रहस्य-रोमांच >> माया जाल माया जालगुरुदत्त
|
1 पाठकों को प्रिय 265 पाठक हैं |
सम्मोहिनी विद्या और योग-साधना पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
जब पुस्तक की पांडुलिपी लिख दी गई तो एक मित्र इसे पढ़ गए और पश्चात
विस्मय से लेखक का मुख देखने लगे। उनका विस्मय करना स्वाभाविक था। वे समझ
नहीं सके थे कि एक लिखा-पढ़ा अनुभवी लेखक मदारी और जादू के खेलों पर
पुस्तक लिखकर क्या कहना चाहता है ? आज कहे जाने वाले उन्नत समाज में इन
बातों की चर्चा लज्जा की बात मानी जाती है।
परन्तु यह तो उपन्यास है। उपन्यास में पात्र, स्थान और वातावरण तो विषय को रंग देने के लिए कल्पित किए जाते हैं। शर्बत में सुगन्धि अथवा सुन्दरी में श्रृंगार जो अस्तित्व रखते हैं, वही उपन्यास में ये काल्पनिक वस्तुएँ रखती हैं।
इस पर भी भीतर कल्पना पाठक की बुद्धि की सीमा के भीतर होनी चाहिए। उन विषयों पर लिखने में भारी सतर्कता की आवश्यकता होती है जो साधारण मनुष्य की बुद्धि की सीमा-रेखा के समीपवर्ती हो। एक इंच भी इधर-उधर हुए कि कहानी के अस्वाभाविकता के क्षेत्र में पहुँच जाने का डर होता है। कभी कहानी लिखने वाले को अपनी कल्पना पर लगाम लगाने की आवश्यकता होती है, और यदि लेखक चतुर हो तो पाठक के बुद्धिक्षेत्र को विस्तृत करने की भी कभी आवश्यकता पड़ जाती है।
अतएव इस पुस्तक के उस भाग को, जिसमें सम्मोहिनी विद्या और योग-साधना इत्यादि का वर्णन है, देखकर विस्मय करने की आवश्यकता नहीं। इस सब के भीतर आशय वही है जो एक कृषक अथवा व्यापारी की जीवन कथा को लिखने का है। संसार माया है, माया के अर्थ ‘मिथ्या’ नहीं। इसके अर्थ केवल यह हैं कि जो ऐसा प्रतीत होता है वह वैसा है नहीं विज्ञान तथा ज्ञान दोनों मनुष्य को इसी परिणाम पर ले जाने के लिए यत्नशील हैं। ये मनुष्य को संसार के वास्तविक रूप का निरूपण कराने का यत्न करते हैं।
संसार का वास्तविक रूप क्या है ? इसका उत्तर अति गहन है। भगवान कृष्ण अपनी गीता में और उससे पूर्व वेद-वेदांग इस रूप का वर्णन करने का यत्न कर गए हैं। मनुष्य की बुद्धि काली रात में एक टिमटिमाते दीपक के तुल्य है। मनुष्य उस दीपक के प्रकाश में केवल उतनी ही दूर देख सकता है, जितनी दूर तक दीपक का प्रकाश जाता है। बुद्धिरूपी दीपक को अधिक और अधिक ज्योतिर्मय करने से मनुष्य अधिक और अधिक दूर तक देखने का सामर्थ्य प्राप्त करता जाता है। बुद्धि का विकास भी एक साधारण बात नहीं। इसके लिए भारी प्रयास और सम्भवतः जन्म-जन्मान्तर के यत्न की आवश्यकता रहती है। योग-साधना इस यत्न में भारी सहायता देती है।
जब मनुष्य को यह विदित हो जाता है और यह बात उसके हृदय में बैठ जाती है कि मनुष्य का शरीर उस पिंजड़े के समान है, जिसमें सुंदर तोता बैठा है, तो उसका संसार को देखने का ढंग सर्वथा परिवर्तित हो जाता है। तोता अर्थात् आत्मा मुख्य, और पिंजड़ा अर्थात् यह शरीर और बाह्य संसार गौण हो जाते हैं। तोता अपने पिंजड़े के सौंदर्य को देख-देख प्रसन्नता अनुभव कर सकता है। इस पर भी वह प्रसन्नता मिथ्या है। वह उसके लाभ में सहायक नहीं हो सकता।
पिंजड़े के सुंदर करने के प्रयत्न में ही एक महाजन धोखाधड़ी, यहाँ तक की झूठी बही लिखने का यत्न करता है। इसी के लिए चोर चोरी करता है और एक कारखाने का मालिक सहस्रों सेवकों को नौकर रख, दिन-रात धन कमाने में लगा रहता है। कोई विवाह कर धन प्राप्त करना चाहता है। तो कोई दूसरों से झगड़ा उत्पन्न कर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। यह सबकुछ इस कारण होता है कि संसार को मुख्य मान वास्तविक वस्तु, आत्मोन्नति को गौण मान लिया जाता है।
वैदिक धर्म अथवा संस्कृति संसार और आत्मा में भेद को स्पष्ट कर आत्मा को मुख्य और संसार को गौण बताती है। सांसारिक वैभव और सुविधा आत्मोन्नति में साधन रूप ही स्वीकार करती है। सांसारिक उन्नति कुछ सीमा तक आत्मोन्नति में सहायक होती है, परन्तु जब भी यह सीमा उल्लंघन होने लगती है, वैदिक धर्म उँगली खड़ी कर संकेत कर देता है कि आगे नहीं जाना है !
