कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
राजा को रंग बने अब उन्हें 'आश्रय' में पूरे सात वर्ष हो गए थे। न किसी से
बोलते, न किसी से कुछ पूछते। दिन-भर कमरे में पढ़ते रहते और आधी रात तक फिर
बरामदे में तब तक चहलकदमी करते, जब तक थककर चूर न हो जाते। फिर चुपचाप कमरे
में जाकर सो जाते। उस मौनव्रतधारी बुजुर्ग को वहाँ सर्वोच्च सम्मान प्राप्त
था। देखा जाये तो 'आश्रय' के दो ही संगमरमरी स्तंभ थे-पुरुषों में हरदयाल
लोढ़ा और महिलाओं में आनंदी। रात की गहराई को रौंदती, हरदयाल की खढ़ाऊँ की
खटखट सुन सखुबाई उन्हें परदे की दरार से देखती तो लगता कोई संसार त्यागी पलाश
दंडधारी दंडी ही मूर्तिमान हो ‘आश्रय' में आविर्भूत हुआ है। यही नहीं, मेस
में उन्हें भोजन करते भी वह कनखियों से देखती रहती। स्तूपाकार चावल, कटोरी पर
कटोरी दाल, सब्जी, दही-चपातियाँ खाते हरदयाल के कंठ में कभी एक कौर भी स्मृति
गह्वर बनकर नहीं अटकता होगा? फिर जैसे बिना दायें-बायें देखे खाने बैठे थे,
वैसे ही नतमुख खड़ाऊँ खटकाते अपने कमरे में चले जाते। खट, खट, खट। आश्रयवासी,
कर्मचारी, बुजुर्ग, महिला बिरादरी उन्हें देखते ही झुककर प्रणाम करती। कैसी
ही भीड़ क्यों न हो, उन्हें देखते ही मार्ग स्वयं बन जाता। उनकी उपस्थिति का
आभास पाते ही प्रार्थना सभा का कलरव स्वयं सुईटपक सन्नाटे में डूब जाता। जैसे
अहिमंडली में साक्षात् गरुड़ विराजमान हो गए हों। महाकवि कालिदास ने शायद ऐसी
ही विभूतियों के लिए कहा है :
भवेति साम्येपि निविष्ट चेतसां
वपुर्विशेषष्वति गौरवाः क्रिया:
रागद्वेष-रहित होने से सर्वत्र समबुद्धि-संपन्न उदारचित्त महानुभावों का
ब्रह्मतेज-संपन्न पुरुष के प्रति अत्यंत गौरव-युक्त सत्कार हुआ करता है।
उन्हें देखते तो किसी को भी कुछ न समझनेवाली सखुबाई का सिर भी स्वयमेव झुक
जाता। कभी यह व्यक्ति कलकत्ता के शीर्षस्थ उद्योगपति थे, यह शायद कभी कोई जान
नहीं पाता यदि ‘आश्रय' में अपने किसी आत्मीय से मिलने आए उनके एक मित्र के
मित्र उन्हें न पहचान लेते। पूर्व वैभव का एक स्मृति चिन्ह उनकी उँगली में अब
भी सोलीटेयर हीरे की अंगूठी के रूप में सर्चलाइट बना चमक रहा था। उसी व्यक्ति
ने उनकी कहानी आश्रयवासी अपने मित्र को सुनायी और धीरे-धीरे सब जान गए कि किस
दुख ने उन्हें मौनव्रतधारी बना दिया है।
सखुबाई की प्रखर कल्पना की उड़ान ने एक दिन आधी रात को आनंदी को झकझोरकर जगा
दिया। "सुनती है डोकरी, वह अंगूठी निश्चय ही उसके विवाह की अंगूठी रही होगी।
संसार का मायामोह तो त्याग आया, पर अंगूठी का मोह नहीं त्याग पाया बुड्ढा!"
“सखु, तू इतनी पढ़ी-लिखी है, पर कभी-कभी ऐसी बचकानी बातें क्यों करती है?
हमें क्या, अँगूठी भी उसी की है, पहननेवाला भी वही है। फिर तेरे सिर में दर्द
क्यों हो रहा है?"
“अच्छा डोकरी, देख रही हूँ तेरे पोपले मुँह में भी फिर बत्तीसी उग आयी है।
अच्छा, बता तो इस बार होली पर तेरी बेटियाँ गुझियाँ लाएँगी या नहीं?"
