय ऐसे विशेष तत्त्व हैं जो कथाकार को लोकप्रियता की चरमसीमा तक पहुँचने में सदैव सहायक होते हैं। उपन्यासों की घटनात्मकता, स्वभाविक चित्रण, समाज के कटु और नग्न सत्य, इतिहास की वास्तविकता दृष्टि, घटनाओं की आकस्मिकताएँ तथा अनूठी वर्णन-शैली आदि लोकप्रियता को बढ़ाने वाले तत्त्व पाठकों के लिए विशेष आकर्षण बनते हैं। वर्ग-संघर्ष, यौनाकर्षण, चारित्रिक पतनोत्थान, व्यर्थ का दिखावा और चकाचौंध में छिपी कटुता, नग्नता और भ्रष्टाचार का सुन्दर अंकन उनके उपन्यासों को जनमानस के निकट ले जाता है। यही उनकी कृतियों के अत्यधिक लोकप्रिय होने का प्रधान कारण रहा है।
उपन्यासकार की यह दृढ़ धारणा थी कि आदिकाल से भारतवर्ष में निवास करने वाला आर्य-हिन्दू समाज ही देश की सुसम्पन्नता और समृद्धि के लिए समर्पित हो सकता है क्योंकि उसका ही इस देश की धरती से मातृवत् सम्बन्ध है। उनका विचार था कि शाश्वत धर्म के रूप में यदि किसी को मान्यता मिलनी चाहिए तो वह एकमात्र ‘वैदिक धर्म’ ही हो सकता है।
प्रस्तुत खण्ड का उपन्यास ‘गंगा की धारा’ ऐतिहासिक उपन्यास है। मुगल सम्राट् अकबर के शासन का कालखण्ड इसमें वर्णित है। इतिहास के कालखण्डों पर लिखे गये उनके उपन्यासों की संख्या कम नहीं है, किन्तु उनमें ‘गंगा की धारा’ का विशेष स्थान इसलिए माना जाना चाहिए कि इसमें ऐतिहासिक वर्णन के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक स्थिति, प्रजा की मानसिकता आदि पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
जो रचनाकार ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना करते हैं, उनका दायित्व इतिहासकार और उपन्यासकार के रूप में द्विगुणित हो जाता है। उपन्यास की औपन्यासिकता बनी रहे, वह शुष्क इतिहास का वर्णन मात्र न रह जाय और साथ ही ऐतिहासिक घटनाओ में किसी प्रकार की विकृति न आने पाये, वह उसका दायित्व है। अपने इस दायित्व को हमारे उपन्यासकार ने बड़ी सुन्दरता से निभाया है।
स्व० श्री गुरुदत्त ने जिन-जिन ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की है उनमें तत्कालीन संस्कृति, सभ्यता और घटनाओं के चित्रण के साथ-साथ उनकी अपनी कल्पना मुखर बनकर घटनाओं के क्रम विपर्यय और आकस्मिक रोमांच का भी निर्माण करती है। उनके द्वारा ऐसे नये पात्रों को प्रस्तुत किया जाता है, जिनका भले ही उपन्यास से दूर का भी सम्बन्ध न हो परन्तु जो उपन्यास के दृष्टिकोण को सबल रूप से प्रस्तुत कर सकें और समय-समय तथा स्थान स्थान पर ऐतिहासिक शैथिल्य का बौद्धिक विश्लेषण भी करते रहें। प्रस्तुत उपन्यास में कर्मचन्द और पूर्णानन्द इसी प्रकार के चरित्र अथवा पात्र हैं।
प्रस्तुत खण्ड में उनका एक ही वृहत् उपन्यास ‘गंगा की धारा’ समाहित है। इसमें उन्होंने राजपूत राजाओं में फूट, हिन्दुओं का पतन, हिन्दू पुनर्जागरण के प्रति समायोजनवादी बौद्घिक दृष्टिकोण आदि बातों पर विशेष बल दिया है। यदि राजपूत राजाओं में पारस्परिक ईष्या, द्वेष और सामान्य-सी बातों पर भी मानापमान की निम्न भावनाएँ न होतीं, तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मुसलमान भारत में टिक नहीं पाते, जम नहीं पाते। वे नहीं जम पाते तो ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में प्रविष्ट होने से पूर्व सौ बार सोचना पड़ता और भारत अंग्रेजों की दासता से पद-दलित न होता। मुसलमान यदि आ भी गये थे तो उसके बाद भी यदि कुछेक राजपूत राजाओं ने निजी स्वार्थवश उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध जोड़कर उनका पक्ष लेना आरम्भ न कर दिया होता और वे राणा प्रताप के पक्ष में एकत्र हो गये होते तो भारत सदैव स्वतन्त्र बना रह सकता था। अकबर के काल में इन राजपूत राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया गया था, जिसका चित्रण प्रस्तुत उपन्यास में किया गया है, किन्तु हिन्दुओं अथवा राजपूतों की हठधर्मिता और स्वार्थान्धता ने उस प्रयास को विफल कर दिया।
