कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
उसके आते ही 'आश्रय' में बहार आ गई थी। वृद्धों की एक टोली कब निकलती और कब
लौटती कोई जान भी नहीं पाता था। अब वे हँसते-हँसते खिलखिलाते रास्ते में पड़े
कंकड़-पत्थरों को निरर्थक ठोकरें मारते ऐसे निकलने लगे जैसे अभी-अभी मसें
फूटी हों। यही नहीं, उनमें से अधिकांश वृद्धों की गर्दनें “आइजराइट' की
मुद्रा में स्वयमेव बरामदे की ओर मुड़ जातीं, जहाँ प्रायः ही गुरुविंदर सखु
आंटी के साथ बैठ सुबह की चाय पीती थी। सखुबाई हँसकर उसे ठसकाती, “देख रही है
बुड्ढों को, तू क्या आयी कि सुबह-सुबह हाफपैंट पहन अपनी खोयी जवानी ढूँढ़ने
निकल पड़े हैं!"
“बेचारे घूमने जा रहे हैं, आंटी।"
"अरी, घूमने तो पहले भी जाते थे, पर ऐसे चहकते थे क्या? मैं खूब पहचानती हूँ
इन कमबख्त मर्दो को...कोई सुंदर लड़की देख लेंगे तो चिता से भी उठकर बैठ
जायेंगे!"
“छिः आंटी! कैसी बातें कर रही हैं आप!"
“अरे हाँ, और एक बात गाँठ बाँध ले लड़की, ये मरे रँडुवे बुड्ढे तो और भी
खतरनाक होते हैं।"
वैसे सखुबाई के मुँहफट कथन में कुछ सत्य तो था ही। गुरुविंदर की आगमनी ने
'आश्रय' का हुलिया ही बदल दिया था-बहुत दिनों से घिरी घनघोर घटा से म्लान बना
आकाश सहसा निरभ्र हो उठा था और एकाएक निकल आयी धूप ने क्लांत प्राणों में
नवीन स्फूर्ति, प्राणदायिनी ऊर्जा का संचार कर दिया था। कई गंजे सिरों में
कंघियाँ फिरने लगीं। धोबी की गठरी नित्य उतारे-बदले गए कमीज-कुर्तों से
गरीयसी बनने लगी। यहाँ तक कि पचहत्तर वर्ष के बाबू भाई भी अपनी बेसुरी आवाज
में जोर-जोर से अपना प्रिय विस्मृत गीत गाने लगे-'मैं बन का पंछी बनकर संग
संग डोलूँ रे।'
"सुन रही है गुरुविंदर, सात-सात बेटों के रहते इस पिंजरापोल में रहने आया है
और बन का पंछी बनकर चहक रहा है..."
“गाने भी दो, आंटी!"
“अरे, कैसे गाने दूँ? मुआ कैसा बेसुरा सुर अलाप रहा है! ओ बाबू भाई...अब बस
भी करो...बहुत अलाप लिया, थोड़ा कल के लिए भी तो छोड़ो!"
बाबू भाई बेचारे खिसियाकर चुप हो जाते। गुरुविंदर सखुबाई की-सी अशिष्टता से
किसी को आहत नहीं कर सकती थी। वह सुबह जाकर हर कमरे का गुलदान बदलती, हरे लॉन
की हरीतिमा को पानी से सींचती, किसी की आँख में दवा डालती, किसी की चंपी कर
आती। व्हील-चेयर में वनस्पति बन गई मिसेज बाटलीवाला को फूल-सा उठा ऐसे घुमा
लाती जैसे किसी बच्चे का प्रेम घुमा रही हो। पर तब ही करमजला करतार सिंह अपना
ट्रांजिस्टर बम का धमाका कर पूरे 'आश्रय' की नींद हिला गया था-वह हत्यारिन
है, लम्बी सजा काटकर यहाँ आयी फरार बंदिनी! पलक झपकाते ही जो मित्र थे, वे
शत्रु बन गए। एक सखु आंटी ने ही उसे नहीं छोड़ा। कितनी मूर्ख थी गुरुविंदर!
नारी का कलंक क्या चिता में चढ़ने तक उसे छोड़ता है?
