सामाजिक >> गृह संसद गृह संसदगुरुदत्त
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प्रस्तुत हैं सामाजिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रथम परिच्छेद
रविवार मध्याह्न के भोजनोपरान्त सन्तराम का परिवार कोठी के ड्राइंग रूम
में एकत्रित हो गया।
सन्तराम ने घर में यह प्रथा चला रखी थी कि प्रति सप्ताह रविवार के दिन सारा परिवार एक स्थान पर बैठ, घर के विषयों पर विचार-विनिमय किया करता था। सन्तराम इसको गृह-संसद का नाम देता था और घर की सब बातें इसमें विचार तथा निर्णय के लिए उपस्थित की जाती थीं।
सन्तराम स्वयं इस संसद का प्रधान था और उसकी पत्नी शकुन्तलादेवी ‘गृहमन्त्री’ थी। इस संसद में दो ही पदाधिकारी थे। इसके सदस्य घर के बच्चे थे। सन्तराम की सबसे बड़ी लड़की दुर्गा इस समय इण्टर फर्स्ट ईयर में पढ़ती थी। शेष सब बच्चे उससे छोटे थे। सबसे छोटा दिलीप था। वह सात वर्ष का था।
इस संसद का अधिवेशन बाल-बच्चों के लिए अति मनोरंजक होता था। इस समय वे स्वयं को अपने पिता के बराबर बैठा देख सम्मति देने तथा अपनी बात मनाने का अवसर पा, बहुत प्रसन्न होते थे। माता-पिता भी, उनकी बात जब बहुमत से स्वीकृति हो जाती थी, मान जाते थे। इससे बच्चों के मन में ज़िम्मेदारी की भावना और विचारशीलता उत्पन्न हो रही थी।
आज बैठक आरम्भ हुई तो संसद के प्रधान सन्तराम ने कहा, ‘‘मैं घर की संसद की बैठक आरम्भ होने की घोषणा करता हूँ।’’
इस पर गृहमन्त्री शकुन्तला ने इस बैठक का प्रथम प्रस्ताव रखते हुए कहा—‘‘भिण्डी में कीड़े पड़ने लगे हैं। इस कारण घर के साप्ताहिक भोजन-विवरण में सोमवार प्रातः काल भिण्डी के स्थान पर काशीफल की भाजी बनाने का निश्चय किया जाए।’’
दुर्गा के भाई भगीरथ का कथन था, ‘‘काशीफल खाने से पेट फूल जाता है, इस कारण मैं काशीफल के स्थान पर लौकी का रायता बनाने का प्रस्ताव रखता हूँ।’’
भगीरथ से छोटे भाई राघव ने अपना संशोधन प्रस्तुत करते हुए कहा, ‘‘आलू बड़ियां ठीक रहेंगी।’’
इस पर शकुन्तला ने सदन को स्मरण कराया, ‘‘सोमवार रात को आलू की टिकियाँ बनती हैं। इस प्रकार उसी दिन प्रातः भी आलू ठीक नहीं रहेंगे।’’
‘‘किन्तु आलू बड़ियां तो आलू की टिकियों से भिन्न स्वाद वाली सब्जी है।’’ राघव ने कहा।
और जब कोई प्रस्ताव नहीं आया तो मतदान हुआ। बहुमत से लौकी का रायता स्वीकार कर लिया गया।
प्रधान ने अगली बात प्रस्तुत करने का संकेत कर दिया। दुर्गा ने अपना प्रस्ताव प्रस्तुत किया, ‘‘कुतुब भ्रमण के लिए चला जाए।’’
भगीरथ ने उसका विरोध करते हुए कहा, ‘‘इसकी अपेक्षा सिनेमा देखना उपयुक्त होगा।’’
शकुन्तला ने कह दिया, ‘‘ऐसा करो, पहले एक निश्चय कर लो कि भ्रमण के लिए जाना चाहिए अथवा सिनेमा के लिए। तत्पश्चात् किस स्थान पर जायें अथवा किस पिक्चर को देखें, यह निर्णय कर लिया जाएगा।’’
भगीरथ बोला, ‘‘कुतुब की लाट तो बदलती नहीं। जब भी जाते हैं वैसी ही रहती है और वहाँ हम कई बार जा चुके हैं। सिनेमा की पिक्चर प्रत्येक बार नई होती है। नई कहानी, नये दृश्य, नये पात्र अर्थात् सब कुछ नया होता है।’’
भगीरथ की युक्ति का प्रभाव हुआ और बहुमत सिनेमा देखने के पक्ष में हो गया। तीसरी बात, जो विचारार्थ उपस्थित हुई, वह पाकेट खर्च के विषय में थी। दुर्गा का प्रस्ताव था, ‘‘हमारी आवश्यकता के अनुसार अब हमारा पाकेट खर्चा बढ़ाया जाना चाहिए। मैं कॉलेज में पाँच रुपये सप्ताह में गुजर नहीं कर सकती।’’
इस पर भगीरथ बोला, ‘‘कॉलेज में पढ़ने वालों के लिए दस रुपये प्रति सप्ताह, स्कूलों के हाई क्लास में पढ़ने वालों के लिए आठ रुपये प्रति सप्ताह और उससे नीचे वालों को पांच रुपया प्रति सप्ताह।’’
राघव ने पूछा, ‘‘और कॉलेज से ऊपर वालों के लिए क्या हो ?’’
‘‘कॉलेज के ऊपर कौन है ?’’
‘‘माताजी तथा पिताजी।’’
सब चुप हो गए। बच्चे माता-पिता का खर्चा बाँधने में संकोच अनुभव करते थे। साहस बाँध दुर्गा ने कहा, ‘‘पच्चीस रुपये प्रति सप्ताह।’’
सन्तराम बच्चों के मनोभावों को समझ मुस्करा रहा था। दिलीप, जो सबसे छोटा था, पूछने लगा, ‘माँ, इतना पर्याप्त होगा न ?’’