वर्तमान युग संसार की असीम उन्नति में यत्नशील है; युग-धर्म आत्मोन्नति के विषय में सर्वथा चुप है। यह प्रवृत्ति अवैदिक है। यह विचार अनर्थ है। यह मनुष्य को उन्नति के स्थान अवनति की ओर ले-जाने में यत्नशील है।
संसार साध्य नहीं, साधन है। यह विचार जब दृढ़ हो जाता है तो कार्य सत्यमार्ग की दिशा में चल पड़ते हैं और जो आत्मसंतुष्टि और आनन्द प्राप्त होता है, वह अकथनीय है।
इस विशाल विस्मय के एक बहुत ही सीमित अंश को लेकर यह ‘मायाजाल’ लिख दिया गया है। इसमें कहाँ तक लेखक को सफलता मिली है, पाठक ही बता सकते हैं।
उपन्यास में स्थान, नाम, काल काल्पनिक होते हैं। इसमें भी वैसा ही है। किसी से प्रेम अथवा द्वेष तथा मोह और घृणा अभिप्रेत नहीं।
परन्तु यह तो उपन्यास है। उपन्यास में पात्र, स्थान और वातावरण तो विषय को रंग देने के लिए कल्पित किए जाते हैं। शर्बत में सुगन्धि अथवा सुन्दरी में श्रृंगार जो अस्तित्व रखते हैं, वही उपन्यास में ये काल्पनिक वस्तुएँ रखती हैं।
इस पर भी भीतर कल्पना पाठक की बुद्धि की सीमा के भीतर होनी चाहिए। उन विषयों पर लिखने में भारी सतर्कता की आवश्यकता होती है जो साधारण मनुष्य की बुद्धि की सीमा-रेखा के समीपवर्ती हो। एक इंच भी इधर-उधर हुए कि कहानी के अस्वाभाविकता के क्षेत्र में पहुँच जाने का डर होता है। कभी कहानी लिखने वाले को अपनी कल्पना पर लगाम लगाने की आवश्यकता होती है, और यदि लेखक चतुर हो तो पाठक के बुद्धिक्षेत्र को विस्तृत करने की भी कभी आवश्यकता पड़ जाती है।
अतएव इस पुस्तक के उस भाग को, जिसमें सम्मोहिनी विद्या और योग-साधना इत्यादि का वर्णन है, देखकर विस्मय करने की आवश्यकता नहीं। इस सब के भीतर आशय वही है जो एक कृषक अथवा व्यापारी की जीवन कथा को लिखने का है। संसार माया है, माया के अर्थ ‘मिथ्या’ नहीं। इसके अर्थ केवल यह हैं कि जो ऐसा प्रतीत होता है वह वैसा है नहीं विज्ञान तथा ज्ञान दोनों मनुष्य को इसी परिणाम पर ले जाने के लिए यत्नशील हैं। ये मनुष्य को संसार के वास्तविक रूप का निरूपण कराने का यत्न करते हैं।
संसार का वास्तविक रूप क्या है ? इसका उत्तर अति गहन है। भगवान कृष्ण अपनी गीता में और उससे पूर्व वेद-वेदांग इस रूप का वर्णन करने का यत्न कर गए हैं। मनुष्य की बुद्धि काली रात में एक टिमटिमाते दीपक के तुल्य है। मनुष्य उस दीपक के प्रकाश में केवल उतनी ही दूर देख सकता है, जितनी दूर तक दीपक का प्रकाश जाता है। बुद्धिरूपी दीपक को अधिक और अधिक ज्योतिर्मय करने से मनुष्य अधिक और अधिक दूर तक देखने का सामर्थ्य प्राप्त करता जाता है। बुद्धि का विकास भी एक साधारण बात नहीं। इसके लिए भारी प्रयास और सम्भवतः जन्म-जन्मान्तर के यत्न की आवश्यकता रहती है। योग-साधना इस यत्न में भारी सहायता देती है।