स्व० श्री गुरुदत्त का सभी प्रकार के उपन्यासों के रचनाक्रम में विशिष्ट दृष्टिकोण स्पष्ट परिलक्षित होता है। यही बात उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में भी देखने में आती है। वह दृष्टिकोण है अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी बात अर्थात् अपना विशिष्ट दृष्टिकोण पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास करना। इतिहास क्योंकि पूर्वयुगीन राजाओं अथवा बादशाहों, राज्यों और राष्ट्रीय महापुरुषों की कथाओं से सम्बन्धित होता है, इसलिए इस वर्ग के उपन्यासों में उन्होंने अपनी मनन परिधि को भी राजा और प्रजा तथा राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों तक सीमित किया है। अपनी कृतियों में उन्होंने राजा और राज्य का अन्तर, राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध तथा राज्य की सुरक्षा और विकास का एकमात्र साधन एवं बल, इन तीन प्रश्नों का विश्लेषण करके इनका अनुकूल उत्तर देने का प्रयास किया है। वे राजा और प्रजा के पारस्परिक सम्बन्ध को शासन और शासित का नहीं मानते, अपितु वे राजा को प्रजा के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित करने का यत्न करते हैं। उन्होंने इस उपन्यास की घटनाओं के बौधिक विश्लेषण को विशेष स्थान दिया है। सामान्यता कथा कहते-कहते अनेक गम्भीर बातों की ओर भी उन्होंने संकेत किये हैं।
स्व०श्री गुरुदत्त ने जिस विद्या एवं विषय पर अपनी लेखनी चलाई, उसे पूर्णता प्रदान की है। उनकी कृति को आद्योपान्त पढ़ने के उपरान्त पाठक के मन में कोई संशय बचा नहीं रह जाता, यही उनकी विशेषता थी। अपनी इन रचनाओं के माध्यम से वे जन-जन के मानस में सदा विद्यमान रहेंगे।
गंगा की धारा : संक्षिप्त परिचय
‘गंगा की धारा’ न अकबर का जीवनवृत्त है और न तत्कालीन
इतिहास ही। तदपि प्रस्तुत उपन्यास में इन दोनों को समाविष्ट किया गया है,
इस दृष्टि से इसे तदपि प्रस्तुत उपन्यास में इन दोनों को समाविष्ट किया
गया है, इस दृष्टि से इसे अकबर कालीन इतिहास कहा जाय तो अयुक्त नहीं होगा।
अन्यथा प्रस्तुत उपन्यास में अधिकांशतया मुस्लिम संस्कृति, सभ्यता अथवा
उनकी जीवन-पद्धति पर अधिक प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही तत्कालीन
भारतवर्ष के वासियों की दयनीय दशा का चित्रण भी इसमें किया गया है। किस
प्रकार भारतवासियों का ह्रास होता गया, इस विषय में उपन्यासकार की मान्यता
है-
‘‘ऐसी मान्यता है कि आदिकाल में मानव कल्याण के लिए परमात्मा ने वेद का उपदेश दिया था। वेद ज्ञान आदिकाल में प्राप्त हुआ था। उस काल में अन्य कोई ज्ञान का ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था। वेद से प्राचीन ग्रन्थ अन्य कोई है, इस विषय में सभी मौन हैं और एक स्वर से स्वीकार करते हैं। यह गंगोत्री के जल की भाँति कुओं के जल से अधिक पवित्र और अधिक मधुर है।
‘‘गंगा का बहाव भारत में हुआ। एक समय देवता इसको हिमालय से माँगकर देवलोक में ले गये थे और इसको पुनः भारत में लाने के लिए सागर तथा उसके वंशजों को घोर तपस्या करनी पड़ी थी। वैदिक ज्ञान के साथ भी ऐसा ही हुआ है। जब एक समय में भारत में वैदिक ज्ञान लोप-सा हो गया था तब इसको प्राप्त करने के लिए ऋषि-महर्षियों ने महान् प्रयास किये।
‘‘सागर तथा उसके वंशजों के प्रयास से गंगा भारत में आयी और ज्यों-त्यों वह समुद्र की ओर बढ़ती गयी, उसका जल उसी प्रमाण में गँदला और गुड़हीन होता गया। वही स्थिति वैदिक ज्ञान की भी हुई। वैदिक ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य की अल्पज्ञता के कारण बहुत मिलावट हुई तदपि भारत के विद्वान् वेदों से ज्ञान प्राप्त कर मानव को तृप्त करते रहे हैं। वर्तमान युग में स्वामी शंकराचार्य और महर्षि स्वामी दयानन्द का प्रयास इस दिशा में हुआ। कालान्तर में सन्त-महात्मा आये किन्तु उनकी वाणी में वेद की-सी श्रेष्ठता नहीं थी। परिणामस्वरूप जिन्होंने उस वाणी को सुना अथवा धारण किया उनका वेद ज्ञान से सम्पर्क विच्छिन्न हो गया। जैन, बौद्ध, दादूपन्थी, कबीरपन्थी और नानकपन्थी आदि इसके मुख्य घटक रहे हैं।
‘‘मुसलमानी काल में यह विघटन-क्रिया विशाल स्तर पर थी, उसमें मुख्य दोषी तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग माना जाता है। उसने वेद, शास्त्र और संस्कृति भाषा से जन-जन को वंचित रखा। परिणामस्वरूप धर्मगुरूओं को जनभाषा में अपनी बात कहनी पड़ी। अतः कुएँ के जल की भाँति सन्तों की वाणी उनको सामयिक जीवनदान तो देती रही परन्तु उनको गंगोत्री अर्थात् ज्ञान के स्रोत, वेद तक पहुँचने का सामर्थ्य प्रदान नहीं कर सकी। परिणामस्वरूप देश में अनेक मतमतान्तर पनपने लगे। सबमें न्यूनाधिक मात्रा में गंगा का पवित्र जल होने पर भी मिलावट के कारण विरोध दिखाई देने लगा। यह है ‘गंगा की धारा’ उपन्यास की पृष्ठभूमि।’’