‘‘हमारे विषय में तुम प्रस्ताव मत रखो।’’ माँ ने कहा।
सन्तराम बोला, ‘‘क्यों न रखें ? मैं समझता हूँ कि इनको दिमाग लड़ाने दो कि हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं ?’’
पिता के इस कथन से प्रोत्साहित हो दिलीप ने कह दिया, ‘‘पच्चीस रुपये ठीक हैं।’’
सुभद्रा जो भगीरथ से छोटी और राघव से बड़ी थी, बोली, ‘‘पच्चीस तो ठीक हैं, परन्तु वह पाकेट खर्चा होगा। इसमें मोटर तथा कपड़े आदि का खर्च सम्मिलित नहीं होगा।’’
माँ ने इस प्रथा को कि बच्चे माता-पिता के खर्च पर नियन्त्रण रखें, चलने से रोकने के लिए कहा, ‘‘मैं समझती हूँ कि गृह के अधि-पति की बातें संसद के विचाराधीन न रखी जावें।’’
परन्तु सन्तराम ने कह दिया, ‘‘मैं रूलिंग देता हूँ कि घर का प्रत्येक विषय संसद में विचारार्थ प्रस्तुत किया जा सकता है। गृह-मंत्रिणी को अपना विचार युक्ति से उपस्थित करना चाहिए। मुझे यह विश्वास है कि इस गृह के सदस्य विचारशील हैं और जब भी कोई बात उनको समझाई जावेगी, वे समझ जावेंगे।’’
इस पर सुभद्रा ने कह दिया, ‘‘यदि मेरा संशोधन स्वीकार हो तो पच्चीस रुपया प्रति सप्ताह केवल पाकेट खर्च उपयुक्त है।’’
इस पर दुर्गा ने मूल प्रस्ताव में एक संशोधन और रख दिया, ‘‘कॉलेज पढ़ने वालों के लिए पन्द्रह रुपये प्रति सप्ताह हो। कॉलेज से प्रायः बस में आना-जाना पड़ता है और डेढ़ दो रुपया तो हमारा बस का भाड़ा ही हो जाता है।’’
इस पर मत संग्रह हुआ। दुर्गा और सुभद्रा के संशोधन के साथ प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया।
चौथा विषय था रात के भोजन का। रविवार के दिन रात का भोजन प्रायः किसी होटल में खाया जाता था। इस विषय पर प्रस्ताव मांगे गये तो दिलीप ने कहा, ‘‘लक्ष्मी रेस्टोरेंट में खाना खाया जाए।’’
शकुन्तला का कहना था, ‘‘मैं किसी भी होटल में खाने का विरोध करती हूँ। शाकाहार होटलों में अच्छा खाना मिलता नहीं। मेरा प्रस्ताव है कि आज घर पर ही भोजन बने। उसके लिए पदार्थों का निश्चय कर लेना चाहिए।’’
इस पर मत लिया गया। शकुन्तला, दुर्गा और राघव घर पर भोजन के पक्ष में थे। भगीरथ, सुभद्रा और दिलीप होटल के पक्ष में थे। दोनों ओर तीन-तीन मत थे। इस पर प्रधान का निर्णयात्मक मत घर के पक्ष में हुआ तो भगीरथ के मुख से निकल गया, ‘‘प्रधान ने गृहमन्त्रिणी की रियायत की है।’’
‘‘भगीरथ !’’ प्रधान ने डाँटकर कहा, ‘‘यह व्यवहार असंसदीय और प्रधान का अपमान करने वाला है। इसके लिए क्षमा मांगो अन्यथा तुम्हें दो सप्ताह के लिए संसद से पृथक् करने का दण्ड देना पड़ेगा।’’
विवश भगीरथ को प्रधान से क्षमा माँगनी पड़ी। इस पर भी मन-ही-मन वह समझता था कि प्रधान अपनी पत्नी का पक्ष लेता है।
इस प्रकार उस दिन की संसद की बैठक समाप्त हुई और आगामी बैठक अगले रविवार के दिन करने की घोषणा की गई।
सन्तराम ने घर में यह प्रथा चला रखी थी कि प्रति सप्ताह रविवार के दिन सारा परिवार एक स्थान पर बैठ, घर के विषयों पर विचार-विनिमय किया करता था। सन्तराम इसको गृह-संसद का नाम देता था और घर की सब बातें इसमें विचार तथा निर्णय के लिए उपस्थित की जाती थीं।
सन्तराम स्वयं इस संसद का प्रधान था और उसकी पत्नी शकुन्तलादेवी ‘गृहमन्त्री’ थी। इस संसद में दो ही पदाधिकारी थे। इसके सदस्य घर के बच्चे थे। सन्तराम की सबसे बड़ी लड़की दुर्गा इस समय इण्टर फर्स्ट ईयर में पढ़ती थी। शेष सब बच्चे उससे छोटे थे। सबसे छोटा दिलीप था। वह सात वर्ष का था।
इस संसद का अधिवेशन बाल-बच्चों के लिए अति मनोरंजक होता था। इस समय वे स्वयं को अपने पिता के बराबर बैठा देख सम्मति देने तथा अपनी बात मनाने का अवसर पा, बहुत प्रसन्न होते थे। माता-पिता भी, उनकी बात जब बहुमत से स्वीकृति हो जाती थी, मान जाते थे। इससे बच्चों के मन में ज़िम्मेदारी की भावना और विचारशीलता उत्पन्न हो रही थी।
आज बैठक आरम्भ हुई तो संसद के प्रधान सन्तराम ने कहा, ‘‘मैं घर की संसद की बैठक आरम्भ होने की घोषणा करता हूँ।’’
