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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


अमेरिका की विशिष्ट लेखिका सुजान सन्टाग का ख़त कुछ यूँ है-'आपके खिलाफ़ जो घटा है, वह नारी-विद्वेष की मिसाल है। यह सिर्फ वागी लेखकों को उत्पीड़ित करने का नमूना नहीं है। यह उत्पीड़न इन दिनों वीसवीं शती की एक उन्नत शान है! कई शताब्दियों पहले यूरोप में डायनों को सज़ा देने का रिवाज़ था। इसी तरह, इसी ढंग से कई इस्लामी राज्यों में, औरतें आक्रमण के लक्ष्य के रूप में परिणत हुई हैं, खासकर वे औरतें, जो डरपोक नहीं हैं, गुलामी कबूल करने को राजी नहीं हैं, पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी राय जाहिर करने में सक्षम हैं और जो, अन्य
औरतों से अलग हैं। जो औरतें और लेखक आज़ाद ढंग से सोचने-समझने में सक्षम हैं, आपको आदर्श मिसाल के रूप में देखकर उन लोगों को वल-भरोसा मिलेगा। मैं आपका समानधर्मी लेखक ही नहीं हूँ, आप जो मानव जाति के अर्धांश में एक हैं, मैं भी उसी अर्धांश का हिस्सा हूँ। आपको मेरा हार्दिक अभिनन्दन!'

ऑस्ट्रिया की लेखिका एलफ्रिड इएलिनेक ने लिखा है-'प्रिय तसलीमा, तुम्हारे देश में ऐसे-ऐसे लांग है कि वह देश यह सोचता है कि तम जैसी इंसान को त्यागकर भी उनका काम चल जाएगा। एक इंसान कम हो जाएगा, इसका भला कौन ख़याल रखता है? वे लोग तो बस, यही सोचेंगे कि इस लड़की ने हमारे धर्म का अपमान किया है, जिस धर्म को करोड़ों-करोड़ मर्द अपने कंधे पर और करोड़ों-करोड़ औरतें अपनी झुकी हुई पीठ पर लादं चली जा रही हैं। वहाँ धर्म को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, अगर धर्म की उस विशाल प्रतिमूर्ति के वांझ से कोई औरत छिटककर गिर पड़े। धर्म को तो इस भारवाही औरत की अनुपस्थिति में लँगड़ाकर तो नहीं चलना पड़ता। वह तो अनायास ही आराम-आराम से आगे बढ़ता रहता है। लेकिन, तसलीमा, उन सव देशों में तुम्हें या तुम जैसी लड़कियों को कोई अधिकार नहीं है! वहाँ अभी भी ज्यों-का-त्यों शासन कायम है। इसके बावजूद, अगर मैं यह धारणा वना लूँ कि तुम पर अत्याचार होता रहा तो तुम्हारा धर्म, जिसे तुम न्यायसंगत तरीके से अत्याचार के खिलाफ एक हथियार समझती हो, वह टूटे ढाँचे की तरह अचानक ज़बर्दस्त आवाज़ करता हुआ चरमराकर ढह जाएगा। सच तो यह है कि इस्लाम धर्मावलंबी मर्दो ने सच्चे इस्लाम का राग अलापने वालों के हाथों में ही सारे अधिकार सौंप दिए हैं। किसी-न-किसी दिन वे लोग ज़रूर समझेंगे कि उन्होंने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है, अपने विनाश की वजह, वे लोग खुद ही हैं, क्योंकि औरतों को वरावरी का सम्मान दन से उन लोगों ने इनकार कर दिया है। हालाँकि वे लोग वखूबी जानते हैं कि औरत-मर्द समान होते हैं।

प्रिय बंधु, तुमने किसी भी पर्दे के पीछे अपनी कोई दूसरी जिंदगी चुरा-छिपाकर नहीं रखी। तुम्हारा एक ही स्वरूप है, वही तुमने जाहिर किया है। तुम्हारी यह जिंदगी विकने के लिए नहीं है, हालाँकि इसके लिए वाज़ार में मूल्य निर्धारित किया गया है। किसी ज़माने में हमारे यहाँ ईश्वर का भी मूल्य चाँदी के कुल तीस सिक्के निर्धारित किया गया था। आजकल जिस किसी भी समृद्ध देश की मुद्रा में, उस जमाने के चाँदी के तीस सिक्कों की कीमत, किस सीमा तक पहुंच चुकी है, कौन जाने! लेकिन, तसलीमा, तुम उससे भी ज़्यादा कीमती हो। तुम्हारा जीवन अमूल्य है। मेरे मन में तुम्हारे लिए असीम श्रद्धा है। तुम सच्ची हो, तुम्हारी बातें सच्ची हैं। यह वात और वाकी तमाम बातें कहने का मुझे हक है, इसीलिए मैं यह सव कह रही हूँ। मैं तुम्हें गले लगाती हूँ और तुम्हें अपनी शुभकामनाएँ अर्पित करता हूँ।'

जर्मन लेखक एरिख ल्येस्ट ने लिखा-'मुझे उम्मीद है कि तसलीमा नसरीन को यह ख़बर ज़रूर मिल जाएगी कि जर्मनी के तमाम लेखक, उनकी लेखकीय आजादी और उनकी व्यक्तिगत आज़ादी कायम रखने के लिए सक्रिय रूप से आवाज़ उठा रहे हैं। इस वार दस हज़ार आंदोलनकारी, जो सबके सव खिड़की के बाहर खड़े-खड़े चीत्कार करेंगे कि तसलीमा को फाँसी दो, उस वक्त एक खबर उसे नई शक्ति जुटाएगी। वह ख़बर है-दुनिया के असंख्य देशों में तसलीमा का नाम जो एक प्रतीक बन चुका है।'

इसी तरह का एक और ख़त! उस ख़त के जवाब में एक और ख़त! 'प्रिय लेखक बंधुओ, दुनिया के एक छोटे-से देश की एक छोटी-सी लेखिका हूँ मैं। मेरे लिए यानी अँधेरे के शिकंजे से मुझे मुक्त कराने के लिए आप लोगों ने हाथ में कलम थामी है। यह मेरे लिए कितनी बड़ी उपलब्धि है, यह बात मैं सिर्फ महसूस कर सकती हँ! कृतज्ञता से मेरा दिल भर आया है। कभी-कभी मैं सोचती हूँ, मैं शायद इतने-इतने आयोजन के योग्य नहीं हूँ।

दुनिया में सद्बुद्धि संपन्न, विवेकवान, युक्तिसंगत इंसान अभी भी मौजूद हैं। उन लोगों की मदद से प्रगाढ़ अँधेरे और जहाँ साँस तक लेना मुहाल हो, ऐसी वंद कोठरी से मैं धरती के उजाले में निकल आई। दुनिया में अभी भी वहुत-कुछ लोग मौजूद हैं, जिनमें अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस होता है और मुझे गर्व है कि मैं ऐसे हृदयवान लोगों के करीब आ सकी। दरअसल हम सभी विवेकवान लोग एक-दूसरे के आत्मीय होते हैं। सुनें, मेरे लेखक-मित्र, मेरा मन होता है कि आप सभी लोगों को मैं अपना परम आत्मीय मान लूँ!

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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