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कविता संग्रह >> दिल हूँ ना

दिल हूँ ना

राजेन्द्र राज

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :215
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4932
आईएसबीएन :81-7043-679-6

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प्रेम कविताएँ...

Dil Hoon Na

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दिल हूँ न

टूटा हूँ मैं
काँच की मानिन्द
बिखर गया हूँ
तिनके की तरह
‘दिल हूँ ना’

धड़कनों के दरमियां
कितने दरिया थमे-थमे
बह गया हूँ
लहरों की तरह
‘दिल हूँ ना’

किसी के आने का भ्रम
थकी पलकें हुई नम
छलक गया हूँ
अश्कों की तरह
‘दिल हूँ ना’

कोई गम नहीं
किसी खुशी का दम नहीं
धड़क रहा हूँ
धड़कनों की तरह
‘दिल हूँ ना’

कोई निशा आती नहीं
सुबह भी सहलाती नहीं
गुन्जन गीत गाती नहीं
निखर गया हूँ
नग़्मों की तरह
‘दिल हूँ ना’

जाना कहाँ है
मन्जिल खबर नहीं
भटक गया हूँ
भँवरे की तरह
‘दिल हूँ ना’

मेरी साँसें धुली हैं
तेरी ख़ुशबू में घुली हैं
महक गया हूँ
गेसुओं की तरह
‘दिल हूँ ना’

जाओ कह दो बहारों से
सुला दें सितारों को
जल रहा हूँ
दीये की तरह
‘दिल हूँ ना’

सावन से कह दो
ना आए यहाँ पर
बरस रहा हूँ
बूँदों की तरह
‘दिल हूँ ना’

अदाओं के सितम
आशिक़ी की कसम
सह रहा हूँ
फूलों की तरह
‘दिल हूँ ना’

मुस्कान मेरी मिसाल है
मुहब्बत की झनकार है
बज रहा हूँ
घुँघरू की तरह
‘दिल हूँ ना’

सर्द हवा के झोंके
मौन हो गए हैं
मुझे चाहने वाले
चेहरे खो गए हैं

ढूँढ़ रहा हूँ
जुगनूँ की तरह
‘दिल हूँ ना’।

शायद कहीं पर

शायद कहीं पर
नमी मुस्कराहट की
ओस चाहत की
ख़ुशबू का महका बसेरा
कहकहों का दिलकश सवेरा

शायद कहीं पर
धुन्ध के दरमियाँ
कोहरे में नहाती
बाहर खिलखिलाती

शायद कहीं पर
अन्जुमन नजारों का
आँगन सितारों का
चाँदनी रिमझिम-सी
बरखा मद्धिम-सी

शायद कहीं पर
सुकून के पैरों के निशां
निश्छल निष्कपट
आवरणरहित आकांक्षा
आरज़ू को गले लगाती

शायद कहीं पर
भोर मुस्कराती
सन्ध्या से बतिआती
निशा से लिपट जाती

ज़िन्दगी जहाँ हो
गीत गाती
मुकम्मल मुरादों का घर
शायद कहीं पर।

आना तुम

बरखा चली गई
वोह् बात ना रही
कोहरे की प्यास है
फिर दिल उदास है
‘आना तुम’

शाम घनी-घनी
धुआँ ठहरा-ठहरा
निशा की पलकों में
बादलों का बसेरा

बदली के बदन से गुजर के
सितारों के फर्श पे चलके
धीमी-धीमी रोशनी में
‘आना तुम’

तड़प बेहिसाब है
ये इश्क़ लाजवाब है
दीवाना बेताब है
‘आना तुम’

सागर-सी मुहब्बत
लहरों-सी बेकरारी
चाहत की कश्ती में
‘आना तुम’

निन्दिया कबसे सोई नहीं है
आरज़ू भी तो खोई नहीं है
जुस्तज़ू के झरोखे से
अक्स अपना दिखलाना तुम
‘आना तुम’।

दुःख होता है

दुःख से दिल
भर गया अपना
इस कदर दुःख
होता नहीं
किसी बात का

तुम आईं ज़िन्दगी में
तुम चली गईं
दुःख होता नहीं
इस बात का

माँगी थी मुस्कान हमने
तुम्हारे होठों से ये सोचकर
जख़्म भर जाएँगे
चाहत के मरहम से

मुस्कराईं तुम
मेरे हालात पर
दुःख होता नही

इस बात का

बखूबी निभाया
तुमने यराना
जन्मों के
बन्धन का

झूठी कसमों के सहारे
कितनी दूर चली जाओगी
जिगर को जब भी कुरेदोगी
मेरे ही निशां पाओगी