जब मनुष्य को यह विदित हो जाता है और यह बात उसके हृदय में बैठ जाती है कि मनुष्य का शरीर उस पिंजड़े के समान है, जिसमें सुंदर तोता बैठा है, तो उसका संसार को देखने का ढंग सर्वथा परिवर्तित हो जाता है। तोता अर्थात् आत्मा मुख्य, और पिंजड़ा अर्थात् यह शरीर और बाह्य संसार गौण हो जाते हैं। तोता अपने पिंजड़े के सौंदर्य को देख-देख प्रसन्नता अनुभव कर सकता है। इस पर भी वह प्रसन्नता मिथ्या है। वह उसके लाभ में सहायक नहीं हो सकता।
पिंजड़े के सुंदर करने के प्रयत्न में ही एक महाजन धोखाधड़ी, यहाँ तक की झूठी बही लिखने का यत्न करता है। इसी के लिए चोर चोरी करता है और एक कारखाने का मालिक सहस्रों सेवकों को नौकर रख, दिन-रात धन कमाने में लगा रहता है। कोई विवाह कर धन प्राप्त करना चाहता है। तो कोई दूसरों से झगड़ा उत्पन्न कर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। यह सबकुछ इस कारण होता है कि संसार को मुख्य मान वास्तविक वस्तु, आत्मोन्नति को गौण मान लिया जाता है।
वैदिक धर्म अथवा संस्कृति संसार और आत्मा में भेद को स्पष्ट कर आत्मा को मुख्य और संसार को गौण बताती है। सांसारिक वैभव और सुविधा आत्मोन्नति में साधन रूप ही स्वीकार करती है। सांसारिक उन्नति कुछ सीमा तक आत्मोन्नति में सहायक होती है, परन्तु जब भी यह सीमा उल्लंघन होने लगती है, वैदिक धर्म उँगली खड़ी कर संकेत कर देता है कि आगे नहीं जाना है !
वर्तमान युग संसार की असीम उन्नति में यत्नशील है; युग-धर्म आत्मोन्नति के विषय में सर्वथा चुप है। यह प्रवृत्ति अवैदिक है। यह विचार अनर्थ है। यह मनुष्य को उन्नति के स्थान अवनति की ओर ले-जाने में यत्नशील है।
संसार साध्य नहीं, साधन है। यह विचार जब दृढ़ हो जाता है तो कार्य सत्यमार्ग की दिशा में चल पड़ते हैं और जो आत्मसंतुष्टि और आनन्द प्राप्त होता है, वह अकथनीय है।
इस विशाल विस्मय के एक बहुत ही सीमित अंश को लेकर यह ‘मायाजाल’ लिख दिया गया है। इसमें कहाँ तक लेखक को सफलता मिली है, पाठक ही बता सकते हैं।
उपन्यास में स्थान, नाम, काल काल्पनिक होते हैं। इसमें भी वैसा ही है। किसी से प्रेम अथवा द्वेष तथा मोह और घृणा अभिप्रेत नहीं।
गुरुदत्त
देहात
1
खेतों के आगे खेत, जहाँ तक दृष्टि जाती थी, फैले हुए थे। गाँव के बाहर
खड़े होकर पश्चिम की ओर देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि खेतों का फैलाव
वहाँ तक है जहाँ आकाश भूमि से आकर मिल जाता है। बीच-बीच में कहीं-कहीं
बबूल, आम, और सिरस के पेड़ ऐसे खड़े प्रतीत होते थे जैसे खेतों में प्रहरी
खड़े हों। ये उस विस्तृत दृश्य को देखने में बाधा नहीं थे, प्रत्युत उसको
रूप-रंग दे रहा थे।