इस पर गृहमन्त्री शकुन्तला ने इस बैठक का प्रथम प्रस्ताव रखते हुए कहा—‘‘भिण्डी में कीड़े पड़ने लगे हैं। इस कारण घर के साप्ताहिक भोजन-विवरण में सोमवार प्रातः काल भिण्डी के स्थान पर काशीफल की भाजी बनाने का निश्चय किया जाए।’’
दुर्गा के भाई भगीरथ का कथन था, ‘‘काशीफल खाने से पेट फूल जाता है, इस कारण मैं काशीफल के स्थान पर लौकी का रायता बनाने का प्रस्ताव रखता हूँ।’’
भगीरथ से छोटे भाई राघव ने अपना संशोधन प्रस्तुत करते हुए कहा, ‘‘आलू बड़ियां ठीक रहेंगी।’’
इस पर शकुन्तला ने सदन को स्मरण कराया, ‘‘सोमवार रात को आलू की टिकियाँ बनती हैं। इस प्रकार उसी दिन प्रातः भी आलू ठीक नहीं रहेंगे।’’
‘‘किन्तु आलू बड़ियां तो आलू की टिकियों से भिन्न स्वाद वाली सब्जी है।’’ राघव ने कहा।
और जब कोई प्रस्ताव नहीं आया तो मतदान हुआ। बहुमत से लौकी का रायता स्वीकार कर लिया गया।
प्रधान ने अगली बात प्रस्तुत करने का संकेत कर दिया। दुर्गा ने अपना प्रस्ताव प्रस्तुत किया, ‘‘कुतुब भ्रमण के लिए चला जाए।’’
भगीरथ ने उसका विरोध करते हुए कहा, ‘‘इसकी अपेक्षा सिनेमा देखना उपयुक्त होगा।’’
शकुन्तला ने कह दिया, ‘‘ऐसा करो, पहले एक निश्चय कर लो कि भ्रमण के लिए जाना चाहिए अथवा सिनेमा के लिए। तत्पश्चात् किस स्थान पर जायें अथवा किस पिक्चर को देखें, यह निर्णय कर लिया जाएगा।’’
भगीरथ बोला, ‘‘कुतुब की लाट तो बदलती नहीं। जब भी जाते हैं वैसी ही रहती है और वहाँ हम कई बार जा चुके हैं। सिनेमा की पिक्चर प्रत्येक बार नई होती है। नई कहानी, नये दृश्य, नये पात्र अर्थात् सब कुछ नया होता है।’’
भगीरथ की युक्ति का प्रभाव हुआ और बहुमत सिनेमा देखने के पक्ष में हो गया। तीसरी बात, जो विचारार्थ उपस्थित हुई, वह पाकेट खर्च के विषय में थी। दुर्गा का प्रस्ताव था, ‘‘हमारी आवश्यकता के अनुसार अब हमारा पाकेट खर्चा बढ़ाया जाना चाहिए। मैं कॉलेज में पाँच रुपये सप्ताह में गुजर नहीं कर सकती।’’
इस पर भगीरथ बोला, ‘‘कॉलेज में पढ़ने वालों के लिए दस रुपये प्रति सप्ताह, स्कूलों के हाई क्लास में पढ़ने वालों के लिए आठ रुपये प्रति सप्ताह और उससे नीचे वालों को पांच रुपया प्रति सप्ताह।’’
राघव ने पूछा, ‘‘और कॉलेज से ऊपर वालों के लिए क्या हो ?’’
‘‘कॉलेज के ऊपर कौन है ?’’
‘‘माताजी तथा पिताजी।’’
सब चुप हो गए। बच्चे माता-पिता का खर्चा बाँधने में संकोच अनुभव करते थे। साहस बाँध दुर्गा ने कहा, ‘‘पच्चीस रुपये प्रति सप्ताह।’’
सन्तराम बच्चों के मनोभावों को समझ मुस्करा रहा था। दिलीप, जो सबसे छोटा था, पूछने लगा, ‘माँ, इतना पर्याप्त होगा न ?’’
‘‘हमारे विषय में तुम प्रस्ताव मत रखो।’’ माँ ने कहा।
सन्तराम बोला, ‘‘क्यों न रखें ? मैं समझता हूँ कि इनको दिमाग लड़ाने दो कि हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं ?’’
पिता के इस कथन से प्रोत्साहित हो दिलीप ने कह दिया, ‘‘पच्चीस रुपये ठीक हैं।’’
सुभद्रा जो भगीरथ से छोटी और राघव से बड़ी थी, बोली, ‘‘पच्चीस तो ठीक हैं, परन्तु वह पाकेट खर्चा होगा। इसमें मोटर तथा कपड़े आदि का खर्च सम्मिलित नहीं होगा।’’
माँ ने इस प्रथा को कि बच्चे माता-पिता के खर्च पर नियन्त्रण रखें, चलने से रोकने के लिए कहा, ‘‘मैं समझती हूँ कि गृह के अधि-पति की बातें संसद के विचाराधीन न रखी जावें।’’
परन्तु सन्तराम ने कह दिया, ‘‘मैं रूलिंग देता हूँ कि घर का प्रत्येक विषय संसद में विचारार्थ प्रस्तुत किया जा सकता है। गृह-मंत्रिणी को अपना विचार युक्ति से उपस्थित करना चाहिए। मुझे यह विश्वास है कि इस गृह के सदस्य विचारशील हैं और जब भी कोई बात उनको समझाई जावेगी, वे समझ जावेंगे।’’
इस पर सुभद्रा ने कह दिया, ‘‘यदि मेरा संशोधन स्वीकार हो तो पच्चीस रुपया प्रति सप्ताह केवल पाकेट खर्च उपयुक्त है।’’
इस पर दुर्गा ने मूल प्रस्ताव में एक संशोधन और रख दिया, ‘‘कॉलेज पढ़ने वालों के लिए पन्द्रह रुपये प्रति सप्ताह हो। कॉलेज से प्रायः बस में आना-जाना पड़ता है और डेढ़ दो रुपया तो हमारा बस का भाड़ा ही हो जाता है।’’
