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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


वह लड़की मेरे कपड़े-लत्ते, किताब-कागज, बर्तन-भाड़े सजाकर रखती है, सिगरेट की राख विखरे कमरे में वेकम-क्लीनर चलाकर फर्श साफ़ करती है। शाम से पहले ही खिड़की पर मोमबत्ती सजा देती है। पास के 'कनसाम' तक दौड़ जाती है और फूल ख़रीद लाती है। टोकरी-भर माँस-मछली, पपीता, संतरे वगैरह भी ले आती है। खाना पकाकर आवाज़ लगाती है! मैं अपनी मेज़ पर व्यस्त रहती हूँ, वह बार-बार चाय दे जाती है! वह लड़की काफी कुछ माँ जैसी है। मेरी माँ जब कभी उड़ते हुए हवाई जहाज की आवाज़ सुनती है तो आसमान की तरफ देखते हुए आस लगा वैठती है कि मैं वापस लौट रही हूँ। मेरी दुखियारी माँ, देश में छोड़ आए मेरे घर-द्वार, विस्तर-तकिए ठीक-ठाक करने लगती है। आँसू बहते-बहते उसकी आँखों तले घाव हो गए हैं। इसी तरह जब मैं सचमुच अपने देश लौट जाऊँगी, डालवी की बर्फ-बिछी सड़क पर चलते-चलते, सोल निलसन भी रोती रहेगी और तब वह भी दोनों जून मेरी यादें समेटती रहेगी। एक दिन वह भी उड़ते हुए जहाज की आवाज़ सुनकर सोचेगी, उस जहाज में शायद मैं हूँ।

असल में, किसी का, कोई देश नहीं होना चाहिए। इंसान का अपना मन ही. उसका सबसे सुरक्षित स्वदेश हो सकता है। जैसे मेरी माँ के आंचल से देशों की खुशबू तैरकर यहाँ तक पहुँचती रहती है, तब सोल निलसन के कपड़ों से भी आया करेगी कुछ ऐसी ही खुराक्।

सोल ने बताया था कि उसकी माँ बीमार है। यहाँ से तीन सौ माइल दूर, एक शहर में। मैं उन्हें देखने गईं। मेरे पहुँचने के पाँच-छः मिनट पहले उनकी मृत्यु हो चुकी थी। फिर भी वह मुझे लेकर चाय पीने चली आई। चाय पीते-पीते वह हँस पड़ी। उसने ढेर सारी बातें की मगर अपनी माँ के बारे में बहुत कम बोली। मेरी उपस्थिति ने क्या उसके मन से उसकी माँ की मौत विस्मृत कर दिया था? हाँ, शायद! यह ख्याल आते ही मैं बुरी तरह सिहर उठी। इस सोल को मैं क्या समझू? विल्कुल पत्थर या परम हृदयवती? इस देश में लोग अपने माँ-बाप से चिपटे नहीं रहते। माँ-बाप तो बस, जीते रहते हैं और फिर मर जाते हैं। इस व्यवहार की दुनिया का नियम ही मान लिया गया है। कोई जवान या अधेड़ इंसान, अपने माँ-बाप की मौत पर इस देश में असहाय नहीं होता। सबकी अपनी-अपनी जिंदगी होती हैं। मुमकिन है, सोल को भी यही लगा हो कि जिसको जाना था, वह गया। जो है, उसे ही देखो। उसे ही प्यार करो। उसके साथ देना-लना करी। साल के हाव-भाव स भा यह साफ़ जाहिर होने लगा है कि वह मुझे कसकर पकड़े रहना चाहती है। औरों के संदर्भ में शायद यह स्पष्ट जाहिर नहीं होता, लेकिन अधिकांश लोग यही करते हैं। जो पुराना पड़ जाए, जो वीत चुका हो, जो अतीत बन गया हो, उसे लेकर कोई पड़ा नहीं रहता। मैंने देखा है कि मेरे प्रति सोल का प्यार हमेशा ही उमड़ पड़ता है। अपनी माँ की मौत के दिन भी सोल ने मेरे प्रति अपना प्यार जताने में ज़रा भी संकोच नहीं किया।

स्वीडन से जर्मनी चले जाने से पहले सोल ने मुझे कई बार फोन किया। मैं घर पर नहीं थी, लेकिन जिसने-जिसने फोन किया था, जवाव-मशीन में उन सबकी ख़बर दर्ज़ थी। इसके बावजूद, मैंने उसे एक बार भी फोन नहीं किया इसलिए नहीं कि मैं उसे प्यार नहीं करती। असल में फोन न करने की कोई वजह नहीं थी। ऐसा बहुत कुछ होता है, जिसकी कोई वजह नहीं होती। जिस दिन मैं जा रही थी, वस, उसी दिन मैंने ही उसका फोन उठाया। फोन के दूसरी छोर पर, रोती हुई सोल! उसने रोते-रोते मुझे उलाहना दिया कि मैं बेहद हृदयहीन इंसान हूँ। मैं जो-सो हूँ! सोल के वताव ने मुझे अचरज म डाल दिया। इस बात पर मैंने बाद में गार किया कि उस दिन उसने बड़े स्वीडिश चरित्र का परिचय दिया था। यहाँ के लोग ऐसे ही होते हैं। अगर वे लोग अपने को किसी बात पर अपमानित महसूस करते हैं, तो अपमान का बदला भी बेहद भयंकर तरीके से लेते हैं। बाहर से बेहद शांतिप्रिय और सहनशील भले ही नज़र आएँ, अंदर से ये लोग बेहद प्रतिशोध-परायण हैं! यहाँ 'ये लोग' शब्द इस्तेमाल करना सही नहीं है, मैं जानती हूँ। मुझे कहना चाहिए, 'इनमें से बहुत-से लोग' या 'इनमें से कोई-कोई'। यूँ आम संज्ञा देना सही नहीं है, मैं जानती हूँ। इसके बावजूद, जितना मैंने जाना-देखा है, मुझे यही लगा है। ये लोग अपना दोष ढकने के लिए, बहद सहज भाव से दूसरों को बंहिचक दोषी साबित कर देते हैं। जिसे गाली-गलौज करके, अपने नकसान में किसी वृद्धि की आशंका न हो, वह अगर हाथ लग जाए तो उसकी खैर नहीं। असल में यही है इन लोगों का चरित्र! अपना स्वाभाविक राग-विराग, उन्मुक्तता-उद्यमता, सब कुछ जबरन ढके रहो, किसी के खिलाफ़ कुछ भी मत बोलो, किसी की भी आलोचना मत करो। हमेशा यही दिखाओं कि तुम जैसा भला इंसान और कोई नहीं है और यह भाव हमेशा बने रहना चाहिए, लेकिन हवा लगते ही वह आग धधक उठती है। मुमकिन है, बहुतेरे लोग यह कहें कि यह ठीक-ठीक स्वीडिश आचरण नहीं है। हाँ, नहीं है। असल में एकदम से धधक उठने वाला वह क्रोध ही सच्चा स्वीडिश चरित्र है! अति शांत, अति शिष्ट, अति भोलेपन के ठीक पीछे छिपी हुई भयंकर घृणा! जगमगाती रोशनी के पीछे ही घोर अंधकार!

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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