क्योंकि उपन्यास का वर्ण्य-विषय अकबर के शासनकाल से आरम्भ होता है, इसलिए इसमें कहीं ऐसा उल्लेख नहीं आ पाया कि अकबर नितान्त निरक्षर भट्टाचार्य था, तदपि उसको काफी ग्रन्थों का ज्ञान था।
इस उपन्यास में अकबर के शासनकाल का जीवंत चित्र उपस्थित हुआ है। अकबर की धार्मिक और राजकीय नीति की व्याख्या कथासूत्रों के माध्यम से की गयी है। मुग़लों के आचार-विचार, रहन-सहन, सामाजिक व्यवस्था और नैतिक मानों का विशद विवेचन भारतीय पृष्ठभूमि पर किया गया है। हिन्दुओं और मुग़लों के धार्मिक विश्वासों में बहुत बड़ा अन्तर है। मूर्ति-पूजन और भंजन का अन्तर तो कदाचित् कृत्रिम है। मुसलमान भी मकबरों, कब्रों में झुकते हैं, कदमबोसी करते हैं और दुआएँ माँगते हैं। वह मूर्तिपूजा का ही एक प्रकार है। अतः उनका मूर्ति- भंजक होना गाज़ीपन नहीं अपितु असहनशीलता का प्रतीक है। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अन्य मतों की अपेक्षा अपने मत को श्रेष्ठ मानता है परन्तु अन्य मतावलम्बी को जीवन का अधिकार न देना, मुस्लिम विचारधारा का अभिन्न अंग रहा है। इसके विपरीत हिन्दू विचारधारा सदैव समन्वयवादी रही है।
समायोजन भारतीय संस्कृति की प्रथम विशेषता मानी गयी है। किन्तु मुसलमानों ने उस समन्वय को स्वीकार नहीं किया किया। हिन्दू राजपूतों ने मुग़ल शासकों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध स्थापित कर दो सभ्यताओं में समायोजन का प्रयास किया था किन्तु मुसलमानों अथवा मुग़ल परिवारों ने अपनी कन्याएँ हिन्दुओं के साथ विवाहने का सदा विरोध किया। यही कारण है कि मुग़ल शाही वंश की कन्याएँ अधिकांशतया कुँमारी रहकर हरमों में अनाचार फैलती रही हैं ।
‘गंगा की धारा’ उपन्यास में मुग़ल राजकन्या सलीमा सुल्तान प्रेमवश अनेक विपरीत स्थितियों का सामना करती हुई कर्मचन्द की पत्नी बन गयी थी और अपना नाम राधा रख लिया था तो अकबर तथा उसकी माँ आदि ने बलपूर्वक उसे उसके पति से छीन लिया। कर्मचन्द से अकबर तथा उसकी माँ आदि ने बलपूर्वक उसे उसके पति से छीन लिया। कर्मचन्द से अकबर की घनिष्ठ मित्रता थी, अकबर तथा उसके शासन पर कर्मचन्द के अनेक अहसान थे, तो भी नूर, जो शाही परिवार से ही सम्बन्धित थी, को विधवा जीवन व्यतीत करने के लिए विवश किया गया। राधा के साथ भी यही हुआ। उनको सन्तानों से भी वंचित रखा गया। यह स्पष्टता मानवीय भावनाओं की अवहेलना ही नहीं अपितु उनमें मानवीयता का अभाव था। अकबर की माँ तथा उसकी बड़ी बेगम रकिया इस अमानवीय के ज्वलन्त उदाहरण हैं।
संक्षेप में प्रस्तुत उपन्यास की कहानी है-
उपन्यास का प्रेरक पात्र कर्मचन्द हेमचन्द्र विक्रमादित्य की असफलता एवं हत्या के उपरान्त उसकी पत्नी को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर अपने परिवार से मिलने जा रहा था कि मार्ग में उसको अकबर का काफिला मिल जाता है, उसे उसमें सम्मिलित होना पड़ता है और आगरा में उसकी भेंट कुल्ली खाँ से होती है जो कालान्तर में पूर्णानन्द नाम धारण कर कर्मचन्द की बहन गंगा से विवाह भी कर लेता है। अकबर कर्मचन्द को लाहौर भेजता है। वहाँ परिस्थितिवश शाही वंश की कन्या नूर से सम्पर्क होता है जो कालान्तर में कर्मचन्द की पत्नी बन जाती है। यहीं पर अकबर एवं कर्मचन्द का सम्पर्क टोडरमल से होता है। वह कुशल गणितज्ञ और व्यापारी है, उसे कर्मचन्द अकबर का हितैषी बना लेता है।
अब्दुल रहीम खानखाना का पिता बहराम खाँ, स्वयं अकबर को अपने वश में रखकर उसके राज्य को हड़पना चाहता है। कर्मचन्द को इसका आभास होता है तो वह इसका निराकरण करने की योजना बनाता है। किन्तु बहराम खाँ के चक्र में फँसकर उसको दिल्ली आना पड़ जाता है। अकबर बादशाह न बनने पाये, इसके लिए बहराम खाँ द्वारा भाँति-भाँति के षड्यन्त्र रचे जाते हैं, जिन्हें कर्मचन्द के प्रयासों से सफलता नहीं मिलती। तदपि वह बहराम खाँ तथा हरम की महिलाओं, विशेषतया अकबर की माँ हमीदा बानू और उसकी बड़ी बेगम रकिया, जो अकबर से कई वर्ष आयु में बड़ी है, की आँख की किरकिरी बनता जा रहा है।