गाँव के बाहर एक बगिया थी। उसमें एक कुआँ था जिस पर रहट लगा था और जिसको मंगल भैया के बैल चलाया करते थे। इस रहट के पानी से गाँव-भर के लोगों के पीने, स्नानादि और कपड़े इत्यादि धोने के काम के साथ-साथ बगिया भी हरी-भरी रहती थी। बगिया ननकू दादा की बगिया कहाती थी। ननकू दादा को मरे सौ वर्ष से ऊपर हो गए थे, परन्तु उसका नाम चलता था। बगिया में प्रायः आम के पेड़ थे। एक कोने में थोड़ी-सी भूमि में गेंदा, मोतिया, चम्बेली इत्यादि फूलों के पौधे भी लगे रहते थे। ये फूल बगिया के कोने में मन्दिर के देवता की पूजा के काम में आते थे। कभी गाँव में किसी के पूजादि उत्सव होता तो वह भी इसी बगिया से फूल पा जाता था।
गाँव बगिया से पूर्व की ओर था और उसमें सबसे पहला घर मंगल भैया का ही पड़ता था। बीसियों वर्षों से यह प्रथा चली आती थी कि प्रातःकाल मंगल के पिता के घर से बैलों की जोड़ी आती और रहट चलाती, राहट की चीं-चीं सुनकर गाँव के लोग, नर-नारी, बाल-वृद्ध अपनी नित्यक्रिया से निवृत्त होने के लिए घर से निकल आते। खेतों में स्त्री-पुरुष और बच्चे शौंच के लिए जाते तो लोटों में राहट से पानी भरकर ले जाते और वहाँ से आकर दातुन-कुल्ला करते, स्नान करते और शिवालय में जल चढ़ा घरों को चले जाते।
जिन पुरुषों को खेतों में काम करना होता था, अँधेरा रहते ही घरों से निकल आते और पौ फटने से पूर्व शौचादि से निवृत्त हो कन्धों पर हल रख, बैलों को हाँकते हुए अपने-अपने खेतों को चले जाते थे इनके पीछे दूसरा नम्बर होता था गाँव की स्त्रियों का। वे निवृत्त होकर चली जातीं तो सबके अंत में वृद्ध जन कुएँ पर आते। इस प्रकार सूर्योदय से एक प्रहर बीतने तक यह प्रथम कार्य समाप्त हो जाता, तो बैल रहट से निकाल आराम करने के लिए छोड़ दिए जाते। भूसा-दाना उनके सन्मुख डाल दिया जाता और वे बड़े आम के पेड़ की नीचे बैठे जुगाली करने लगते थे।
मध्याह्न के समय गाँव की स्त्रियाँ अपने पुरुषों के लिए खाना ले खेतों में चली जातीं और अपने घरवालों को खाना-खिला-पिला कर लौट आतीं। तन्दूर की तीन-चार मोटी रोटियाँ, उन पर मेथी, आलू का साग और साथ लोटाभर लस्सी, यह प्रायः भोजन होता था, जो सूर्योदय से लेकर मध्याह्न तक खेतों में काम करनेवालों के मिलता था। इस समय बैलों की भी छुट्टी हो जाती थी और वे भी भूसा खाते, जुगाली करते और बैठकर थकान निकालते थे। खेतों में काम करने वालों के लिए भी दो घंटा-भर आराम करने का समय होता और वे पेड़ के नीचे नंगी भूमि पर लेटकर, खाई रोटी की मस्ती, अथवा छः घंटे खेत में काम करने की थकान दूर करते थे।
दो घंटे-भर विश्राम करने के पश्चात फिर बैल हलों में जुत जाते और हल खेतों में खुसुर-खुसुर चलने लगते थे। कभी खेतों में निराई करनी होती तो हँसिया लेकर खेतों में घुस जाना और छः घंटे गर्दन ऊपर उठाए मेहनत करनी होती थी।
इस प्रकार महीनों की मेहनत के पश्चात जब उपज पककर कटकर और एकत्रित कर घर आ जाती तो जो आनन्द मेहनत करनेवालों के मन में होता उसका अनुमान लगाना कठिन है।
