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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


इस तरह अब्बू, भाई, छोटू दा-सभी लोग कुछ दिनों की सैर पर आए और घूम-फिरकर अपने-अपने जीवन में लौट गए। मेरे लिए ही कोई दिशा नहीं है, जाने के लिए कोई देश नहीं है। मैं अकेली और अकेली पड़ती रही। अपने ही साथ वैठी या लेटी रही! सभी लोग आते हैं, चले जाते हैं। वे लोग क्या जान पाते हैं कि मुझे कहाँ, किसके पास छोड़ जाते हैं? नहीं, वे लोग नहीं जानते। मैं जो यहाँ अकेली पड़ी हुई हूँ, इससे भला मुझं क्या लाभ होना है? किसी और को भी भला क्या लाभ? मुमकिन है, किसी-न-किसी दिन स्वदेश भी लौटना हो-ऐसी आस बँधाकर और आश्वासन देकर लोग झटपट विदा हो लेते हैं। काँच के मर्तवान में कैद में एक बेशकीमती दर्शनीय वस्तु बन गई हूँ। दर्शनार्थी इस जादूघर में आते हैं, मुझे देखकर चले जाते हैं। कोई मुझे अपने घर नहीं ले जाता। कोई मेरे लिए खास दुःखी भी नहीं होता।

कनाडा और संयुक्त राष्ट्र के सफ़र के दौरान पहली बार मैं प्रवासी आत्मीय-स्वजनों से मिलने न्यूयॉर्क गई। मैंने सुहृद और मिलन को लाकर अपने होटल में भी रखा। गीता, मिलने को झेल नहीं पा रही है। मिलन अमेरिका में प्रवासी बनकर रहे, इसका वह विरोध कर रही है। वह अमेरिका में अकेली रहना चाहती है। वह नहीं चाहती कि परिवार का और कोई यहाँ रहे। सोने का हिरण सिर्फ वही पकड़ेगी और कोई नहीं, मिलन गीता की नज़रों से दूर-दूर रहता है। उस शहर में गीता का घर मौजूद रहने के बावजूद, मैं मैनहट्टन के होटल में ही ठहरी थी। मेरी किताब-प्रकाशन का समारोह संपन्न हुआ। 'द गेम इन रिवर्स' ! न्यूयॉर्क की प्रकाशन संस्था, जॉर्ज ब्राजिलियर से कविता-संग्रह का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ! इसके बाद अगले सफ़र में यास्मीन से भेंट हुई। यास्मीन, भालोबाशा को लेकर न्यूयॉर्क चली आई। उसने किसी और के एपार्टमेंट में छोटा-सा कमरा किराए पर ले लिया है। अर्से बाद, यास्मीन से भेंट हुई। वही यास्मीन, जो मेरी छायासंगिनी थी! जिसे लेकर मेरे मन में अनन्त सपने पलते थे। इस बुरे समय में, जब गुच्छा-गुच्छा यादें आ-आकर मुझे याचक बनाए दे रही हैं, मैंने भालोबाशा से खेलते हुए, अपनी आँखों के आंसू छिपा लिए।

इस विदेश में आकर तुम लोग क्या करोगे? देश से हज़ारों-हज़ार मील दूर, ऐसी छोटी, गंदी बस्ती में रहने क्यों चली आई? यहाँ न नाते-रिश्तेदार हैं, न बंधु-बांधव! क्यों आई यहाँ? क्या मिलन की तरह, मेरी यह प्यारी बहनिया भी रेस्तरां में बर्तन मांजेगी! बर्तन तो खैर मांजने ही होंगे। इसी तरह तो गरीब देश के लोग, अपनी तकदीर की तलाश में निकल पड़ते हैं और यहाँ चले आते हैं। यास्मीन के लिए मैं परेशान हो उठी। सिर्फ मेरी बहन होने के जुर्म में उसे देश छोड़ना पड़ा है। देश में अब बचा क्या? देश में माँ को अकेली छोड़कर अगर हम सब यूँ चले आएँगे? मैं तो अपने देश लौट जाऊँगी। मुझे यास्मीन और सुहृद को दुनिया के इस छोर पर छोड़कर वहाँ रहना होगा। यास्मीन को दिलासा देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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