अकबर और बहराम खाँ में एक प्रकार से आँखमिचौनी-सी चलती है। यह सब सत्ता के लिए है। कालान्तर में कर्मचन्द की बुद्धिमत्ता से बहराम खाँ का षड्यन्त्र विफल होता है और अकबर उसको हज यात्रा पर जाने के लिए विवश कर देता है। किन्तु वह मार्ग में ही गुजरात में पठानों द्वारा मार दिया जाता है। बहराम खाँ की सबसे छोटी पत्नी सलीमा, जो आरम्भ से ही कर्मचन्द के प्रति आकर्षित थी, किसी प्रकार भागकर कर्मचन्द के समीप आकर राधा के रूप में उसकी पत्नी बन जाती है। कर्मचन्द को अकबर द्वारा कभी नौकरी पर रखा जाता है और कभी बर्खाश्त कर दिया जाता है। इन सारी परिस्थितियों को देखकर कर्मचन्द को कभी बड़ी निराशा होने लगती है। वह चाहता है कि अकबर का राज्य स्थायी हो, क्योंकि उस समय कोई ऐसा हिन्दू राजा देश में नहीं था जो शासन को स्थायित्व प्रदान कर सके। हिन्दू असंगठित थे। इस प्रक्रिया में जब अकबर राणा प्रताप पर आक्रमण करने की योजना बनाता है तो कर्मचन्द उसके विपरीत राणा प्रताप के राज्य में जाकर उनको संगठित करने का प्रयास करता है। दूसरी ओर अकबर को भी बार-बार समझाता है कि वह राणा प्रताप पर आक्रमण करने की अपेक्षा उससे सन्धि कर ले। अकबर सन्धि करने को तो उद्यत है किन्तु वह चाहता है कि राणा एक बार उसके दरबार में उपस्थित तो हो। यह राणा को स्वीकार नहीं है और कर्मचन्द को भी स्वीकार नहीं है। युद्ध होता है, अकबर की सेना विजयी बनकर भी पराजित-सी रहती है और उधर हरम के षड्यन्त्र से कर्मचन्द के परिवार पर जम्मू के गाँव अखनूर में विपत्ति आती है।
कर्मचन्द का परिवार नष्ट-भ्रष्ट हो गया था। उसकी पत्नियों का पता नहीं था, पुत्र पहले से ही हरम में था। इसी निराशा में वह संन्यास लेकर अपना नाम स्वामी भवानन्द रख लेता है। तदपि अपने कार्य को वह छोड़ता नहीं है। स्वामी के रूप में घूम-घूमकर वह हिन्दुओं को जाग्रत करने का यत्न करता है।
हल्दी घाटी का युद्ध होता है। उसमें महाराणा प्रताप घायल होते हैं। मार्ग में नाला आने पर घोड़ा भी घायल होकर मर जाता है। तभी संयोगवश उनका छोटा भाई शक्तिसिंह उधर से आता है, यद्यपि वह अकबर की ओर से लड़ा था, तदपि भाई को उस दशा में देखकर उसका रक्त खौलता है। वह भाई को अपना घोड़ा देकर उन्हें वहाँ से भाग जाने को कहता है। भवानन्द भी इस युद्ध में घायल हो गया था। मेवाड़ में अपने घावों की चिकित्सा करते हुए भवानन्द द्वारा राजपूतों को छापामार युद्ध के लिए प्रेरित किया जाता है।
कर्मचन्द की पत्नी राधा अर्थात् सलीमा तो किसी प्रकार हरम से पहले ही मुक्त हो गयी थी, अब नूर भी मुक्त हुई तो वह अपने गाँव जम्मू को प्रस्थान करती है। अकबर का यत्न होता है कि वह किसी प्रकार दक्षिण पर अपना अधिकार करे। महत्त्वाकांक्षी अकबर भाँति-भाँति के खेल खेलता है। शाहबाज खाँ को उसने दक्षिण भेजा किन्तु उसे सफलाता नहीं मिली। एक ओर सत्ता की भूख और दूसरी ओर स्त्री-संग की प्यास ने अकबर को विचलित-सा कर दिया था। सुरा के साथ साथ अब उसने अफीम का प्रयोग भी आरम्भ कर दिया था। परिणामस्वरूप उसके विरूद्ध हरम में भी षड्यन्त्र आरम्भ हो जाते हैं। एकमात्र महारानी जोधाबाई उसको सन्मार्ग पर लाने के लिए सदा यत्नशील रहती है, किन्तु अकबर की माँ हमीदाबानू सहित हरम की अन्य सभी महिलाएँ जोधाबाई से घृणा करती हैं।
संयोग से हमीदाबानू का षड्यन्त्र विफल होता है, अकबर काबुल पर विजय प्राप्त करने की लालसा से लाहौर जाता है कि वहाँ उसे अनारकली मिल जाती है। अकबर अनारकली के साथ रंगरेलियाँ मनाता है। लाहौर के सुदूर वन प्रान्त में उसके लिए महल बनवाता है। इसी अवधि में अकबर को दीन-ए-इलाही की सूझती है। कर्मचन्द के बहनोई पूर्व कुल्लू खाँ और अब पूर्णानन्द को वह इसका व्याख्याता नियुक्त करता है। किन्तु बहुत कम लोग उस ओर आकर्षित होते हैं।
अकबर के मन की अस्थिरता का भी उपन्यास में अच्छा चित्रण है। कभी वह बौद्ध मत की ओर आकर्षित होता है तो कभी जैन मत की ओर। वह हिन्दू भी बनना चाहता है किन्तु कट्टरपन्थी हिन्दू उसको स्वीकार नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप वह किसी दीन का नहीं रहता। चरित्रहीन तो वह आरम्भ से ही था। बढ़ती आयु में उसने अपनी चरित्रहीनता को परिपुष्ट करने के लिए मीना बाजार का आयोजन किया। स्वयं स्त्री के वेश में वह उस बाजार में गया और अनेक बार पकड़ा भी गया, किन्तु ‘समरथ को नहिं दोष गोसाई !’