ऐसे ही वह आधी रात को आनंदी के खुले घावों को कुरेदती। ऐसा करने में शायद
स्वयं उसके अपने घाव की व्यथा कुछ कम हो जाती थी। उसका घाव क्या आनंदी के घाव
से कुछ कम गहरा था? अंतर इतना ही था कि आनंदी का घाव अभी ताजा था और उसका कब
का भर चुका था, केवल दाग-भर रह गया था। और वह उसी सहजता से उस टपकते घाव की
दुर्वह पीड़ा को भूल चुकी थी, जिस सहज स्वाभाविकता से नारी अपनी प्रथम
प्रसव-पीड़ा को भूल-बिसर जाती है। सखुबाई के पति की जब बस-दुर्घटना में अकाल
मृत्यु हुई तो पुत्र रोहित उसके गर्भ में था। ससुराल में कर्कशा पुत्रवंचिता
सास ने जब उसका जीना दूभर कर दिया तो वह अपने मायके चली आयी। वह अपनी इच्छा
से नहीं आयी थी। सास ने ही उसे अपनी जिह्वा के चाबुक से मार-मारकर भगा दिया
था, “चुडैल, तूने ही मेरे बेटे को खाया है! लाख समझाया था मैंने, इससे विवाह
मत कर, यह मंगली है, तुझे ही डस लेगी-पर उस अभागे पर तो तेरे रूप का भूत सवार
था! जा, निकल जा मेरे घर से! जा अपने मास्टर बाप के पास!"
सखुबाई फिर भी अडिग चट्टान-सी अड़ी रही, पर जब एक दिन बुढ़िया ने उस पर जली
लकड़ी उछालकर फेंकी तो उसी क्षण बूम.ग की तेजी से उसी लकड़ी से बुढ़िया को
धराशायी कर वह अपने पिता के घर चली आयी। पिता ने ही उसे पढ़ाया-लिखाया, उसकी
माँ ने उसके बेटे को पाला और वह एक दिन अपने पैरों पर खड़ी हो गई। सास का
मुँह फिर उसने पलटकर कभी नहीं देखा। अपनी योग्यता से ही जिस कॉलेज में पढ़ी
थी, वहीं की प्रिंसिपल बनी। माता-पिता जब तक जीवित रहे उन्हें भरपूर सुख
दिया। बेटा पढ़ने में अच्छा निकला। डॉक्टरी में सर्वोच्च स्थान ही नहीं पाया,
विदेश की छात्रवृत्ति भी हासिल की, पर वही छात्रवृत्ति उसकी शत्रु बनी।
मन-ही-मन सखुबाई जान गई थी कि उसका प्रवासी पुत्र अब चिरप्रवासी बन उसके
हाथों से हमेशा के लिए निकल जाएगा। कितने भारतीय डॉक्टर विदेश जाकर स्वदेश
लौटते हैं? फिर भी उसे पूरी उम्मीद थी कि उसका संस्कारशील पुत्र विवाह माँ की
ही पसंद से करेगा। किंतु जब एक दिन अचानक आधी रात को बेटे का फोन आया कि उसने
उस अमरीकी लड़की से विवाह कर लिया है, जिसके साथ वह पिछले तीन वर्षों से रह
रहा था, तो सखुबाई अर्धमृत-सी हाथ में फोन लिए बैठी ही रह गई थी। वहाँ से
'हैलो-हैलो' की व्यर्थ गुहार बड़ी देर तक गूंजती-टकराती स्वयं आले में खो गई।
इस आघात के लिए सखुबाई प्रस्तुत नहीं थी। वह ऐसे खोखले विवाहों की व्यर्थता
को जानती थी। उसका बेटा किसी भी प्रदेश की किसी भी जाति की बहू ले आता तो वह
उसे स्वीकार कर लेती। वह पढ़ी-लिखी उदारमना जननी थी। किंतु एकदम ही विपरीत
संस्कृति की, दूसरे ही परिवेश में पली विदेशिनी कभी उसके पुत्र की सच्ची
सुखदुखानुगामिनी सहचरी नहीं बन सकती, ऐसा उसका दृढ़ विश्वास था। पुत्र ने
बड़ा लाड़-प्यार भरा पत्र भेजा कि हनीमून से लौटते ही वह माँ के लिए टिकट
भेजेगा। उसे नयी बहू का वरण करने विदेश आना ही होगा।
सखुबाई ने तत्काल पत्र फाड़कर फेंक दिया था, “जायेगी मेरी जूती!"