इस पर मत संग्रह हुआ। दुर्गा और सुभद्रा के संशोधन के साथ प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया।
चौथा विषय था रात के भोजन का। रविवार के दिन रात का भोजन प्रायः किसी होटल में खाया जाता था। इस विषय पर प्रस्ताव मांगे गये तो दिलीप ने कहा, ‘‘लक्ष्मी रेस्टोरेंट में खाना खाया जाए।’’
शकुन्तला का कहना था, ‘‘मैं किसी भी होटल में खाने का विरोध करती हूँ। शाकाहार होटलों में अच्छा खाना मिलता नहीं। मेरा प्रस्ताव है कि आज घर पर ही भोजन बने। उसके लिए पदार्थों का निश्चय कर लेना चाहिए।’’
इस पर मत लिया गया। शकुन्तला, दुर्गा और राघव घर पर भोजन के पक्ष में थे। भगीरथ, सुभद्रा और दिलीप होटल के पक्ष में थे। दोनों ओर तीन-तीन मत थे। इस पर प्रधान का निर्णयात्मक मत घर के पक्ष में हुआ तो भगीरथ के मुख से निकल गया, ‘‘प्रधान ने गृहमन्त्रिणी की रियायत की है।’’
‘‘भगीरथ !’’ प्रधान ने डाँटकर कहा, ‘‘यह व्यवहार असंसदीय और प्रधान का अपमान करने वाला है। इसके लिए क्षमा मांगो अन्यथा तुम्हें दो सप्ताह के लिए संसद से पृथक् करने का दण्ड देना पड़ेगा।’’
विवश भगीरथ को प्रधान से क्षमा माँगनी पड़ी। इस पर भी मन-ही-मन वह समझता था कि प्रधान अपनी पत्नी का पक्ष लेता है।
इस प्रकार उस दिन की संसद की बैठक समाप्त हुई और आगामी बैठक अगले रविवार के दिन करने की घोषणा की गई।
:2:
सन्तराम दिल्ली का एक प्रसिद्ध रईस था। कई मकानों का मालिक, कई व्यवसायों
में पत्तीदार और कई कारखानों का मुख्याधिकारी था। खूब कमाता था और वैसा ही
खर्च भी करता था। सिविल लाइन्स के चार एकड़ भूमि पर बनी एक विशाल कोठी में
रहता था।
अपने विद्यार्थी जीवन में सन्तराम ने फ्रांसीसी, क्रान्ति को विशेष रुचि से पढ़ा था। उसके मस्तिष्क में समानता, बन्धुत्व और स्वतन्त्रता के सिद्धान्त विशेष रूप से समा गये थे। इन सिद्धान्तों को वह कार्य में लाने के लिए लालायित रहता था। अतः जीवन में पदार्पण करते ही वह इनको जीवन में समाविष्ट करने का यत्न करने लगा।
उसके दो और भाई थे। बड़ा भाई मायाराम, पिता के देहान्त के पश्चात् पिता की सम्पत्ति का प्रबन्ध कर रहा था। जब सन्तराम वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर भाई के सम्मुख उपस्थित हुआ तो भाई ने पूछा, ‘‘अब क्या करने का विचार है ?’’
‘‘मैं वकालत नहीं करूँगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘बस नहीं ! मुझे कचहरी की उन कोठरियों में, जिनको चैम्बर्ज कहते हैं, बैठना पसन्द नहीं। मैं जब भी वकीलों को वहाँ बैठे हुए देखता हूँ तो मुझे काठ बाजार की पेशेवर वेश्याएं दिखाई देने लगती हैं।’’
‘‘तो क्या करोगे ?’’
‘‘घर में काम नहीं है क्या ?’’
‘‘एक आदमी के लिए तो है, दूसरा उसमें व्यर्थ ही रहेगा।’’
‘‘कितनी आय है पिताजी की सम्पत्ति से ?’’
‘‘जितनी है सो है, वह तुमको यथा समय बता दूँगा।’’
यथा समय का अर्थ सन्तराम नहीं समझ सका। विचार करने पर वह समझ पाया कि भैया का अर्थ सम्भवतया विवाह के पश्चात् से है। उन दिनों उसके विवाह की तैयारी हो रही थी।
वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण करने के तीन मास पश्चात् सन्तराम का विवाह एक निर्धन ब्राह्मण की कन्या शकुन्तला देवी से हो गया। ब्राह्मण भैरव के मन्दिर का पुजारी था और भैरव की सिद्धि में लगा हुआ था।
शकुन्तला घर आई तो शन्तराम उसमें अपने मन के भाव भरने लगा। उसका कहना था, ‘‘तुम मेरे बराबर ही हो।’’
‘‘शकुन्तला ने कहा, ‘‘कैसे ? मैं तो आप से आयु में, ऊँचाई तथा भार में भी कम ही हूँ।
‘‘यह तो तुम शरीर की बात कर रही हो। मैं बुद्धि, मन और आत्मा की बात कर रहा हूँ।’’
‘‘बुद्धि में भी कम हूँ। आप वकालत पढ़े हैं, मैं सातवीं श्रेणी तक ही पढ़ सकी हूँ। मन और आत्मा की बात मैं जानती नहीं। हाँ, इतना ज्ञान मुझको है कि मैं कुछ बातों से आपसे बड़ी भी हूँ। बराबर तो दो व्यक्ति किसी भी बात में नहीं हो सकते।’’
‘‘तुम मुझसे भला किस बात में बड़ी हो ?’’
‘‘देखिये, मैं बच्चे को पेट में बना, नौ मास तक भीतर-ही-भीतर उसकी पालन कर सकती हूँ। आप यह नहीं कर सकते ?’’