इसी अवधि में सिखों के पाँचवें गुरू अर्जुनदास का उदय होता है। वे भी हिन्दुओं को संगठित करने का प्रयास करते हैं। कर्मचन्द उनका सहायक बनता है। कर्मचन्द के प्रयास से ही बादशाह और गुरुजी में भेंटवार्ता भी होती है किन्तु बादशाह उनके प्रयास को एक प्रकार से अपनी प्रतिद्वन्द्विता मानता है। कर्मचन्द के समझाने पर भी उसके मन की गाँठ खुलती नहीं।
शाहजादा सलीम यद्यपि महारानी जोधाबाई का पुत्र था, किन्तु उसे आरम्भ से ही हमीदाबानू ने अपने अधिकार में लिया हुआ था, क्योंकि वही अकबर का उत्ताराधिकारी होने वाला था, अतः उसकी शिक्षा-दीक्षा मुग़ल परिपाटी के आधार पर हुई। इसका मुख्य अंग हिन्दुओं से घृणा करना था। परिस्थितिवश जब सलीम लाहौर गया तो जहाँ उसकी भेंट भी अनारकली से हो गयी और उसने बादशाह को लिख दिया कि उसने अपने लिए पत्नी ढूँढ़ ली है, अतः उसका विवाह कर दिया जाय। बादशाह लाहौर जाता है, वह जब अपनी भावी पुत्रवधू को देखने जाता है तो वहाँ अनारकली को पाकर उसे जीवित धरती में गढ़वाकर उस पर मकबरा बनवा देता है और दूसरे दिन सलीम को वह मकबरा दिखा दिया जाता है। कालान्तर में अम्बर के भगवानदास की कन्या मानबाई से सलीम का विवाह किया जाता है।
सलीम और अकबर में मन-मुटाव हुआ तो वह निरन्तर बढ़ता गया। एक समय ऐसा भी आया कि मानबाई से उत्पन्न पुत्र खुसरो को ही अकबर ने वलीअहद बनाने का निश्चय कर लिया। सलीम को इसका पता चला तो उसने विभिन्न प्रकार से वगावत कर दी और इलाहाबाद से सेना लेकर वह सीकरी पर अधिकार करने चल पड़ा। पिता-पुत्र में युद्ध होता किन्तु हरम की महिलाओं ने बीच में पकडकर इस युद्ध को टलवा दिया। अकबर के दोनों अन्य पुत्रों मुराद और दानियाल की उससे पूर्व मत्यु हो जाना भी सलीम के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ।
सलीम ने अपने पुत्र खुसरो और पत्नी मीराबाई को इलाहाबाद में एक प्रकार से बन्दी बनाकर रखा उसी दशा में मानबाई ने आत्महत्या कर ली। अकबर दिन-प्रतिदिन रूग्णता के कारण क्षीण होता जा रहा था। अन्त में विवश होकर उसे सलीम को बादशाहत सौंपनी पड़ी। सलीम तब बादशाह जहाँगीर बन गया। खुसरो को जहाँगीर के बादशाह बनने का समाचार मिला तो किसी प्रकार वह उसकी कैद से भागकर लाहौर पहुँच गया और वहाँ से उसने अपने पिता के विरूद्ध बगावत कर दी। आगे की कहानी जहाँगीर की कहानी और उसके शासन का इतिहास बना। ‘गंगा की धारा’ के अन्त में कर्मचन्द का विश्लेषण था-‘‘हिन्दू समाज को उठने का अवसर तो मिला था परन्तु उसने उस अवसर से लाभ नहीं उठाया। वह इस योग्य नहीं था कि लाभ उठा सके। इसमें ऐसा कोई महापुरुष विद्यमान नहीं था जो जाति का नेतृत्व अपने हाथ में ले सकता।’’
हिन्दू जाति अथवा समाज के साथ यही होता रहा है। आज भी वही स्थिति है। आज भी समाज में ऐसा कोई नेता नहीं है जो इसका मार्गदर्शन कर सके। उस मार्गदर्शन को दिशा प्रदान करने की दिशा में ही स्व० गुरुदत्तजी का प्रयत्न रहा है। उस प्रयत्न का ही एक परिणाम यह उपन्यास भी था।
‘‘ऐसी मान्यता है कि आदिकाल में मानव कल्याण के लिए परमात्मा ने वेद का उपदेश दिया था। वेद ज्ञान आदिकाल में प्राप्त हुआ था। उस काल में अन्य कोई ज्ञान का ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था। वेद से प्राचीन ग्रन्थ अन्य कोई है, इस विषय में सभी मौन हैं और एक स्वर से स्वीकार करते हैं। यह गंगोत्री के जल की भाँति कुओं के जल से अधिक पवित्र और अधिक मधुर है।
‘‘गंगा का बहाव भारत में हुआ। एक समय देवता इसको हिमालय से माँगकर देवलोक में ले गये थे और इसको पुनः भारत में लाने के लिए सागर तथा उसके वंशजों को घोर तपस्या करनी पड़ी थी। वैदिक ज्ञान के साथ भी ऐसा ही हुआ है। जब एक समय में भारत में वैदिक ज्ञान लोप-सा हो गया था तब इसको प्राप्त करने के लिए ऋषि-महर्षियों ने महान् प्रयास किये।
‘‘सागर तथा उसके वंशजों के प्रयास से गंगा भारत में आयी और ज्यों-त्यों वह समुद्र की ओर बढ़ती गयी, उसका जल उसी प्रमाण में गँदला और गुड़हीन होता गया। वही स्थिति वैदिक ज्ञान की भी हुई। वैदिक ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य की अल्पज्ञता के कारण बहुत मिलावट हुई तदपि भारत के विद्वान् वेदों से ज्ञान प्राप्त कर मानव को तृप्त करते रहे हैं। वर्तमान युग में स्वामी शंकराचार्य और महर्षि स्वामी दयानन्द का प्रयास इस दिशा में हुआ। कालान्तर में सन्त-महात्मा आये किन्तु उनकी वाणी में वेद की-सी श्रेष्ठता नहीं थी। परिणामस्वरूप जिन्होंने उस वाणी को सुना अथवा धारण किया उनका वेद ज्ञान से सम्पर्क विच्छिन्न हो गया। जैन, बौद्ध, दादूपन्थी, कबीरपन्थी और नानकपन्थी आदि इसके मुख्य घटक रहे हैं।