पर जूती भी कहाँ जा पायी, हनीमून से लौट बेटा टिकट भेजता, इससे पहले ही नवेली
बहू स्वयं टिकट कटाकर अपने किसी स्वदेशी सहचर के साथ भाग गई। चार महीने बाद
बेटे का फिर पत्र आया, “अम्माँ, मैं तुम्हारे लिए दूसरी बहू ले आया हूँ।"
इस बार बहू की डोली सीधी सिडनी से आयी थी। पर वह भी कुल दो ही महीने टिकी।
फिर तीसरी आयी नाइजीरिया से। इस बार की बहू की काली चमड़ी का रंग एकदम पक्का
निकला। पिछले सात वर्षों में वह अपने ही रंग-रूप के दो बेटों की माँ बन चुकी
थी। रोहित ने अपने परिवार का चित्र भेजकर माँ को एकदम ही चित्त कर दिया था।
क्या उसके राजकुँअरसे बेटे के भाग्य में यही शूर्पनखा और शंभ-निशंभ बदे थे?
पावरोटी-से लटके ओंठ, घने-धुंघराले बालों का टोप और आबनूसी रंग! दूसरे ही दिन
अपना मकान बेच-बाच सखुबाई संसार के सब बंधन स्वेच्छा से तोड़ बिना किसी को
बताए ‘आश्रय' में चली आयी थी। था ही कौन जिसे अपना पता-ठिकाना धमा आती? उसके
रूखे स्वभाव ने, जो आत्मीय स्वजन थे, उन्हें भी बहुत पहले ही झाड़ मारकर भगा
दिया था। मित्र बनाने की मूर्खता उसने कभी की ही नहीं थी।
आनंदी के आने से पहले उसके कमरे में गुरुविंदर कौर रहती थी। लम्बी-चौड़ी वह
सुदर्शना सिखनी 'आश्रय' की सबसे छोटी सदस्या थी। उसके पिता ही उसे वहाँ छोड़
गए थे। वह कौन है? इस छोटी उम्र में क्यों समय से पहले ही वानप्रस्थ ग्रहण
करने आयी है? कोई पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। सत्ताईस-अट्ठाईस वर्ष की
उम्र होगी, पर लगती थी बीस की, रौबदार-गंभीर चेहरे पर थानेदारी रौब था। वह
दोनों हाथ पीछे बाँधे, सीना ताने चलती थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों, नुकीले
चिबुक और रेशमी पलकों में गजब का आकर्षण था। पर फिर एक दिन उसका कलुषित अतीत
भी आश्रयवासियों के लिए खुली पुस्तक बन गया था।
इस बार भी बाहर से आए एक विभीषण ने ही उसकी पोल खोली थी। सरदार करतार सिंह
'आश्रय' का प्लंबर था। रिस रही टंकी को तो ठीक कर गया, पर गुरुविंदर के अतीत
की टंकी में छेद कर गया। वह भी गुरुदासपुर का था, जहाँ की गुरुविंदर थी।
“अजी, यह कैसे आ गई आप शरीफों के बीच? वहाँ कौन नहीं जानता इसे! सीधी जेल से
छूटकर आई है। लम्बी उम्रकैद काटकर आयी थी गुरुदासपुर, वहाँ बिरादरी ने भगा
दिया था। अपने घरवाले का खून किया है इसने!"
पूरे 'आश्रय' में तहलका मच गया। क्यों उसे किसी नारीनिकेतन में नहीं भेज दिया
जाये! शरीफों के बीच इसे रखने की हिम्मत कैसे हुई इसके बाप को? निकालो इसे!
आँखों से आग के गोले बरसाती गुरुविंदर सीना तानकर सबके बीच चट्टान-सी खड़ी हो
गई थी। "जिसने माँ का दूध पिया हो, आकर निकाल दे मुझे। पैसा देकर रहती हूँ,
भीख माँगकर नहीं। यह रहा मेरी छुट्टी का कागज। मैं कोई सजायाफ्ता फरार कैदी
नहीं हूँ, समझे! कौन-सा कानून निकाल सकता है मुझे?"
