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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


उस सड़क और सड़क पर आते-आते राहगीरों का जायजा लेते हुए, मैंने दरयाफ़्त किया, “बांग्लादेश के लोग, क्या यहाँ फूल बेचते हैं?"

मेरे इस सवाल का जवाब देने के बजाय पुलिस ने पूछा, “मैडम, आप क्या आज अकेली-अकेली बाहर निकली थी?"

"मैं बाहर निकली थी?"

"यही तो पूछ रहा हूँ। आप क्या बाहर, सड़क पर निकली थीं? हमारे बिना?"

"क्यों, यह क्यों पूछ रहे हैं?"

“पूछ रहा हूँ! आप हाँ या ना में जवाब दें।"

“असल में ठीक..."

"ठीक क्या?"

"मैं कह रही थी..."

"क्या कह रही थीं, मैडम? यह बताएँ कि आप बाहर निकली थीं या नहीं?"

"हाँ, निकली थी।"

"निकलने की वात तो नहीं थी! जर्मन सरकार आपको सुरक्षा दे रही है। आप अगर इस सुरक्षा की ज़रा भी परवाह न करें, तो इसका मतलब है कि आप जर्मन सरकार का अपमान कर रही हैं। समूचे जर्मनी का अपमान कर रही हैं।"

"नहीं, ऐसी बात क्यों...?"

“आज अगर आपको कुछ हो जाता। बाहर आपको कोई परेशानी हो जाती, आप पर हमला हो जाता, मार डाला जाता..."

“अरे, नहीं-नहीं, मुझ पर कौन हमला करेगा? यहाँ बांग्लादेशी मुल्ले तो हैं नहीं। क्या जर्मन लोग मुझे मारेंगे? क्यों भला? मुझे नहीं लगता कि मुझे मारने वाला, कोई जर्मनी में बैठा है।"

"सावधान कभी मार नहीं खाता, मैडम!"
 
"मैं कोई बहुत दूर तो गई नहीं थी।"

“बात दूर या पास की नहीं है! ज़्यादा दूर जाने में ही जोखिम है, करीव जाने में नहीं, यह न सोचें।"

"हाँ, सो तो सच है।"

"हमारी तो नौकरी चली जाती, मैडम! हमारा गृह मंत्रालय और हमारी सरकार दुनिया में मुँह कैसे दिखाती? समूची दुनिया के लोग जर्मनी को कसूरवार मानेंगे।

यही कहेंगे कि जर्मनी ने तसलीमा के लिए सुरक्षा इंतजाम नहीं किया। तसलीमा ने जर्मनी की दी हुई सुरक्षा की परवाह नहीं की, दुनिया तो यह जानेगी नहीं।"

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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