‘‘मुसलमानी काल में यह विघटन-क्रिया विशाल स्तर पर थी, उसमें मुख्य दोषी तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग माना जाता है। उसने वेद, शास्त्र और संस्कृति भाषा से जन-जन को वंचित रखा। परिणामस्वरूप धर्मगुरूओं को जनभाषा में अपनी बात कहनी पड़ी। अतः कुएँ के जल की भाँति सन्तों की वाणी उनको सामयिक जीवनदान तो देती रही परन्तु उनको गंगोत्री अर्थात् ज्ञान के स्रोत, वेद तक पहुँचने का सामर्थ्य प्रदान नहीं कर सकी। परिणामस्वरूप देश में अनेक मतमतान्तर पनपने लगे। सबमें न्यूनाधिक मात्रा में गंगा का पवित्र जल होने पर भी मिलावट के कारण विरोध दिखाई देने लगा। यह है ‘गंगा की धारा’ उपन्यास की पृष्ठभूमि।’’
क्योंकि उपन्यास का वर्ण्य-विषय अकबर के शासनकाल से आरम्भ होता है, इसलिए इसमें कहीं ऐसा उल्लेख नहीं आ पाया कि अकबर नितान्त निरक्षर भट्टाचार्य था, तदपि उसको काफी ग्रन्थों का ज्ञान था।
इस उपन्यास में अकबर के शासनकाल का जीवंत चित्र उपस्थित हुआ है। अकबर की धार्मिक और राजकीय नीति की व्याख्या कथासूत्रों के माध्यम से की गयी है। मुग़लों के आचार-विचार, रहन-सहन, सामाजिक व्यवस्था और नैतिक मानों का विशद विवेचन भारतीय पृष्ठभूमि पर किया गया है। हिन्दुओं और मुग़लों के धार्मिक विश्वासों में बहुत बड़ा अन्तर है। मूर्ति-पूजन और भंजन का अन्तर तो कदाचित् कृत्रिम है। मुसलमान भी मकबरों, कब्रों में झुकते हैं, कदमबोसी करते हैं और दुआएँ माँगते हैं। वह मूर्तिपूजा का ही एक प्रकार है। अतः उनका मूर्ति- भंजक होना गाज़ीपन नहीं अपितु असहनशीलता का प्रतीक है। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अन्य मतों की अपेक्षा अपने मत को श्रेष्ठ मानता है परन्तु अन्य मतावलम्बी को जीवन का अधिकार न देना, मुस्लिम विचारधारा का अभिन्न अंग रहा है। इसके विपरीत हिन्दू विचारधारा सदैव समन्वयवादी रही है।
समायोजन भारतीय संस्कृति की प्रथम विशेषता मानी गयी है। किन्तु मुसलमानों ने उस समन्वय को स्वीकार नहीं किया किया। हिन्दू राजपूतों ने मुग़ल शासकों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध स्थापित कर दो सभ्यताओं में समायोजन का प्रयास किया था किन्तु मुसलमानों अथवा मुग़ल परिवारों ने अपनी कन्याएँ हिन्दुओं के साथ विवाहने का सदा विरोध किया। यही कारण है कि मुग़ल शाही वंश की कन्याएँ अधिकांशतया कुँमारी रहकर हरमों में अनाचार फैलती रही हैं ।
‘गंगा की धारा’ उपन्यास में मुग़ल राजकन्या सलीमा सुल्तान प्रेमवश अनेक विपरीत स्थितियों का सामना करती हुई कर्मचन्द की पत्नी बन गयी थी और अपना नाम राधा रख लिया था तो अकबर तथा उसकी माँ आदि ने बलपूर्वक उसे उसके पति से छीन लिया। कर्मचन्द से अकबर तथा उसकी माँ आदि ने बलपूर्वक उसे उसके पति से छीन लिया। कर्मचन्द से अकबर की घनिष्ठ मित्रता थी, अकबर तथा उसके शासन पर कर्मचन्द के अनेक अहसान थे, तो भी नूर, जो शाही परिवार से ही सम्बन्धित थी, को विधवा जीवन व्यतीत करने के लिए विवश किया गया। राधा के साथ भी यही हुआ। उनको सन्तानों से भी वंचित रखा गया। यह स्पष्टता मानवीय भावनाओं की अवहेलना ही नहीं अपितु उनमें मानवीयता का अभाव था। अकबर की माँ तथा उसकी बड़ी बेगम रकिया इस अमानवीय के ज्वलन्त उदाहरण हैं।
संक्षेप में प्रस्तुत उपन्यास की कहानी है-
उपन्यास का प्रेरक पात्र कर्मचन्द हेमचन्द्र विक्रमादित्य की असफलता एवं हत्या के उपरान्त उसकी पत्नी को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर अपने परिवार से मिलने जा रहा था कि मार्ग में उसको अकबर का काफिला मिल जाता है, उसे उसमें सम्मिलित होना पड़ता है और आगरा में उसकी भेंट कुल्ली खाँ से होती है जो कालान्तर में पूर्णानन्द नाम धारण कर कर्मचन्द की बहन गंगा से विवाह भी कर लेता है। अकबर कर्मचन्द को लाहौर भेजता है। वहाँ परिस्थितिवश शाही वंश की कन्या नूर से सम्पर्क होता है जो कालान्तर में कर्मचन्द की पत्नी बन जाती है। यहीं पर अकबर एवं कर्मचन्द का सम्पर्क टोडरमल से होता है। वह कुशल गणितज्ञ और व्यापारी है, उसे कर्मचन्द अकबर का हितैषी बना लेता है।
अब्दुल रहीम खानखाना का पिता बहराम खाँ, स्वयं अकबर को अपने वश में रखकर उसके राज्य को हड़पना चाहता है। कर्मचन्द को इसका आभास होता है तो वह इसका निराकरण करने की योजना बनाता है। किन्तु बहराम खाँ के चक्र में फँसकर उसको दिल्ली आना पड़ जाता है। अकबर बादशाह न बनने पाये, इसके लिए बहराम खाँ द्वारा भाँति-भाँति के षड्यन्त्र रचे जाते हैं, जिन्हें कर्मचन्द के प्रयासों से सफलता नहीं मिलती। तदपि वह बहराम खाँ तथा हरम की महिलाओं, विशेषतया अकबर की माँ हमीदा बानू और उसकी बड़ी बेगम रकिया, जो अकबर से कई वर्ष आयु में बड़ी है, की आँख की किरकिरी बनता जा रहा है।
