गजलें और शायरी >> खुशबू खुशबूऋषिवंश
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नई हिन्दी गजलें....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
ग़ज़ल उर्दू, फारसी और अरबी परंपरा की लोकप्रिय व महान मौलिक काव्य विद्या
है, जो आलग-अलग देशों में उनकी अपनी-अपनी भाषाओं, लिपियों में ढलने लगी
है। हिंदी या देवनागरी में तो विशेषकर, क्योंकि हिंदी-उर्दू का ;
भौगोलिक-ऐतिहासिक, सामाजिक-सामुदायिक साथ भी रहने के कारण, चोली दामन का
साथ है। लिपि, लिखावट या अक्षर विन्यास अलग होने के बाद भी उर्दू-हिंदी,
शब्दों के उच्चारण, अर्थ तथा भाव की पुष्टि से सहोदरी भाषाएं लगती हैं।
प्रचलन की दृष्टि से भी ग्रामीण व शहरी भारत के जन सामान्य तक उतरी हुई
भाषा, उर्दू और हिंदी की मिश्रित शब्दावलियों से बनी ऐसी सहज, सरल आम भाषा
है, जिसमें दोनों की विशेषताएँ, झलक व मिश्रण देखा, पाया और अनुभव किया जा
सकता है। कोई भी उर्दू में बात करे तो हिंदी वाले बखूबी समझ लेते हैं, औऱ
कोई हिंदी में बात करे तो उर्दू वाले भी सहजता से सारे भाव ग्रहण कर लेते
हैं। अड़चन बस कुछ शुद्ध व कठिन उर्दू शब्दों से हिंदी वालों को तथा कुछ
क्लिष्ट शुद्ध हिंदी शब्दों से उर्दू वालों को होती है। वैसे कुछ विशुद्ध
हिंदी शब्द आम हिंदी वाले भी नहीं समझ पाते हैं, वैसे ही कुछ विशुद्ध
अरबी-उर्दू शब्द आम उर्दू वाले भी सहजता से नहीं समझ पाते हैं।
संभवतः इसी से आम भारतीय लोगों ने एक ऐसी आम बोलचाल तथा लिखापढ़ी का एक आम भाषा गढ़ या बना लिया है, या यों कहें कि धीरे-धीरे विकसित कर लिया है, जो औपचारिक भाषायी या साहित्यिक शुद्धता की बजाए सरल-सहज अभिव्यक्ति व समझने-समझाने की दृष्टि से उनके अधिक निकट है। दोनों भाषाओं के सहायक चिन्ह, संकेत, बिंदी, नुक्ता, पाई, हलन्त इत्यादि के अलग-अलग होने या उनके बिलकुल ही न होने पर भी, दोनों भाषाओं के लोग आपस में शब्दों के अर्थ बखूबी तथा सरलता से लगा लेते हैं। दरअसल आज भारतवर्ष में प्रयोग होने वाली आम हिंदी भाषा ऐसे ही हिंदी व उर्दू मिश्रित भाषा है. न कि शुद्ध-परिमार्जित हिंदी। ऐसी मिश्रित भाषाएं मानवीय प्रगति व वैश्विक विकास दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण और समृद्ध मानी जाती हैं तथा साहित्यिक आदान-प्रदान व स्वास्थ्य के लिए हितकारी भी। शुद्ध हिंदी या शुद्ध उर्दू की क्लिष्टताओं से बचा रहकर आम पाठक इस आम मिश्रित भाषा को अपने अधिक निकट पाता है। वह इसी का प्रयोग करना भी पसन्द करता है।
दोनों भाषाओं के तथाकथित साहित्यकार व अदीब या अन्य विशिष्ट धार्मिक, राजनैकित या और लोग चाहे जितना चिल्लाते रहें, आम लोगों को तो सरलतम, सहजतम व सूक्ष्मतम चीजें व प्रचलन की पसंद हैं, जिनमें कम से कम व अत्यंत आवश्यक औपचारिकताएं मात्र हों। कम से कम जितने में काम चल जाए।