नागिन सी
बलखा के
जब यादों में
उलझ जाओगी

आरजू को डसने
फिर चली आओगी
दुःख होता नहीं
मुलाकात का

सपनों के मंजर पे
सौदा कर लिया तुमने
सपेरों से
सिक्कों के बदले

सम्पदा के फर्श पर
कितने दिन सो पाओगी
सुकून-ए-दिल पाओगी
सुकून-ए-दिल को
जब तरस जाओगी
मेरी ही तरह छटपटाओगी
दुख होता नहीं इत्तिफ़ाक़ का

फरेब है जो कुछ भी
लूट लो सारा
रह जाए न बाकी
कहीं कोई
विष का प्याला

इतना विष पीकर
विषकन्या बन जाओगी
पीकर ज़िन्दगानियों को
दर्द का सिला बढ़ाओगी

दुःख होता है
इस बात का।’’

एक परछाँई

एक परछाँई
पुराना प्यार
आरज़ू के आईने में
लम्हों का खुमार

बेजान मूरत हुस्न की
कभी बोला करती थी
दिल के राज़ सभी
खोला करती थी

उसकी साँसों की सुगन्धि
मेरी धड़कनों को
छुआ करती थी
खौलते हुए खून को
सर्द किया करती थी

एक परछाँई...
..........................
ख़्वाब खाली खण्डहर हैं
कभी सजा करते थे
खुशियों को खरीदने की
ख़्वाहिश रखा करते थे

उसकी ज़ुल्फ़ों के धागे
मेरी कशिश पिया करते थे
रूह की प्यास को
मदहोश किया करते थे

एक परछाँई...
..........................
जल्वों के जीने से
जीनत उतरा करती थी
साँसों की रफ़्तार को
तेज किया करती थी

उसके गालों के गुलदस्ते
मेरे होठ छुआ करते थे
महके हुए अरमानों को
बेहोश किया करते थे

एक परछाँई....
.............................
दिलकश दिलनशीं दिलरुबा
हर रोज़ मिला करती थी
मुहब्बत की मदिरा को
पलकों से पिया करती थी

उसकी कंचन काया
मेरी कसक छुआ करती थी
शरम-ओ-हया की मूरत
मेरी बाँहों में हुआ करती थी

एक परछाँई...
..............................
जलते हुए जमाने की
पिघलती हुई पनाहों में
अपनी मुहब्बत बेजान हुई
दिल की बस्ती वीरान हुई

एक परछाँई
पुराना प्यार
आरज़ू के आईने में
लम्हों का खुमार

प्यार के पलछिन

प्यार के पलछिन
सहेज कर रख न पाई वो
कह दिया झुकी पलकों ने
लब कह न पाए जो

ज़ुल्फ़ों के रेशमी गुच्छों से
उठती हुई ख़ुशबू ने
राज़-ए-दिल किया बयां
धड़कनें कर न पाईं जो

धुआँ था मुहब्बत का
सुलगते हुए सीने में
साँसों ने सुना दिया
चाहत सुना न पाई जो

बलखाती लहराती तितली
बरसती रिमझिम बिजली
छू लिया जो हमने
वो शीतल फुहार निकली

मुट्ठी-भर तकदीर से
जहां हसीं मिलता नहीं
ताज़-ओ-तख्त की छोड़िए
दिल का दिया जलता नहीं

नहीं खून रगों में
माँग भर दें जो हुस्न की
फूँक डाला हर कतरा
इश्क़ के नाम पर

इनायत है ये उनकी
शख़्सियत पे छाई वो
मुहब्बत की थी हमने
इबादत कर ना पाई वो

हो गई किसी की
मेरी हो न पाई जो
इज़हार क्या समझेगी
इकरार कर ना पाई जो

पूछा तो होता हमसे
दिल में हमारे क्या है
कहा तो होता तुमने
अरमां तुम्हारे क्या हैं

ऐसे कैसे मोड़ पे
तनहा हमें छोड़ के
रोशन रात की शहनाई
अपनी आरज़ू हुई पराई

परछाँई से प्यार
किया था हमने
धूप में जो थी हमसफर
साँझ में है वो बेखबर

ख़्वाब टूटे, रिश्ते झूठे
कश्ती डूबी, साहिल छूटे
कसमें निभा ना सकी जो
रस्में क्या निभाएगी वो

वादों ही हथेली पे
लिखती थी नाम हमारा
एहसासों की रेत पे
बनाती थी घरौंदा प्यारा

प्रीत की रीत को
तोड़ के मुस्काई वो
मोम-सी पिघल गई
तड़प सह न पाई जो

उड़ गयी हंसनी
तनहा हमें छोड़ के
झील का पानी सारा
पी गया मैं फव्वारा

फसानों की गुड़िया
फूलों की सेज़ पे
सुकून को पिएगी कैसे
वफ़ा पी न पाई जो

आसां नहीं जाने जानाँ
निशान-ए-मुहब्बत मिटाना
कह देती हैं निगाहें
आरज़ू का अफसाना

प्यार के पलछिन
सहेज कर रख ना पाई वो
कह दिया झुकी पलकों ने
लब कह न पाए जो।

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