आत्मीय स्वजनों की अवमानना सहना उतना कठिन नहीं होता जितना समाज की। सखुबाई
उसे उसके गहन नैराश्य के जितना ही बाहर खींचने की चेष्टा करती, वह उतनी ही
गहराई में धंस जाती। नित्य हँसने-हँसाने वाली वह हँसमुख लड़की एकदम ही गुमसुम
हो गई थी। सखुबाई ही उसे बहला-फुसलाकर खाना खिलाती, वह नहीं जायेगी तो सखु
स्वयं भी कुछ नहीं खायेगी, ऐसी धमकियाँ देती। रात को भी वह पार्श्व में
चुपचाप लेटी गुरुविंदर से कभी कुछ नहीं पूछती, केवल हाथ बढ़ाकर उसकी हथेली
मुट्ठी में बाँध लेती, जैसे कह रही हो-घबरा मत गुरुविंदर, मैं तेरे साथ हूँ।
फिर अचानक एक दिन सखुबाई ने देखा-जो गुरुविंदर उसके लाख उठाने पर भी नहीं
उठती थी और धूप निकल आने पर भी छत को शून्य दृष्टि से देखती रहती थी, वह उस
दिन उससे भी पहले उठ, नहा-धोकर उसके लिए चाय ले आयी थी।
“अरे वाह, आज तो तू बड़ी प्यारी लग रही है, नया सूट है क्या?" गहरे नीले रंग
के झीने पारदर्शी कपड़े की तंबू-सी फैली पटियाला सलवार, सलमा-सितारे की
कारचोबी जड़ा कुर्ता और नीले शिफान की गोटा लगी चुन्नी। “आज जरूर हमारी
बिरादरी के किसी बुड्ढे को दिल का दौरा पड़ेगा री, गुरुविंदर," सखुबाई ने
हँसकर कहा।
“अब बुड्ढे मुझे देखते ही कहाँ हैं आंटी!" वह हँसी। सखु उसे एकटक देखे जा रही
थी-सधे हाथों का मेकअप, ओठों पर प्रगाढ़ लालिमा, आँखों में सुरमे की सुरेखा
और फ्रेंच परफ्यूम की मदिर सुगंध। “यह मेरी सगाई का जोड़ा है, आंटी। आज दूसरी
बार ही पहन रही हूँ। ऊब गई हूँ कमरे में लेटे-लेटे, सोचा नहा-धोकर थोड़ी देर
घूम आऊँ। आप तो चलेंगी नहीं। अभी भी लँगड़ा रही हैं।"
दो दिन पहले सखुबाई के पैर में मोच आ गई थी। “पर तू अकेली जायेगी?" "क्यों,
कोई खा लेगा मुझे?"
वह हँसी और दाडिम के दानों की-सी वह दशनपंक्ति सखु के लिए वही अंतिम झलक थी।
बड़ी देर तक वह नहीं लौटी तो सखुबाई का माथा ठनका। कर्मचारी दूर-दूर तक ढूँढ़
आए पर वह कहीं नहीं मिली। इतनी ही देर में अविचार-ग्रस्त अफवाहों के फाये
उड़ने लगे-और क्या उम्मीद थी उससे? सजधजकर निकली थी, भाग गई होगी किसी के
साथ!
-और क्या, जो अपने पति की हत्या कर सकती है, वह कुछ भी कर सकती है। तब ही
हमने कहा था। हम शरीफों के बीच उसे रखना ही नहीं था। सखुबाई का जी कर रहा था
उनका मुँह नोंच ले, क्या इन्हीं शरीफों को गुरुविंदर को देखकर लार टपकाते
नहीं देख चुकी थी वह?
इतने ही में किसी ने आकर खबर दी-गुरुविंदर की लाश समुद्र तट पर पड़ी है।
उदार, आत्माभिमानी उदधि क्या कभी कुछ लेता है? उसका दुख ले लिया और देह लौटा
दी।
गुरुविंदर की मौत के बाद सखुबाई के लिए समय कछुए की चाल से रेंगने लगा। न
पढ़ने में जी लगता, न घूमने में। आनंदी आकर उसका हाथ न थाम लेती तो शायद वह
'आश्रय' छोड़कर कहीं भाग जाती। दोनों जैसे युगयुगांतर से एक-दूसरी को जानती
थीं। एकसाथ उठना-बैठना, खाना-पीना, घूमना। आनंदी अपनी पूजा में बैठती तो
सखुबाई अखबार पढ़ती रहती। कभी-कभी झंझला भी उठती। रोज-रोज एक-सी खबरे-हत्या,
मारकाट, सोने-चरस की धरपकड़! “अरी, सुन रही है, डोकरी? किस धरातल में जा रहा
है हमारा देश? बस रोज वही पंजाब और पंजाब या फिर बोफोर्स-कोई खबर नहीं रही
क्या?"
आनंदी निरुत्तर माला जपती रहती।
"मूर्ख जाहिल है तू, डोकरी। अब बंद कर अपना ढोंग!"
पर आनंदी तो चिकना घड़ा थी। सखुबाई कितनी ही गरजे-बरसे, उसके पाठ की प्राचीर
भंग नहीं कर सकती थी।
दोनों घूमने जातीं तो आनंदी कसकर सखु की उँगली थामे रहती। "डोकरी, तू यह
बच्ची-सी मैरी उँगली क्यों थामे रहती है? मैं क्या भाग रही हूं?"