ग़ज़ल संग्रह ‘ खुशबू’ की ग़ज़लें ऐसी ही आम मिश्रित हिंदी भाषा या हिन्दुस्तानी भाषा में कही गई ऐसी ही ग़ज़लों को संग्रह है, जिसमें सहायक भाषायी चिन्हों-संकेतों, सिद्धांतों एवं औपचारिक शुद्धताओं, नज़ाकतों-नफ़ासतों की बजाए, आम पाठकों तक सहज पहुंच न अभिव्यक्ति के लिए अधिक उपयुक्त है। जैसे कि आम देशी घी का लड्डू टेढ़ा-मेढ़ा होने पर भी प्रिय व पौष्टिक होगा ही।
उर्दू में शुद्ध शब्द ‘ग़ज़ल’ है, जबकि आम भारतीय, विशेषकर हिंदी पाठक, शब्द ‘गजल’ से भी वही अर्थ ग्रहण करता है जो ‘ग़ज़ल’ से। बल्कि ‘नुक्ता’, बिंदी या अन्य सहायक औपचारिक चिन्हों से युक्त होने पर उसी शब्द विशेष से वह कुछ अजनबीपन व दूरी सी महसूस करने लगता है। और क्योंकि, तमाम मानवीय भाषाओं का उद्देश्य मात्र अर्थों-भावों का सरलतम सम्प्रेषण व वैचारिक आदान-प्रदान है, अतः इसके पीछे हाथ-पैर धोकर पीछे पड़ जाने की भी ऐसी कोई विशेष आवश्यकता नहीं है।
आज की ग़ज़लों में उसके प्राचीन पारंपरिक स्वरूप व विषय वस्तु से हटाव व परिवर्तन स्पष्ट देखे जा सकते हैं। हिंदी ग़ज़लों को लिखने का क्रम दशकों से चला आ रहा है, इनमें मात्र हिंदी की बहुलता के कारण ही इन्हें ‘हिंदी ग़ज़ल’ कहा जाता है। प्रायः हिंदी ग़ज़लों में भी ‘नुक्ता’ जैसे चिन्ह नहीं छोड़े गए थे, जबकि आम हिंदी भाषी पाठक की नजर से व भावगम्यता की दृष्टि से, इसे भी छोड़ देने से आम हिंदी भाषी ग़ज़लों के कुछ और पास ही पहुंचते। यह कदम ग़ज़लों के साथ-साथ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के लिए विस्तारक व लाभप्रद ही होता।
विषय वस्तु की दृष्टि से भी प्रेम, सौंदर्य, शराब-शबाब, जाम-साकी, मिलन-विरह...से बढ़कर आम मानव जीवन के तमाम छोटे बड़े सरोकार ग़ज़लों में उतरने लगे हैं। रोजी रोटी, आम आदमी, राजनीति-सियासत, बाजार-व्यापार, विज्ञान, युद्ध खून-खराबे....ग़ज़लों की पकड़ में अब सारे आधुनिक जीवन प्रसंग व मानवीय क्रिया-कलाप शामिल होने से इनका दायरा ही कुछ और बढ़ा है। ग़ज़लें अब जीवन के कोमलतम से होकर कठोरतम, तथा बीच के सारे जीवन व्यापारों व लेन-देन की बातें करने लगी हैं, जो एक शुभ वैश्विक लक्षण है। आधुनिक जीवन की क्लिष्टताओं का प्रयोग अब ग़ज़लों में बखूबी संभव है।