सन्तराम हँस पड़ा। उसने अपना भाव समझाते हुए कहा, ‘‘यह परमात्मा द्वारा बनाया हुआ अन्तर छोड़ो। उसमें बड़े-छोटे का प्रश्न नहीं है। उसमें हम एक-दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु मानसिक शक्ति में हम सब बराबर हैं। अतः तुम मेरे घर में आई हो तो स्वयं को मेरे बराबर ही समझो।’’
शकुन्तला बेचारी चुप कर रही। परन्तु यही भावना सन्तराम ने जब अपने भाई माया राम से कही तो विस्मय में उसका मुख देखता रह गया। सन्तराम ने अपनी बात पुनः कह दी। उसने कहा, ‘‘दादा ! संसार के सब मनुष्य बराबर होते हैं। छोटा-बड़ा काम करने से कोई छोटा-बड़ा नहीं हो जाता।’’
‘‘तुम मूर्ख हो सन्तराम ! इन बातों को छोड़ो और अपनी वकालत का धंधा शुरू कर दो।’’
‘‘मैं वकालत नहीं करूँगा।’’
‘‘क्यों ?’’
मैं आपके साथ ही काम करूँगा।’’
‘‘अच्छा, विचार करूँगा।’’
इस प्रकार बात फिर टल गई। एक दिन उसके भाई ने अपना एक मकान जो पिता ने कभी अढ़ाई हजार रुपये में मोल लिया था, उसका तीस वर्ष का किराया साढ़े तीन हजार से अधिक प्राप्त कर, बेच दिया था। सन्तराम ने पूछा, ‘‘दादा ! मकान कितने में बिका है ?’’
‘‘किस लिए पूछते हो ?’’
‘‘ऐसे ही।’’
‘‘देखो सन्तराम ! मैं इसका यह अर्थ समझता हूँ कि तुमको मुझ पर विश्वास नहीं रहा। इस कारण मेरा यह निर्णय है कि तुम मुझसे पृथक हो जाओ।’’
तीसरा भाई देवानन्द भी समीप बैठा यह बात सुन रहा था। उसने कह दिया, ‘‘दादा ! इसमें नाराज होने की बात नहीं। हमें इस बात को पूछने का अधिकार है।’’
‘‘अच्छा जी ! तुम्हारे भी पर निकलने लगे। तुमको भी मैं पृथक कर दूँगा।’’
‘‘दादा ! हमारा यह अभिप्राय नहीं है।’’
‘‘मैं सब समझता हूँ।’’
दोनों छोटे भाई मना करते रहे परन्तु मायाराम के मन में बात समा गई और अगले ही दिन उसने वकील को बंटवारे के कागज बनाने के लिए कह दिया।
उक्त वार्तालाप के एक मास के भीतर ही बंटवारा हो गया और दोनों भाइयों को कह दिया गया कि वे किनारा करें।
उन्हीं दिनों सिविल लाइन्स में एक कोठी नई बनी थी, वह कोई सन्तराम के हिस्से में आयी। अतः दोनों भाई और सन्तराम की पत्नी शकुन्तला उस कोठी में चले गए।
इस समय मायाराम के घर एक लड़का हो चुका था। उसका नाम कामताप्रसाद रखा गया था।
सन्तराम और देवानन्द दो वर्ष तक इकट्ठे रहे। देवानन्द का विवाह हुआ तो उसकी पत्नी भगवती को भी सन्तराम की जीवन मीमांसा पसन्द नहीं आई। अतः देवानन्द ने अपनी पत्नी के साथ बारह खम्भा रोड की एक कोठरी में जाकर रहने का निश्चय कर लिया।
सन्तराम के घर इस समय एक लड़की हो चुकी थी। उसका नाम दुर्गा रखा गया। सन्तराम ने अपने छोटे भाई देवानन्द को कहा भी—‘‘मैं तो समझता हूँ कि इकट्ठे रहने में एक-दूसरे के सुख-दुःख के भागीदार बन सकेंगे। यदि तुम्हें अथवा तुम्हारी पत्नी को किसी प्रकार का कष्ट हो तो बताओ।’’
देवानन्द का उत्तर स्पष्ट था, ‘‘भैया ! कष्ट कुछ नहीं है। केवल तुम्हारी और हमारी जीवन मीमांसा में अन्तर है। तुम सबको मानसिक विचार से बराबर समझते हो। हम ऐसा नहीं मानते। इस कारण हमारा निर्वाह एक साथ नहीं हो सकता।’’
सन्तराम को पृथक जाकर रहने के लिए यह कोई विशेष कारण प्रतीत नहीं हुआ। उसने कहा, ‘‘पहिले तो तुमने ऐसी कोई बात नहीं कही थी। क्या भगवती ने ही यह सब तुम्हें सिखाया है ?’’
‘‘यही समझ लो, भैया ?’’