अकबर और बहराम खाँ में एक प्रकार से आँखमिचौनी-सी चलती है। यह सब सत्ता के लिए है। कालान्तर में कर्मचन्द की बुद्धिमत्ता से बहराम खाँ का षड्यन्त्र विफल होता है और अकबर उसको हज यात्रा पर जाने के लिए विवश कर देता है। किन्तु वह मार्ग में ही गुजरात में पठानों द्वारा मार दिया जाता है। बहराम खाँ की सबसे छोटी पत्नी सलीमा, जो आरम्भ से ही कर्मचन्द के प्रति आकर्षित थी, किसी प्रकार भागकर कर्मचन्द के समीप आकर राधा के रूप में उसकी पत्नी बन जाती है। कर्मचन्द को अकबर द्वारा कभी नौकरी पर रखा जाता है और कभी बर्खाश्त कर दिया जाता है। इन सारी परिस्थितियों को देखकर कर्मचन्द को कभी बड़ी निराशा होने लगती है। वह चाहता है कि अकबर का राज्य स्थायी हो, क्योंकि उस समय कोई ऐसा हिन्दू राजा देश में नहीं था जो शासन को स्थायित्व प्रदान कर सके। हिन्दू असंगठित थे। इस प्रक्रिया में जब अकबर राणा प्रताप पर आक्रमण करने की योजना बनाता है तो कर्मचन्द उसके विपरीत राणा प्रताप के राज्य में जाकर उनको संगठित करने का प्रयास करता है। दूसरी ओर अकबर को भी बार-बार समझाता है कि वह राणा प्रताप पर आक्रमण करने की अपेक्षा उससे सन्धि कर ले। अकबर सन्धि करने को तो उद्यत है किन्तु वह चाहता है कि राणा एक बार उसके दरबार में उपस्थित तो हो। यह राणा को स्वीकार नहीं है और कर्मचन्द को भी स्वीकार नहीं है। युद्ध होता है, अकबर की सेना विजयी बनकर भी पराजित-सी रहती है और उधर हरम के षड्यन्त्र से कर्मचन्द के परिवार पर जम्मू के गाँव अखनूर में विपत्ति आती है।
कर्मचन्द का परिवार नष्ट-भ्रष्ट हो गया था। उसकी पत्नियों का पता नहीं था, पुत्र पहले से ही हरम में था। इसी निराशा में वह संन्यास लेकर अपना नाम स्वामी भवानन्द रख लेता है। तदपि अपने कार्य को वह छोड़ता नहीं है। स्वामी के रूप में घूम-घूमकर वह हिन्दुओं को जाग्रत करने का यत्न करता है।
हल्दी घाटी का युद्ध होता है। उसमें महाराणा प्रताप घायल होते हैं। मार्ग में नाला आने पर घोड़ा भी घायल होकर मर जाता है। तभी संयोगवश उनका छोटा भाई शक्तिसिंह उधर से आता है, यद्यपि वह अकबर की ओर से लड़ा था, तदपि भाई को उस दशा में देखकर उसका रक्त खौलता है। वह भाई को अपना घोड़ा देकर उन्हें वहाँ से भाग जाने को कहता है। भवानन्द भी इस युद्ध में घायल हो गया था। मेवाड़ में अपने घावों की चिकित्सा करते हुए भवानन्द द्वारा राजपूतों को छापामार युद्ध के लिए प्रेरित किया जाता है।
कर्मचन्द की पत्नी राधा अर्थात् सलीमा तो किसी प्रकार हरम से पहले ही मुक्त हो गयी थी, अब नूर भी मुक्त हुई तो वह अपने गाँव जम्मू को प्रस्थान करती है। अकबर का यत्न होता है कि वह किसी प्रकार दक्षिण पर अपना अधिकार करे। महत्त्वाकांक्षी अकबर भाँति-भाँति के खेल खेलता है। शाहबाज खाँ को उसने दक्षिण भेजा किन्तु उसे सफलाता नहीं मिली। एक ओर सत्ता की भूख और दूसरी ओर स्त्री-संग की प्यास ने अकबर को विचलित-सा कर दिया था। सुरा के साथ साथ अब उसने अफीम का प्रयोग भी आरम्भ कर दिया था। परिणामस्वरूप उसके विरूद्ध हरम में भी षड्यन्त्र आरम्भ हो जाते हैं। एकमात्र महारानी जोधाबाई उसको सन्मार्ग पर लाने के लिए सदा यत्नशील रहती है, किन्तु अकबर की माँ हमीदाबानू सहित हरम की अन्य सभी महिलाएँ जोधाबाई से घृणा करती हैं।
संयोग से हमीदाबानू का षड्यन्त्र विफल होता है, अकबर काबुल पर विजय प्राप्त करने की लालसा से लाहौर जाता है कि वहाँ उसे अनारकली मिल जाती है। अकबर अनारकली के साथ रंगरेलियाँ मनाता है। लाहौर के सुदूर वन प्रान्त में उसके लिए महल बनवाता है। इसी अवधि में अकबर को दीन-ए-इलाही की सूझती है। कर्मचन्द के बहनोई पूर्व कुल्लू खाँ और अब पूर्णानन्द को वह इसका व्याख्याता नियुक्त करता है। किन्तु बहुत कम लोग उस ओर आकर्षित होते हैं।
अकबर के मन की अस्थिरता का भी उपन्यास में अच्छा चित्रण है। कभी वह बौद्ध मत की ओर आकर्षित होता है तो कभी जैन मत की ओर। वह हिन्दू भी बनना चाहता है किन्तु कट्टरपन्थी हिन्दू उसको स्वीकार नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप वह किसी दीन का नहीं रहता। चरित्रहीन तो वह आरम्भ से ही था। बढ़ती आयु में उसने अपनी चरित्रहीनता को परिपुष्ट करने के लिए मीना बाजार का आयोजन किया। स्वयं स्त्री के वेश में वह उस बाजार में गया और अनेक बार पकड़ा भी गया, किन्तु ‘समरथ को नहिं दोष गोसाई !’