संभवतः इसी से आम भारतीय लोगों ने एक ऐसी आम बोलचाल तथा लिखापढ़ी का एक आम भाषा गढ़ या बना लिया है, या यों कहें कि धीरे-धीरे विकसित कर लिया है, जो औपचारिक भाषायी या साहित्यिक शुद्धता की बजाए सरल-सहज अभिव्यक्ति व समझने-समझाने की दृष्टि से उनके अधिक निकट है। दोनों भाषाओं के सहायक चिन्ह, संकेत, बिंदी, नुक्ता, पाई, हलन्त इत्यादि के अलग-अलग होने या उनके बिलकुल ही न होने पर भी, दोनों भाषाओं के लोग आपस में शब्दों के अर्थ बखूबी तथा सरलता से लगा लेते हैं। दरअसल आज भारतवर्ष में प्रयोग होने वाली आम हिंदी भाषा ऐसे ही हिंदी व उर्दू मिश्रित भाषा है. न कि शुद्ध-परिमार्जित हिंदी। ऐसी मिश्रित भाषाएं मानवीय प्रगति व वैश्विक विकास दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण और समृद्ध मानी जाती हैं तथा साहित्यिक आदान-प्रदान व स्वास्थ्य के लिए हितकारी भी। शुद्ध हिंदी या शुद्ध उर्दू की क्लिष्टताओं से बचा रहकर आम पाठक इस आम मिश्रित भाषा को अपने अधिक निकट पाता है। वह इसी का प्रयोग करना भी पसन्द करता है।
दोनों भाषाओं के तथाकथित साहित्यकार व अदीब या अन्य विशिष्ट धार्मिक, राजनैकित या और लोग चाहे जितना चिल्लाते रहें, आम लोगों को तो सरलतम, सहजतम व सूक्ष्मतम चीजें व प्रचलन की पसंद हैं, जिनमें कम से कम व अत्यंत आवश्यक औपचारिकताएं मात्र हों। कम से कम जितने में काम चल जाए।
ग़ज़ल संग्रह ‘ खुशबू’ की ग़ज़लें ऐसी ही आम मिश्रित हिंदी भाषा या हिन्दुस्तानी भाषा में कही गई ऐसी ही ग़ज़लों को संग्रह है, जिसमें सहायक भाषायी चिन्हों-संकेतों, सिद्धांतों एवं औपचारिक शुद्धताओं, नज़ाकतों-नफ़ासतों की बजाए, आम पाठकों तक सहज पहुंच न अभिव्यक्ति के लिए अधिक उपयुक्त है। जैसे कि आम देशी घी का लड्डू टेढ़ा-मेढ़ा होने पर भी प्रिय व पौष्टिक होगा ही।
उर्दू में शुद्ध शब्द ‘ग़ज़ल’ है, जबकि आम भारतीय, विशेषकर हिंदी पाठक, शब्द ‘गजल’ से भी वही अर्थ ग्रहण करता है जो ‘ग़ज़ल’ से। बल्कि ‘नुक्ता’, बिंदी या अन्य सहायक औपचारिक चिन्हों से युक्त होने पर उसी शब्द विशेष से वह कुछ अजनबीपन व दूरी सी महसूस करने लगता है। और क्योंकि, तमाम मानवीय भाषाओं का उद्देश्य मात्र अर्थों-भावों का सरलतम सम्प्रेषण व वैचारिक आदान-प्रदान है, अतः इसके पीछे हाथ-पैर धोकर पीछे पड़ जाने की भी ऐसी कोई विशेष आवश्यकता नहीं है।
आज की ग़ज़लों में उसके प्राचीन पारंपरिक स्वरूप व विषय वस्तु से हटाव व परिवर्तन स्पष्ट देखे जा सकते हैं। हिंदी ग़ज़लों को लिखने का क्रम दशकों से चला आ रहा है, इनमें मात्र हिंदी की बहुलता के कारण ही इन्हें ‘हिंदी ग़ज़ल’ कहा जाता है। प्रायः हिंदी ग़ज़लों में भी ‘नुक्ता’ जैसे चिन्ह नहीं छोड़े गए थे, जबकि आम हिंदी भाषी पाठक की नजर से व भावगम्यता की दृष्टि से, इसे भी छोड़ देने से आम हिंदी भाषी ग़ज़लों के कुछ और पास ही पहुंचते। यह कदम ग़ज़लों के साथ-साथ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के लिए विस्तारक व लाभप्रद ही होता।