‘‘देवानन्द ! औरतों का दास बनने से संसार में निर्वाह नहीं हो सकेगा।’’
‘‘भैया ! यह मेरा अपरिवर्तनीय निर्णय है। मैंने बारह खम्बा रोड पर एक कोठी किराये पर ले ली है। एक खाली प्लॉट भी खरीद लिया है। मैं अभी भाड़े की कोठी में रहूँगा और वहाँ रहते हुए अपनी कोठी बनवा लूँगा।’’
‘‘अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो।
कहने को तो तीनों भाइयों को बराबर-बराबर सम्पत्ति मिली थी। परन्तु सन्तराम और देवानन्द ने जाँच-पड़ताल नहीं की थी। अतः कभी-कभी मायाराम का नौकर आकर बता जाता था कि उनके साथ भारी धोखा किया गया है। सन्तराम इस बात को हँसी में टाल देता था और अब वह अपनी सम्पत्ति का प्रबन्ध ध्यानपूर्वक करने लग गया था। परिणामस्वरूप वह अपने विचार से दूसरे भाइयों की अपेक्षा अधिक उन्नति कर रहा था।
देवानन्द की पत्नी भगवती धर्म, दान, पूजापाठ में बहुत विश्वास करती थी। अतः अपने पति की आय का दशांश वह इसमें व्यय कर देती थी। परिणाम यह हो रहा था कि तीनों भाई विभिन्न प्रकृति के होने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार से जीवनयापन कर रहे थे।
मायाराम सब प्रकार की हेरा-फेरी करता रहता था और वह सब रहस्य अपने मन में रखता था। सन्तराम न तो हेरा-फेरी में विश्वास रखता था और न ही दान-दक्षिणा में। विचारों से वह पूर्णतया नास्तिक था। इस कारण शारीरिक सुख-सुविधा को प्राप्त करने में लग गया था। और इसी के लिए वह अपनी पत्नी और बच्चों में भी इसी प्रकार की भावना उत्पन्न कर रहा था।
देवानन्द जब कभी किसी को रिश्वत देकर अनुचित लाभ उठाने का यत्न करता तो वह अपनी पत्नी को बता दिया करता। भगवती यह पसन्द नहीं करती थी। आखिर एक दिन उसने कह दिया, ‘‘यह ठीक नहीं हो रहा है।’’
‘‘आज के इस युग में इसके बिना तो कार्य चल ही नहीं सकता। देखो, मैंने तुगलक रोड पर आफिसर्स बंगला बनाने का कार्य लिया है। एग्ज़िक्यूटिव इन्जीनियर को भेंट दिए बिना ठेका नहीं मिल सकता था। और फिर पैमाइश तथा इन्स्पैक्शन करने वाले ओवर-सीयर तथा एस.डी.ओ. की भी पूजा करनी पड़ती है। जब बिल बन जाते हैं तो उन बिलों को पास कराने के लिए अधिकारियों का मुख मीठा करना पड़ता है। चेक बनकर खजानची के पास आ जाता है तो वह भी अपना भाग माँगता है।’’
भगवती का कहना था, ‘‘इस सब पाप की कमाई को पवित्र करने के लिए साधु—सन्तों की सेवा सुश्रुषा करनी चाहिये।’’
इस प्रकार आय का दशांश इन कामों में व्यस्त होने लगा।
अपने विद्यार्थी जीवन में सन्तराम ने फ्रांसीसी, क्रान्ति को विशेष रुचि से पढ़ा था। उसके मस्तिष्क में समानता, बन्धुत्व और स्वतन्त्रता के सिद्धान्त विशेष रूप से समा गये थे। इन सिद्धान्तों को वह कार्य में लाने के लिए लालायित रहता था। अतः जीवन में पदार्पण करते ही वह इनको जीवन में समाविष्ट करने का यत्न करने लगा।
उसके दो और भाई थे। बड़ा भाई मायाराम, पिता के देहान्त के पश्चात् पिता की सम्पत्ति का प्रबन्ध कर रहा था। जब सन्तराम वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर भाई के सम्मुख उपस्थित हुआ तो भाई ने पूछा, ‘‘अब क्या करने का विचार है ?’’
‘‘मैं वकालत नहीं करूँगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘बस नहीं ! मुझे कचहरी की उन कोठरियों में, जिनको चैम्बर्ज कहते हैं, बैठना पसन्द नहीं। मैं जब भी वकीलों को वहाँ बैठे हुए देखता हूँ तो मुझे काठ बाजार की पेशेवर वेश्याएं दिखाई देने लगती हैं।’’
‘‘तो क्या करोगे ?’’
‘‘घर में काम नहीं है क्या ?’’
‘‘एक आदमी के लिए तो है, दूसरा उसमें व्यर्थ ही रहेगा।’’
‘‘कितनी आय है पिताजी की सम्पत्ति से ?’’
‘‘जितनी है सो है, वह तुमको यथा समय बता दूँगा।’’
यथा समय का अर्थ सन्तराम नहीं समझ सका। विचार करने पर वह समझ पाया कि भैया का अर्थ सम्भवतया विवाह के पश्चात् से है। उन दिनों उसके विवाह की तैयारी हो रही थी।
वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण करने के तीन मास पश्चात् सन्तराम का विवाह एक निर्धन ब्राह्मण की कन्या शकुन्तला देवी से हो गया। ब्राह्मण भैरव के मन्दिर का पुजारी था और भैरव की सिद्धि में लगा हुआ था।
शकुन्तला घर आई तो शन्तराम उसमें अपने मन के भाव भरने लगा। उसका कहना था, ‘‘तुम मेरे बराबर ही हो।’’
‘‘शकुन्तला ने कहा, ‘‘कैसे ? मैं तो आप से आयु में, ऊँचाई तथा भार में भी कम ही हूँ।
‘‘यह तो तुम शरीर की बात कर रही हो। मैं बुद्धि, मन और आत्मा की बात कर रहा हूँ।’’
‘‘बुद्धि में भी कम हूँ। आप वकालत पढ़े हैं, मैं सातवीं श्रेणी तक ही पढ़ सकी हूँ। मन और आत्मा की बात मैं जानती नहीं। हाँ, इतना ज्ञान मुझको है कि मैं कुछ बातों से आपसे बड़ी भी हूँ। बराबर तो दो व्यक्ति किसी भी बात में नहीं हो सकते।’’
‘‘तुम मुझसे भला किस बात में बड़ी हो ?’’
‘‘देखिये, मैं बच्चे को पेट में बना, नौ मास तक भीतर-ही-भीतर उसकी पालन कर सकती हूँ। आप यह नहीं कर सकते ?’’
सन्तराम हँस पड़ा। उसने अपना भाव समझाते हुए कहा, ‘‘यह परमात्मा द्वारा बनाया हुआ अन्तर छोड़ो। उसमें बड़े-छोटे का प्रश्न नहीं है। उसमें हम एक-दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु मानसिक शक्ति में हम सब बराबर हैं। अतः तुम मेरे घर में आई हो तो स्वयं को मेरे बराबर ही समझो।’’
शकुन्तला बेचारी चुप कर रही। परन्तु यही भावना सन्तराम ने जब अपने भाई माया राम से कही तो विस्मय में उसका मुख देखता रह गया। सन्तराम ने अपनी बात पुनः कह दी। उसने कहा, ‘‘दादा ! संसार के सब मनुष्य बराबर होते हैं। छोटा-बड़ा काम करने से कोई छोटा-बड़ा नहीं हो जाता।’’
‘‘तुम मूर्ख हो सन्तराम ! इन बातों को छोड़ो और अपनी वकालत का धंधा शुरू कर दो।’’
‘‘मैं वकालत नहीं करूँगा।’’
‘‘क्यों ?’’