"मुझे डर लगता है, मास्टरनी।"
"और किसी दिन मेरी उँगली हमेशा के लिए छूट गई तब? हममें से एक को तो पहले
जाना ही होगा न!"
आनंदी हँसकर ठिठक गई थी, "मैं ही पहले जाऊँगी, मास्टरनी।"
सखुबाई सहम गई, कैसे दृढ़ विश्वास से कह रही थी डोकरी। शांत परमहंसी दिव्य
चेहरे को जैसे किसी पवित्र घेरे ने घेर लिया था।
दोनों सखियों के प्रातःभ्रमण की एक नियत सीमा थी। समुद्र-तट की चमकती सिकता
पर धंसी जा रही चप्पलों को साधतीं, दोनों एक-दूसरी का हाथ थामे एक ही चट्टान
पर जाकर बैठ जातीं। कभी उग्र और कभी शांत फेनिल तरंगें आ-आकर दोनों को कभी
घुटनों तक भिगो जातीं, कभी एड़ियाँ भिगोकर ही लौट जातीं। जो सखुबाई कमरे में
बकर-बकर करती आनंदी को प्रतिपल छेड़ती रहती थी, वह चट्टान पर बैठते ही गूंगी
बन जाती। दोनों ध्यान-मग्न समाधिस्थ ऋषि-मुनियों के-से अडिग स्थैर्य से बड़ी
देर तक चुपचाप बैठी रहतीं। दोनों के हृदयों के गहनतम कक्ष की एक ही-सी वेदना
अपने ही मौन संभाषण में शायद सबकुछ कह-सुन लेती थी। वाणी के लिए फिर कोई
स्थान ही नहीं रह जाता। जिस आनंदी को वह बार-बार कुरेदकर भी कुछ नहीं जान
पायी थी, चट्टान पर बैठते ही कुछ न कहे जाने पर भी सब जान लेती। सखु जानती थी
कि नारी भी दो तरह की होती है। एक जो सामान्य-से स्नेह का प्रश्रय पाते ही
अपने हृदय के कपाट खोलकर रख देती है। दूसरी-जो प्राण रहते मन की व्यथा कभी
जिह्वाग्र पर नहीं आने देती!
सखु नारी के पहले कोठे में आती थी, आनंदी दूसरे में।
आनंदी के एक ही पुत्र था, दो पुत्रियाँ। पुत्र के लिए उसने स्वयं लड़की
ढूँढ़ी थी, पर जिस घड़े को वह ठोक-पीटकर लायी थी, जल भरे जाने पर जब वही टपटप
कर रिसने लगा तो उसने उसे अपना ही भाग्य-दोष मान लिया। पुत्र का ओहदा ऊँचा
था। वह विदेश सेवारत ऊँचा अफसर था। किंतु उसके ससुर का पद उससे भी ऊँचा था।
फिर उसकी बहू उनकी सिरचढ़ी इकलौती बेटी थी। विवाह होते ही बहू की माँ हर
महीने बेटी की गृहस्थी सम्हालने आने लगी। उन दिनों आनंदी के पुत्र की
नियुक्ति कुछ महीनों के लिए भारत में हो गई थी। बहू संतान-संभवा हुई तो उसकी
माँ फिर बेटी की देखरेख के लिए आ गई और धीरे-धीरे आनंदी को दीवार की ओर ठेलती
गई। अपने ही बेटे के घर में आनंदी मेहमान बन गई और उसकी समधिन मेजबान। फिर भी
आनंदी विलक्षण विवेकसम्पन्न सहिष्णु जननी थी। दोनों विवाहिता पुत्रियाँ मायके
आती तो बहू का मुँह फूल जाता-जब देखो तब चली आती हैं और अम्माँ पोटलियाँ
बाँध-बाँधकर थमाती रहती हैं।
एक दिन बहू अपनी माँ से कह रही थी तो बड़ी बेटी ने सुन लिया। छोटी सुनती तो
शायद चुप भी रहती, पर रुक्मन तो हवा से लड़ती थी। खुब किचकिच हुई। दोनों
बेटियाँ रूठकर उसी दिन चली गईं। उस गृह-कलह ने बेटे को भी माँ के लिए पराया
बना दिया। चलते-चलते रुक्मन उसकी सास के सामने ही उससे कुछ ऐसे अपशब्द कह गई,
जिन्हें वह क्षमा नहीं कर सका। दूसरे ही महीने वह परिवार सहित विदेश चला गया।
आनंदी समझ गई कि जिस बेरुखी से माँ का दामन झटककर वह भागा है, उससे वह सुखी
ही हुआ है, दुखी नहीं। एक वर्ष तक फिर कोई पत्र नहीं आया। फिर एक चिरकुट आया
था-मीना फिर संतान-संभवा है। आप चिंता न करें। उसकी देखभाल के लिए उसकी माँ आ
रही है।
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