विषय वस्तु की दृष्टि से भी प्रेम, सौंदर्य, शराब-शबाब, जाम-साकी, मिलन-विरह...से बढ़कर आम मानव जीवन के तमाम छोटे बड़े सरोकार ग़ज़लों में उतरने लगे हैं। रोजी रोटी, आम आदमी, राजनीति-सियासत, बाजार-व्यापार, विज्ञान, युद्ध खून-खराबे....ग़ज़लों की पकड़ में अब सारे आधुनिक जीवन प्रसंग व मानवीय क्रिया-कलाप शामिल होने से इनका दायरा ही कुछ और बढ़ा है। ग़ज़लें अब जीवन के कोमलतम से होकर कठोरतम, तथा बीच के सारे जीवन व्यापारों व लेन-देन की बातें करने लगी हैं, जो एक शुभ वैश्विक लक्षण है। आधुनिक जीवन की क्लिष्टताओं का प्रयोग अब ग़ज़लों में बखूबी संभव है।
ऋषिवंश
उजाले
अँधेरों में उजाले चाहते हैं
पेट भूखे निवाले चाहते हैं।
प्यास से छटपटाती रूह तन्हा
साथ के पीने वाले चाहते हैं।
सर्द रातों के झेलते नश्तर
गर्म मोटे दुशाले चाहते हैं।
बहुत भारी हैं दर्द के किस्से
हल्के-फुल्के रिसाले चाहते हैं।
झुठ के रंग में रंगी दुनिया
सच्चाई की मिसालें चाहते हैं।
बड़ी कमजोर नस्ल आई है
मौत वाले जियाले चाहते हैं।
यह तरक्की पसंद महफिल है
दिल की जुबाँ पे ताले चाहते हैं।
पेट भूखे निवाले चाहते हैं।
प्यास से छटपटाती रूह तन्हा
साथ के पीने वाले चाहते हैं।
सर्द रातों के झेलते नश्तर
गर्म मोटे दुशाले चाहते हैं।
बहुत भारी हैं दर्द के किस्से
हल्के-फुल्के रिसाले चाहते हैं।
झुठ के रंग में रंगी दुनिया
सच्चाई की मिसालें चाहते हैं।
बड़ी कमजोर नस्ल आई है
मौत वाले जियाले चाहते हैं।
यह तरक्की पसंद महफिल है
दिल की जुबाँ पे ताले चाहते हैं।
बेजुबान
सोचता था कर नहीं पाया।
चैन से वह मर नहीं पाया।
जेब खाली उधारी बेइन्तेहा
देनदारी भर नहीं पाया।
महीनों से कुछ उदास उदास था
कुछ दिलासा पर नहीं पाया।
सालोंसाल भटकती उसकी ख्वाहिशें
एक का भी घर नहीं पाया।
पसीने से खून से जिसको गढ़ा
उस सड़क गुजर नहीं पाया।
भूख से रोते हुए कमजोर को
मेहनती नौकर नहीं पाया।
उम्रभर कपड़े फटे पहना रहा
मौत पर चादर नहीं पाया।
तोहमतें झूठी लगाते रहे सब
बेजुबान मुकर नहीं पाया।
चैन से वह मर नहीं पाया।
जेब खाली उधारी बेइन्तेहा
देनदारी भर नहीं पाया।
महीनों से कुछ उदास उदास था
कुछ दिलासा पर नहीं पाया।
सालोंसाल भटकती उसकी ख्वाहिशें
एक का भी घर नहीं पाया।
पसीने से खून से जिसको गढ़ा
उस सड़क गुजर नहीं पाया।
भूख से रोते हुए कमजोर को
मेहनती नौकर नहीं पाया।
उम्रभर कपड़े फटे पहना रहा
मौत पर चादर नहीं पाया।
तोहमतें झूठी लगाते रहे सब
बेजुबान मुकर नहीं पाया।
सोने का हिरन
सोने का हिरन लुभाया है
बेचारा दौड़ लगाया है।
हर बार निशाना चूक गया
उसने फिर तीर चलाया है।
शहरी आवारागर्दी को
देहाती मन ललचाया है।
एड़ी चोटी का जोर लगा
भूखे को पसीना आया है।
दो रोटी रोज जुटाने तक
वह क्या क्या स्वांग रचाया है।
यह आग नहीं बुझ पाएगी
कुदरत ने इसे जलाया है।
खोते खोते खो डालोगे
पाते पाते जो पाया है।
