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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


यह जिंदगी लेकर, ठीक मैं कहाँ जाऊँगी, क्या करूँगी, मैं नहीं जानती। मेरी यह जिंदगी, मैं महसूस कर रही हूँ कि झरती जा रही है। मैं समझ रही हूँ, मेरा यह जीवन, अब पहले जैसा नहीं रहा। मुझे अहसास हो चुका है कि अब मेरे जीवन में, पहले जैसा उत्साह, पहले जैसी जीवन्तता नहीं रही।

कोई नहीं जानता,
झर जाता है जीवन, बर्च* पत्तों की तरह!
जिसे पैरों तले रौंदते हुए, सब चले जाते हैं, अपनी-अपनी राह!
कभी पलटकर भी नहीं देखते!
जमती जाती हैं, अंग-प्रत्यंग पर वर्फ की पर्त, कंकड़-पत्थर!
चितपुर या अरमानी टोले की गली होती,
तो ज़रूर कोई अफसोस ज़ाहिर करता!
भीड़ लग जाती पलाशी की सड़क पर,
धीमी पड़ जाती सवारियाँ श्याम वाज़ार, नील खेत में,
जीवन भरता है उड़ान, चंचल-चपल समुद्री पाखी की तरह,
किसी को नहीं पता, कहाँ, किस ओर!
पीछे से हाथ हिलाकर कोई अलविदा नहीं करता,
कोई नहीं पोंछता पसीना, आँचल या आस्तीन से!
कोई सिर की कसम नहीं देता-वापस लौट आओ!

जिन्दगी पड़ी रहती है फुटपाथ पर, सूखे हुए फूल की तरह!
सिगरेट के फिल्टर की तरह!
कागज के लिफाफे की तरह!
कोई पलटकर नहीं आता,
देह पर जमती रहती है काई! कुकुरमुत्ते!
झरती जा रही हूँ, बर्च पत्तों की तरह!
पड़ी रहती हूँ घुप्प अन्धेरे में!
अब कौन है, जो चिराग जलाकर कहे-जीओ!

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* पश्चिमी देशों में एक वृक्ष का नाम

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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