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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान

दूरदीपवासिनी


अचानक सुबह-सवेरे, मुझे डगेनस निहेटर के गेस्ट हाउस से उठाते हुए गैबी ने कहा, 'चलो किसी और घर में शिफ्ट होना है।"

अपना सूटकेस समेटकर मैं दूसरे घर की तरफ रवाना हो गयी। किसी ऐसे घर की तरफ, जिसका पता-ठिकाना, मैं कुछ भी नहीं जानती थी। रास्ते में स्वीडिश पेन क्लब के किसी और सदस्य को भी गाड़ी में उठा लिया गया। उस सदस्य का नाम था-लिलियाना! यगोस्लाविया के मॅन्टेनिग्रो में जन्म! अर्से से स्वीडन में निवास! महव्वत की! हालाँकि वह मुहब्बत पूरी तरह ख़तों में हुई थी। उसने किसी स्वीडिश लड़के से विवाह कर लिया। विवाह के बाद इस मुल्क में आकर इस शहर को अपना पक्का ठिकाना बना लिया। बाल-बच्चे भी हो गए! वैसे लिलियाना काफी प्यारी लड़की थी। वह हाथ-पाँव-सिर नचा-नचाकर बेसिर-पैर की बातें करती रही।

आखिरकार उसकी जुबान से निकल ही गया, वह स्वीडिश नहीं है इसीलिए इतनी खुशमिज़ाज और ज़िंदादिल है। मुझे लगा, लिलियाना को मैं अर्से से पहचानती हैं। वह मुझे नितांत अपनी लगी इसकी वजह शायद यह थी कि वह इस देश की नहीं थी, किसी अमीर देश की भी लड़की नहीं थी। अब मेरी ऐसी मनःस्थिति हो गयी थी कि जो भी इंसान स्वीडिश नहीं है, वह चाहे जितनी भी दूर का क्यों न हो, चाहे जितना भी कम परिचित क्यों न हो, मुझे बेहद नजदीकी इंसान लगता है। लिलियाना पत्रकार थी! पेन क्लब की सदस्य भी थी। गर्मी का मौसम गुजारने के लिए, किसी द्वीप में उसका एक घर था। फिलहाल मुझे उसी द्वीप में ले जाया जा रहा था। द्वीप का ज़िक्र सुनते ही सबसे पहले अपने देश के टेकनाफ या महेशर्वाली द्वीप का ख़याल हो आया। मैं रोमांचित हो उठी।

"लेकिन द्वीप में जाने की क्या वजह है?" मैंने सवाल किया।

"वजह है! विना किसी वजह के ही क्या हम वहाँ जा रहे हैं?"

"वजह जानने का मेरा बड़ा मन हो रहा है।"

"वजह यह है कि अब तुम्हें वहीं रहना होगा।"

"अचानक द्वीप में क्यों? शहर ने क्या कसूर किया है?"

"शहर में काफी गोलमाल है।"

“मतलब?"

“स्टॉकहोम शहर अब काफी असहनीय हो उठा है। यहाँ इतनी आवाजें, इतनी गाड़ियाँ, इतने लोग हैं कि...इस शहर में रहकर लिखना-पढ़ना असंभव है। अस्तु, यहाँ! इस इयस्तेरो द्वीप में अगाध निर्जनता है! जन-जीवन से परे यहाँ बैठकर तम लिखो। लिखने के तकाजे पर हम लोग भी इस द्वीप में चले आना चाहते हैं। लेकिन दस से पाँच बजे की हमारी नौकरी, हमारी आज़ादी में वाधक है।"

मैं उनकी बातें सुनकर खामोश हो गयी। मैं फटी-फटी आँखों से उन दोनों को देखती रही। मेरा चेहरा काफी बुद्धू-बुद्धू-सा हो आया। शायद वे दोनों भी यही सोच रहे थे कि मैं वेहद बेवकूफ हूँ। उन लोगों को यह क्या जानकारी है कि मैं किस देश से आयी हूँ? वह देश कैसा है?

“ऐसा है कि अगर थोड़ा-बहुत शोरगुल न हो, थोड़ी-बहुत गड़बड़ी न हो तो मैं लिख नहीं पाती।" मैंने कहा।

मेरी यह बात सुनकर उन दोनों ने ज़ोर का ठहाका लगाया। गाड़ी में बैठी पलिस भी हँस पड़ी। उन सबको यही लगा कि मैं मज़ाक कर रही हैं। क्या वे लोग जानते हैं कि यह स्टॉकहोम शहर ही मुझे मरुद्यान जैसा लगा है। मेरे इस अहसास की वजह? ना, उन लोगों को इसकी जानकारी नहीं है। स्वीडन के लेखक-कवियों को स्टॉकहोम काफी भीड़भरा और खुराफाती शहर भले ही लगता हो, उन लोगों की नज़र में यह प्रदूषण वाला, कान बहरे कर देने वाला शहर भले ही हो, लेकिन मुझे ऐसी कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए। न मैं तेरह करोड़ लोगों की आबादी वाले शहर से आयी हूँ, जहाँ एक हज़ार से ज़्यादा लोग एक वर्ग माइल से भी कम इलाके में रहते-सहते हैं। यहाँ के शहर-गाँव, जनपथ में तो साँय-साँय करता हुआ सन्नाटा पसरा रहता है। मुझे थोड़ी आवाजें, थोड़े लोग-वाग, थोड़ी भीड़-भाड चाहिए, वरना मैं लिख नहीं पाती। भयंकर निस्तब्धता में, मुझसे लिखा नहीं जाता। उस वक्त मेरे ख़यालों में भुतहे भय की मानो भीड़ लग गयी।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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