वह ढूँढ़ रहा कब से उसको
जो उसका ही हमसाया है।
देखो देखो सच्चाई को
सच में ही झूठ समाया है।
बेचारा दौड़ लगाया है।
हर बार निशाना चूक गया
उसने फिर तीर चलाया है।
शहरी आवारागर्दी को
देहाती मन ललचाया है।
एड़ी चोटी का जोर लगा
भूखे को पसीना आया है।
दो रोटी रोज जुटाने तक
वह क्या क्या स्वांग रचाया है।
यह आग नहीं बुझ पाएगी
कुदरत ने इसे जलाया है।
खोते खोते खो डालोगे
पाते पाते जो पाया है।
वह ढूँढ़ रहा कब से उसको
जो उसका ही हमसाया है।
देखो देखो सच्चाई को
सच में ही झूठ समाया है।
नई आग
आग लगी है पानी लाओ
कुसमय घोर नहीं चिल्लाओ।
चिड़िया चारा चुगने बैठी
छत से उसको नहीं उड़ाओ।
आने जाने वाले दर्शक
मत इनसे उम्मीद लगाओ।
जिसका दर्द वही जाने है
खुद का घाव स्वयं सहलाओ।
हवा बदल जाती है अक्सर
जैसी राग उसी में गाओ ।
लोग दोमुँहे साँप हो गए
ठोंक बजा कर बात उठाओ
खलनायक नायक बन बैठे
कोई नया मसीहा लाओ।
अँधियारे की आदत डालो
या फिर नई आग धधकाओ।
कुसमय घोर नहीं चिल्लाओ।
चिड़िया चारा चुगने बैठी
छत से उसको नहीं उड़ाओ।
आने जाने वाले दर्शक
मत इनसे उम्मीद लगाओ।
जिसका दर्द वही जाने है
खुद का घाव स्वयं सहलाओ।
हवा बदल जाती है अक्सर
जैसी राग उसी में गाओ ।
लोग दोमुँहे साँप हो गए
ठोंक बजा कर बात उठाओ
खलनायक नायक बन बैठे
कोई नया मसीहा लाओ।
अँधियारे की आदत डालो
या फिर नई आग धधकाओ।
खजाने
जब जब भी नाव डूबी थे सामने किनारे।
वक्त की ये गर्दिश, कि तुमने तीर मारे।
खूबियाँ उसी को उसको ही क्या गिनाना
मसीहा को अक्सर मिलते नहीं सहारे।
इर्द-गिर्द के कुछ हैं क्षण दगा दिया करते
बदनाम हुआ करते हैं मुफ्त में सितारे।
असलियत को हमने इस नजर कहाँ देखा
मीठी छुरी से हँसकर वह खाल भी उतारे।
दुनिया की बादशाहत मजूर नहीं हमको
गलियों की खाक जन्नत के कुदरती नजारे।
रातदिन बराबर दौलत की गुलामी में
है फलसफा पुराना जहरों को जहर मारे।
जिसकी सदाएँ सुनकर आता है मस्त मौसम
उसके लिए उतरती हैं मौसमी बहारें।
उस रास्ते पर चलकर देखो जो जिंदगानी
लाती है क्या खजाने करती है क्या इशारे।
वक्त की ये गर्दिश, कि तुमने तीर मारे।
खूबियाँ उसी को उसको ही क्या गिनाना
मसीहा को अक्सर मिलते नहीं सहारे।
इर्द-गिर्द के कुछ हैं क्षण दगा दिया करते
बदनाम हुआ करते हैं मुफ्त में सितारे।
असलियत को हमने इस नजर कहाँ देखा
मीठी छुरी से हँसकर वह खाल भी उतारे।
दुनिया की बादशाहत मजूर नहीं हमको
गलियों की खाक जन्नत के कुदरती नजारे।
रातदिन बराबर दौलत की गुलामी में
है फलसफा पुराना जहरों को जहर मारे।
जिसकी सदाएँ सुनकर आता है मस्त मौसम
उसके लिए उतरती हैं मौसमी बहारें।
उस रास्ते पर चलकर देखो जो जिंदगानी
लाती है क्या खजाने करती है क्या इशारे।
झमेले