एकसाथ कई वार्धक्य जर्जरित हृदय धड़क उठे। करतार सिंह यह भी बता गया था कि
गुरुविंदर के दो भाई खूखार उग्रवादी हैं। हो सकता है कभी बहन से मिलने यहाँ
भी आ धमकें और फिर क्या पता यह बेढब सिरफिरी सलवार के नेफे में ही कोई कृपाण
छिपाए फिरती हो!
सहमकर उत्तेजित भीड़ स्वयं फुटकर तितर-बितर हो, अपने-अपने दरबे में घुस गई।
पर कोई भी उसे अपने कमरे में रखने को राजी नहीं हुई, क्या पता कब हत्यारिन
फिर सधे हाथों से किसी का गला रेत दे।
सखुबाई ही उसे अपने कमरे में ले आयी थी। एक वही थी जिसने उससे कुछ नहीं पूछा।
उसके साथ बैठती, बतियाती, उसे अपने साथ घूमने ले जाती।
एक दिन घूमते ही गुरुविंदर ने स्वयं अपने जघन्य अपराध की कहानी उसे सुना दी।
वह खाते-पीते समृद्ध कृषक परिवार की पुत्री थी। तीनों भाईबहनों ने अंग्रेजी
स्कूलों में शिक्षा प्राप्त की थी। पिता अवकाश-प्राप्त ऊँचे फौजी अफसर थे। अब
उनका अपना बहुत बड़ा फार्म था। कई ट्रेक्टर थे। नौकर-चाकर, शिकारी कुत्ते,
भैंसें-क्या कुछ नहीं था! कनाडा में उसके चाचा टिम्बर के बहुत बड़े व्यापारी
थे। उन्होंने वहाँ एक समृद्ध प्रवासी सिख परिवार में जब उसका रिश्ता तय किया
तो वह केवल सोलह वर्ष की थी। पहले उसके पिता ने आपत्ति भी की थी, अभी तो
स्कूल से निकली है, उसे मैं खूब पढ़ाना चाहता हूँ। पर चाचा ने कहा, लड़की
यहाँ भी पढ़ सकती है। वे लोग बड़े आजाद खयालात के लोग हैं और लड़का लाखों में
एक है।
विवाह हुआ और वह कनाडा चली गई। तीसरे ही दिन उसने अपने लाखों में एक सहचर का
परिचय पा लिया था। दिन-रात नशे में चूर वह घर लौटता तो उसके साथ उसके
दुराचारी, लंपट, नारी-लोलुप मित्रों का जमघट भी रहता, वह डरी-सहमी सास के
कमरे में छिपने भागती तो सास बाहर धकिया देती। वह भागकर कमरे में बन्द हो
जाती और लातें-धूंसे मार वह कामात भीड़ दरवाजा तोड़ने की चेष्टा करती। एक दिन
वे उसे बाहर खींच ही लाए। पति ने आज तक उसकी देह का स्पर्श भी नहीं किया था।
करता भी कैसे? वह इस योग्य ही नहीं था। उसकी नामर्दी को जानबूझकर छिपा, उस
बेचारी का जीवन नष्ट किया था स्वयं सगे चाचा ने। उस दिन जब क्षुधातुर कुत्तों
की भाँति पति के मित्र उसे नोच-खसोट रहे थे, तो कोने में खींसें निपोड़े अपने
पति को देख उसका खून खौल गया था। "मैं आज भी नहीं जानती सखु आंटी, मुझे क्या
हो गया था उस दिन। आज तक मैंने जानबूझकर कभी किसी चींटी को भी नहीं कुचला। पर
मैं पागल हो गई थी। क्रोध से, विवशता से अंधी हो गई थी मैं, मैंने वहीं पर
धरी शराब की भरी बोतल उठाई और पूरी ताकत से अपने पति के सिर पर दे मारी।"
भयभीत मित्रमंडली फटा सिर और खून से लथपथ मित्र को देख सिर पर पैर रखकर भाग
गई, फिर दहशत, मारपीट और यंत्रणा का एक ऐसा सिलसिला चला जो शायद उसके प्राण
ही ले लेता। उसका पति ससुर का इकलौता बेटा था। मृत पुत्र की हत्या का
प्रतिशोध लेने में पिता ने कोई कसर नहीं छोड़ी। गुरुविंदर के पिता को किसी
