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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


पिछली रात बर्फ में, मैं खूब-खूब खेली,
चाँदनी में भीगती रही, मैं और माइब्रिट!
निविड़ नाव तैरती रही, कल रात-भर,
अब बाल्टिक ले जाए, चाहे जिधर!

रूप सिर्फ हरियाली का ही नहीं होता,
बर्फ से भी फूटता है उजास,
पत्रहीन पेड़ आपस में बाँटते हैं प्रेम-मनुहार,
हमने भी डूवकर किया है, अपने को प्यार!

अपने लिए खोदती रही कब्र, अब बहुत हुआ,
बेशक पाँवों को खड़े होने की जमीन की चाहत
जलती-फूंकती रही भंयकर आग में, अब बहुत हुआ,
अब बर्फ में नहाए बिना, तन को नहीं राहत!

इसके बाद भी मैं उन लोगों को बताए बिना, और एक दिन बाहर निकली थी। उस दिन सूयान्ते वेइलर के साथ निकली थी। सूयान्ते पहले मुझे घर ले जाने वाला था। वहाँ से उसे वोट देने जाना था। मुझे वह मतदान दिखाने ले जाने वाला था। मारे कौतूहल के मेरे तन-बदन में झुरझुरी फैल गई। एक सच्चे गणतंत्र में वोट का दिन कैसा होता है, लोग वोट कैसे देते हैं, कहाँ देते हैं-यह सब, अपनी आँखों से देखना, क्या कम सौभाग्य की बात है? सूयान्ते और उसकी बीवी ने किसी स्कूल में जाकर वोट दिए। वोट-केन्द्र और उसके आस-पास कुल मिलाकर दस लोग थे। मैं जन-बहुल देश के वोट-केन्द्र देखने की अभ्यस्त हूँ। मुझे यह सोचने में काफी तकलीफ हुई कि उस स्कूल की निर्जन इमारत, एक वोट-केन्द्र है।

मतदान देखने के बाद, मैं सूयान्ते के घर लौट आई। उसके यहाँ बैठी खा-पी रही थी कि पुलिस आ धमकी। चूँकि सूयान्ते मेरे साथ था, इसलिए मैं बाहर निकली, पलिस ने इसे सही नहीं माना, सुरक्षा-नियमों के मुताबिक चाहे प्रधानमंत्री भी मुझं बुला भेजें, पुलिस के बिना मेरा बाहर निकलना नहीं चलेगा। सूयान्ते को माफी माँगनी पड़ी। सुरक्षाकर्मी मुझे घर पहुँचा गए। रास्ते में ऐन कृष्टीन या रोनाल्ड ने मुझसे एक भी बात नहीं की। इससे पहले, हममें से किसी ने भी यूँ शब्दहीन रास्ता तय नहीं किया था, लेकिन शब्द मौजूद थे मगर वे शब्द लिफ्ट में सवार होने के बाद फूटे।

रोनाल्ड ने गंभीर लहजे में कहा, "तसलीमा, यह आखिरी वार तुम हमारे बिना वाहर निकली थी। यह बात याद रहेगी न?"

मैंने आँखें झकाए-झकाए सिर हिलाया, "हाँ, याद रहेगी।"

मैंने सिर हिलाकर यह तो कह दिया कि हाँ, यह बात मुझे याद रहेगी, लेकिन मेरा मन विपाद से भर उठा। यह किस किस्म की जिंदगी गुज़ारने को मैं लाचार हो गई हूँ? अपना देश छोड़कर, अपने नाते-रिश्तेदार, यार-दोस्त छोड़कर, अपनी खूबसूरत जिंदगी और व्यस्त जीवन छोड़कर, यह मैं कहाँ पड़ी हुई हूँ? क्यों पड़ी हुई हूँ? सिर्फ ज़िंदा रहने के लिए? लेकिन यूँ जीने से क्या फ़ायदा? जो काम करने के लिए मैं जीना चाहती हूँ, अगर वह काम न कर पाऊँ तो जीने से क्या फ़ायदा? मैंने तो चाहा था कि तवाह-हाल समाज के जख्म भरकर उसे स्वस्थ बनाऊँगी। मैंने इंसानों के मन में स्वाधीनता-बोध जगाना चाहा था। मैं चाहती थी कि इंसान आत्मनिर्भर वने, सचेतन बने। मैंने तो चिंतन, बुद्धि और मुक्ति के पक्ष में आंदोलन छेड़ा था। मैंने पुरुषतंत्र, मुल्लातंत्र, दुर्नीति, अनुशासनहीनता के खिलाफ जंग का ऐलान किया था। मेरे खून में सपने उमड़ रहे थे। कहाँ गए वे सपने? कहाँ है जीवन? मैं यहाँ क्या कर रही हूँ? यहाँ मैं तारिका हूँ! लेकिन कितनी निकम्मी तारिका हूँ। यह जिंदगी कितनी पथरा गई है! बिल्कुल मूर्ति की तरह! मैं नामी-दामी तो हूँ, लेकिन मृत हूँ! अब मैं सिर्फ एक आवाज हैं। पाँच पन्ने का भाषण! अब मैं सिर्फ यादगार हैं! सिर्फ अतीत! सिर्फ भविष्य की उम्मीद! मैं निकल पड़ने वाली जीव नहीं हूँ! मैं आघात करने वाली जीव भी नहीं हूँ। मैं अपने दोनों हाथों से तोड़-फोड़कर धूल बना देने वाली नहीं हूँ। मैं शांत हूँ! समाहित हूँ!

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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