खत्म ही होते नहीं हैं झमेले संसार के
रोज कोई नई आफत झेलते मन मार के।
चाहते तो थे हँसती खिलखिलाती हर नजर
पर झुलसने लग पड़े हैं हाथ-पैर बहार के।
दाँत काटी रोटियों का एक सपना और था
क्या पता था और ही दस्तूर हैं व्यापार के
ढह गए हैं ख्वाब ऊँचे जख्म गहरा लाजिमी
वक्त लगता है सुधरने में गिरी मीनार के
चंद बातें काम की बकवास है बाकी अदब
आपसी रंजिश जगाते फलसफे बेकार के।
कोई सिर मुंडवा रहा है कोई रखता है जटा
रास्ते सबके अलग उस एक दर-दरबार के।
एक अंधा और बहरा खुद है तो सामने़
दरिन्दों की हिफाजत में फैसले सरकार के।
लुट रही कलियों की अस्मत बागवाँ के सामने
कमीनो ने कर लिए सौदे गुलो-गुलजार के।
रोज कोई नई आफत झेलते मन मार के।
चाहते तो थे हँसती खिलखिलाती हर नजर
पर झुलसने लग पड़े हैं हाथ-पैर बहार के।
दाँत काटी रोटियों का एक सपना और था
क्या पता था और ही दस्तूर हैं व्यापार के
ढह गए हैं ख्वाब ऊँचे जख्म गहरा लाजिमी
वक्त लगता है सुधरने में गिरी मीनार के
चंद बातें काम की बकवास है बाकी अदब
आपसी रंजिश जगाते फलसफे बेकार के।
कोई सिर मुंडवा रहा है कोई रखता है जटा
रास्ते सबके अलग उस एक दर-दरबार के।
एक अंधा और बहरा खुद है तो सामने़
दरिन्दों की हिफाजत में फैसले सरकार के।
लुट रही कलियों की अस्मत बागवाँ के सामने
कमीनो ने कर लिए सौदे गुलो-गुलजार के।
माहौल
होश में दुनिया नहीं काबिल है रहने के।
दो घूँट पिला कुछ तो बहाने बनें सहने के।
हर आदमी अच्छा, तो बुरा कैसे जमाना है
बेदर्दियों के किस्से लाखों तो हैं कहने के।
इंसानियत की बातें लगने लगीं पुरानी
माकूल हैं मौसम भी ईमान के ढहने के।
धुआँ उगल रहा है नदियों का पानी पीकर
माहौल ना रहे अब दरियाओं के बहने के।
बिकने लगी मोहब्बत जलने लगीं दुलहिनें
करने लगे इशारे अब ठूँठ भी गहने के।
मक्कारियाँ हमारी हम फिर न मानेंगे
है वक़्त अभी बाकी इंसानों के ठहने के।
करतबों का पुलिंदा चमका तो दिया सब कुछ
कुछ ख़्वाब अधूरे रहे इस सदी के चहने के।
दो घूँट पिला कुछ तो बहाने बनें सहने के।
हर आदमी अच्छा, तो बुरा कैसे जमाना है
बेदर्दियों के किस्से लाखों तो हैं कहने के।
इंसानियत की बातें लगने लगीं पुरानी
माकूल हैं मौसम भी ईमान के ढहने के।
धुआँ उगल रहा है नदियों का पानी पीकर
माहौल ना रहे अब दरियाओं के बहने के।
बिकने लगी मोहब्बत जलने लगीं दुलहिनें
करने लगे इशारे अब ठूँठ भी गहने के।
मक्कारियाँ हमारी हम फिर न मानेंगे
है वक़्त अभी बाकी इंसानों के ठहने के।
करतबों का पुलिंदा चमका तो दिया सब कुछ
कुछ ख़्वाब अधूरे रहे इस सदी के चहने के।
साकी
साकी ने जाम भर दिया और मैंने पी लिया
खुशहाल था, उसका करम कुछ और जी लिया।
गुलशन सजा दिए मेरे आने की खुशी में
जश्नेबहार करके मेरा नाम ही लिया।।
