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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


लेकिन उसके बाद मैंने साफ-साफ कह दिया कि मुझे माफ करो, तुम लोग खुद ही काफी हो। सभी लोग हतप्रभ! सभी को मेरी जरूरत! उन लोगों का कहना था कि मैं ठहरी तारिका! चूँकि इस कार्यक्रम में मेरी कविताएँ होती हैं, इसलिए लोग-बाग टिकट खरीद-खरीदकर आते हैं, लेकिन मैंने भी उन्हें समझाया कि यह मुख्य रूप से संगीत-कार्यक्रम है। इसमें मेरी उपस्थिति का कोई मतलब नहीं होता। चूँकि मैंने कह दिया कि मेरा होना अर्थहीन है, इसलिए समूचे ग्रुप ने मुझे साथ रखने के लिए एड़ी-चोटी की कोशिशें कर डालीं मगर मुझे बूंद-भर भी डिगा नहीं सका। मैं खुद भी समझ रही थी कि मैं बेहद बेसब्री नज़र आ रही हूँ, लेकिन मेरी उपस्थिति नितांत अर्थहीन थी, यह एक वजह तो थी ही। एक और बड़ी वजह यह भी थी कि जाज़ संगीत मेरे दिल को जरा भी स्पर्श नहीं करता था। ईरन ने जब पूछा कि ये गाने मुझे कैसे लग रहे हैं, मैंने साफ जवाब दे दिया कि ये तमाम सुर मुझे कहीं से भी नहीं छूते । मैंने किसी के दिल पर मानो पत्थर दे मारा हो। स्टीव मशहूर जाज़ संगीतज्ञ! पारंपरिक जाज़ संगीत का एकमात्र जीवित मास्टर! उसके जाज़ सुरों की मूर्च्छना सुनने के लिए पश्चिम के लोग पागल रहते हैं, लेकिन मुझे लगता था कि मेरी कविताएँ भारतीय सुरों में ही अच्छी लगेंगी। 'शुभ विवाह' कविता के साथ होनी चाहिए, बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई और हरिप्रसाद की वाँसुरी। इससे बेहतर और कुछ हो ही नहीं सकता।

सबसे भारी धक्का लगा इरेन को! वह तो बिल्कुल हताश हो गई। ईरेन की जिंदगी में यही सबसे बड़ा कार्यक्रम था। वह तो वायलिन बजाया करती थी। हाँ, उसकी आवाज़ में सुर था। उस सुर की वजह से ही वह छुटपुट थोड़ा बहुत कर पाई थी। इससे पहले, वह इतने बड़े थियेटर में, इतने बड़े विज्ञापन में, इतने बड़े कार्यक्रम में, मुख्य गायिका के तौर पर कभी नहीं उभरी थी। उसे मेरे समर्थन की जरूरत थी। यूँ ईरेन से मेरी दोस्ती खासी गाढ़ी हो चुकी थी। बेहद प्यारी लड़की है। अपनी बातों से वह घंटों मुग्ध रख सकती है। बेहद धारदार वातें! सच बातें! अप्रिय बातें! रसीली बातें! लेकिन यही ईरेन कभी-कभी तीखी हताशा के कीचड़-कादे में गर्क हो जाती है। ये लोग सन् साठ के दशक के नशेवाज़ फनकार हैं। कला के प्यार में, धन-दौलत तक फेंक-फांककर, सड़कों पर निकल पड़नेवाली पीढ़ी! इन लोगों ने कुछ कम नहीं देखा । स्टीव बेहद मिलनसार, स्नेही, शरीफ आदमी! असंभव कर्मठ ! विभिन्न देशों से उसे हर महीने ही दस-बारह आमंत्रण तो मिलते ही हैं! इसी स्टीव को हर रोज गाँजे का सेवन करना पड़ता है। गाँजे को यहाँ कितने ही नाम दिए गए हैं-ग्रास, ज्वाएंट, पॉट, ब्लांट हवं, हशीश! चूँकि जाज़ संगीतज्ञ इस नशे का सेवन करते हैं, इसलिए पश्चिम में, खासकर अमेरिका में, बीस-तीस के दशक में गाँजे का नाम काफी मशहूर हो गया था।