गाँव के बाहर एक बगिया थी। उसमें एक कुआँ था जिस पर रहट लगा था और जिसको मंगल भैया के बैल चलाया करते थे। इस रहट के पानी से गाँव-भर के लोगों के पीने, स्नानादि और कपड़े इत्यादि धोने के काम के साथ-साथ बगिया भी हरी-भरी रहती थी। बगिया ननकू दादा की बगिया कहाती थी। ननकू दादा को मरे सौ वर्ष से ऊपर हो गए थे, परन्तु उसका नाम चलता था। बगिया में प्रायः आम के पेड़ थे। एक कोने में थोड़ी-सी भूमि में गेंदा, मोतिया, चम्बेली इत्यादि फूलों के पौधे भी लगे रहते थे। ये फूल बगिया के कोने में मन्दिर के देवता की पूजा के काम में आते थे। कभी गाँव में किसी के पूजादि उत्सव होता तो वह भी इसी बगिया से फूल पा जाता था।
गाँव बगिया से पूर्व की ओर था और उसमें सबसे पहला घर मंगल भैया का ही पड़ता था। बीसियों वर्षों से यह प्रथा चली आती थी कि प्रातःकाल मंगल के पिता के घर से बैलों की जोड़ी आती और रहट चलाती, राहट की चीं-चीं सुनकर गाँव के लोग, नर-नारी, बाल-वृद्ध अपनी नित्यक्रिया से निवृत्त होने के लिए घर से निकल आते। खेतों में स्त्री-पुरुष और बच्चे शौंच के लिए जाते तो लोटों में राहट से पानी भरकर ले जाते और वहाँ से आकर दातुन-कुल्ला करते, स्नान करते और शिवालय में जल चढ़ा घरों को चले जाते।
जिन पुरुषों को खेतों में काम करना होता था, अँधेरा रहते ही घरों से निकल आते और पौ फटने से पूर्व शौचादि से निवृत्त हो कन्धों पर हल रख, बैलों को हाँकते हुए अपने-अपने खेतों को चले जाते थे इनके पीछे दूसरा नम्बर होता था गाँव की स्त्रियों का। वे निवृत्त होकर चली जातीं तो सबके अंत में वृद्ध जन कुएँ पर आते। इस प्रकार सूर्योदय से एक प्रहर बीतने तक यह प्रथम कार्य समाप्त हो जाता, तो बैल रहट से निकाल आराम करने के लिए छोड़ दिए जाते। भूसा-दाना उनके सन्मुख डाल दिया जाता और वे बड़े आम के पेड़ की नीचे बैठे जुगाली करने लगते थे।
मध्याह्न के समय गाँव की स्त्रियाँ अपने पुरुषों के लिए खाना ले खेतों में चली जातीं और अपने घरवालों को खाना-खिला-पिला कर लौट आतीं। तन्दूर की तीन-चार मोटी रोटियाँ, उन पर मेथी, आलू का साग और साथ लोटाभर लस्सी, यह प्रायः भोजन होता था, जो सूर्योदय से लेकर मध्याह्न तक खेतों में काम करनेवालों के मिलता था। इस समय बैलों की भी छुट्टी हो जाती थी और वे भी भूसा खाते, जुगाली करते और बैठकर थकान निकालते थे। खेतों में काम करने वालों के लिए भी दो घंटा-भर आराम करने का समय होता और वे पेड़ के नीचे नंगी भूमि पर लेटकर, खाई रोटी की मस्ती, अथवा छः घंटे खेत में काम करने की थकान दूर करते थे।
दो घंटे-भर विश्राम करने के पश्चात फिर बैल हलों में जुत जाते और हल खेतों में खुसुर-खुसुर चलने लगते थे। कभी खेतों में निराई करनी होती तो हँसिया लेकर खेतों में घुस जाना और छः घंटे गर्दन ऊपर उठाए मेहनत करनी होती थी।
इस प्रकार महीनों की मेहनत के पश्चात जब उपज पककर कटकर और एकत्रित कर घर आ जाती तो जो आनन्द मेहनत करनेवालों के मन में होता उसका अनुमान लगाना कठिन है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book