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राम कथा - साक्षात्कार

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 533
आईएसबीएन :81-216-0765-5

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान

ओ सखी वज्रा!'' शूर्पणखा वज्रा से लिपट गयी, ''तुझे क्या बताऊं, कितनी प्रसन्न हूं मैं! जा, भोजन के विशेष व्यंजनों का प्रबंध कर। तीखी मदिराओं की व्यवस्था कर। अपना सुख भुला न पायी तो प्रसन्नता से मर जाऊंगी। श्रृंगार-शिल्पियों से भी कह दे-कल के श्रृंगार के लिए विशेष प्रबंध करें। कल मुझे अभिसार के लिए जाना है और सुन! अंगरक्षकों को कह दे, आस-पास के ग्रामों का सारा दूध लाकर मेरे स्नान-सरोवर में डाल दें, कल मैं दुग्ध-स्नान करूंगी।'' वज्रा कुछ भी समझ नहीं पायी। वह मात्र फटी-फटी आंखों से उसे देखती रही।

राम के आश्रम में प्रातः से ही विभिन्न आश्रमों तथा ग्रामों के जन-सैनिकों की टोलियां पहुंचनी आरंभ हो गयीं। सैनिकों के साथ उनके शस्त्र थे और साथ ही अन्न-भंडार भी। कई टोलियां तो अपनी आवश्यकता से कहीं अधिक अन्न लायी थी, ताकि यदि अन्य टोलियों के पास अन्न का अभाव हो तो उसकी पूर्ति की जा सके। सबसे अधिक अन्न भीखन के गांव से आया लगता था।

आज से आश्रम का दायित्व सीता पर था। लक्ष्मण, मुखर और जटायु-बाहर से आए जन-सैनिकों की व्यवस्था में व्यस्त हो गए थे। उचित स्थान देख, अस्थायी कुटीरों का निमाण कर, उनके आवास का प्रबंध हो रहा था। उनमें परस्पर संपर्क और संचार की व्यवस्था करनी थी। स्थानीय जन-सैनिकों के नेतृत्व में आस-पास के भूगोल का ज्ञान प्राप्त करने का प्रबंध करना था...और यद्यपि शस्त्रों और अन्न की मात्रा पर्याप्त थी, तथापि उनके सम्यक् वितरण की देखभाल करनी थी।

आवास-प्रबंध के प्रधान जटायु थे। राम ने उन्हें रण-नीति समझा दी थी। आश्रम के चारों ओर टीलों तथा ढूहों का प्रयोग दुर्ग के रूप में किया जाना था। सैनिकों को उन ढूहों के एक ओर इस प्रकार बसाया जाना था कि वे आश्रम से तो दिखायी पड़े, किंतु विपरीत दिशा से आने वाले व्यक्ति की दृष्टि उन पर न पड़ सके। जिस टोली को जहां ठहराया जा रहा था, उसे वहीं रहना था और वही से युद्ध करना था, ताकि युद्ध के समय न उन्हें व्यूह-बद्ध होना पडे, न कहीं आना-जाना पड़े। उन्हें अपने-अपने ढूह के पीछे छिपकर अपनी रक्षा करते हुए, शत्रु की अधिक से अधिक क्षति करनी पड़ी।

संचार-व्यवस्था मुखर के पास थी। प्रत्येक ढूह के लिए दोहरी संचार-व्यवस्था का प्रबंध था-एक ओर अपने आसपास के ढूहों से परस्पर संपर्क तथा दूसरी ओर आश्रम से सीधा संपर्क, ताकि सूचनाओं तथा आदेशों के आने-जाने में कोई विघ्न न पड़ सके।

शस्त्रों तथा अन्न-भंडारों की व्यवस्था लक्ष्मण देख रहे थे। प्रत्येक टोली के पास उनकी आवश्यकता के अनुसार अन्न तथा शस्त्र हों। आवश्यकता होने पर, किस प्रकार उन तक और अन्न तथा शस्त्र पहुंचाए जाएं, और पीछे हटने अथवा ढूह खाली करने की स्थिति में कैसे अन्न और शस्त्र वहां से हटाए जाएं। विपरीत दिशा से आते हुए शत्रुओं से निकट पड़ने वाले ढूहों पर कम दूरी तक मार करने बाले धनुष तथा धनुर्धारी हों, तथा आश्रम के निकट और शत्रुओं से दूर पड़ने वाले ढूहों पर, दूर तक वार करने वाले धनुष तथा धनुर्धारी। अन्य छोटी-मोटी समस्याएं भी उठ खड़ी होती थीं। लक्ष्मण उनमें उलझे हुए थे।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ

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