मैं जरा खामख्याली हूँ, यह सच है। कुछ भी मुझे खास नहीं लगता। मैं टाल जाती हूँ या दरगुज़र कर देती हूँ। पता नहीं क्या-क्या करती हूँ। यह ज़ाज सुरों वाला ऑपेरा, मेरी ‘कप ऑफ टी' नहीं है इसलिए तुम लोग जो कर रहे हो, करो! मैं बाधा नहीं दूंगी, लेकिन मैं 'ऑफ'। मैं भारतीय शास्त्रीय संगीत की गहराई में डूब गई। एमस्टरडम के रास्ते पर एक बार कोई शख्स वाँसुरी बजा रहे थे। गाड़ी रोककर मैं उस बाँसुरीवादक तक दौड़ गई। मैंने उससे दरयाफ्त किया- "आपने हरिप्रसाद चौरसिया का नाम सुना है।'' डच व्यक्ति ने छूटते ही जवाब दिया-“वेशक, सुना है। मेरे पास उनकी एक सी डी भी है।" यह सुनकर मैं इस कदर भावविभोर हो उठी कि उस अपरिचित बाँसुरीवादक से मैं पूरे दो घंटों तक बातें करती रही। वहीं बैठकर उसकी बाँसुरी सुनती रही। जब मैं अपने देश में थी, उन दिनों भी शास्त्रीय संगीत को इतनी गहराई से प्यार नहीं किया था। परदेस ने मुझे काफी कुछ दिया है, यह सुर भी उसकी अन्यतम देन है। जब मैं अकेली होती हूँ। अपने कमरे में फफक-फफककर रो पड़ती हूँ। परदेस में विषाद में डूबी होती हूँ। उस वक्त भी क्या यूँ रोती हूँ? मुझसे ज़्यादा तो हरिप्रसाद की बाँसुरी रोती है।

मुझे लेकर इतनी धूमधाम ! इतना सिर चढ़ाना! गोरे लोगों के साथ जीवनयापन! वहाँ अचानक, रास्ते-घाट पर किसी बादामी चेहरे पर नज़र पड़ जाती है तो मैं उसे मुड़-मुड़कर देखने लगती हूँ। यह जो मैं पलटकर देखती हूँ, वह क्या इसलिए कि मैं भूल चुकी हूँ कि मेरा भी रंग बादामी है या इसलिए देखती हूँ, क्योंकि मैं जानती हूँ कि वह मेरी ही तरह वादामी इंसान है या फिर मैं गोरे, बादामी, काले, पीले-बदन के इन सब रंगों से ऊपर उठ गई हूँ। काफी हद तक इस दुनिया का रंग चिड़ियों की आँखों से देखती हूँ। इंसानों का रंग भी! लेकिन यह सच है कि चारों तरफ जब गोरों की भरमार हो, वहाँ बादामी रंग निगाह में आता है। लैटिन अमेरिका का बादामी, मध्य-प्राच्य का वादामी, यूरोप-अमेरिका का काला-सफेद मिला-जुला बादामी, चीनी बादामी और उपमहादेशीय बादामी! भारतीय उपमहादेशीय बादामी रंग पर निगाहें अटकी रह जाती हैं। वे लोग देशी प्राणी लगते हैं। इन देशी लोगों में, कोई भारत का है, कोई पाकिस्तान का, कोई नेपाल का, श्रीलंका या बांग्लादेश का! मेरा बेहद जी चाहता है, इन लोगों के साथ बात करूँ! लेकिन नहीं, यहाँ बात करने का नियम नहीं है। तुम नहीं जानते कि उन लोगों के मन में क्या है इसलिए उन लोगों को नज़रअंदाज़ करके चलना ही बेहतर है। मेरे लिए अगर सुरक्षित कुछ है, तो वे हैं
गोरे लोग! न काले, न वादामी! यही है, सुरक्षाकर्मियों का विश्वास! धीरे-धीरे मेरे अंदर भी यह विश्वास संक्रमित हो गया। लंबे अर्से से मैंने काले या वादामी की तरफ पलटकर नहीं देखा। उन पर नज़र पड़ भी जाती थी तो मन में एक अदभत प्रतिक्रिया होती थी। मैं फौरन अपना ध्यान किसी और तरफ फेर लेती थी। जब मैं अपने देश में थी, मुझे पाकिस्तान, भारत, श्रीलंका ही अलग-अलग देश लगता था, लेकिन अब वे सभी देश नितांत अपने देश लगते हैं। उन तमाम देशों के लोग-वाग अपने देश के लोग लगते हैं! बिल्कुल आत्मीय!

मुझसे मिलने के लिए 'भाई' बर्लिन आए। भाई या छोटू भइया को पाकर, मेरी जान में जान आ जाती है। जब वे स्वदेश वापस जाने लगते हैं, मैं अपना ढेरों सामान उनके साथ कर देती हूँ मानो कल-परसों में भी अपने देश लौटने वाली हूँ। मुझे परदेस की धरती पर इन सब चीज़ों की जरूरत नहीं पड़ती। मेरे सारे सामान, मेरे देश में ही रहें। मेरे शांतिनगर वाले घर में संरक्षित रहें। अपना सामान-असवाब, अपने घर में ही रहे तो बेहतर! मैं तो स्वदेश लौट ही जाऊँगी! मैं तो वापस लौटूंगी ही!


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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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