हितैषी ने खबर दे दी। वे वहाँ पहुँचे और उन्हीं की भागदौड़ से मुकदमा भारत
में चलाए जाने की अनुमति उन्हें मिल गई। चौदह वर्षों की लम्बी सजा उसके अच्छे
आचरण, कच्ची उम्र और शायद उस निर्दोष चेहरे को देख चार वर्ष कम कर दी गई थी।
लम्बी सजा काटकर वह पिता के साथ बाहर निकली तो उसे लगा उन्मुक्त आकाश तो उसके
सिर के ऊपर अभी भी है, पर पैरों तले की जमीन खिसक चुकी है। पुत्री की लज्जा
उसकी माँ को ही पृथ्वी से नहीं ले गई, दोनों भाई उग्रवादी बन गए और मौत उनके
सिर हर पल चील-सी मँडराने लगी। जितनी ही बार वह सौम्याकृति पिता के उदास-बुझे
चेहरे को देखती, उसके जी में आता अपने दोनों हाथ काटकर दूर पटक दे, क्यों कर
बैठी थी वह ऐसा! घर की दुर्दशा देख वह रात-भर रोती रही थी। खेत उजाड़ पड़े
थे, ट्रैक्टर बिक चुके थे, फ्रिज, कार, वाशिंग मशीन सबकुछ बेच-बाच कर पिता
किसी फकीर की-सी जिन्दगी जी रहे थे। कभी इसी फार्म हाउस की कैसी शोभा थी!
पूरा घर उसके जवान भाइयों के, उनके मित्रों के कहकहों से गुलजार रहता था। लॉन
में चाँदनी रात की वे बार्बेक्यू पार्टियाँ, वे मुशायरे जिसमें उसके पिता के
प्राण बसते थे! कहाँ गईं वे सुनहली रातें और रुपहले दिन?
उसे दूसरा धक्का तब लगा जब वह वर्षों से बिछुड़े आत्मीयों से मिलने गई। किसी
ने उसे बैठने को भी नहीं कहा। उसकी प्यारी सहेली बलविंदर कौर एक दिन बसस्टैंड
पर खड़ी दिख गई तो वह बाँहें फैलाए उससे मिलने भागी। पर उसे देखते ही बलविंदर
उससे भी तेजी से भागकर सहसा अलोप हो गई-जैसे उसने भूत देख लिया हो। उसकी
बाँहें शून्य में ही फैली रह गईं। वह समझ गई अब वह सबकी दुलारी गुरुविंदर
नहीं रह गई है। पतिहंता, सजायाफ्ता, कलंकिनी गुरुविंदर बन गई है।
पिता ने पुत्री का वेदना-क्लिष्ट चेहरा देखा और उसका दुख समझ गए। "बेटी, अब
तेरा यहाँ रहना ठीक नहीं है। ऐसे तो घुट-घुटकर मर जाएगी।
फिर अब यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है। दिन-रात तेरे भाई और उनके दोस्त यहाँ
रात-आधी रात छिपने आते रहते हैं। पता नहीं तेरे भाई अब जिंदा हैं भी या नहीं,
जिंदा हैं तो और भी खतरा है। पुलिस उनके पीछे पड़ी है, कभी भी छापा पड़ सकता
है!"
"पर हम कहाँ जायेंगे पिताजी?"
"जहाँ वाहेगुरु ले जाएगा!" और फिर न जाने कहाँ-कहाँ भटकाकर वाहेगुरु उन्हें
यहाँ ले आया था। दो ही महीनों में वह पूरे ‘आश्रय' की लाड़ली बन गई थी। यहाँ
कोई नहीं जानता था कि वह कौन है, कहाँ से आयी है। अपनी बिरादरी का अपमान,
समाज का क्रूर पद-प्रहार-सबकुछ भूल गई थी गुरुविंदर! अपने साथ लाए सूटकेस से,
वह शादी के उन जोड़ों को निकाल-निकालकर पहनने लगी, जिनकी तब तह भी नहीं खोल
पाई थी, कैसे-कैसे जोड़े सिलवाकर दिए थे बाजी ने, करीं कलफ में सधे अबरखी
दुपट्टे, जिन्हें रस्सी-सा बँटकर अपूर्व चुन्नटों में स्वयं उसकी बीजी ने
चुना।
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