मैं आपके साथ ही काम करूँगा।’’
‘‘अच्छा, विचार करूँगा।’’
इस प्रकार बात फिर टल गई। एक दिन उसके भाई ने अपना एक मकान जो पिता ने कभी अढ़ाई हजार रुपये में मोल लिया था, उसका तीस वर्ष का किराया साढ़े तीन हजार से अधिक प्राप्त कर, बेच दिया था। सन्तराम ने पूछा, ‘‘दादा ! मकान कितने में बिका है ?’’
‘‘किस लिए पूछते हो ?’’
‘‘ऐसे ही।’’
‘‘देखो सन्तराम ! मैं इसका यह अर्थ समझता हूँ कि तुमको मुझ पर विश्वास नहीं रहा। इस कारण मेरा यह निर्णय है कि तुम मुझसे पृथक हो जाओ।’’
तीसरा भाई देवानन्द भी समीप बैठा यह बात सुन रहा था। उसने कह दिया, ‘‘दादा ! इसमें नाराज होने की बात नहीं। हमें इस बात को पूछने का अधिकार है।’’
‘‘अच्छा जी ! तुम्हारे भी पर निकलने लगे। तुमको भी मैं पृथक कर दूँगा।’’
‘‘दादा ! हमारा यह अभिप्राय नहीं है।’’
‘‘मैं सब समझता हूँ।’’
दोनों छोटे भाई मना करते रहे परन्तु मायाराम के मन में बात समा गई और अगले ही दिन उसने वकील को बंटवारे के कागज बनाने के लिए कह दिया।
उक्त वार्तालाप के एक मास के भीतर ही बंटवारा हो गया और दोनों भाइयों को कह दिया गया कि वे किनारा करें।
उन्हीं दिनों सिविल लाइन्स में एक कोठी नई बनी थी, वह कोई सन्तराम के हिस्से में आयी। अतः दोनों भाई और सन्तराम की पत्नी शकुन्तला उस कोठी में चले गए।
इस समय मायाराम के घर एक लड़का हो चुका था। उसका नाम कामताप्रसाद रखा गया था।
सन्तराम और देवानन्द दो वर्ष तक इकट्ठे रहे। देवानन्द का विवाह हुआ तो उसकी पत्नी भगवती को भी सन्तराम की जीवन मीमांसा पसन्द नहीं आई। अतः देवानन्द ने अपनी पत्नी के साथ बारह खम्भा रोड की एक कोठरी में जाकर रहने का निश्चय कर लिया।
सन्तराम के घर इस समय एक लड़की हो चुकी थी। उसका नाम दुर्गा रखा गया। सन्तराम ने अपने छोटे भाई देवानन्द को कहा भी—‘‘मैं तो समझता हूँ कि इकट्ठे रहने में एक-दूसरे के सुख-दुःख के भागीदार बन सकेंगे। यदि तुम्हें अथवा तुम्हारी पत्नी को किसी प्रकार का कष्ट हो तो बताओ।’’
देवानन्द का उत्तर स्पष्ट था, ‘‘भैया ! कष्ट कुछ नहीं है। केवल तुम्हारी और हमारी जीवन मीमांसा में अन्तर है। तुम सबको मानसिक विचार से बराबर समझते हो। हम ऐसा नहीं मानते। इस कारण हमारा निर्वाह एक साथ नहीं हो सकता।’’
सन्तराम को पृथक जाकर रहने के लिए यह कोई विशेष कारण प्रतीत नहीं हुआ। उसने कहा, ‘‘पहिले तो तुमने ऐसी कोई बात नहीं कही थी। क्या भगवती ने ही यह सब तुम्हें सिखाया है ?’’
‘‘यही समझ लो, भैया ?’’
‘‘देवानन्द ! औरतों का दास बनने से संसार में निर्वाह नहीं हो सकेगा।’’
‘‘भैया ! यह मेरा अपरिवर्तनीय निर्णय है। मैंने बारह खम्बा रोड पर एक कोठी किराये पर ले ली है। एक खाली प्लॉट भी खरीद लिया है। मैं अभी भाड़े की कोठी में रहूँगा और वहाँ रहते हुए अपनी कोठी बनवा लूँगा।’’
‘‘अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो।
कहने को तो तीनों भाइयों को बराबर-बराबर सम्पत्ति मिली थी। परन्तु सन्तराम और देवानन्द ने जाँच-पड़ताल नहीं की थी। अतः कभी-कभी मायाराम का नौकर आकर बता जाता था कि उनके साथ भारी धोखा किया गया है। सन्तराम इस बात को हँसी में टाल देता था और अब वह अपनी सम्पत्ति का प्रबन्ध ध्यानपूर्वक करने लग गया था। परिणामस्वरूप वह अपने विचार से दूसरे भाइयों की अपेक्षा अधिक उन्नति कर रहा था।
देवानन्द की पत्नी भगवती धर्म, दान, पूजापाठ में बहुत विश्वास करती थी। अतः अपने पति की आय का दशांश वह इसमें व्यय कर देती थी। परिणाम यह हो रहा था कि तीनों भाई विभिन्न प्रकृति के होने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार से जीवनयापन कर रहे थे।
मायाराम सब प्रकार की हेरा-फेरी करता रहता था और वह सब रहस्य अपने मन में रखता था। सन्तराम न तो हेरा-फेरी में विश्वास रखता था और न ही दान-दक्षिणा में। विचारों से वह पूर्णतया नास्तिक था। इस कारण शारीरिक सुख-सुविधा को प्राप्त करने में लग गया था। और इसी के लिए वह अपनी पत्नी और बच्चों में भी इसी प्रकार की भावना उत्पन्न कर रहा था।
देवानन्द जब कभी किसी को रिश्वत देकर अनुचित लाभ उठाने का यत्न करता तो वह अपनी पत्नी को बता दिया करता। भगवती यह पसन्द नहीं करती थी। आखिर एक दिन उसने कह दिया, ‘‘यह ठीक नहीं हो रहा है।’’