मनमानियों के दौर से बेकार हुई किस्मत
राहेसुकून भी किया इलजाम भी लिया।
दरवेश मौसमों के इखलाक में खड़े हैं
होम की खुशबू लिए जंगल की तीलियाँ।
जर्रे को चमन करने का हुनर आसमानी
सन्नाटे बना डाले और होंठ सी लिया।
परबत की चोटियों से लहराते समुन्दर तक
रंगीन रोशनियाँ कमाल की लिया।
फुटे बदन के जादू जब हुस्न कसमसाया
गुज़री थीं निगाहों के कमसिन छबीलियाँ।
खुशहाल था, उसका करम कुछ और जी लिया।
गुलशन सजा दिए मेरे आने की खुशी में
जश्नेबहार करके मेरा नाम ही लिया।।
मनमानियों के दौर से बेकार हुई किस्मत
राहेसुकून भी किया इलजाम भी लिया।
दरवेश मौसमों के इखलाक में खड़े हैं
होम की खुशबू लिए जंगल की तीलियाँ।
जर्रे को चमन करने का हुनर आसमानी
सन्नाटे बना डाले और होंठ सी लिया।
परबत की चोटियों से लहराते समुन्दर तक
रंगीन रोशनियाँ कमाल की लिया।
फुटे बदन के जादू जब हुस्न कसमसाया
गुज़री थीं निगाहों के कमसिन छबीलियाँ।
जारी है
फर्जी सेना नकली सैनिक और लड़ाई जारी है
चोरी सीनाजोरी की बेशर्म ढिठाई है।
देखो-देखो कितनी मोहक नीति बनाई राजा ने
भोगविलास और अय्याशी की अगुआई जारी है।
विद्वानों की सभा सजी है मोटे ग्रंथ विचारों के
सच का कुछ अनुमान नहीं है कलम घिसाई जारी है।
मानवहित पर बहस चल रही संसद पखवाड़े से
और सदन में मारामारी-हाथापाई जारी है।
मंत्र नहीं जाने बिच्छू का हाँथ साँप के बिल में दे
जहर उगलती राजनीति की क्या कुटिलाई जारी है।
लड्डू खाकर जनता खुश है राजा खुश है सत्ता से
घूँस दलाली वाली रबड़ी और मलाई जारी है।
चोर फैसला लिखने वाले डाकू की निगरानी में
मौत किसी की भी लिखवा लो सुलह सफाई जारी है।
गधा पंजीरी खाए जमकर बैलों के दरबार सजे
भूखी लड़पे गाय बेचारी घास चराई जारी है।
कुर्सी नहीं बपौती लेकिन कितनी अच्छी लगती है
छँटे हुए मक्कारों वाली टाँग खिंचाई जारी है।
चोरी सीनाजोरी की बेशर्म ढिठाई है।
देखो-देखो कितनी मोहक नीति बनाई राजा ने
भोगविलास और अय्याशी की अगुआई जारी है।
विद्वानों की सभा सजी है मोटे ग्रंथ विचारों के
सच का कुछ अनुमान नहीं है कलम घिसाई जारी है।
मानवहित पर बहस चल रही संसद पखवाड़े से
और सदन में मारामारी-हाथापाई जारी है।
मंत्र नहीं जाने बिच्छू का हाँथ साँप के बिल में दे
जहर उगलती राजनीति की क्या कुटिलाई जारी है।
लड्डू खाकर जनता खुश है राजा खुश है सत्ता से
घूँस दलाली वाली रबड़ी और मलाई जारी है।
चोर फैसला लिखने वाले डाकू की निगरानी में
मौत किसी की भी लिखवा लो सुलह सफाई जारी है।
गधा पंजीरी खाए जमकर बैलों के दरबार सजे
भूखी लड़पे गाय बेचारी घास चराई जारी है।
कुर्सी नहीं बपौती लेकिन कितनी अच्छी लगती है
छँटे हुए मक्कारों वाली टाँग खिंचाई जारी है।
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