इसी अवधि में सिखों के पाँचवें गुरू अर्जुनदास का उदय होता है। वे भी हिन्दुओं को संगठित करने का प्रयास करते हैं। कर्मचन्द उनका सहायक बनता है। कर्मचन्द के प्रयास से ही बादशाह और गुरुजी में भेंटवार्ता भी होती है किन्तु बादशाह उनके प्रयास को एक प्रकार से अपनी प्रतिद्वन्द्विता मानता है। कर्मचन्द के समझाने पर भी उसके मन की गाँठ खुलती नहीं।
शाहजादा सलीम यद्यपि महारानी जोधाबाई का पुत्र था, किन्तु उसे आरम्भ से ही हमीदाबानू ने अपने अधिकार में लिया हुआ था, क्योंकि वही अकबर का उत्ताराधिकारी होने वाला था, अतः उसकी शिक्षा-दीक्षा मुग़ल परिपाटी के आधार पर हुई। इसका मुख्य अंग हिन्दुओं से घृणा करना था। परिस्थितिवश जब सलीम लाहौर गया तो जहाँ उसकी भेंट भी अनारकली से हो गयी और उसने बादशाह को लिख दिया कि उसने अपने लिए पत्नी ढूँढ़ ली है, अतः उसका विवाह कर दिया जाय। बादशाह लाहौर जाता है, वह जब अपनी भावी पुत्रवधू को देखने जाता है तो वहाँ अनारकली को पाकर उसे जीवित धरती में गढ़वाकर उस पर मकबरा बनवा देता है और दूसरे दिन सलीम को वह मकबरा दिखा दिया जाता है। कालान्तर में अम्बर के भगवानदास की कन्या मानबाई से सलीम का विवाह किया जाता है।
सलीम और अकबर में मन-मुटाव हुआ तो वह निरन्तर बढ़ता गया। एक समय ऐसा भी आया कि मानबाई से उत्पन्न पुत्र खुसरो को ही अकबर ने वलीअहद बनाने का निश्चय कर लिया। सलीम को इसका पता चला तो उसने विभिन्न प्रकार से वगावत कर दी और इलाहाबाद से सेना लेकर वह सीकरी पर अधिकार करने चल पड़ा। पिता-पुत्र में युद्ध होता किन्तु हरम की महिलाओं ने बीच में पकडकर इस युद्ध को टलवा दिया। अकबर के दोनों अन्य पुत्रों मुराद और दानियाल की उससे पूर्व मत्यु हो जाना भी सलीम के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ।
सलीम ने अपने पुत्र खुसरो और पत्नी मीराबाई को इलाहाबाद में एक प्रकार से बन्दी बनाकर रखा उसी दशा में मानबाई ने आत्महत्या कर ली। अकबर दिन-प्रतिदिन रूग्णता के कारण क्षीण होता जा रहा था। अन्त में विवश होकर उसे सलीम को बादशाहत सौंपनी पड़ी। सलीम तब बादशाह जहाँगीर बन गया। खुसरो को जहाँगीर के बादशाह बनने का समाचार मिला तो किसी प्रकार वह उसकी कैद से भागकर लाहौर पहुँच गया और वहाँ से उसने अपने पिता के विरूद्ध बगावत कर दी। आगे की कहानी जहाँगीर की कहानी और उसके शासन का इतिहास बना। ‘गंगा की धारा’ के अन्त में कर्मचन्द का विश्लेषण था-‘‘हिन्दू समाज को उठने का अवसर तो मिला था परन्तु उसने उस अवसर से लाभ नहीं उठाया। वह इस योग्य नहीं था कि लाभ उठा सके। इसमें ऐसा कोई महापुरुष विद्यमान नहीं था जो जाति का नेतृत्व अपने हाथ में ले सकता।’’
हिन्दू जाति अथवा समाज के साथ यही होता रहा है। आज भी वही स्थिति है। आज भी समाज में ऐसा कोई नेता नहीं है जो इसका मार्गदर्शन कर सके। उस मार्गदर्शन को दिशा प्रदान करने की दिशा में ही स्व० गुरुदत्तजी का प्रयत्न रहा है। उस प्रयत्न का ही एक परिणाम यह उपन्यास भी था।
उपन्यासकार का परिचय
उपन्यासकार श्री गुरुदत्तजी का जीवन 95 वर्षों में सतत साधानारत रहने के
फलस्वरूप तपकर ऐसा कुन्दन बन गया है कि जिसकी तुलना अब किसी अन्य से नहीं
अपितु उनसे ही की जा सकती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सागर और आकाश की
तुलना किसी अन्य से नहीं अपितु सागर और आकाश से ही की जा सकती है। वर्षों
पूर्व श्री गुरुदत्तजी के किसी अभिनन्दन समारोह में दिल्ली विश्वविद्यालय
के हिन्दी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ० विजयेन्द्र स्नातक ने उनके प्रति
अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कहा था-‘‘कोई भी
उनको बैठे उनके दैदीप्यमान मुखाकृति को देखे तो यही अनुभव करेगा मानों
मार्ग-निर्देश करता हुआ-सा कोई तपस्वी बैठा है।’’
भर्तहरि का कथन हैः
भर्तहरि का कथन हैः
परिवर्तिन संसारे मृतः को वा न जायते।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्।।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्।।
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लोगों की राय
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