‘‘आज के इस युग में इसके बिना तो कार्य चल ही नहीं सकता। देखो, मैंने तुगलक रोड पर आफिसर्स बंगला बनाने का कार्य लिया है। एग्ज़िक्यूटिव इन्जीनियर को भेंट दिए बिना ठेका नहीं मिल सकता था। और फिर पैमाइश तथा इन्स्पैक्शन करने वाले ओवर-सीयर तथा एस.डी.ओ. की भी पूजा करनी पड़ती है। जब बिल बन जाते हैं तो उन बिलों को पास कराने के लिए अधिकारियों का मुख मीठा करना पड़ता है। चेक बनकर खजानची के पास आ जाता है तो वह भी अपना भाग माँगता है।’’
भगवती का कहना था, ‘‘इस सब पाप की कमाई को पवित्र करने के लिए साधु—सन्तों की सेवा सुश्रुषा करनी चाहिये।’’
इस प्रकार आय का दशांश इन कामों में व्यस्त होने लगा।
3
सन्तराम की लड़की दस वर्ष की हुई तो उसको घर के प्रबन्ध में सम्मति देने
के लिए प्रोत्साहित किया जाने लगा। इसी प्रकार जब अन्य बच्चे भी दस-दस
वर्ष आयु के होते गए, उनको गृह संसद में बैठकर सम्मति देने का अधिकार
मिलता गया। इस प्रकार घर की यह संस्था पति-पत्नी की सदस्यता से आरम्भ होकर
अब सात सदस्यों की बन गई थी।
दुर्गा अब सोलह वर्ष की हो गई थी और इण्टर की प्रथम श्रेणी में पढ़ती थी। भगीरथ, इस समय नवीं श्रेणी में पढ़ रहा था। वह भी चौदह वर्ष का हो गया था। भगीरथ से छोटी सुभद्रा थी। वह इस समय बारह वर्ष की थी और सातवीं कक्षा में पढ़ रही थी। उससे छोटा राघव था और फिर दिलीप। राघव ग्यारह वर्ष का था और दिलीप दस वर्ष का।
दिलीप के जन्म के समय, सृष्टि को द्रुत गति से बढ़ते देख शकुन्तला ने गर्भाशय का आपरेशन करवा दिया। वह बीमार होने की आशंका करने लगी थी।
दुर्गा इत्यादि बच्चे घर की बातों में सम्मति देते हुए आत्मविश्वास से भर जाते थे। इस आत्मविश्वास के साथ ज्ञानवृद्धि एक अत्यावश्यक शर्त है। यह सबकी समान रूपेण नहीं हो रही थी। यही कारण था कि भगीरथ यह समझ रहा था कि पिताजी उसकी माताजी की रियायत किया करते हैं।
दुर्गा भगीरथ की अपेक्षा समझदार थी। वह जब भी संस्था के प्रधान को अपना निर्णयात्मक मत उनके विपरीत देते देखती थी तो समझ जाती थी कि प्रधान की सम्मति में वे गलत विचार रखते हैं। उसको विस्मय तो इस बात पर हुआ करता था कि यदि उनके पक्ष में एक मत अधिक आ जाता तो प्रधान उनकी बात मान जाते। क्या एक मत अधिक से उनकी बात युक्तियुक्त और ठीक हो जाती ? इसी कारण वह संसद के निर्णयों में रुचि रखते हुए भी इसके औचित्य पर संदेह ही रखती थी।
दुर्गा की एक सहेली थी विद्या। दोनों कॉलेज तथा एक ही कक्षा में पढ़ती थीं और दोनों के पढ़ाई के विषय भी एक ही थे।
दुर्गा अब सोलह वर्ष की हो गई थी और इण्टर की प्रथम श्रेणी में पढ़ती थी। भगीरथ, इस समय नवीं श्रेणी में पढ़ रहा था। वह भी चौदह वर्ष का हो गया था। भगीरथ से छोटी सुभद्रा थी। वह इस समय बारह वर्ष की थी और सातवीं कक्षा में पढ़ रही थी। उससे छोटा राघव था और फिर दिलीप। राघव ग्यारह वर्ष का था और दिलीप दस वर्ष का।
दिलीप के जन्म के समय, सृष्टि को द्रुत गति से बढ़ते देख शकुन्तला ने गर्भाशय का आपरेशन करवा दिया। वह बीमार होने की आशंका करने लगी थी।
दुर्गा इत्यादि बच्चे घर की बातों में सम्मति देते हुए आत्मविश्वास से भर जाते थे। इस आत्मविश्वास के साथ ज्ञानवृद्धि एक अत्यावश्यक शर्त है। यह सबकी समान रूपेण नहीं हो रही थी। यही कारण था कि भगीरथ यह समझ रहा था कि पिताजी उसकी माताजी की रियायत किया करते हैं।
दुर्गा भगीरथ की अपेक्षा समझदार थी। वह जब भी संस्था के प्रधान को अपना निर्णयात्मक मत उनके विपरीत देते देखती थी तो समझ जाती थी कि प्रधान की सम्मति में वे गलत विचार रखते हैं। उसको विस्मय तो इस बात पर हुआ करता था कि यदि उनके पक्ष में एक मत अधिक आ जाता तो प्रधान उनकी बात मान जाते। क्या एक मत अधिक से उनकी बात युक्तियुक्त और ठीक हो जाती ? इसी कारण वह संसद के निर्णयों में रुचि रखते हुए भी इसके औचित्य पर संदेह ही रखती थी।
दुर्गा की एक सहेली थी विद्या। दोनों कॉलेज तथा एक ही कक्षा में पढ़ती थीं और दोनों के पढ़ाई के विषय भी एक ही थे।
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