लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


इन दो सालों में, मैंने यह बात सबसे ज्यादा महसूस की है कि असल में सुयेनसन के साथ एक ही घर में रहना ही यह साबित करता है कि मैं बेहद भयावह तरीके से अकेली थी। मेरे एकाकी जीवन का सबसे भयंकर चित्र शायद यही था कि एक संग रहने का समझौता! जब मैं अकेली रहती थी, तब इतनी अकेली नहीं थी, जितनी मैं सुयेनसन के साथ रहते हुए अकेली हो गई। इंसान जब तक खौफनाक तरीके से अकेला न हो, शक्तिहीन न हो, आत्मविश्वासहीन न हो तो बिना किसी प्रेम-प्यार के, किसी मर्द के साथ जिंदगी गुजारने की बात सोच भी नहीं सकता। अगर मैं अकेली हूँ, तो कम-से-कम यह तो कहा जा सकता है कि मैं मजे में हूँ। कोई भी पुरुष मेरे साथ रहने के काबिल नहीं है या फिर कोई दबी-छिपी उम्मीद तो रहती है कि किसी-न-किसी दिन किसी से गहरा प्यार होगा और उसके साथ तीखी, आवेगभरी जिंदगी बिताऊँगी। अपने तन-वदन में हर पल मौत जैसा वर्फीला अकेलापन झेलते-झेलते, इंसान इन सपनों और संभावनाओं का गला घोंट देता है। कोई नहीं समझता-मेरे चारों तरफ जो एकांत छाया है, वह कितनी तेज और तीखा है। लोग तो यह समझते हैं कि मैं तारिका हूँ। मेरी व्यस्तता का कहीं, कोई अंत नहीं है, कोई सीमा नहीं है। मेरी जिंदगी, राग-अनुराग से भरी-पूरी है। लोग तो वस, यही अंदाजा लगा लेते हैं कि मेरा जीवन, प्यार के तालाब में खिले हए कमल जैसा है। लोगों का ख्याल है कि अनगिनत लोग मेरे प्रणय-प्रार्थी हैं, जो सिर्फ चुने जाने के इंतजार में हैं। काश, कोई जान पाता कि मेरा यह लिपा-पुता बरामदा-आँगन विल्कुल खाली है। कोई भी वहाँ प्रार्थी या उम्मीदवार बना नहीं बैठा है। मैं ही कंगले की तरह भीख माँगती हुई, हथेली फैलाए हुए हूँ। कभी-कभी मुझे अपने पर बेहद तरस आता है। ये सब बातें अगर मैं किसी को बताऊँ तो वह इसे कोरी गप कहकर, फूंक में उड़ा देगा।

बहरहाल सेक्स के मामले में, मैंने गौर किया है कि कोई भी मर्द मेरा आश्रय नहीं है। मैं खुद ही अपना आश्रय होती हूँ। अपनी सहाय मैं खुद बनती हूँ। स्वमैथुन ही मुझे सबसे ज्यादा निश्चित लगता है। मैं सबसे ज्यादा तीखी तृप्ति महसूस करती हूँ। ऐसे में मुझे किसी और पर निर्भर नहीं करना पड़ता। चातक पंछी की तरह मुझे किसी और की तरफ टकटकी बाँधकर नहीं देखना पड़ता।

मन ही मन मैं खुद बनती हूँ, अपनी प्रेमी,
उतारती हूँ अपने अंतर्वास!
चूमती हूँ, नाभिमूल, स्तन!
जब जाग उठती है देह, आधी रात को,
भोर खुद ही निवटाती हूँ मैथुन!
इस दूर प्रवास में, सिर्फ बूंद-भर जल में तैरते हुए,
मुझे अपनी नदी-भर प्यास बुझाना पड़ती है।

मैंने गौर किया है कि जब तीखी हताशा मुझे निगल लेती है, मेरे जिस्म में ज्वार उठने लगता है। ऐसा ज्वार, जो सैकड़ों सुडौल नौजवानों को पाकर भी शांत नहीं होने वाला। जब मैं हताशा से उबरती हूँ तो सेक्स की तीखी प्यास से भी काफी हद तक उबर आती हूँ।

बाहर जब मेरी तारिका होने की ख्याति चरम पर होती है, किसी को खबर नहीं होती कि अपने कमरे में मैं कैसी भयंकर उदासी झेल रही हूँ। वैसे मेरी इस गहरी उदासी के पीछे, पुरुषहीनता, कोई बहुत बड़ी वजह नहीं है, यह मैंने अपने रग-रग में महसूस किया है, क्योंकि दैनिक पुरुष-मिथुन के बाद भी, यह उदासी मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाती।



...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book